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मानवाधिकार : उदारवादी दृष्टिकोण | |||||||
Human Rights: Liberal Approach | |||||||
Paper Id :
16866 Submission Date :
2022-12-13 Acceptance Date :
2022-12-23 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
मानवाधिकार को अधिकार के एक व्यापक विमर्श के रुप में देखा जाता है। इस धारणा को समझने के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उन तर्क-वितर्क को घ्यान में रखा जाये जो इसके विचारकों ने प्रस्तुत किये है। इस अर्थ में मानवाधिकार ऐसे अधिकार है जो प्रत्येक मनुष्य को केवल मनुष्य होने के नाते प्राप्त है। उनकी जाति, राष्ट्रीयता या किसी विशेष सामाजिक समूह की सदस्यता के आधार पर नही है। यह अधिकार मानवीय गरिमा और उपयुक्त जीवन स्तर के न्यूनतम शर्तो को व्यक्त करते है ये न तो अर्जित किये जा सकते है न ही वंशानुगत होते है और न ही किसी समझोते के माध्यम से निर्मित किये जा सकते है। मानवाधिकारों के व्यवहारिक व सैद्धांतिक पक्ष को जानने के पश्चात् यह कहां जा सकता है कि तृतीय विश्व के देशों को मानवाधिकारों के उदारवादी मॉडल के रुप में व्याख्या वे अपने देशों के संदर्भ में अपनी देश काल परिस्थितियों के संदर्भ में ग्रहण करें जिससे उनकी विसंगतियों से बचा जा सके। जनसंख्या वृद्धि, बेरोजगारी, अशिक्षा, स्वास्थ्य, लिंग असमानता, महिला उत्पीड़न, भ्रष्टाचार, आंतकवाद, सामाजिक प्रदूषण, सांस्कृतिक क्षरण, पारिस्थितिकीय असंतुलन जैसी समस्याऐं मानवाधिकार को प्रभावित कर रही है। समकालीन समय में उदारवाद में मानवाधिकारों की समाजवादी मूल्यों को स्थान दिया है जैसे- खाद्यान का अधिकार, सूचना का अधिकार व आवास संबंधी अधिकार। इससे आज उदारवादी व्यवस्था स्थायित्व की ओर अग्रसर हो रही है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Human rights are seen as a comprehensive discussion of rights. To understand this concept, it becomes necessary to keep in mind the arguments that have been presented by its thinkers. In this sense, human rights are such rights that every human being has only by virtue of being a human being. not on the basis of their race, nationality or membership of any particular social group. These rights express the minimum conditions of human dignity and decent standard of living, they can neither be acquired nor inherited nor created through any agreement. After knowing the practical and theoretical side of human rights, where can it be said that third world countries should adopt interpretation of liberal model of human rights in the context of their countries, in the context of their own country's circumstances, so that their inconsistencies can be avoided. Problems like population growth, unemployment, illiteracy, health, gender inequality, women oppression, corruption, terrorism, social pollution, cultural erosion, ecological imbalance are affecting human rights. In contemporary times, liberalism has given place to socialist values of human rights such as right to food, right to information and right to housing. Due to this today the liberal system is moving towards stability. | ||||||
मुख्य शब्द | वैश्विक, मानवाधिकार, समाज, क्रांति, मानवीय गरिमा। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Global, Human Rights, Society, Revolution, Human Dignity. | ||||||
प्रस्तावना |
मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर ही वह अपना संपूर्ण विकास करना चाहता है इसके लिये व्यक्ति को अपनी अन्तर्निहित शक्तियों के विकास के उचित अवसर प्राप्त करना आवश्यक है। इस प्रकार का उचित अवसर नहीं मिलने पर व्यक्ति का व्यक्तित्व बाधित हो जाता है जिससे उसका संपूर्ण विकास नहीं हो पाता है तथा उसकी क्षमतायें अविकसित रह जाती है, जिससे उसका जीवन संपूर्णता को प्राप्त नहीं कर पाता है। मानवता का इतिहास इस तथ्य को व्यक्त करता है कि प्रत्येक मानव समाज में व्यक्ति की गरिमा तथा व्यक्ति एवं समाज के मध्य संबंधों को व्यक्त करने का सक्रिय प्रयास किया गया है। सामाजिक नैतिकता, व्यक्तिगत मूल्य, जन्म व लिंग इन मूल्यों के निर्धारण में समाज द्वारा महत्वपूर्ण भूमिका निभायी जाती रही है।
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. मानवाधिकारों का सैद्धांतिक एवं व्यावहारिक अध्ययन करना।
2. मानवाधिकार अवधारणा, घोषणा पत्र तथा मानवाधिकार आयोग के प्रावधानों एवं कार्या का अध्ययन करना।
3. मानवाधिकारों के उदारवादी दृष्टिकोण के विचारधारात्मक एवं सैद्धांतिक पक्ष का अध्ययन करना।
4. वर्तमान विश्व में उदारवादी विचारधारा को मानवाधिकारों के आधार पर स्पष्ट करने का प्रयास किया गया है। |
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साहित्यावलोकन |
साहित्य समीक्षा
सुभाष शर्मा, ‘‘भारत में मानवाधिकार‘‘, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, 2009
समाज के विभिन्न वर्गों के हितों को ध्यान में रखकर उक्त पुस्तक लिखी गई है। लेखक के अनुसार आज यह आवश्यक हो गया है कि भारत के सभी नागरिक यह जाने की भारतीय संविधान तथा अन्य कानूनों के अनुसार उन्हें क्या-क्या अधिकार प्राप्त है तथा उनका उल्लंघन होने पर सही समय पर किस प्रकार कैसे कानूनी कार्यवाही की जानी चाहिए। इस पुस्तक में बंधुआ मजदूरी प्रथा, कैदियों की दुर्दशा, बच्चों एवं महिलाओं के मानवाधिकार, काम, भोजन, सूचना और स्वच्छ पर्यावरण का अधिकार तथा अल्पसंख्यकों के मानवाधिकार आदि का ज्वलंत मुद्दों को विश्लेषित किया गया है।
आशा कौशिक, ‘‘मानवाधिकार और राज्य, बदलते संदर्भ, उभरते आयाम‘‘ पोईन्टर पब्लिशर्स, जयपुर, 2004
प्रस्तुत पुस्तक में मानवाधिकारों के वैचारिक, राजनीतिक, विधिक एवं संस्थागत पक्षों को उजागर किया गया है। इस क्रम में भारतीय संदर्भ में मानवाधिकारों का विश्लेषण करते हुए वर्तमान संवैधानिक एवं विधिक व्यवस्था का उल्लेख किया गया है। संपादिका केअनुसार मानवाधिकारों की आवश्यकता निर्विवादित होते हुए भी उनसे संबंधित अनेक पक्ष विवादित रहें है और संभवतः भविष्य में भी रहेंगे क्योंकि मानवाधिकारों का प्रश्न निरपेक्ष रुप से व्यक्तिगत, सामुदायिक, राष्ट्रीय एवं वैश्विक नही है। भारतीय संदर्भ में सम्पूर्ण स्वतंत्रता संग्राम मानवाधिकारा संघर्ष का ही रुप था। अतः भारत में मानवाधिकारों की विवेचना, स्वाधीनता के संदर्भ में ही संभव है।
अरुण राय, ‘‘भारत का राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग गठन कार्य और भावी परिदृश्य‘‘, राधा पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2005
प्रस्तुत पुस्तक के अन्तर्गत मानवाधिकारों के सैद्धान्तिक मूल्यों को उजागर करते हुए राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग की स्थापना एवं संरचना तथा मानवाधिकार संरक्षण में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के पक्ष को रेखांकित किया गया है। इस क्रम में लेखक ने सरकारी एवं गैरसरकारी संगठनों के मध्य सहयोग को मानवाधिकारों के विकास के लिए आवश्यक माना है।
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मुख्य पाठ |
सामाजिक जीवन की ऐसी अवस्थायें जिसमें मानव को अपने
व्यक्तित्व का संपूर्ण विकास करने हेतु समान व उपयुक्त परिस्थितियां और संरक्षण को
मानवाधिकार कहा जा सकता है। साधारण भाषा में कुछ मूलभूत मानवाधिकार है, जिन्हें व्यक्ति या समाज से अलग नहीं किया जा सकता है। इस
प्रकार ये अधिकार जन्मजात है, इन्हें मानव से अलग नहीं किया
जा सकता तथा अपने प्राकृतिक स्वभाव में वैश्विक है क्योंकि समस्त मानव समाज के
लिये अनिवार्य है। समसामयिक समय में मानवाधिकारों पर सर्वाधिक ध्यान दिया जा रहा
है। वर्तमान युग संविधानवाद और लोकतंत्र का है तथा प्रत्येक विकासशील व सभ्य राज्य
अपने नागरिकों को कुछ न कुछ अधिकार प्रदान करता है जिनका प्रयोग व कानूनी व सीमाओं
में रहकर करते है। मानवाधिकार नैतिक व वैध हो सकते है। नैतिक अधिकार वे है जो
लोगों की नैतिकता पर आधारित है। इन अधिकारों का राज्य के नियमों द्वारा अनुमोदन
नहीं होता और इसलिये इनका उल्लंघन भी कानूनी रूप से दण्डनीय नहीं माना जाता है;
इनका पालन व्यक्तिगत होता हैं जबकि नैतिक अधिकारों के विपरीत कानूनी
अधिकारों को न्यायिक संरक्षण प्राप्त होता हैं तथा कानूनी अधिकारों में नागरिक व
राजनीतिक दोनों अधिकार सम्मिलित होते है। सभी लोगों को इनका आवश्यक रूप से पालन
करना पड़ता है तथा इनका उल्लंघन करने पर राज्य द्वारा व्यक्ति को दण्डित किया जा
सकता है। व्यक्ति की गरिमा के क्षेत्र में अधिकारों की प्रमुखता आधुनिक युग के
प्रमुख वैज्ञानिक आविष्कारों के पश्चात् उजागर हुयी। इससे पूर्व अधिकारों की कोई
दार्शनिक व्याख्या का विवेवन स्पष्ट रूप से प्रतीत नहीं होता है। समता के सिद्धांत
पाश्चात्य दर्शन में, यूनान की प्राचीन सभ्यता में भी
प्रतिपादित हुये है। प्लेटों और अरस्तु दोनों ने ही समता के अपने-अपने मानदण्ड
प्रस्तुत किये किन्तु समता के सिद्धांत को आदर्श समाज का मूलभूत तत्व माना।
प्राचीन काल में समता का आदर्श तो था किन्तु अधिकार के रूप में इसकी मांग नहीं थी।
आधुनिक काल में वैज्ञानिक आविष्कारों ने उद्योगों को जन्म दिया और उद्योगों ने
जीवन को भौतिकवादी बना दिया। भौतिकवाद के इस आर्थिक पक्ष ने समाज को दो वर्गो में
विभक्त कर दिया और इसी से इन वर्गो के बीच संघर्ष प्रारंभ हो गया।[1] आधुनिक काल में मानवाधिकारों के लिये संघर्ष ब्रिटेन में 13वीं शताब्दी से प्रारंभ हुआ। सन् 1215 में प्रसिद्ध
मैग्नाकार्टा की घोषणा से ब्रिटिश संसद को राजा पर नियन्त्रण का अधिकार मिला।
मानवाधिकारों की अभिव्यक्ति व विकास में जॉन लॉक, मॉन्टेस्क्यू,
वाल्टेयर और रूसों का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्रिटेन में सन् 1688
की गौरवपूर्ण क्रांति के संबंध में जॉन लॉक ने कहा है कि अधिकार
स्पष्ट रूप से व्यक्ति को मानव होने के नाते प्राप्त है क्योंकि वे प्राकृतिक
अवस्था में विद्यमान थे जिसमें प्रमुख रूप से जीवन, स्वतन्त्रता
व सम्पत्ति का अधिकार सम्मिलित है।[2] फ्रांसिसी क्रान्ति (1789)
तथा अमरीकी क्रान्ति (1776) से पहले
मानवाधिकार एक दार्शनिक अपील के रूप में माना जाता था परन्तु अमरीकन संवैधानिक बिल
ऑफ राइटस और फ्रांसिसी क्रांति में मानवाधिकार घोषणा के पश्चात यह वास्तविक महत्व
का विषय बन गया। अतः मूलरूप से मानवाधिकारों को स्वीकार करने से ही मानव सभ्यता का
विकास संभव हुआ। किसी व्यक्ति के मानव होने और मानव बने रहने के लिये इन अधिकारों
का होना अनिवार्य है।[3] मानवाधिकार की सार्वभौमिक अवधारणा का उदय द्वितीय
विश्वयुद्ध की समाप्ति के पश्चात और संयुक्त राष्ट्र की स्थापना के बाद हुआ।
अन्तर्राष्ट्रीय समुदाय ने सभी लोगों के मूल अधिकार व मूल स्वतन्त्रताओं के प्रति
आदर को मान्यता प्रदान की। वैश्विक स्तर पर सभी मानवों को समान अधिकार दिलाने के
लिये संयुक्त राष्ट्र के तत्वावधान में एक मानवाधिकार आयोग का गठन किया गया। इस
आयोग की अध्यक्षा श्रीमती सजवेल्ट बनी। इसी आयोग द्वारा मानवाधिकारों की
विश्वव्यापी घोषणा का प्रारूप तैयार किया गया जिसे महासभा की सामाजिक समिति ने 7 दिसम्बर सन् 1948 को स्वीकार कर लिया व 10
दिसम्बर 1948 को महासभा की सहमति प्रदान की
गयी, जिसके अन्तर्गत नागरिक और राजनीतिक अधिकारों के साथ-साथ
आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक अधिकार भी सम्मिलित किये गये
है। इस दिन को आज विश्व के लगभग सभी देशों में मानवाधिकार दिवस के रूप में मनाया
जाता है। मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा के मुख्य उद्देश्य इस प्रकार है - मानव
परिवार के सभी सदस्यों की अंतर्निहित गरिमा एवं सम्मान तथा अहरणीय अधिकारों की
मान्यता विश्व में स्वतन्त्रता, न्याय एवं शांति की आधारशिला
है, दुनिया में सारे मानव अभिव्यक्ति एवं आस्था की
स्वतन्त्रता का उपभोग करेगें तथा भय एवं अभाव से मुक्त होंगे। मानवाधिकारों का
संरक्षण विधि के शासन द्वारा किया जाना आवश्यक है तथा संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से
सदस्य राष्ट्रों ने स्वयं मौलिक स्वतन्त्रताओं तथा मानवाधिकारों के सार्वभौमिक
सम्मान तथा कार्यान्वयन के संवर्द्धन हेतु संकल्प लिया है। संयुक्त राष्ट्र की
महासभा ने मानवाधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा को ध्यान में रखते हुये कहा कि
प्रत्येक व्यक्ति तथा समाज का प्रचार एवं शिक्षण के द्वारा इन अधिकारों एवं
स्वतन्त्रता के लिये सम्मान में संवृद्धि करने का प्रयास करेगा तथा राष्ट्रीय व अन्तर्राष्ट्रीय
प्रगतिशील उपायों के द्वारा स्वयं सदस्य राष्ट्रो के लोगों के बीच, उनकी सार्वभौमिकता तथा प्रभावकारी मान्यता एवं कार्यान्वयन की स्थिति
सुनिश्चित करने का प्रयास करेगा।[4] मानवाधिकार आयोग
अन्तर्राष्ट्रीय बिल, नागरिकों की स्वतन्त्रता, महिलाओं की स्थिति, सूचना की स्वतन्त्रता व अन्य
अन्तर्राष्ट्रीय घोषणा, अल्पसंख्यकों को संरक्षण, मूल निवास, वंश, भाषा, धर्म या लिंग पर आधारित भेदभाव को रोकने के संबंध में अपना प्रतिवेदन व
सिफारिश देने के लिये प्राधिकृत है। मानवाधिकार आयोग मानवाधिकारों के उल्लंघन के
प्रकरणों का अन्वेषण और आवश्यक कार्यवाही भी कर सकेगा। मानवाधिकार विषय का अध्ययन,
सिफारिश करने का कार्य भी आयोग करेगा। संयुक्त राष्ट्र संघ की
मानवाधिकारों की वैश्विक घोषणा (10 दिसम्बर, 1948) के अनुच्छेद 1 और 2 में
मानवाधिकारों को परिभाषित करते हुये कहा गया है कि सभी मनुष्य समान अधिकार व
सम्मान लेकर जन्म लेते है तथा उन्हें वैश्विक घोषणा में वर्णित सभी अधिकार और
स्वतन्त्रता जाति, रंग, लिंग, भाषा, धर्म, जन्म या अन्य
स्थितियों के बिना किसी भेदभाव के स्वतः मिल जाते है। मानव अधिकार व्यक्ति की उन स्थितियों की घोषणायें है
जो उसके जीवन के लिये आवश्यक ही नहीं वरन् उसके सर्वागींण विकास के लिये भी
अनिवार्य है। यह मानवाधिकारों की व्यापक व्याख्या है जिसमें उसके जीवन के अधिकारों
से संबंधित प्रश्न तो है ही साथ ही उन आवश्यकताओं का उल्लेख भी है जो उसके विकास
के लिये आवश्यक है जिनमें स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन
की मूलभूत आवश्यकता सम्मिलित है।[5] प्रत्येक मानव इन
अधिकारों का हकदार है क्योंकि ये अधिकार उसे मानव के रूप में जन्म लेने के आधार पर
मिलते है। साथ ही मानव व्यक्तित्व का विकास इन मानवाधिकारों से जुड़ा हुआ है जैसे
शिक्षा का अधिकार, अच्छी कार्य दशा का अधिकार आदि मिलने पर
ही व्यक्ति विकास कर सकता है। युद्धबंदी या अभियुक्त, बालक
या प्रौढ़, महिला हो या पुरूष हर मानव की गरिमा का रक्षा
आवश्यक है। मानव की प्रसन्नता के लिये इन मानवाधिकारों की रक्षा की जानी आवश्यक
है। प्रत्येक मानव के सुख की ये पूर्व शर्त है, अतः प्रत्येक
मानव को मानव अधिकार बिना किसी भेदभाव के प्राप्त है चाहे वह किसी प्रजाति,
लिंग, भाषा, रंग व धर्म
से संबंध रखता हो।[6] मानव समाज में विभिन्न स्तरों पर कई तरह के विभेद
मौजूद है। भाषा, रंग, मानसिक
स्तर, प्रजातीय स्तर आदि। इन स्तरों पर मानव समाज में भेदभाव
का व्यवहार किया जाता रहा है। इन सबके बावजूद कुछ अनिवार्यतायें सब समाजों में
समान है। यही अनिवार्यता मानव अधिकार है, जो एक व्यक्ति को
मानव होने के कारण मिलना चाहिये। वस्तुतः अधिकारों का अस्तित्व संगठित समाज में ही
संभव है। यह मनुष्य के सर्वांगीण विकास हेतु अति आवश्यक है। अधिकार के विषय में
लास्की ने कहा है कि अधिकार सामाजिक जीवन की वे स्थितियां है जिसके अभाव में कोई
व्यक्ति सामान्यतयाः अपने सर्वोत्तम स्वरूप की अनुभूति नहीं कर सकता। अधिकार वह
अनुकूल स्थितियां और अवसर है जिनसे व्यक्ति को आत्म विकास में सहायता मिलती है।[7]
अधिकारों को कई दृष्टियों से देखा गया है। मानव अधिकार कानूनी रूप
से सामाजिक एवं नैतिक रूप से परिभाषित किया गया है। मानव अधिकार मानवीय स्वभाव में
ही अन्तर्निहित है तथा अधिकारों की अनिवार्यता मानव व्यक्तित्व में समग्र विकास के
लिये सदैव से रही है। मानवाधिकारों से तात्पर्य मनुष्य के मानव होने के लिये
आवश्यक अधिकारों से होता है। मानव अधिकार एवं मानव गरिमा की धारणा के बीच घनिष्ट संबंध है। अतः वे अधिकार जो मानव गरिमा को बनाये रखने के लिये आवश्यक है उन्हें
मानव अधिकार कहा जाता है। मानव अधिकार समाज में ऐसा वातावरण उत्पन्न करते है
जिसमें व्यक्ति निर्भिक रूप से समानता व मानव गरिमा के साथ जीवन यापन कर सकता है। मानव अधिकारों का वर्गीकरण दो आधारों पर किया जा सकता
है, पहला जीवन के विभिन्न क्षेत्रों के आधार पर और दूसरा इन
अधिकारों के बनाये रखने वाले संवैधानिक या कानूनी अधिकार के द्वारा। प्राकृतिक
अधिकार रूप में वे अधिकार है जो मानव स्वभाव में निहित है। स्वप्रज्ञा का अधिकार,
मानसिक स्तर का अधिकार तथा जीवन का अधिकार आदि इसी श्रेणी में आते
है। नैतिक अधिकार भी निष्पक्षता और न्याय के सामान्य सिद्धांत पर आधारित है। समाज
में मनुष्य इन अधिकारों को प्राप्त करने का आदर्श रखता है। इसी तरह मौलिक अधिकार
वे अधिकार है जिनमें बिना मनुष्य का विकास नहीं हो सकता है। जैसे जीवन का अधिकार
मानव जीवन का मूलभूत अधिकार है। इन अधिकारों की रक्षा करना प्रत्येक राज्य व समाज
का मूल कर्तव्य है। इसी संदर्भ में कानूनी अधिकार का तात्पर्य है कि प्रत्येक
व्यक्ति बिना किसी भेदभाव के कानून के समक्ष समान समझा जायेगा तथा साथ ही कानूनों
का समान संरक्षण भी दिया जायेगा। नागरिक, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक अधिकार बहुत व्यापक
होते है। प्रत्येक राज्य में अपनी परम्परा व सभ्यता के अनुसार इन अधिकारों को लागू
किया जाता है जैसे समाजवादी राज्यों में काम का अधिकार व समानता का अधिकार
महत्वपूर्ण है तो दूसरी तरफ पूँजीवादी राज्यों में स्वतन्त्रता का अधिकार, सम्पत्ति का अधिकार अधिक महत्वपूर्ण है। यह निर्धारण करना कठिन है कि
कौनसा अधिकार महत्वपूर्ण है और कौनसा कम है। मानवाधिकारों के उदारवादी दृष्टिकोण
के अनुसार मनुष्य के मूलभूत अधिकारों की पूर्ण सुरक्षा होनी चाहिये जिससे प्रत्येक
व्यक्ति अपने पूर्ण विकास की दिशा में विकास कर सके व सामाजिक उद्देश्यों की
पूर्ति में अपना योगदान कर सके तथा पूर्ण आत्म सम्मान का जीवन व्यतीत कर सके।
व्यक्ति को नागरिक और राजनीतिक दोनों प्रकार के अधिकार प्राप्त होने चाहिये जिनका
परिपालन इस रूप में किया जाना चाहिये कि एक व्यक्ति के अधिकार दूसरे व्यक्ति के
अधिकारों के उपयोग में बाधक नहीं बन सके अर्थात अधिकार व कर्तव्य दोनों एक दूसरे
से जुड़े हुये हो। नागरिक अधिकार जैसे-जीवन, समानता, स्वतन्त्रता, सम्पत्ति व भाषण अभिव्यक्ति के अधिकार
हैं। राजनीतिक अधिकार वे अधिकार है जिनके माध्यम से वयस्क नागरिक राज्य के संविधान
तथा देश की सरकार में सहभागिता निभाते है। वास्तव में इन राजनीतिक अधिकारों के
माध्यम से ही लोकतंत्र संचालित होता है। इसी क्रम में प्राकृतिक अधिकारों का सिद्धांत अधिकारी
का प्राचीन सिद्धांत है व इसका उदय प्राचीन ग्रीक में हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार
अधिकार मनुष्य के स्वभाव से संबंधित है इसलिये स्वतः प्रमाणिक सत्य है। यह इस बात
पर भी बल देता है कि प्राकृतिक अधिकार राज्य एवं समाज की स्थापना के पहले से ही
मानव के साथ रहे है या मानव उनका उपभोग करता रहा है। लॉक इस सिद्धांत का अधिकारी
प्रवर्तक था। प्राकृतिक अधिकारों के सिद्धांत की प्रतिक्रिया स्वरूप अधिकारों का
कानूनी सिद्धांत विकसित हुआ। इस सिद्धांत के अनुसार मानवाधिकार राज्य की कानूनी
शक्ति द्वारा ही विकसित किये जा सकते है। हॉब्स, बैंथम तथा
ऑस्टिन ने इस सिद्धांत को विकसित किया। अधिकार पूर्ण रूप से उपयोगितावाद पर आधारित
है। व्यक्ति को सामाजिक हित में कुछ अधिकार छोड़ने पड़ते है केवल कानून अधिकारों का
जन्मदाता नहीं हो सकता है। परम्परायें, नैतिकता व प्रथायें
मानवाधिकार के विकास में मुख्य भूमिका निभाते है। इस सिद्धांत ने अधिकारों के
संरक्षण के लिये राज्य की भूमिका स्वीकार की है। आधुनिक राज्य द्वारा दिये जाने वाले अधिकार उदारवाद
की देन है। उदारवाद का आरंभ विशेषाधिकारों पर आधारित मध्ययुग की राजशाही और
सामंतशाही व्यवस्था के विरोध और आलोचना के रूप में हुआ। अतः निरंकुश और बल प्रयोग
करने वाली सत्ता से स्वतन्त्रता और व्यक्ति को अपनी बुद्धि और शक्ति के अनुसार
विकास करने की स्वतन्त्रता को माना गया है। उदारवाद ने जीवन के सभी क्षेत्रों में
स्वतन्त्रता की माँग की है जैसे नागरिक, व्यक्तिगत,
सामाजिक, आर्थिक, पारिवारिक,
स्थानीय, जातीय, राष्ट्रीय,
राजनीतिक, लौकिक स्वतन्त्रता आदि।[8] उदारवादी विचारक लास्की, ग्रीन, जॉन राल्स जैसे विचारकों ने भी अपने चिंतन में मानवाधिकारों को स्थान देने का प्रयास किया है। लास्की के अनुसार काम का अधिकार, सुनिश्चित वेतन का अधिकार, काम के उचित घण्टे, निश्चित शिक्षा का अधिकार, राजनीतिक शक्ति प्रदान करने का अधिकार, विचार अभिव्यक्ति, संपत्ति का सीमित अधिकार, न्यायिक सुरक्षा का अधिकार विशेष रूप से महत्वपूर्ण है। लास्की ने सम्पत्ति के अधिकारी की आवश्यकता के साथ निजी लाभ और एकाधिकार की बुराईयों पर भी प्रकाश डाला। उसने बताया कि प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिये उचित वेतन और आवश्यक सुविधायें प्राप्त करने का अधिकार है। उत्पादन का उद्देश्य निजी लाभ अर्जन नहीं बल्कि जन कल्याण होना चाहिये।[9] ग्रीन ने व्यक्ति की स्वतन्त्रता व अधिकारों का संरक्षण, उसके मूल्यों व गौरव का सम्मान, कठिन परिस्थितियों में राज्य का विरोध, स्वयं के विकास के लिये संपत्ति की आवश्यकता, अन्तर्राष्ट्रीय न्यायालय की कल्पना, युद्ध की अनुपयोगिता तथा विश्वशांति व विश्व बंधुत्व का समर्थन किया है। ग्रीन के यह सिद्धांत वर्तमान में भी प्रासंगिक है। इसी क्रम में जॉन राल्य का न्याय सिद्धांत जो अधिकारों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। सभी प्राथमिक सामाजिक वस्तुएँ (मूल्य), स्वतन्त्रता एवं अवसर, आय एवं धन व आत्मसम्मान के आधारों को समान रूप से वितरित किया जाये। सामाजिक और आर्थिक असमानतायें इस प्रकार से व्यवस्थित की जाये कि जिससे सबसे कम लाभान्वित व्यक्ति को अधिकतम लाभ मिल सके व अवसरों की न्यायोचित समानता की स्थितियों के अन्तर्गत सबके लिये खुली प्रतियोगिता होनी चाहिये।[10] |
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निष्कर्ष |
मानवाधिकारों के उदारवादी दृष्टिकोण के उपर्युक्त विवेचन से स्पष्ट होता है कि उदारवाद ने आर्थिक विकास बढ़ाया है और राज्य के हस्तक्षेप को व्यक्ति के जीवन में कम किया है। इससे व्यक्ति की स्वतन्त्रता बढ़ी है, गुणवत्ता का विकास हुआ है, इसने विभिन्न जटिल समस्याओं को कम किया है, लेकिन इस अवधारणा को दूसरा पक्ष यह भी है कि जैसे अवसरों की समानता का व्यवहारिक नही होना, इससे वृद्धि तो हुई है लेकिन वास्तविक अर्था में विकास नही हुआ है, वर्तमान कई राष्ट्रों में गरीबी, कुपोषण की गंभीर समस्या मौजूद है। वर्तमान में आवश्यकता इस बात की है किं जन्म, लिंग, शिक्षा, स्वास्थ्य व सम्पत्ति के अन्तर को कम करके यथार्थ में मानवाधिकारों की रक्षा की जा सकती है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. चन्द्र प्रकाश बर्थलाल द्वारा संपादित भारतीय राजनीति विज्ञान शोध पत्रिका, मधुमुमुल चतुर्वेदी का आलेख मानवाधिकार : अवधारणा, विकास, दर्शन एवं प्रकृति, स्वास्तिक एन्टरप्राईजेज, मेरठ, जुलाई - दिसम्बर, 2015 पृ.सं. 194
2. ओ.पी. गाबा, राजनीतिक चिन्तन की रुपरेखा, मयूर पेपर बैक्स, नोयड़ा, 2011 पृ.सं. 99
3. रमेश प्रसाद गौतम, पृथ्वीपाल सिंह, भारत में मानवाधिकार, विश्वविद्यालय प्रकाशन, सागर, मध्यप्रदेश, 2001 पृ.सं. 7
4. सुभाष शर्मा, भारत में मानवाधिकार, नेशनल बुक ट्रस्ट इंडिया, नई दिल्ली, 2009 पृ.सं. 8-9
5. अरूण चतुर्वेदी, संजय लोढ़ा, भारत में मानवाधिकार, पंचशील प्रकाशन, जयपुर, 2005 पृ.सं. 1
6. ममता चन्द्रशेखर, मानवाधिकार और महिलाऐं, मध्यप्रदेश, भोपाल, हिन्दी गं्रथ कला अकादमी, 200 पृ.सं. 2
7. वी. शुक्ला, राजनीतिक सिद्धांत, भारतीय भवन, पब्लिशर्स, पटना, 1993 पृ.सं. 151-152
8. सदानंद तलवार, अधिकारों के सिद्धांत, ज्ञानसिंह सधु द्वारा संपादित पुस्तक राजनीतिक सिद्धांत, हिन्दी माध्यम कार्यान्वय निदेशालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, 2011 पृ.सं. 207-208
9. ब्रजमोहन शर्मा एवं अनाम जैतली, राजनीतिक विज्ञान के मुलाधार, राजनीति विज्ञान विभाग, राजस्थान विश्वविद्यालय, जयपुर, 1982 पृ.सं. 295
10. नरेश दाधीच, जॉन रॉल्स का न्याय सिद्धांत, आविष्कार पब्लिशर्स डिस्टीब्युटर्स, जयपुर, 2003 पृ.सं. 112 |