ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
प्राचीन भारत में महिलाओं के संपत्ति संबंधी अधिकार
Property Rights of Women in Ancient India
Paper Id :  16860   Submission Date :  14/12/2022   Acceptance Date :  23/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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सीमा गुप्ता
सह - आचार्य
इतिहास विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश प्राचीन भारत में स्त्री के स्थिति के संदर्भ में विभिन्न मत हैं, जिनके आधार पर यह माना जाता है कि वैदिक काल में सर्वोच्च पद का निर्वाह करते हुए जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री को समय के प्रवाह के साथ साथ निम्नता की स्थिति में जीवन निर्वाह करना पड़ा। वैदिक युग में उसकी सामाजिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद उसके संपत्ति संबंधी अधिकार उपेक्षित थे। वह आर्थिक दृष्टि से पराधीन थी। प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति सिद्धांत और व्यवहार में अलग अलग थी। वैदिक काल सूत्रकाल और महाकाव्य काल में महिलाओं को दिखावे के अधिकार थे, उन्हें भोग की वस्तु माना जाता था। सिद्धांत रूप में स्त्रियों के अधिकार की व्यवस्था श्रेष्ठतम प्रतीत होती हैं परंतु व्यवहार में अत्यंत गिरी हुई थी। स्मृतिकारों ने उसे पुरुषों के समान अधिकार देकर उसकी स्थिति को सुधारने का प्रयास किया परन्तु सामाजिक वातावरण और विदेशी आक्रमणों के परिणामस्वरूप उनकी व्यवहारिक स्थिति में पतन की प्रक्रिया प्रारंभ हो गई और प्राचीन कानूनविदों ने नारी को अविश्वसनीय मानते हुए उसके अधिकारों को वापस ले लिया और एक मात्र पुत्र को ही सम्पत्ति का स्वामी माना। समस्त स्मृतिकारों ने स्त्री धन के अतिरिक्त अन्य किसी भी अचल संपत्ति पर उसके अधिकार को मान्यता नहीं दी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद There are various views regarding the status of women in ancient India, on the basis of which it is believed that in the Vedic period, a woman who used to lead a high position, had to live in a lowly position with the passage of time. . In the Vedic age, despite her good social status, her property rights were neglected. She was economically dependent. The status of women in ancient times was different in theory and practice. In the Vedic period Sutra period and the epic period, women had the right to show off, they were considered objects of enjoyment.
In theory, the system of women's rights seems to be the best but in practice it was extremely degraded. Smritis tried to improve their condition by giving them equal rights as men, but as a result of social environment and foreign invasions, the process of degradation in their practical condition started and the ancient jurists took back the rights of the woman considering her as unreliable and considered the only son as the owner of the property. All Smritis did not recognize her right on any immovable property other than women's money.
मुख्य शब्द संपत्ति संबंधी अधिकार, अचल संपत्ति, स्त्री धन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Property Rights, Immovable Property, Stree Dhan.
प्रस्तावना
प्राचीन भारत में स्त्री के स्थिति के संदर्भ में विभिन्न मत हैं, जिनके आधार पर यह माना जाता है कि वैदिक काल में सर्वोच्च पद का निर्वाह करते हुए जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री को समय के प्रवाह के साथ-साथ निम्नता की स्थिति में जीवन निर्वाह करना पड़ा। वैदिक युग में उसकी सामाजिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद उसके संपत्ति संबंधी अधिकार उपेक्षित थे। वह आर्थिक दृष्टि से पराधीन थी। प्राचीन काल में महिलाओं की स्थिति सिद्धांत और व्यवहार में अलग-अलग थी। वैदिक काल, सूत्रकाल और महाकाव्य काल में महिलाओं को दिखावे के अधिकार थे, उन्हें भोग की वस्तु माना जाता था।
अध्ययन का उद्देश्य प्राचीन भारत में स्त्री की स्थिति के संदर्भ में विभिन्न मत हैं, जिनके आधार पर यह माना जाता है कि वैदिक काल में सर्वोच्च पद का निर्वाह करते हुए जीवन व्यतीत करने वाली स्त्री को समय के प्रवाह के साथ निम्नता की स्थिति में जीवननिर्वाह करना पड़ा। इसलिए उस समय स्त्री अधिकारों की कल्पना करना मुश्किल था। अतः इस शोध पत्र का उद्देश्य स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकारों की विवेचना करना है।
साहित्यावलोकन

प्राचीन भारत में स्त्री की स्थिति को लेकर बहुत सी पुस्तकें लिखी गई है जैसे विमल चंद्र पांडेय की प्राचीन भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास,  .एस. अल्टेकर की पोज़ीशन ऑफ वीमेन इन हिंदू सिविलाइजेशन, आर.एस. शर्मा की प्रारंभिक भारत का आर्थिक और सामाजिक इतिहास। इन पुस्तकों में प्राचीन भारत से आधुनिक काल तक स्त्री की स्थिति की विवेचना की है परंतु इनमें स्त्री के संपत्ति संबंधी अधिकारों का विशद वर्णन नहीं है।

मुख्य पाठ

किसी सभ्यता को समझने तथा उसकी उपलब्धियों एवं श्रेष्ठता का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम आधार उसमे स्त्रियों की दशा का अध्ययन करना है। स्त्रियों की दशा किसी देश की संस्कृति का मापदण्ड मानी जाती है। समुदाय का स्त्रियों के प्रति दृष्टिकोण अत्यन्त महत्वपूर्ण सामाजिक अधिकार रखता है। प्रागैतिहासिक युग के चित्रकला के जो नमूने प्राचीन गुफाओं से प्राप्त हुए हैं उसे न केवल मनुष्य के चित्रकला के प्रति लगाव की पुष्टि होती हैए अपितु उत्तरोत्तर विकास की और उन्मुख सामाजिक जीवन की झलक भी मिलती है। परिवार का मुखिया सर्वाधिक वृद्ध पुरूष होता था, उसकी पत्नी समस्त कार्य मे उसकी सलाहकार होती थी एवं शिकार में बराबर की भागीदार होती थी और समय-समय पर पत्थरों को घिसकर हथियार बनाने में सहयोग प्रदान करती थी। धीरे-धीरे गुफाओं से निकलकर मानव ने मकान निर्माण प्रक्रिया को अपनाया और सभ्यता की ओर कदम बढ़ाना प्रारम्भ किया। भारत की प्राचीनतम सभ्यता सैन्धव सभ्यता में मातृ देवी को सर्वोच्च पद प्रदान किया जाना उसके समाज मे उन्नत स्त्री दशा का सूचक माना जा सकता है।

वैदिककालीन महिलाओं की प्रारम्मिक और वैधानिक स्थिति की जानकारी का प्रमुख साक्ष्य वैदिक साहित्य है। ऋग्वैदिक काल मे समाज मे स्त्रियों को आदरपूर्ण स्थान प्राप्त था। निश्चय ही इस काल मे परिवार में पुत्र की कामना की जाती थी, परन्तु ऐसा मंत्र भी अनुपलब्ध नहीं हैए जहाँ ऋषि देवताओं से कन्या के जन्म के लिए प्रार्थना करते है। पुत्र की भांति पुत्री को भी उपनयन, शिक्षा-दीक्षा एवं यज्ञादि का अधिकार था। पुत्र के अभाव में ये कार्य पुत्री द्वारा भी सम्पादित हो सकते थे।

स्वयंवर एवं पुनर्विवाह के प्रचलन के कारण वह अपने संरक्षकों के लिए चिन्ता का कारण नहीं थी। ऋग्वेद मे अनेक ऐसी स्त्रियों के नाम मिलते है, जो विदुषी और दार्शनिक थी और उन्होंने कई मन्त्रों एवं ऋचाओं की रचना की थी। विश्वारा को ब्रहमवादिनी तथा मन्त्रदृष्टि कहा गया   है। घोषा, अपाला, लोपामुद्रा, शाश्वती, इन्द्राणी, सिकता, निवावरी आदि कई विदुषी स्त्रियों के नाम मिलते हैं, जो वैदिक मंत्रों की रचयिता है।

वैदिक युग में स्त्री की सामाजिक स्थिति अच्छी होने के बावजूद उनके सम्पत्ति सम्बन्धी अधिकार उपेक्षित थे। वे आर्थिक दृष्टि से पराधीन प्रतीत होती है। सम्भवतः उन्हें पिताओं, भाइयों और पतियों पर सदैव निर्भर रहना पड़ता था। वैसे भी सभ्यता के आरम्भिक चरण में सम्पत्ति से सम्बन्धित नियम अधिक विकसित एवं व्यवस्थित नहीं हो पाये थे। अचल सम्पत्ति के रूप मे भूमि एवं गृह अभी महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त नहीं कर सके थे। देवताओं की स्तुति करते समय इस प्रकार की सम्पदा प्राप्त करने की कोई इच्छा व्यक्त नहीं की गयी है। न ही राजन्‌ को कर्षित भूमि (क्षेत्र) अथवा सामान्य भूमि का रक्षक अथवा स्वामी बतलाया गया है। तथापि व्यक्तिक भूस्वामित्व की सम्भावना व्यक्त की जाती रही है, क्‍योंकि एक मंत्र मे अपाला अपने पिता के खेत (उर्वरा) की चर्चा करती है तथा ऋग्वेद मे कई स्थलों पर भूमि और भूमि की मापप्रणाली के बारे मे पर्याप्त उल्लेख मिलते हैं। किन्तु उसमे कहीं भी किसी व्यक्ति द्वारा जमीन की बिक्री, हस्तान्तरण अथवा दान का उल्लेख नहीं किया गया है। इसस स्पष्ट होता है कि इस काल मे जमीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व का अधिक प्रचलन नहीं था अपितु भू-सम्पत्ति का अधिकारी वह था जो शक्तिशाली शत्रुओं से बलपूर्वक उसकी रक्षा करने मे समर्थ होता, चूँकि यह कार्य स्त्री के वश में नहीं था। अत: उसके धन सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता नहीं मिली। फिर भी उत्तराधिकार मे प्राप्त पैतृक सम्पत्ति की सूचक रिक्थ अथवा ऋक्‍थ तथा दाय शब्द ऋग्वेद में मिलते हैं।

उत्तरवैदिक काल मे भी स्त्रियों की दशा पूर्ववत्‌ बनी रही यद्पि अथर्ववेद में एक स्थान पर कन्या को चिन्ता का कारण बताया गया है। अथर्ववेद के अनसार वे पति के साथ यज्ञ में शामिल होती थी।वृहदारण्यक उपनिषद मे जनक की सभा मे गार्गी और याज्ञवल्क्य के वाद-विवाद का उल्लेख है।याज्ञवल्क्य की पत्नी मैत्रेयी परम विदुषी थी उसने अपनी सपत्नी कात्यायनी के पक्ष में अपने सम्पत्ति अधिकार का विसर्जन करके याज्ञवल्क्य से एकमात्र ज्ञान दान देने की प्रार्थना की थी। उत्तरवैदिक कालीन समाज स्त्री की घरेलू शिक्षा के प्रति भी उदासीन नहीं था। शतपथ ब्राह्मण मे उल्लेख 'तद्धा एतस्त्रीणां कर्म यदूर्णा सूत्रम' से प्रकट होता है कि ऊन और सूत की कताई बुनाई का काम भी प्रमुखतया स्त्री ही करती थी। परन्तु इस काल के समाज ने भी स्त्री के धन सम्बन्धी अधिकारों को मान्यता प्रदान नहीं की। अल्टेकर का विचार है कि वैदिक काल की राजनैतिक आवश्यकताएं ही प्रागैतिहासिक सती प्रथा की समाप्ति तथा नियोग एवं पुनर्विवाह को मान्यता प्रदान किये जाने के लिए उत्तरदायी थी।

उत्तर वैदिककालीन स्रोतों मे भूमि सम्बन्धी झगडों और उत्तराधिकार की समस्याओं का उल्लेख मिलता है, यद्यपि पति-पत्नि दोनों मिलकर दम्पत्ति (गृहस्वामी) कहलाते थे, फिर भी पति से अलग पत्नी का गृह सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं था। वैदिक ग्रन्थों मे इसका स्पष्ट उल्लेख मिलता है कि स्त्रियाँ शक्तिहीन होने के कारण दायभाग से वंचित थी। स्त्रियाँ निरिन्द्रियाँ अदायादी :।

शतपथ ब्राह्मण के अनुसार भी वे न तो अपने घर और न दाय भाग पर अधिकार रखती है। वैदिक युग मे पति-पत्नि दोनों को ही पारिवारिक सम्पत्ति का संयुक्त अधिकारी माना गया है। विवाह के अवसर पर पति यह प्रतिज्ञा करता है कि वह आर्थिक मामलों मे अपनी पत्नि के अधिकारों व हितों की उपेक्षा नहीं करेगा, किन्तु संयुक्त अधिकार के सिद्धान्त से स्त्री को बहुत कम लाभ हुए। उसे केवल अपने निर्वाह के लिए पति से हर्जाना प्राप्त करने का अधिकार मिल गया। मनुस्मृति मे कहा गया है कि अपनी पत्नि के उचित निर्वाह की व्यवस्था किये बिना पति कहीं यात्रा पर नहीं जा सकता। यदि पुरूष एक स्त्री को छोडकर दूसरी स्त्री से विवाह करता है तो उसे प्रथम के जीवन निर्वाह की उचित व्यवस्था करनी चाहिए। प्रारम्भिक व्यवस्थाकारो ने पत्नि को पति के विरूद्ध न्यायालय मे जाने के अधिकार को मान्यता नहीं दी किन्तु विज्ञानेश्वर जैसे उत्तरकालीन शास्त्रकारों ने उसे स्पष्टत: यह अधिकार दिया कि यदि पति अपनी साध्वी पत्नि का त्याग करे अथवा उसकी सम्पत्ति का अपहरण करे तो वह न्यायालय मे शरण ले सकती है। किन्‍तु व्यवहार मे ऐसा नहीं था व्यवहार मे पति ही उसका पूर्ण स्वामी होता था और वह इच्छानुसार परिवार की सम्पत्ति का उपभोग करता था। संयुक्त अधिकार का सिद्धान्त एक वैधानिक कल्पना मात्र था। परिवार की अचल सम्पत्ति मे स्त्री को कोई स्वतन्त्र अधिकार नहीं था।

वैदिक काल के पश्चात्‌ जैसे-जैसे उनकी स्थिति मे गिरावट आने लगी, उनके सम्पत्ति के अधिकारों में वृद्धि होती गयी। प्रारम्भिक धर्मसूत्रों मे वैदिक युग के अनुकरण पर स्त्रियों के सम्पत्ति अधिकार को कोई विशेष मान्यता नहीं दी गई, लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि धीरे धीरे सूत्रों की मान्यता परिवर्तन हो रही थी 400 ई.पू. में इस बात के प्रमाण मिलते है कि भातृविहीन बहन को सम्पत्ति में भाग अवश्य मिलता था। थेरिगाथा- में उल्लेख मिलता है कि सुन्दरी की माता अपनी पुत्रियों को बौद्ध संघ में प्रवेश करने के लिए मना करती है ताकि वे अपने पिता की समस्त सम्पत्ति की उत्तराधिकारिणी बन सके क्योंकि वह बौद्ध भिक्षु बन गया था। बौधायन आपस्तम्ब, गौतम, वशिष्ठ जैसे सूत्रकारों ने स्त्री के उत्तराधिकार का विरोध किया परन्तु अधिकांश व्यवस्थाकार पुत्र के न होने पर पुत्री के उत्तराधिकार की प्रथा को रखना चाहते थे। यदि सम्पूर्ण नहीं तो आधा भाग उसे अवश्य मिलना चाहिए। कौटिल्य भी इस बात के समर्थक हैं, लेकिन समाज मे पुत्री के उत्तराधिकार को तभी तक स्वीकार करना चाहते है जब तक उसका विवाह न हो जाये।'

मौर्यकाल मे कौटिल्य ने महिलाओं के लिये कई उपयोगी व्यवस्थाएं की ताकि उनके मान सम्मान में वृद्धि हो सके। इस हेतु उसने राजदरबार मे अंगरक्षिका की नियुक्ति की थी और कुछ को प्रशासन संचालन मे योगदान हेतु रखा गया परन्तु फिर भी उनकी स्वतन्त्रता पर कुछ सीमाएं लगी रही। कौटिल्य की व्यवस्था के अन्तर्गत स्त्री अपने पति के अत्याचारों के विरूद्ध न्यायालय की भी शरण ले सकती थी। स्त्री हत्या का अपराध ब्रह्म हत्या की भाँति ही भयंकर माना जाता था। तत्कालीन नारी समाज का कुछ वर्ग निश्चित रूप से उन्‍नत रहा होगा। पुरूषों की ही भाँति वे भी सार्वजनिक हित के लिए दान देती थी। अशोक के अभिलेखों मे राजमहिलाओं के दान का उल्लेख है। समाज मे वैश्यावृत्ति भी प्रचलित थी वैश्याओं का सम्मान होता था उन पर राज्य की ओर से कर लगाया जाता था। 'कुछ गणिकाएं अनेक ललितकलाओं मे प्रवीण होती थीं, आम्रपाली जो वैशाली की गणिका थी, एक उदाहरण है।' प्रथम बार कौटिल्य ने कन्या को धन सम्बन्धो अधिकार प्रदान करते हुए पुत्र, पुत्री को पिता की सम्पत्ति मे बराबर का अधिकारी माना। 

कन्या के दाय मे मनु, पाराशर, कात्यायन, याज्ञवल्क्यथ आदि कानूनविदों ने बहुत स्पष्ट व्याख्या की थी जिनका निराकरण आगे आने वाले युगों मे असम्भव था। फलतः इस युग के व्यवस्थाकारों ने पुरूष सन्‍तान और विधवा के अभाव में सम्पत्ति पर कन्या के अधिकार को स्वीकार किया है। अन्तर केवल यह है कि अविवाहित और भातृविहीन महिला का भेदभाव समाप्त कर सभी पुत्रियों को पुत्रों के साथ आधा भाग देने और दोहन को चौथाई भाग तथा पिता के उपरान्त बंटवारा होने पर पुत्री को आठवाँ भाग मिलता था। जीवमूतवाहन ने अपने ग्रन्थ दायभाग मे लिखा है कि पुत्र के अभाव मे कुमारी कन्‍या और उसके अभाव मे विवाहिता पुत्री को सम्पत्ति का अधिकार है। मध्ययुग के टीकाकारों और शास्त्रकारों ने तीन पीढ़ी तक पुरूष संतान तथा विधवा के अभाव में कन्या को सम्पत्ति का अधिकार प्रदान किया है। किन्तु उसमे भी विवाहितए निर्धन और पुत्रवती को पहले अधिकार दिये। याज्ञवल्क्य के टीकाकार ने विश्वरूप कन्या को सम्पत्ति का उत्तराधिकारी माना है। कन्याओं को सम्पत्ति का चतुर्थ भाग दिये जाने का वर्णन भरूचि ने किया है किन्तु अन्य व्यवस्थाकारों ने इसे स्वीकार नहीं किया है। कन्याओं के चतुर्थ भाग प्राप्त न होने का मूल कारण उस नियम को कोई निश्चित रूप न होना था। व्यवस्थाकार इस व्यवस्था को कोई व्यवहारिक रूप देने मे असफल रहे। अतः व्यवस्थाकारों ने उल्लेख किया कि पिता की मृत्यु के बाद बहन का विवाह करना भाई का परम कर्तव्य है, इसलिए सम्पत्ति के बंटवारे से पूर्व उसके विवाह हेतु पहले धन निकालना चाहिए। इस नियम का दुष्परिणाम यह हुआ कि कन्या का सम्पत्ति पर अलग से अधिकार समाप्त हो गया।

स्त्रीधन:- स्त्रीधन का शाब्दिक अर्थ है- स्त्री की सम्पत्ति। मनु का कथन है कि भाई अपने भाग में से चतुर्थाशं भाग अविवाहित बहनों को देवे। 'माता की मृत्यु के बाद सब सहोदर भाई तथा अविवाहित बहने माता के धन में से बराबर भाग ग्रहण करें।याज्ञवल्क्य का मत है कि पिता, माता, पति और भाई द्वारा दिया गया धन, विवाह में अग्नि के निकट मिला हो, वह धन स्त्रीधन कहलाता है।

हिन्दू व्यवस्थाकारों ने स्त्री को चल सम्पत्ति मे पूर्ण अधिकार प्रदान किया। इसमे बहुमूल्य वस्त्र एवं आभूषण, जवाहरात आदि वस्तुएं आती थी। चल सम्पत्ति के अन्तर्गत आने वाली वस्तुओं के लिये 'स्त्रीधन' की सामान्य संज्ञा प्रयुक्त की गयी। यह वह सम्पत्ति थी जिसके ऊपर सामान्य परिस्थिति मे स्त्री का पूर्ण स्वामित्व होता था। अल्टेकर का विचार है कि स्त्रीधन का विकास कन्या मूल्य (शुल्क) से हुआ, जो आसुर विवाह के अन्तर्गत वर कन्या के पिता को प्रदान करता था। पुत्रो के स्नेह के कारण माता पिता उसे शुल्क का कुछ अंश अथवा कभी-कभी सम्पूर्ण भाग दे देते थे, ताकि वह स्वतन्त्र रूप से उसका उपयोग कर सके। यदि कन्या की मृत्यु हो जाती और उसकी कोई सन्तान नहीं होती थी तो उस दशा मे सम्पूर्ण शुल्क उसके पिता अथवा भाई को वापस किये जाने का विधान था।' जहाँ कन्या मूल्य नहीं दिया जाता था वहाँ विवाह के समय कन्या कुछ उपहार प्राप्त करती थो जिसकी वह स्वामिनी होती थी। वैदिक साहित्य में इसके लिये परिणाहम शब्द मिलता है। इस प्रकार के उपहारों मे बहुमूल्य वस्त्राभूषण हुआ करते थे जिन्हें कन्या ही धारण करती थी। कालान्तर मे कन्या द्वारा विवाह के उपरान्त प्राप्त उपहारों को भी स्त्रीधन के अन्तर्गत सम्मलित कर लिया गया। प्रायः सभी व्यवस्थाकार स्त्रीधन पर स्त्री का पूर्ण स्वमित्व स्वीकार करते हैं। मनु ने स्त्रीधन 6 प्रकार का माना हैर.

1.  अध्यगिन - विवाह एवं अग्नि साक्षित्व के समयए प्रदत्त उपहार।

2.  अध्यवाहनिक - पिता घर से पति के घर जाते समय दिया गया धन।

3.  पादवन्दनिक - प्रेम के साथ किसी सुअवसर पर पति द्वारा दिया गया घन।

4.  भ्रातृदत्त - भाई द्वारा दिया गया।

5.  मातृदत्त - माता द्वारा दिया गया।

6.  पितृ दत्त - पिता द्वारा दिया गया।

कौटिल्य ने भी दो प्रकार का स्त्रीधन कहा है- 'वृत्ति एवं आबन्ध्य से स्त्रीधन दो प्रकार का होता है।' अर्थात विवाह के समय तथा विवाह के पश्चात्‌ स्त्री को दिया गया धन सम्पत्ति। स्त्री के पति की मृत्यु के बाद जो व्यक्ति इस सम्पत्ति को उससे छीनते है, मनु उसकी कडो निन्‍दा करते है। विष्णु ने उसके अर्न्तगत पिता द्वारा दिये गये उपहार और तलाक के समय पति द्वारा निर्वाह की राशि को भी शामिल किया है। सातवीं शताब्दी से हम स्त्रीधन के क्षेत्र मे विस्तार पाते हैं। देवल ने इसमें वृत्ति,  आभरण, शुल्क तथा लाभ की गणना की है (वृत्तिराभरण् शुल्क लाभश्च स्त्रीधन भवेत)। विज्ञानेश्वर ने इसका क्षेत्र और अधिक विस्तृत कर दिया तथा इसके अन्तर्गत उत्तराधिकार, क्रय, विभाजन, प्रतिग्रह तथा अधिग्रहण द्वारा प्राप्त की गयी सम्पत्ति को भी समाहित कर लिया श्रिक्थक्रय संविभाग, परिग्रहाधिगम प्राप्तमेतस्त्रीधनश्इ इस प्रकार स्त्रीधन के अन्तर्गत स्त्री के अधीन हर प्रकार की सम्पत्ति को सम्मिलित कर लिया गया।

स्त्रीधन पर अधिकार

प्रारम्भिक स्मृति लेखकों ने स्त्रीधन पर स्त्री का अधिकार मानते हुए भी उसमे सम्मलित सम्पत्ति को बेचने का अधिकार उसे नहों दिया। विज्ञानेश्वर महिलाओं के सम्पत्ति विषयक अधिकारों के समर्थक थे। उन्होने स्त्रीधन की स्पष्ट एवं विस्तृत व्याख्या की है। जीवमूतवाहन भी विज्ञानेश्वर के समर्थक थे। मिताक्षरा के अनुसार पति की स्वीकृति से पत्नि कुल सम्पत्ति का भाग पाने की अधिकारिणी हो जाती है। मनु के अनुसार पति की अनुमति के बिना पत्नि निजी सम्पत्ति को भी नहीं बेच सकती है।  कालान्तर मे स्त्रीधन के दो भाग कर दिये गये.

1.  सौदायिक

2.  असौदायिक

प्रथम भाग में माता, पिता अथवा पति द्वारा स्त्री को दिये गये उपहार रखे गये तथा उन पर उसका पूर्ण अधिकार दे दिया गया। शेष धन को असादायिक श्रेणी मे रखा गया जिसका स्त्री केवल उपयोग कर सकती थी, उसे बेच नहीं सकती थी। सौदायिक सम्पत्ति को खर्च करने में उसे अपन पति की आज्ञा प्राप्त करने की आवश्यकता नहीं थी। स्मृति चन्द्रिका मे वर्णित है कि पत्नि सौदायिक सम्पत्ति का दान तथा विक्रय कर सकती थी। स्त्री द्वारा अचल सम्पत्ति को बेचे जाने के अधिकार के विषय मे विद्वान एकमत नहीं है। कात्यायन के अनुसार स्त्री अपनी सम्पत्ति (स्त्रीधन) को बेच सकती है अथवा उसे बन्धक रख सकती है। नारद का विचार है कि स्त्री को स्त्रीधन मे निहित केवल चल सम्पत्ति को ही बेच सकने का अधिकार होता है। पूर्व मध्यकाल के लेखकों ने नारद के मत का समर्थन किया है।

धर्मशास्त्रों के अनुसार स्त्रीधन का उपयोग स्त्री के अतिरिक्त कोई भी अन्य व्यक्ति नहीं कर सकता। साधारणतः उसके पति का भी इस पर अधिकार नहीं होता था। यदि पति किसी मजबूरी के कारण पत्नि से स्त्रीधन का कुछ भाग उधार लेता था तब उसे ब्याज सहित लौटाना पडता था। यहाँ कात्यायन ने यह व्यवस्था दी है कि परिवार की स्थिति सुधरने पर पति को स्त्रीधन वापस लौटा देना चाहिए, यदि उसकी मृत्यु हो जाये तो उसके उत्तराधिकारियों का यह कर्तव्य है कि वे इसे वापस करे दें। स्त्रीधन उत्तराधिकार में प्राप्त करने का अधिकार पुत्री को दिया गया था। यदि स्त्री की कोई संतान नहीं होती थी तो धन उसके पिता व भाई के पास चला जाता था। स्त्रीधन के उत्तराधिकार के लिए अविवाहित कन्याओं को ही प्राथमिकता दी जाती थी। यदि कन्यायें विवाहित होती थीं तो उन्हे समान भाग दिये जाने का विधान था। जो स्त्रियाँ व्याभिचारिणी, अपवित्र एवं अच्छे आचरण वाली नहीं थी उन्हें स्त्रीधन से वंचित कर देने का विधान शास्त्रकारों ने प्रस्तुत किया। समाज मे स्त्रीधन सम्बन्धी अनेक विवादों का कारण बहुविवाह प्रथा सिद्ध हुआ। अतः कात्यायन ने पहली पत्नि के प्रति सहानुभूति का प्रदर्शन करते हुए यह नियम बनाया कि पति के त्याग के कारण राजा का यह कर्तव्य है कि वह पति से स्त्रीधन छीनकर पत्नि को प्रदान करे। कौटिल्य ने कुछ विशेष परिस्थितियों में महिलाओं के स्त्रीधन पर महिलाओं के स्वामित्व के अन्त किये जाने का भी उल्लेख किया है।

प्रारम्भ में स्त्रीधन का क्षेत्र संकुचित था, इसमें वस्त्र, आभूषण ही आते थे। अतः इन्हें उत्तराधिकार में पुत्री को देने का किसी ने विरोध नहीं किया, किन्तु जब इसका क्षेत्र व्यापक हो गया तब यह व्यवस्था की गयी कि स्त्रीधन का विभाजन पुत्रों और पुत्रियों मे समान रूप से किया जावे। मनुस्मृति में इसी सिद्धान्त का प्रतिपादन मिलता है।

जनन्यानां संस्थितायां तु सम॑ सर्वे सहोदरा

भजेरन्मातृकं रिक्थं जनन्यश्च सनाभयः ।।

जीवमूतवाहन ने गौतम और याज्ञवल्क्य आदि के वर्णन के आधार पर स्त्रीधन में कन्याओं के साथ-साथ पुत्रों के अधिकार का भी प्रबल समर्थन किया है। विज्ञानेश्वर ने गौतम के आधार पर पत्नी के भाइयों को, और उनके अभाव मे माता को उत्तराधिकारी माना था मिताक्षरा ने बौधायन की व्यवस्था के अनुसार स्त्रीधन के उत्तराधिकरियों का क्रम निर्धारण सहोदर भाई, माता-पिता के रूप में उल्लेखित किया है। यदि हम उत्तरभारत और दक्षिण भारत की नारियों की स्थिति की परस्पर तुलना करें तो यह स्पष्ट है कि दक्षिण भारत की महिलाओं की स्थिति अपेक्षाकृत अच्छी थी। उन्हें अनेकानेक सुविधाएं एवं स्वतन्त्रता प्राप्ती और समाज मातृसत्तात्मक थे। उन्हें आर्थिक क्षैत्र मे अधिकार प्राप्त थे एवं इच्छानुसर सम्पत्ति के विक्रय का भी अधिकार था। उच्च परिवार की महिलाओं के जीवन में दुःखो का एकमात्र कारण बहुविवाह प्रथा का प्रचलन था। विदेशी आक्रमणों के कारण राजपूत काल मे सती एवं जौहर प्रथा का प्रचलन हो गया था। जिससे उत्तर भारत में महिलाओं की दशा में पतन के चिन्ह दिखाई देने लगे थे।

अतः स्पष्ट है कि प्राचीनकाल मे महिलाओं की स्थिति सिद्धान्त और व्यवहार में अलग-अलग थी। वैदिक काल, सूत्रकाल, महाकाव्य काल मे महिलाओं को दिखावे के अधिकार थे। उन्हें भोग की वस्तु माना जाता था। मौर्यकाल में भी स्त्रियों के अधिकार पुरूषों के हाथों मे ही रहे। मेगस्थनीज ने लिखा है कि 'कुछ स्त्रियों को संतान के लिए रखा जाता था और कुछ को केवल शारीरिक सुख के लिए' पुरूष उन्हें अपनी सम्पत्ति मानता था तथा वेश्यावृत्ति जैसे- घृणित कार्य को सरकार बढावा देती थी। इनसे सरकार को आमदनी भी होती थी क्‍योंकि उन पर कर लगाया जाता था। तथा सरकार उनकी रक्षा का उचित प्रबन्ध भी करती थी। स्वतन्त्र रूप से वेश्यावृत्ति करने वाली स्त्रियां रूपाजीवा कहलाती थी।

सिद्धान्त रूप में हम देखे तो स्त्रियों के अधिकार की यह व्यवस्था श्रेष्ठतम् प्रतीत होती है। परन्तु व्यवहार में अत्यन्त गिरी हुई थी। स्मृतिकारों ने उसे पुरूषों के समान अधिकार देकर उनकी स्थिति को सुधारने का प्रयास किया और माता के रूप में उसे सर्वोत्कृष्ट माना परन्तु सामाजिक वातावरण और विदेशी आक्रमणों के परिणामस्वरूप उनकी व्यवहारिक स्थिति मे पतन की प्रक्रिया प्रारम्भ हो गयी और प्राचीन कानूनविदों ने नारी को अविश्वसनीय और चंचल मानते हुए उसके अधिकारों को वापस ले लिया और एकमात्र पुत्र को ही सम्पत्ति का स्वामी घोषित किया । समस्त व्यवस्थाकारों ने जिनमें अपटार्कए नारदए याज्ञवल्क्यए पाराशर आदि ने भी महिला की स्थिति को परिवार में पुरूष के अधीन माना। स्त्रीधन के अतिरिक्त अन्य किसी भी अचल सम्पत्ति पर उसके अधिकार को मान्यता नहीं दी।

निष्कर्ष प्राचीन कानूनविदों जिनमे कौटिल्य, बृहस्पति और नारद विशेष रूप से उल्लेखनीय है, ने सम्पत्ति पर पुत्र को प्रथम अधिकारी माना है। कन्या केवल तभी उत्तराधिकारी होगी जब मृतक पुरूष अथवा नारी के कोई पुत्र नहीं होगा यदि पुत्री विवाहिता है तो उस दशा में भी उसके पिता की सम्पत्ति पर कोई अधिकार नहीं माना गया है। भारत में महिलाओं की दुर्बल वैधानिक स्थिति के कारण ही वे प्रारम्भ से दुख उत्पीडन एवं कष्टों को सहन करने के लिए बाध्य रही हैं। बहुत कम ऐसी महिलाओं का वर्णन इतिहास में प्राप्त होता है जिन्होंने अपने पैरों पर खड़े होने हेतु संघर्ष किया और सुखद जीवन व्यतीत करने मे सफलता अर्जित की। वस्तुतः नारी चुप्पी और मौन स्वीकृति ने पुरूषों को प्रात्साहन प्रदान किया और सदैव ही अपनी मनमानी करके महिलाओं का शोषण व उत्पीड़न करते रहे।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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