P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- II October  - 2022
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
विवेकानंद के चिंतन में राजनीति व धर्म का संबंध
Relationship between Politics and Religion in Vivekananda Thought
Paper Id :  16918   Submission Date :  02/10/2022   Acceptance Date :  22/10/2022   Publication Date :  25/10/2022
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
संध्या गुप्ता
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश विवेकानंद ने जब भी राजनीति से संबंधित कुछ कहा है वह धर्म से मुक्त होकर नहीं कह पाए हैं। क्योंकि वे राजनीति को धर्म से पृथक देखना ही नहीं चाहते थे, राजनीति का आध्यात्मीकरण चाहते थे। वे धर्म को व्यक्ति व राष्ट्र दोनों के लिए शक्ति प्रदायक मानकर विशेष रूप से भारत के संदर्भ में तो यह समन्वय चाहते ही थे। धर्म से युक्त राजव्यवस्था में संघर्ष नहीं बल्कि सुव्यवस्था होती है। उन्होंने धर्म को आधार बनाकर राष्ट्रवाद का निर्माण किया। वे धर्म व कर्तव्य निष्ठा के त्याग को ही भारत के अध:पतन का कारण मानते थे। उनका मानना था कि अपने उदार रूप में धर्म नैतिकता के आसपास ही होता है जो कि राज्य के स्थायित्व के लिए आवश्यक होता है। हालांकि यह आशंका हो सकती है कि धर्म राजनीति के हाथ का खिलौना बनाया जा सकता है इसलिए सावधान रहने की आवश्यकता है। धर्म व राजनीति का संतुलन व इनका एक दूसरे को संयमित रखना आवश्यक है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Whenever Vivekananda has said something related to politics, he has not been able to say it without being free from religion. Because he did not want to see politics separate from religion, wanted the spiritualization of politics. Considering religion as a source of strength for both the individual and the nation, he wanted this co-ordination, especially in the context of India. In a polity based on religion, there is no conflict but good order. He built nationalism on the basis of religion. He considered the sacrifice of religion and devotion to duty as the reason for India's downfall. He believed that religion in its liberal form is only around morality which is necessary for the stability of the state. Although there can be apprehension that religion can be made a toy in the hands of politics, so there is a need to be careful. It is necessary to balance religion and politics and keep them restrained from each other.
मुख्य शब्द विवेकानंद, राजनीति, धर्म, संबंध, संघर्ष, सुव्यवस्था, सुशासन, आध्यात्मीकरण।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda, Politics, Religion, Relations, Struggle, Orderliness, Good Governance, Spiritualization
प्रस्तावना
राजनीति को धर्म से कितना जुड़ाव रखना चाहिए और कितना पार्थक्य,यह सैकड़ों वर्षो से राजनीतिक व्यवस्थाओं व राजनीतिक चिंतन दोनों का विचारणीय प्रश्न रहा है। एक तरफ धर्म को अफीम मानने वाले मार्क्स हैं तो दूसरी तरफ राजनीति को आध्यात्मिक उन्नति का साधन मानने वाले गांधी। धर्म ने राजनीति के साथ मिलकर कभी संघर्षों को जन्म दिया है तो कभी सुशासन को। धर्म का राजनीति से सम्मिलन क्यों व कितना होना चाहिए इस पर प्रसिद्ध भारतीय चिंतक विवेकानंद(1863- 1902) का दृष्टिकोण जानना समीचीन होगा।
अध्ययन का उद्देश्य 1. विवेकानंद के चिंतन में राजनीति व धर्म के संबंधों पर अभिव्यक्त विचारों का प्रतिपादन व विश्लेषण। 2. विद्यमान राजनीतिक व सामाजिक व्यवस्था में सुधार के संदर्भ में उक्त विचारों की प्रासंगिकता का परीक्षण करना।
साहित्यावलोकन

विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त  विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल',ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स- लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंदके .एस. भारती कृत इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्सजवाहरलाल नेहरू  कृत डिस्कवरी ऑफ इंडिया ,वीरेंद्र ग्रोवर कृत स्वामी विवेकानंद पॉलीटिकल थिंकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया ,कतिपय आलेखों जैसे द रिलेशंस ऑफ तिलक एंड विवेकानंद- वी. पी. वर्मा,अन्य शोध पत्रों जैसे स्वामी विवेकानंद: टुडे एंड टुमारो-भावेश प्रामाणिक (2017),रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर ,स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता -जीन सी.मेकफॉल (2021), स्वामी विवेकानंद: हिज लाइफ लेगेसी एंड लिबरेटिव  एथिक्स- माइकल बर्ले( 2021) का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से यह शोध पत्र विवेकानंद के चिंतन में  राजनीति व धर्म के संबंधों के संदर्भ में व्यक्त  मूल स्वरों के प्रतिपादन का अधिक प्रयास करता है।

मुख्य पाठ

विवेकानंद की नजर में धर्म बेहद महत्वपूर्ण था। वे धर्म को सर्वव्याप्त देखना चाहते थे फिर भला राजनीति उससे अछूती कैसे रह सकती थी। उन्होंने धर्म के संबंध में विस्तार से विचार व्यक्त किए हैं और राजनीति के संबंध में अत्यल्प। पर जब भी उन्होंने राजनीति से संबंधित कुछ कहा है, वे धर्म से मुक्त होकर नहीं कह पाये हैं। क्योंकि वे राजनीति को धर्म से पृथक् देखना ही नहीं चाहते थे-राजनीति को धर्म से संयुक्त कर देना चाहते थे-राजनीति का आध्यात्मीकरण चाहते थे।

वे ऐसा इसलिए चाहते थे क्योंकि वे मानते थे कि धर्म में व्यक्ति और राष्ट्र दोनों के लिए शक्ति प्रदायकता विद्यमान है और धर्म के आधार पर एक सशक्त राष्ट्र का गठन किया जा सकता है। भारत के संदर्भ में तो वे विशेष रूप से धर्म को राजनीति से समन्वित करना चाहते थे क्योंकि उनका मानना था कि धर्म भारत का प्राण है, जीवन रक्त है, जो उसकी रग-रग में दौड़ता है। इसलिए धर्म को त्यागकर यहाँ कोई राजनीति नहीं हो सकती और न ही होनी चाहिए। भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण हेतु उन्होंने धर्म को भी एक आधार बनाया अर्थात् धर्म के आधार पर भारतीयों में राष्ट्र प्रेम और राष्ट्र संगठन की भावना उदय करने की चेष्टा की और अपने प्रयासों में कुछ हद तक सफल भी हुए। उनका कहना था कि भारत में तो प्राचीन काल से ही धर्म और राजनीति का संबंध रहा है और जब भी जरूरत हुई धर्म ने राजनीति का मार्गदर्शन किया है। भारत जिस एक विशिष्ट तत्व की अभिव्यक्ति करता है, वह धर्म है इसलिए यहाँ अन्य सभी तत्वों को उसका सहगामी होना ही पडे़गा। यहाँ के निवासी राजनीति को तभी स्वीकार करेंगे अथवा किसी भी राजनीतिक क्रिया कलाप को तभी उचित मानेंगे जब वह धार्मिक हो या धर्म को पुष्ट करता हो। उन्होंने कहा, ‘‘प्रत्येक राष्ट्र का कार्य करने का अपना-अपना तरीका है कुछ राजनीति के माध्यम से कार्य करते हैं, कुछ सामाजिक सुधारों के माध्यम से और कुछ अन्य तरीकों से। हमारे पास तो केवल धर्म ही वह भूमि है जिस पर हम चल सकते हैं। इंग्लैंड निवासी धर्म को राजनीति के माध्यम से, शायद अमेरिकन सामाजिक सुधारों के माध्यम से धर्म को समझते है। लेकिन भारतीय राजनीति को तभी समझते हैं जब वह धर्म के माध्यम से की जाए। यहाँ समाज शास्त्र भी धर्म में से उदित होता है।’’[1] उन्होंने इसी संदर्भ में कहा कि यहाँ राजनीति का प्रचार करने के लिए हमें दिखाना होगा कि उसके द्वारा हमारे राष्ट्रीय जीवन की आकांक्षा-आध्यात्मिक उन्नति की कितनी पूर्ति हो सकेगी।’’[2]

तत्कालीन भारत के राजनीतिक अधःपतन को देखकर उन्होंने महसूस किया कि यह धर्म और कर्तव्यनिष्ठा का त्याग करने से ही हुआ है इसलिए इसका निदान भी यही हो सकता था कि राज्य और व्यक्ति दोनों को ही धर्म से संयुक्त कर दिया जाए।

वे राजनीति को धर्म पर आधारित करना चाहते थे क्यों कि उनका मानना था कि केवल पशु-बल या भौतिकता के आधार पर शासन नहीं किया जा सकता। राजनीति को आध्यात्मिकता से संयुक्त होना ही होगा। उन्होंने यूरोप के संदर्भ में कहा कि, ‘‘मानव जाति के ऊपर तलवार से शासन करने की चेष्टा करना नैराश्यजनक और नितांत व्यर्थ है। वे केन्द्र जहाँ से इस प्रकार के पाशव बल द्वारा शासन की चेष्टा उत्पन्न होती है, सबसे पहले स्वयं डगमगाते हैं उनका पतन होता है और नष्ट-भ्रष्ट हो जाते हैं।’’[3] उनका कहना था कि यूरोप केवल भौतिक शक्ति के बल पर ही नहीं चल सकता उसे आध्यात्मिकता को अपनाना ही होगा अन्यथा वह नष्ट हो जाएगा।

उनका मानना था कि राजनीति से धर्म अनिवार्य रूप से जुड़ा हुआ है क्योंकि अपने उदार रूप में धर्म नैतिकता के आस-पास ही होता है जो किसी भी समाज और राज्य के स्थायित्व के लिए आवश्यक है। उनका कहना था कि, ‘‘सभी सामाजिक व राजनीतिक व्यवस्थाएँ मनुष्यों के भलेपन पर टिकती हैं। कोई राष्ट्र इसलिए महान और अच्छा नहीं होता कि पार्लियामेन्ट ने यह या वह कानून पास कर दिया है वरन् इसलिए होता है कि उसके निवासी अच्छे होते हैं। धर्म इस समस्या की जड़ तक पहुँचता है। यदि यह ठीक है तो सब ठीक होता है।’’[4]

धर्म से युक्त राजव्यवस्था में संघर्ष नहीं स्वाभाविक सुव्यवस्था होती है। वे राज्य के संबंध में प्राचीन भारतीय दृष्टिकोण से सहमत थे जिसमें शासन और प्रजा के अधिकारों के बजाय कर्तव्यों को ही राज्यव्यवस्था का आधार बनाया गया है। राजनीति को शासन के अर्थ में राज धर्म और व्यक्ति के संदर्भ में इसे प्रजाधर्म कहा गया है। राज धर्म और प्रजा धर्म दोनों को ही आध्यात्मिक अनुशासन पर आधारित माना गया है।’’[5]

धर्म और राजनीति को संयुक्त कर देने से यह आशंका हो सकती है कि धर्म राजनीति के हाथ का खिलौना बन जाएगा। इसके लिए विवेकानंद ने भी सचेत किया कि राजनीतिक उद्देश्यों के लिए धर्म को उपकरण न बनाया जाए। धर्म की राजनीतिक मंतव्यों के अनुसार व्याख्या न की जाए। उन्होंने कहा, ‘‘आजकल लोग प्रायः धर्म को किसी प्रकार के सामाजिक अथवा राजनीतिक उद्देश्य की पूर्ति के साधन के रूप में लेते हैं। इस विषय में सावधान रहना। धर्म का उद्देश्य धर्म ही है।’’[6]

जहाँ उनका मानना था कि धर्म और राजनीति दोनों में संतुलन आवश्यक है और किसी भी राष्ट्र में केवल एक से ही काम नहीं चल सकता वहीं पाश्चात्य देशों की धर्म विहीन विभ्रांत राजनीति व प्राच्य देशों के पुरोहितों के अत्याचारों के उदाहरण से अपनी बात को पुष्ट करते हुए वे बताते हैं कि धर्म और राजनीति का एक दूसरे को संयमित रखना कितना आवश्यक है।

विवेकानंद द्वारा राजनीति से धर्म को जोड़ने का निहितार्थ निश्चय ही किसी एक धर्म से राज्य को जोड़कर अन्य धर्मावलंबियों को बर्दाश्त करने से लिया ही नहीं जा सकता क्यों कि वे तो धर्म के भी उस स्वरूप को पसंद करते थे जिसमें अन्य धर्मानुयायियों के लिए सहज स्वीकृति का भाव विद्यमान हो। धर्म और राजनीति के समन्वय से उनका मंतव्य राजनीति को दायित्वपूर्ण और नैतिक बनाना ही था, जिसे बाद में गाँधी ने भी अपनाया।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रमुख रूप से विषय वस्तु विश्लेषण को महत्व दिया गया है एवं आवश्यकतानुसार दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।
निष्कर्ष विवेकानंद राजनीति को धर्म से संयुक्त कर देना चाहते थे। उनका धर्म जो नैतिकता,मानवीयता, व उदारता के गुणों से युक्त है, को राजनीति से संयुक्त कर देना, धार्मिक- नैतिक राजनीति का होना सर्वदा अभीष्ट होता है। किंतु राजनीतिज्ञों के द्वारा इसका दुरुपयोग न हो ,कहीं धर्म अपने संकीर्ण रूप में भेद का कारण न बन जाए, इस संदर्भ में सावधान रहने की आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. ग्रोवर, वीरेन्द्र, स्वामी विवेकानंद: पॉलिटिकल थिंकर्स ऑफ मॉडर्न इंडिया, नई दिल्ली, दीप एंड दीप पब्लिकेशंस, 1994, पृ. 308 2. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-5, पूर्वोक्त, पृ. 116 3. उपर्युक्त, पृ. 56 4. उपर्युक्त, भाग-4, पृ. 24 5. चतुर्वेदी, मधुकर श्याम, प्रमुख भारतीय राजनीतिक विचारक, जयपुर, कॉलेज बुक हाउस, 2007, पृ. 550 6. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-9, पूर्वोक्त, पृ. 248