ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
मध्यप्रदेश का आदिवासी कला परिदृश्य
Tribal Art Scene of Madhya Pradesh
Paper Id :  16831   Submission Date :  2022-12-13   Acceptance Date :  2022-12-22   Publication Date :  2022-12-25
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
रेखा धीमान
सह- प्राध्यापक
चित्रकला विभाग
शास. हमीदिया कला एवं वाणिज्य महाविद्यालय
भोपाल,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश
मध्यप्रदेश में अधिकांशतः आदिवासी या जनजाति समूह निवास करते है। मध्यप्रदेश में मुख्यतः भील, गोण्ड, कोरकू, कोल, बैगा,उरांव, कोरवा, कोल और कमार, आदि जनजाति के लोग रहते हैं। इनकी अपनी संस्कृति अपना समुदाय और अपने नियम होते हैं। इनके जीवन का सौंदर्य बोध चित्र शिल्पों नृत्य और गीतों में दिखाई देता है। वेकला की पूर्ति के लिए सहज उपलब्ध साधनों का उपयोग करते हैं। वे प्रकृति प्रेमी होते हैं और पशु-पक्षियों का प्रतीकात्मक रूप से प्रयोग करते हैं। भारत भवन ने आदिवासी कलाकारों को अपनी एक पहचान दिलाई उन्हें शिखर सम्मान जैसे सर्वोच्च पुरस्कारों से नवाजा गया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Most of the tribal or tribal groups reside in Madhya Pradesh. Madhya Pradesh is mainly inhabited by the tribes of Bhil, Gond, Korku, Kol, Baiga, Oraon, Korva, Kol and Kamar, etc. They have their own culture, their own community and their own rules. The beauty of their life is reflected in pictures, crafts, dances and songs. They use easily available means to fulfill the art. They are nature lovers and use animals and birds symbolically. Bharat Bhavan gave an identity to the tribal artists, they were awarded with the highest awards like Shikhar Samman.
मुख्य शब्द सरना धर्म, अनुष्ठान, मिथक, अभिप्राय, बिम्ब, परधान, नोहडोरा।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Sarna Dharma, Ritual, Myth, Purpose, Image, Pardhan, Nohdora.
प्रस्तावना
आदिवासी का अर्थ होता है मूलनिवासी या आदिकाल से निवासरत मानवसमूह। ये सरल स्वभाव के और जंगलों में निवास करनेवाले होते हैं और प्रकृति के नियमों अर्थात सरनाधर्म का पालन करते हैं। इस धर्म में पेड - पौधों. पहाड तथा प्राकृतिक प्रतीकों आदि की पूजा की जाती है। यह धर्म ही नहीं सामाजिक जीवन का एक हिस्सा होता है।अतः वे अनेक प्रकार के अनुष्ठान. चित्र एवं देह अलंकरण को अपनाते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य
शोध पत्र के माध्यम से मध्यप्रदेश में निवास करने वाले आदिवासी कलाकारों की कला को सामान्य जनमानस के समक्ष ला कर विश्व पटल पर प्रसिद्धि दिलाना है। आदिवासी कलासमाज आधुनिकता के चलते परंपराओं और संस्कारों से दूर होता जा रहा है। अतः प्रशासकीय प्रयासों के माध्यम से आदिवासी सांस्कृतिक का संरक्षण किया जाना चाहिए।
साहित्यावलोकन
मध्यप्रदेश में जनजाति की बहुलता है। इनकी अपनी सांस्कृतिक विरासत है। यह गोण्डवाना-प्रदेश’’ भौगोलिक दृष्टि से प्राचीनतम क्षेत्रों में से एक है।[1] यहाँ गोण्ड जनजाति निवास करती है। गोण्ड शब्द की उत्पत्ति तेलगू भाषा के ‘KOND’ शब्द से हुई है जिसका अर्थ है पहाड़’ और वाना’ अर्थात् जंगल। ये लोग नर्मदा नदी घाटी और उत्तर गोदावरी क्षेत्र में पाये जाते हैं। मध्यप्रदेश में जबलपुर और मण्डलासतपुड़ा रेंज में महादेव पहाड़ी और मैकालहिल्स भी गोण्ड क्षेत्र रहा है। छिंदवाड़ा के रास्ते में तामिया’ में गोण्डी निवास करते     हैं।[2]
मुख्य पाठ

गोण्ड जनजाति के पश्चात् हमें भील दिखाई देते हैं। मध्यप्रदेश में जनजातियों के सामाजिक और सांस्कृतिक बहुलता के कारण इसे चार परिक्षेत्रों से जाना जाता है:-

1. पश्चिमी जनजाति क्षेत्र-झाबुआ, खरगोन, खण्डवा और रतलाम (भील संस्कृति)

2. मध्य जनजाति क्षेत्र-  मण्डला, बैतूल, सिवनी, छिंदवाड़ा, बालाघाट, सागर, शहडोल (गोण्ड, कोरकू, कोल, बैगा जनजाति)

3. उत्तर पूर्वीय जनजाति क्षेत्र-  सरगुजा, रायगढ़, बिलासपुर, सीधी (उरांव, कोरवा, कोल और कमार जनजाति)

4. उत्तर पश्चिम क्षेत्र-  मुरैना, शिवपुरी और गुना (संवर और सहरिया)

जनजाति संस्कृति के दर्शन हमें विभिन्न अनुष्ठानों में दिखाई देता है।इनके जीवन का सौदर्य- बोध चित्रों, शिल्पों, नृत्य और गीतों में दिखाई देता है। इनके चित्रो को देखने से पता चलता है कि ये आड़ी तिरछी रेखायें नहीं उनमें रंग और रेखाओं का अनंत विस्तार दिखाई देता है। वे कला की पूर्ति के लिये प्रकृति से प्राप्त सहज सुलभ संसाधनों का उपयोग करते हैं। इन के चित्रों में रंगों का फैलाव, कहीं रेखाओं का उलझाव, कहीं बिन्दुओं का विस्तार, कहीं अभिप्रायों की विलक्षणता और कहीं सिर्फ आकारो की अनघड़ता के दर्शन होते हैं। चिड़िया, मोर, हिरण आदिवासियों के लिये सिर्फ पशु- पक्षी नहीं है, बल्कि इनका गांव, घर और कृषि से गहरा संबंध होता है। इनका प्रकृति से निकट संबंध तो है ही, साथ ही कला जीवन का अनिवार्य अंग है।

भील जनजाति के लोग पिथौरा मिथकीय घोड़े बनाते हैं। इसी प्रकार कोरकू की स्त्रियाँ दीवारों पर थाठियाखड़िया या गेरू से बनाती है। भील, गोंड, परधान, राठ्या और बैगा जनजाति के लोग स्वयं के शरीर को गुदने’’ से अलंकृत कराते हैं। ये गुदने मात्र शारीरिक अलंकरण नहीं है, बल्कि प्रतीकात्मक रेखाओं के माध्यम से अन्वेषित अर्थों को सदियो और पीढ़ियों से जनजातियों ने अपने शरीर पर सुरक्षित रखा है। गुदना चित्र के पीछे यह मान्यता है कि मृत्यु के साथ मात्र ये चित्र ही होते हैं।[3] जनजाति चित्र प्रकृति प्रेरित होते हैं।सृष्टि में प्राप्त जीव- जन्तु जिनमें हाथी, गाय, बैल, घोड़ा, मगर, छिपकली, सांप, चिड़िया, मोर, हिरण, उल्लू और सुअर आदि को चित्रों में सृजित किया है। साथ ही काष्ठ एवं धातु शिल्प में उकेरा है। यह एक परम्परा है, जो पुरस्कार और सम्मान की मोहताज नहीं। फिर भी जनजातीय कलाकारों ने भारतीय आदिवासी कला को विदेशों तक पहुंचाया है। जनगण सिंह श्याम, व्यंकटश्याम, भूरीबाई, लाड़ो बाई आदि ने पुरस्कार ही नहीं पाया, बल्कि इन की पेंटिंग न्यूयार्क, स्कॉटलैण्ड आदि स्थानों में लाखों मे बिकी। कला- कर्म मे संलग्न रहते हुए स्व. जनगण सिंह श्याम का देहावसान जापान में हुआ। गोण्ड और भील जनजाति के लोग पहले प्राकृतिक रंगों से भित्ति चित्र बनाते थे लेकिन बदलते समय के साथ सिंथेटिक रंगों से कागज केनवास पर उतारा है। विशेष कर ये चित्रकारी परधानऔर नोहडोरा कहलाती है। इस जनजाति कला को भील और गोण्ड कलाकारों ने समृद्ध किया है।

जे. स्वामीनाथन ने म.प्र. के सुदूर अंचलो में फैली इस आदिम स्वरूप की कला के महत्व को पहचाना और इन कलाओं के समग्र अध्ययन हेतु भारत भवन में सहेजा। इन रचना कर्मियों को एकत्र कर भोपाल लाया गया और इन की कला कृतियों को नागर कलाकृतियों के साथ एक छत के नीचे प्रदर्शित भी किया।[4]

इन कलाकारों में निम्नलिखित प्रमुख है:-

गोण्ड कलाकार - आनन्द सिंह श्याम, भज्जू श्याम, बीरबल सिंह उइके, छोटी तैकाम, धनैयाबाई, दुर्गाबाई, धवल सिंह उइके, दिलीप श्याम, गरीबा सिंह तैकाम, हरगोविंद श्याम, उर्वेती, हीरालाल धुर्वे, इन्दु बाई मरावी, ज्योतिबाई उइके, कलाबाई, कमलेश कुमार उइके, लखनलाल भर्वे, मयंक कुमार श्याम तथा नर्मदा प्रसाद तैकाम आदि।

भील कलाकार - अनिता बारिया, भूरीबाई (पटोला), भूरीबाई (सेर), गंगूबाई, लाडोबाई, जोरसिंह, रमेश सिंह करटारिया, शेर सिंह, सुभाष भील, भीमा पारगी, चम्पा पारगी तथा प्रेमी आदि कलाकारों ने चित्र परम्परा को सहेजा है।[5]

इन कलाकारों ने मध्यप्रदेश की कला को उन्नति की राह दिखाई। आदिवासी कला को विश्व नक्शे में स्थान दिलाने का प्रयास किया।


निष्कर्ष
आदिवासी कलाकार बहुत ही सरल प्रवृत्ति वाले होते हैं परंतु इनकी कला गूढ़ रहस्य को प्रकट करने वाली होती है। इनके चित्रों में अनेक जन्मों की स्मृतियाँ और मिथकीय प्रतीक होते हैं। वे इनका प्रयोग अनुष्ठान और सौंदर्य के लिए करते हैं अतः वर्तमान में इनकी कला को उचित स्थान मिलना ही चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. शुक्ल नवल - परम्परा - प्रकाशन अधिकारी मध्यप्रदेश आदिवासी लोक कला परिषद्, मूल्ला रमूजी संस्कृति भवन, भोपाल - 1998, पृष्ठ-13 2. www-thestudy-net-au/project/gondwana&name 3. लोक रंग सृष्टि - म.प्र. के जन जातीय चित्रकारों की कृतियों पर आधारित चित्र प्रदर्शनी- म.प्र. आदिवासी लोक कला परिषद का प्रकाशन - 1992 4. समकालीन कला - अंक 22 - जून-सितम्बर 2002 - ललित कला अकादमी का प्रकाशन, दिल्ली, पृष्ठ-40 5. website&www-ignca-nic-in/trible/art/artist/gond/html- 6. शलाका 30 जनजातीय लोककला एवं बोली विकास अकादमी, मध्यप्रदेश जनजातीय संग्रहालय श्यामलाहिल्स भोपाल