P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
कृष्ण का चारित्रिक विश्लेषण: महासमर के परिप्रेक्ष्य में
Character Analysis of Krishna: In The Context of Mahasamar
Paper Id :  16886   Submission Date :  17/11/2022   Acceptance Date :  21/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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पूनम काजल
असिस्टेंट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
हिन्दू कन्या महाविद्यालय
जींद,हरियाणा, भारत
सारांश आधुनिक कृष्ण-कथा लेखक नरेन्द्र कोहली ने हमारे प्राचीन महाकाव्यात्मक ग्रन्थ ’महाभारत’ को आधार बनाकर अपने ’महासमर’ उपन्यास की रचना की है। वस्तुतः प्राचीन कथा के राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक मूल्यों का आधुनिक सन्दर्भों में विश्लेषण इस कृति की विशेषता है। वस्तुतः ’महासमर’ का कथा-संसार ’महाभारत’ की कथा के चौखटे में रहते हुए भी नया और मौलिक है। उपन्यासकार ने पुरानी कथा की बाह्यकृति को बरकरार रखते हुए नए रचना-संसार का निर्माण किया है। इसके लिए उन्होंने ’महाभारत’ की कथा के अनेक प्रसंगों की नई व्याख्या की है। आधुनिक मनोवैज्ञानिक विश्लेषण के आधार पर पात्रों के मानस की पुनः संरचना की है। उन्होंने समय की माँग पर अस्वाभाविक और अलौकिक प्रसंगों में परिष्कार करने का भी स्तुत्य प्रयास किया है। इस प्रकार प्राचीन, मिथकीय व अलौकिक कथा को आधुनिक, लौकिक एवं विश्वसनीय धरातल पर उतारा गया है। लेखक ने कृष्ण को भगवान के रूप में चित्रित न करके सहज मानवीय चरित्र के रूप में उनकी अवतारणा की है। वस्तुतः कोहली की कृष्ण-कथा एक ऐसी कथा है जो भारतीय जीवन-मूल्यों की आधारशिला पर खड़ी होकर मानव को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष करने की प्रेरणा देती है। यह प्रेरणा जहाँ व्यक्ति को है, वहीं समाज और राष्ट्र के लिए भी उतनी ही सार्थक है। सच तो यह है कि भारतीय जीवन-मूल्यों को आज के मानव में स्थापित करना ही लेखक का उद्देश्य रहा है। वर्तमान युग के लेखक होने के कारण कोहली ने वर्तमान युग की नैतिक चेतना के अनुकूल अनेक नवीन उद्भावनाएँ भी की हैं। इसी कारण एक तरफ तो उन्होंने कृष्ण के परम्परित रूप को ग्रहण किया है, तो दूसरी ओर युग की आवश्यकतानुसार कृष्ण के चरित्र में अनेक नवीन गुणों की सृष्टि भी की है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Modern Krishna-story writer Narendra Kohli has composed his novel 'Mahasamara' based on our ancient epic text 'Mahabharata'. In fact, the analysis of the political, social and economic values of the ancient story in modern contexts is the specialty of this work. In fact, the story-world of 'Mahasamar' is new and original even while being within the framework of the story of 'Mahabharata'. The novelist has created a new creation-world while retaining the exterior of the old story. For this, he has given a new interpretation of many episodes of the story of 'Mahabharata'. Re-structuring the psyche of the characters on the basis of modern psychological analysis. He has also made a commendable effort to add sophistication to unnatural and supernatural events on the demand of time. In this way the ancient, mythical and supernatural story has been brought down to the modern, cosmic and reliable ground. The author has not depicted Krishna as a God but has portrayed him as an innate human character. In fact, Kohli's Krishna-Katha is a story that stands on the foundation of Indian life-values and inspires human beings to struggle for their existence. Where this inspiration is for the individual, it is equally meaningful for the society and the nation. The truth is that the aim of the author has been to establish Indian life-values in today's human. Being the writer of the present era, Kohli has also done many innovative ideas according to the moral consciousness of the present era. For this reason, on the one hand, he has adopted the traditional form of Krishna, and on the other hand, according to the need of the age, he has also created many new qualities in Krishna's character.
मुख्य शब्द उद्भावनाएँ, परम्परित, व्यूह, अवत्तीर्ण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Motifs, Traditional, Array, Embodied.
प्रस्तावना
आधुनिक युग में वैज्ञानिकता के अत्यधिक प्रसार के फलस्वरूप प्राचीन मान्यताएँ लड़खड़ाने लगी हैं। विशेषतः युवा वर्ग उन प्रचलित परम्पराओं को नकारने लगा है। ’महासमर’ के कृष्ण युवा जागरूकता के साक्षात प्रतिरूप हैं। अर्जुन के शब्दों में आधुनिक युवा वर्ग के प्रतीक कृष्ण की जागरूकता का स्पष्टतः उद्घाटन है- “सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह है कि वह परम्परा से आए ज्ञान तथा नियमों को उनके घेरे के भीतर स्वीकार न कर, उनके बाहर निकल, मौलिक रूप से उनका चित्रण करता है ......... उसका कहना है कि जड़ता से कोई कार्य नहीं करना चाहिए....।”[1] कृष्ण धर्म और न्याय के समक्ष कुल-जाति की रूढ़ियों को सर्वथा नकार कर न्याय के पथ पर अग्रसर हैं। युद्ध के सन्दर्भ में भी उनका दृष्टिकोण नितान्त आधुनिकतावादी है। जरासंघ और कालयवन के आक्रमण के समय कृष्ण युद्ध-सम्बन्धी जिस दृष्टिकोण को व्यक्त करते हैं, उससे रूढ़ियों और परम्परागत नियमों के प्रति उनकी विद्रोही प्रवृत्ति मुखर हो उठती है। प्राचीन नियमों को नकार कर वे अपने आधुनिकतावादी विचारों को प्रस्तुत करते हैं- मैं युद्ध से भाग नहीं रहा। मैं जरासंध ही नहीं, कालयवन से भी युद्ध को प्रस्तुत हूँ; किन्तु वे चाहते हैं कि हम मथुरा की प्राचीर के भीतर रहें, जो स्थान-स्थान से टूटी हुई है, जिसकी रक्षा के लिए शक्तिशाली दुर्ग नहीं हैं, जिसकी खाइयों का वर्षों से संस्कार नहीं हुआ है, जिसकी सेना में आक्रांता सेना के दसवें अंश के बराबर भी सैनिक नहीं हैं। यदि हम उनकी इस इच्छा को पूरा करें; तो यह वीरता नहीं, आत्महत्या है। मैं यह आत्महत्या नहीं करूँगा ...................... मैं भी कायरता का समर्थक नहीं हूँ, किन्तु मैं मूढ़ता का भी वरण करने को प्रस्तुत नहीं हूँ। मुझे युद्ध करना होगा, तो मैं अपनी व्यूह-रचना करूँगा। युद्ध-स्थल अपनी सुविधा से चुनूँगा, कालयवन अथवा जरासंघ की सुविधा से नहीं।”[2] कोहली के कृष्ण प्रजातंत्र के समर्थक हैं। उनकी सहायता पा कर ही पांडव एक प्रजातांत्रिक राज्य इन्द्रप्रस्थ की स्थापना करने में सफल होते हैं। जब युधिष्ठिर परिस्थितिवश राज्य को द्यूत में हार जाते हैं, तो कृष्ण युधिष्ठिर के इस कार्य को नीतिसंगत नहीं मानते-“हम सबने मिलकर एक धर्म-साम्राज्य की स्थापना की थी, जो मानव-कल्याण को अपना लक्ष्य मानता था। आपने अपने मोह में उसे अपनी व्यक्तिगत सम्पत्ति मानकर द्यूत के दाँव पर लगा दिया .......... वह राज्य न आपके भोग के लिए था, न त्याग के लिए। वह जनहित के लिए था और आप उसके रक्षक मात्र थे। मानव-कल्याण के लिए स्थापित वह धर्म राज्य, आपने इतनी सुविधा से उस दुर्योधन को समर्पित कर दिया, जो घोषित पापी है, आततायी है .............।”[3] वस्तुवः कौरवों-पांडवों के संघर्ष के माध्यम से कोहली ने पूँजीपति वर्ग और सर्वहारा वर्ग के शोषण और संघर्ष को ही साकार रूप प्रदान किया है। उपन्यासकार सामाजिक विषमता को दूर कर समानता तथा न्याय पर आधारित समाज की स्थापना के इच्छुक हैं। उनके अनुसार प्रत्येक मनुष्य की रोटी, कपड़ा और मकान की मूलभूत आवश्यकताओं की पूर्ति होनी आवश्यक है। ’अभिज्ञान’ उपन्यास में गुरूकुल के कुलपति के समक्ष अपने इन्हीं विचारों को व्यक्त करते हुए कृष्ण कहते हैं-“मैंने यादवों से सदा यही कहा है कि परिश्रम कर उत्पादन बढ़ाओ, सम्पत्ति बढ़ाओ और उसका न्यायपूर्ण वितरण करो। न्यायपूर्ण वितरण नहीं होगा, तो विरोध और वैमनस्य होगा। परिणामतः युद्ध और विनाश होगा। इसीलिए कहता हूँ कि युद्धों के विनाश से मानवता को बचाना है, तो सम्पत्ति का न्यायपूर्ण वितरण करो। व्यक्ति और व्यक्ति में तथा समाज और समाज में अन्यायपूर्ण, विषम संचय ने सदा ही युद्धों को जन्म देकर, मानवता को विनाश के मुख में धकेला है।”[4]
अध्ययन का उद्देश्य सदियों से विचारक युद्ध को मानवता-विरोधी बताकर मनुष्य को युद्ध से निरत करने का प्रयास करते रहे हैं; लेकिन यह भी ज्वलंत सत्य है कि युद्ध की प्रवृत्ति लाखों वर्षों के मानवीय विकास और ह्रास के बावजूद अभी तक उसी ताज़गी के साथ मानव-समाज के भीतर विद्यमान है, जिस रूप में वह आदिमकाल के बर्बरतम मनुष्यों में विद्यमान थी।
साहित्यावलोकन
नरेन्द्र कोहली का ’महासमर’ निश्चित रूप से महाभारत युगीन घटनाओं को आधुनिक सन्दर्भों से जोड़ने वाला ऐसा महाग्रंथ है जो पाठक की चेतना को झकझोरने का काम करता है। कृष्ण का चरित्र सदैव साहित्यकारों के आकर्षण का केन्द्र बिन्दु रहा है। ’महासमर’ के कृष्ण का चारित्रिक विश्लेषण करते समय अनेक शोध ग्रंथों व शोधपत्रों का अध्ययन किया। इन अध्ययनों से कृष्ण के चरित्र को समझने में सहायता मिली। 23 मार्च, 2022 को प्रकाशित जितेन्द्र सिंह का शोध-पत्र ’रामकथा एवं कृष्णकथा के संदर्भ में नरेन्द्र कोहली का समकालीन बोध: सामान्य विश्लेषण’ के अध्ययन से कृष्ण के व्यक्तित्व के अनेक आयाम खुल कर सामने आए। 18 अप्रैल, 2021 को सोनाली मिश्रा का ’वामपोषित साहित्यिक आकाश में सूर्य थे, नरेन्द्र कोहली’ से भी आगे कार्य करने में बहुत मदद मिली। जुलाई, 2018 में प्रकाशित पूजा भट्ट व डॉ. सरला पण्ड्या का डॉ. नरेन्द्र कोहली का आध्यात्मिक चिन्तन (महासमर ’गीतासार’ के सन्दर्भ में) के अध्ययन से भी शोध-पत्र लिखने के काम में बहुत सहायता मिली।
मुख्य पाठ
यह सत्य है कि युद्ध के मूल में अनेक मानवीय, सामाजिक व मनोवैज्ञानिक कारण काम करते हैं। युद्ध की विभीषिका से सभी परिचित हैं। कोई युद्ध नहीं करना चाहता, परन्तु अनीतियों के निरन्तर प्रसार से कोई महाविस्फोट अवश्य होता है। ’प्रत्यक्ष’ उपन्यास में कृष्ण कहते हैं-“पाप और अधर्म का विस्तार और प्रसार तभी होता है जब राक्षसत्व दंडित नहीं होता; जब क्षत्रिय भी अपनी कोमलता, भीरूता, दया अथवा करूणा के वश में होकर दंड का त्याग कर देते हैं। यदि भीष्म कुरूकुल के प्रति अपने मोह के कारण अपने क्षत्रिय धर्म की उपेक्षा न करते और दुर्योधन को आरम्भ में ही उसके पापों के लिए दंडित करते, तो न वह और धृतराष्ट्र राक्षस बनते और न इस युद्ध का अवसर आता। यह शांति और संधि की आतुरता ही थी, जिसने अधर्म को इस सीमा तक पैर पसारने के अवसर दिए और इस भयंकर युद्ध की आवश्यकता आ पड़ी।“[5 ]
साथ ही कहते हैं-“मैं आर्यावर्त्त में प्रेम, सौहार्द्र और शांति में वृद्धि करना चाहता हूँ। आप क्या नहीं जानते कि सदा युद्ध में उलझे अथवा युद्ध की तैयारी में लगे राजा, प्रजा को कभी सुखी नहीं रख सकते। प्रजा की सुख-समृद्धि के लिए शांति अनिवार्य है ....................।”[6] हालांकि परिस्थितियाँ विकट हो जाने पर कृष्ण युद्ध का समर्थन भी करते हैं, जो उनकी आधुनिक चेतना का परिचायक है। वे पितामह भीष्म के समक्ष कहते हैं-“जहाँ किसी को उसके नैसर्गिक अधिकारों से वंचित किया जाएगा, वहाँ युद्ध होगा ही; जहाँ वंचना, पाखण्ड और षड्यन्त्र होंगे, वहाँ संघर्ष अनिवार्य है पितामह।”[7]
प्रायः यह माना जाता है कि जब-जब धर्म का पतन व अधर्म का विकास होता है, तब-तब धर्म की पुनः प्रतिष्ठा हेतु ईश्वर किसी-न-किसी रूप में इस पृथ्वी पर अवतरित होते हैं। श्री रामनारायण व्यास के तो विचार ही इस प्रकार हैं-“ ’अवतार’ का मूल अर्थ ही है- ऊपर से नीचे आना अर्थात् ईश्वरत्व से प्राणी-जगत के धरातल पर    आना। जगत् की पीड़ा तथा दर्द से ईश्वर अप्रभावित नहीं रहता। वह अत्यन्त करूणामय है, इसलिए स्थिति को सुधारने के लिए धरा पर अवत्तीर्ण होता है।”[8]
भगवान विष्णु के अवतारों में कृष्ण का उल्लेखनीय स्थान है। कृष्ण को अलौकिक पुरूष के रूप में मान्यता प्रदान की गई है, लेकिन कोहली ने आधुनिक जीवन-मूूल्यों के सन्दर्भ में अवतार की परिभाषा बदल दी है। आधुनिक युग में आधुनिकताबोध के प्रभावस्वरूप मनुष्य का परम्परागत मान्यताओं से विश्वास उठता जा रहा है। आज बौद्धिकता के प्रभावस्वरूप ईश्वर के अवतार में विश्वास नहीं किया जा सकता। जो दीन-दुखियों व असहायों की सहायता करता है, वही महान् पुरूष अथवा अवतार कहलाता है। कोहली की कृष्ण-कथा के कृष्ण इसी महान् पुरूष के प्रतीक हैं, न कि प्राचीन अवतारवाद के। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए कोहली अश्वत्थामा के मुख से कहलवाते हैं- “जहाँ तक मानव रूप में जन्म लेने की बात है, कृष्ण भी साधारण मनुष्य ही हैं। उनका भी हमारे जैसा ही शरीर है। वैसी ही आवश्यकताएँ और सीमाएँ हैं, जैसी अन्य मनुष्यों की हैं, किन्तु यदि उनकी आत्मा के विकास की बात कहो, तो वे असाधारण हैं। महामानव हैं। उनके सारे कर्म कहते हैं कि वे किसी सामान्य मनुष्य के समान लोभ, मोह, काम, क्रोध इत्यादि का जीवन नहीं जी रहे। वे एक दिव्य जीवन जी रहे   हैं। इस दृष्टि से वे असाधारण हैं। महामानव हैं। उनमें इतनी ईश्वरीय विभूतियाँ हैं कि वे स्वयं ईश्वर हो गए लगते हैं। हम जिस प्रकार बंधनों में बँधे हैं, वैसे बद्ध जीव नहीं हैं कृष्ण! वे मुक्त हैं, सारे प्राकृतिक बंधनों से मुक्त हैं।”[9]
यह सत्य है कि समूचे विश्व में श्रीकृष्ण के जीवन-दर्शन की जो छाप विगत हजारों वर्षों से चली आ रही है, वैसी शायद दो-चार व्यक्तियों की ही होगी। कृष्ण की गीता सभी कालों में प्रासंगिक रही है, जिसमें मानव-जीवन को सच्ची शिक्षा देने वाला चिन्तन निहित है। वास्तव में जीवन कुरूक्षेत्र है जिसमें आसुरी तथा दैवी प्रवृत्तियों का निरन्तर संघर्ष चलता रहता है। यदि जीवन का यह संघर्ष समाप्त हो जाए, तो विश्व की व्यवस्था ही न चले। पर क्या विश्व की व्यवस्था चलाने के लिए स्वार्थ की आपाधापी शुरू कर दी जाए? कृष्ण ने इसी के बीच का मार्ग बतलाया। उनका मत है कि निष्काम बुद्धि से समत्व स्थापित करना और उसके आधार पर लोक-कल्याण के लिए कर्म करना ही धर्म है, लक्ष्य है। कोई व्यक्ति चाह कर भी कर्म से विरत नहीं हो सकता। कर्म करके उसके फल की इच्छा से ही मन का बंधन पैदा होता है। इसलिए अपने निर्धारित कर्म को करना व उससे फल की इच्छा न करना ही सच्चा योग है। कृष्ण की मान्यता है “.....................कर्म स्वार्थ से नहीं, धर्म से प्रेरित होना चाहिए; और जब कर्म, धर्म से प्रेरित होगा, तो हमें उसके फल की चिन्ता नहीं करनी चाहिए। कर्म निष्काम होना चाहिए, सकाम नहीं।”[10] 
’अंतराल’ उपन्यास में भी कर्म की व्याख्या करते हुए कृष्ण कहते हैं-“प्रकृति, कर्म को उसकी समग्रता में देखती है; और मनुष्य उस कर्म के एक खण्ड को कार्यान्वित कर, उससे कार्य का फल चाहता है.............. कर्म तो निरन्तर सक्रियता का नाम है। इसीलिए कहता हूँ कि फल की कामना मत करो; वह तो प्रकृति देगी ही। ........ किन्तु अकर्म में प्रीति न हो; अन्यथा उसके लिए प्रकृति तुम्हें दंडित भी करेगी।[11] आगे कृष्ण कहते हैं-“मैं तो यह कहता हूँ कि प्रत्येक कर्म में उसका फल निहित है, जैसे प्रत्येक क्रिया में, उसकी प्रतिक्रिया निहित है। जिस दक्षता से वह कार्य किया जाएगा, उसी उत्कृष्टता से उसका फल प्रकृति हमें देगी। वस्तुतः कर्म से वही फल मिलता है, जो उसमें निहित है। हम उससे अपने मनमाने फल की अपेक्षा नहीं कर सकते। त्रुटि वहीं है, जहाँ हम कार्य में ध्यान न लगा कर, उसके फल में ध्यान लगाते हैं; और उस कर्म को पूर्ण दक्षता से नहीं करते ................ वस्तुतः सकाम कर्म का फल सीमित होता है; और निष्काम कर्म का असीम! ................।”[12]
कोहली के कृष्ण में हमें धर्म का उत्कृष्ट रूप दिखाई देता है। वे मानते हैं कि अन्याय का प्रतिकार करना ही वास्तविक धर्म है। द्रौपदी के अपमान के समय निष्क्रिय बैठे पाण्डवों के कृत्य को उनका धर्म न मानकर युधिष्ठिर को उनकी निष्क्रियता के लिए धिक्कारते हैं। कृष्ण की दृष्टि में नारी भोग की वस्तु न होकर मनुष्यत्व के विकास का आधार है। द्रौपदी का अपमान कृष्ण के लिए असहनीय है। अपने नारी-सम्बन्धी  दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए द्रौपदी के सम्मुख कृष्ण का कथन है-“.............. संसार का कोई भी अपराध क्षम्य हो सकता है किन्तु नारीत्व का अपमान कर कोई अपराधी दंड न पाए, यह सम्भव नहीं है........।”[13]
’अंतराल’ उपन्यास में भी कृष्ण कहते हैं-“मैं स्त्री को पुरूष की सम्पत्ति नहीं मानता, न पिता की, न पति की; और न पुत्र की। वह मनुष्य है, चेतन प्राणी है- तो वह किसी की सम्पत्ति कैसे हो सकती है ...................... स्त्री अपने आप में स्वतः सम्पूर्ण, स्वतन्त्र प्राणी है। उसकी इच्छा का भी उतना ही महत्व है; जितना किसी पुरूष की इच्छा का। उसका मनोवांछित पुरूष ही उसका पति हो सकता है।”[14]
कृष्ण-कथात्मक उपन्यासों में कृष्ण मानवतावाद के प्रबल समर्थक बनकर उभरते हैं। कृष्ण की मान्यतानुसार निजी स्वार्थ से ऊपर उठकर मनुष्य को सम्पूर्ण मानवता की भलाई के लिए प्रयासरत रहना चाहिए। उनका मानना है कि “व्यक्ति की दृष्टि और उसके नाप की कसौटी बहुत संक्षिप्त है। बहुत छोटी है। वह सब कुछ तत्काल अपने लिए ही चाहेगा, तो मानवता का कल्याण कभी नहीं होगा। हमें अपने ’स्व’ का विस्तार करना होगा। हमें अपने समाज ही नहीं, सम्पूर्ण मानवता की दृष्टि से सोचना होगा- अपनी ही पीढ़ी नहीं, अगली पीढ़ियों के विषय में भी सोचना होगा।”[15]
यहाँ उपन्यासकार ने कृष्ण के माध्यम से विश्व-बन्धुत्व का रूप और मानवतावादी  भारतीयों का जीवन्त चित्र प्रस्तुत किया है। अपने ’स्व’ की परिधि को तोड़ता हुआ, अपने-पराए के भेद-भाव को विस्मृत कर कृष्ण सम्पूर्ण मानवता का हित चाहता है। मथुरा से द्वारका की ओर प्रस्थान करते समय मथुरा के एक-एक व्यक्ति को सुरक्षित निकाल ले जाना उनके मानवतावाद का ही परिचायक है। भीष्म पितामह के समक्ष अपने इस मानवतावादी दृष्टिकोण को व्यक्त करते हुए कहते हैं-“वस्तुतः मनुष्य तो है ही सृष्टि-रूप! वह अपना संकोच न करे , तो सृष्टि का कोई काम, उसके ’स्व’ से बाहर नहीं है। किन्तु वह अपनी सीमित दृष्टि के कारण स्वयं को पहचानता नहीं और निरंतर संकुचन की क्रिया में पिसता चलता है। अपने प्रेम का वृत्त संकीर्ण करता है ................. मैं तो कहता हूँ पितामह! जिस व्यक्ति, संगठन, मत और विचार ने मानवता में दरारें डाली हैं, उसने मानव की विराटता के प्रति अपराध किया है, .................. महान वे ही लोग हैं पितामह! जिन्होंने मानवता के बीच बनाई गई कृत्रिम दीवारें तोड़ी हैं ...................।”[16]
निष्कर्ष सत्य तो यह है कि ’महासमर’ में कोहली ने कृष्ण के ईश्वर रूप की सर्वथा उपेक्षा कर एक सहज मानवीय चरित्र के रूप में उन्हें इस संघर्ष के नेता के रूप में प्रस्तुत किया है। कृष्ण तत्कालीन वर्णसंकर संस्कृति तथा अन्याय का विरोध करने के लिए ही अवतरित हुए थे। कृष्ण के माध्यम से उपन्यासकार ने आधुनिक युग की मूल समस्या ’अशांति’ पर भी अपनी दृष्टि जमाई है। कृष्ण अन्त तक युद्ध को टालने का भरसक प्रयत्न करते हैं, जो उनके शान्तिमय और अहिंसक उपायों की खोज तथा उनके समर्थन की हामी भरती दिखाई पड़ती है। युद्ध को लेकर उनका संशय उनकी दुर्बलता का परिचायक न होकर जन-रक्षा के उदात्त लक्ष्य के प्रति समर्पित समर्थ और विवेकी व्यक्ति का संशय है, जो आधुनिक चेतना-सम्पन्न व्यक्तियों की मूल चिन्ता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. नरेन्द्र कोहली, कर्म, पृष्ठ 64 2. वही, प्रत्यक्ष, पृष्ठ 184 3. वही, अंतराल, पृष्ठ 100 4. वही, अभिज्ञान, पृष्ठ 159 5. वही, प्रत्यक्ष, पृष्ठ 321-322 6. वही, कर्म, पृष्ठ 213 7. वही, कर्म, पृष्ठ 379 8. उद्धृत, डॉ देवराज, संस्कृति का दार्शनिक विवेचन, पृष्ठ 119 9. नरेन्द्र कोहली, प्रच्छन्न, पृष्ठ 262 10. वही, अधिकार, पृष्ठ 330 11. वही, अंतराल, पृष्ठ 109-110 12. वही, पृष्ठ 111-112 13. वही, बंधन, पृष्ठ 71 14. वही, पृष्ठ 237 15. वही, अभिज्ञान, पृष्ठ 196 16. वही, अधिकार, पृष्ठ 372