ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
भारत अमेरिका सम्बन्ध पश्चिमी एशिया के संदर्भ में
Indo-US Relations in the Context of West Asia
Paper Id :  16936   Submission Date :  16/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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दीप्ति अग्रवाल
सहायक आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
रामेश्वरी देवी राज कन्या महाविद्यालय
भरतपुर,राजस्थान, भारत
सारांश पश्चिम एशिया जिसे मध्यपूर्व भी कहते है, अंतर्कलह का घर बना हुआ है। 14वीं शताब्दी के बाद से अधिकांश पश्चिमी एशिया क्षेत्र में ओटोमन साम्राज्य का प्रभुत्व रहा है। जिसमें अलग अलग जातियों, धर्मों व संस्कृतियों के लोग निवासरत थे। वर्तमान में पश्चिमी एशिया में ईरान, तुर्की, साइप्रस, ओमान, यमन फारस इत्यादि महत्वपूर्ण क्षेत्र है। यह क्षेत्र सामरिक भौगोलिक स्थिति के कारण अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य और संबंधों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद West Asia, also known as the Middle East, became the house of internal conflict. Since the 14th century, most of the Western Asia region has been dominated by the Ottoman Empire. In which people of different castes, religions and cultures resided. At present, Iran, Turkey, Cyprus, Oman, Yemen, Persia etc are important areas in Western Asia. The region plays an important role in international commerce and relations due to its strategic geographical location.
मुख्य शब्द मैड्रिड, मध्यपूर्व, अंतर्राष्ट्रीय वाणिज्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Madrid, Middle East, International Commerce.
प्रस्तावना
फिलीस्तीनी समस्या और इजराइल का जन्म इस संघर्ष का मूल है। भूमध्य सागर के पूर्वी तट पर स्थिति पश्चिमी एशिया का यह भू भाग लगभग 4000 वर्षों का इतिहास लिये हुये है। फिलीस्तीन का हृदय स्थल यरूशलम 2000 वर्षो से यहूदी ईसाई व मुसलमानों का सबसे बड़ा धार्मिक केन्द्र रहा है। इस महत्ता से तीनो धर्मों ने समय-समय पर इस पर अधिकार करने के अथक प्रयास किये
अध्ययन का उद्देश्य पश्चिमी एशिया के संदर्भ में भारत अमेरिका सम्बन्ध का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
प्रथम विश्व युद्ध के बाद फिलिस्तीन तुर्क साम्राज्य से निकल कर ब्रिटिश नियंत्रण में आ गया और राष्ट्र संघ के मार्गदर्शन में एक न्यासी राष्ट्र बनाया गया था। इस क्षेत्र में अंग्रेजों के नियंत्रण के पश्चात यहूदी लोग धीरे-धीरे अधिक संख्या में आकर बसने लगे तथा उनका अनुपात 1920 में 16 प्रतिशत से 1947 में 24 प्रतिशत हो गया। अन्य देशों से आये यहूदी स्थानीय अरब लोगों से अधिक शिक्षित सम्पन्न एवं कर्मठ थे। अतः उन्होंने कृषि, उद्योग, शिक्षा आदि में प्रगति की और समस्त व्यापारिक संस्थाओं एवं संगठनों को अपने नियंत्रण में कर लिया। फलस्वरूप अरब निवासियों में बदले की भावना जाग्रत हुई। ग्रेट बिट्रेन ने फिलीस्तीन में अपने अधिकारों का उपयोग दोहरे उद्देश्य की राजनीति के अन्तर्गत किया। उसने प्रथम विश्व युद्ध के समय अरबों से वायदा किया कि युद्ध में विजय के पश्चात फिलीस्तीन को अरब राष्ट्रों के साथ मिला दिया जायेगा और अरब तुर्क शासन से आजाद हो जायेगा। इसी समय धनी व सम्पन्न यहूदी समाज को भी ग्रेट बिट्रेन ने फिलीस्तीन में रहने का अधिकार दे दिया। ब्रिटेन ने ऐसा इसलिये किया क्योंकि उस पर संयुक्त राज्य अमरीका की सरकार व उसके यहूदी समाज का दबाव पड रहा था। इस उद्देश्य के लिए 2 नवम्बर 1917 को बिट्रिश विदेश मंत्री बेलफोर ने ‘‘यहूदियों के आश्रय स्थल की स्थापना’’ की घोषणा की थी यह बेलफोर घोषणा कहलाती है। इसका उद्देश्य था कि ब्रिटिश सरकार फिलिस्तीन में यहूदियों के लिये एक राष्ट्रीय घर का निर्माण करना है। विश्व के सभी यहूदियों ने इस घोषणा के द्वारा फिलीस्तीन उन्हें सौपने का ब्रिटिश वायदा मान लिया और दुनियाँ भर से यहूदी फिलीस्तीन में आकर बसने और नए राष्ट्र के निर्माण की नींव की शुरूआत हुयीे। 
मुख्य पाठ

अप्रैल 1920 में मित्र राष्ट्रों से ब्रिटेन को फिलिस्तीन का न्यासिता मिली थी और जून 1922 में ब्रिटिश सरकार ने सरकारी घोषणा कर फिलिस्तीन में यहूदी राष्ट्रीय घर स्थापित करने की पुष्टि कर दी। जून 1922 में अमरीका ने भी इसकी पुष्टि कर अपने राज्य के यहूदी समाज का विश्वास जीत लिया। ग्रेट ब्रिटेन ने घोषणा के बाद विश्व के सभी भागों से और मुख्यत यूरोपीय राज्यों से यहूदियों को यहाॅ तेजी से बसाया और अरबों की भूमि उन्हें हस्तान्तरित कर दी इससे धार्मिक द्वन्द ने राजनीतिक संघर्ष का रूप ग्रहण कर लिया। संघर्ष दिन प्रतिदिन नियोजित रूप से बढ़ता गया और 1937 तक स्थिति इतनी खराब हो गयी कि ब्रिटिश सरकार इसे अपने अधिकार के अन्तर्गत नियंत्रित रखने में असमर्थ हो गयी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने इस समस्या के समाधान हेतु मई 1947 में 11 राज्यों की एक समिति गठित की जिसमें भारत भी एक सदस्य था इस समिति के मील कमीशन के निर्णयों की पुष्टि करते हुये फिलिस्तीन को तीन भागों में विभक्त करने की सिफारिश की - 

1. यहूदी राज्य - इजरायल

2. अरब राज्य - फिलिस्तीन

3. यरूशलम जिसे अन्तर्राष्ट्रीय न्यासिता परिषद के अधीन रखा गया। 

29 नवम्बर 1947 को इसे महासभा ने दो तिहाई बहुमत से स्वीकार कर लिया और 1 अगस्त 1948 से पूर्व ब्रिटिश शासन समाप्त करने का निर्णय दिया। यहूदियों ने इस निर्णय को स्वीकृति प्रदान कर दी। परन्तु अरबों ने इसे ठुकरा दिया। अरब इस बात के लिए तैयार नहीें थे कि उनकी मातृभूमि में कोई विदेशी राज्य स्थापित हो। 

अब तक अरब राज्यों के बीच चार युद्ध हो चुके हैं तथा आज भी वही स्थिति बनी हुई है जो पहले विद्यमान थी। 

फिलिस्तीनियों के संघर्ष के लिए यासिर अराफात ने 1964 ई में फिलिस्तीन मुक्ति संगठन का स्थापना की। 1967 ई में अरब राज्यों ने इजरायल पर हमला कर दिया लेकिन अमेरिका की मदद से इजराइल ने अरबों को हरा दिया और सिनाई प्रायद्वीप, गोलन पहाड़ियां, पूर्वी जरूसलम आदि क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की। 1970 में नासिर की मृत्यु के बाद अरबों में आपसी फूट पड़ती गयी। फिलिस्तीनियों को तीसरी दुनिया का समर्थन प्राप्त होता रहा क्योंकि फिलिस्तीन नेता अराफा की कुशल रणनीति की बड़ी सफलता थी।

फिलिस्तीनी राज्य की घोषणा (नवम्बर 1988)

संयुक्त राष्ट्र संघ ने सन् 1988 में फिलिस्तीन समस्या के लिए दो राष्ट्रों का विचार स्वीकारने की बात कही, जिसका अभिप्राय हम यह मान सकते है कि फिलिस्तीनियों के द्वारा इजरायल के विनाश का विचार छोड़ दिया गया और यह स्वीकार किया गया कि फिलिस्तीन और इजरायल दोनों साथ साथ रह सकते हैं। 15 नवम्बर 1988 को बहरीन में फिलिस्तीनी मुक्त संगठन के नेता यासर अराफात ने इजराइल अधिकृत इलाके में स्वतंत्र फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना की घोषणा की फिलिस्तीन राष्ट्रीय परिषद की तीन दिन तक चली बैठक के पश्चात श्री अराफात ने घोषणा की कि इजराइल अधिकृत पश्चिमी तट और गाजा पट्टी इस राष्ट्र में शामिल किये रहे है। जिसकी राजधानी यरूशलम बनायी गयी है। अराफात की इस घोषणा के बाद ट्यूनीशिया, इराक, मलेशिया, अल्जीरिया, सऊदी अरब, कुवैत तथा भारत ने इस नये फिलिस्तीनी राज्य को नए राष्ट्र के रूप में मान्यता प्रदान कर दी।

सन 1990 के खाडी युद्ध की समाप्ति के बाद मैड्रिड (अक्टूबर 1991 तथा वासिंगटन जनवरी-मई 1992) में अरब इजराइल समस्या के समाधान के लिये शान्ति सम्मेलन आयोजित किये गये। इसे अमरीका और सोवियत संघ दोनों ने संयुक्त रूप से प्रायोजित किया। मैड्रिड सम्मेलन का महत्व इस बिन्दु में है कि 40 वर्षों के विरोधियों को बातचीत के लिये आमने सामने लाने में सफल रहा। इसमें इजराइल और लेवनन, सीरिया, जोर्डन के अरब प्रतिनिधि मण्डल तथा फिलिस्तीनियों ने भाग लिया। सम्मेलन में अरबों के द्वारा तीन प्रमुख मांगे रखी गईं। 

1. फिलिस्तीनियों के लिये सार्वभौमिक राज्य की स्थापना

2. पवित्र शहर यरूशलम पर अरबों का नियंत्रण 

3. गाजा-पटटी व पश्चिमी किनारा क्षेत्रें में यहूदियों की और बस्तियाॅ बसाने पर रोक व गोलन पहाड़ी क्षेत्रों की सीरिया को वापसी। 

शुरू में इजराइल ने सभी माँगों से इनकार करते हुये कहा कि मुख्य प्रश्न अभी अरब देशों द्वारा इजराइल को मान्यता देने का है। सम्मेलन समाप्त हो गया और अरबों एंव इजराइल के बीच गहरे मतभेद बने रहे। 

वाशिंगटन में अरब इजराइल वार्ता का चौथा दौर मार्च 1992 में सम्पन्न हुआ किन्तु वार्ता में गतिरोध उत्पन्न हो गया क्योंकि इन्हीं दिनों शिया मुसलमानों के संगठन के अध्यक्ष शेख अस्वास मुसाबी की हत्या कर दी गई। वे एक इजराइली हैलीकोप्टर से किये गये हमले में मारे गये थे। 

भारत के साथ फिलिस्तीन के संबंध काफी हद तक सकारात्मक रहे हैं। 2015 में एशियन अफ्रकन कोमेमोरेटिव कांफ्रेंस में भारत ने फिलिस्तीन का समर्थन किया।भारत व फिलिस्तीन के मध्य कई बार उच्च स्तरीय राजकीय यात्राएं संम्पन्न हुयी है। भारतीय प्रधानमंत्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी ने फरवरी 2018 में फिलिस्तीन की यात्रा की जो किसी भारतीय द्वारा फिलिस्तीन में की गयी पहली यात्रा थी इसे भारतीय कूटनीति का बेलेंसिग एक्ट कहा जाता है और इसी समय भारत फिलिस्तीन संबंधों में एक नवीन अध्याय जुड़ा जब प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी को फिलिस्तीन के सर्वोच्च सम्मान से सम्मानित किया गया एवं भारत व फिलिस्तीन के मध्य छहः समझौतों पर हस्ताक्षर किए गये।

मई 1992 में वाशिंगटन में सम्पन्न पश्चिम एशिया शान्ति वार्ता के इस दौर में भारत ने हिस्सा लिया। वाशिंगटन दौर की वार्ता पाँच हिस्सों में होने वाली शान्ति वार्ता का एक अंग है। जो विभिन्न देशों की राजधानियों में शुरू हो रही है। सुरक्षा निःशस्त्रीकरण शरणार्थी समस्या, जल संसाधन, और आर्थिक मुददों पर होने वाली सभी बैठकों में भारत मौजूद रहेगा। पश्चिमी एशिया शान्ति वार्ता को सफल बनाने के लिये संयुक्त राज्य अमरीका को ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका लगातार निभानी पडेगी। जो उसने मैड्रिड और वाशिंगटन में निभाई है। वस्तुत मैड्रिड सम्मेलन का बुलाया जाना बड़े स्तर पर अमरीकी राजनीति का परिणाम था और अमरीका ने ईमानदार मध्यस्थ की भूमिका निभाई। वार्ता में आये गतिरोध को दूर करने और शान्ति प्रक्रिया वहाल करने के एक प्रयास के रूप में 19 जुलाई 1992 को अमरीकी विदेश मन्त्री जेम्स ब्रेकर ने पश्चिम एशिया का पाँच दिन का दौरा किया। राष्ट्रपति बुश ने सार्वजनिक तौर से अरबों की एक प्रमुख माँग का समर्थन किया था जिसमें इजराइल से कहा गया कि वह पश्चिमी किनारे और गाजापटटी के अधिकृत क्षेत्रों में यहूदियों की बस्तियाँ बसाने से बाज आये शान्ति के लिये समझौते की तत्परता दिखाना इजराइल की भी विवशता बन गयी, क्योंकि वहाॅ संसाधनों का निरन्तर हृास होता जा रहा था। नवनिर्वाचित इजराइली प्रधानमंत्री राविन ने स्पष्ट कहा कि ‘‘मैं शान्ति प्रक्रिया को तेज करना चाहता हूँ।’’ अपने चुनाव अभियान के दौरान भी रोविन ने घोषणा की थी कि वे एक वर्ष की अवधि में फिलीस्तीनियों को सीमित स्वशासन का अवसर प्रदान कर देंगे।

13 दिसम्बर 1993 को वांशिगटन में फिलीस्तीन को सीमित स्वायत्तता देने सम्बन्धी समझौते पर हस्ताक्षर हुये। समझौते पर हस्ताक्षर के बाद यासर अराफत और इजराइली प्रधानमंत्री राॅविन ने हाथ मिलाए। समझौते के तहत फिलीस्तीन मुक्त संगठन ने इजराइल को और इजराइल ने फिलीस्तीनी मुक्त संगठन को मान्यता दे दी। इस समझौते के तहत इजराइल अधिकृत गाजा पटटी और पश्चिमी तट जेरिको में फिलीस्तीनियों को सीमित स्वतंत्रता देने का भी प्रावधान है। इजराइली प्रधानमंत्री राविन के शब्दों में ‘‘यह समझौता ऐतिहासिक है और इससे समूचे पश्चिम एशिया क्षेत्र की परिस्थितियाँ बदलेगी। 

अरब - इजराइल विवाद अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति पर गहरा प्रभाव डाले हुये है।

1. अरब-इजराइल तनाव के कारण ही मध्य पूर्व के भूमध्य सागरीय क्षेत्र में महाशक्तियाॅ अपनी नौसैनिक शक्ति के विस्तार के लिये प्रतिस्पर्धा करती रही है। 

2. अरब इजराइल तनाव से विश्व के अन्य देशों की विदेश नीतियाॅ भी प्रभावित हुयी है। उदाहरणार्थ - भारत चाहते हुये भी इजराइल को लम्बे समय तक राजनयिक मान्यता नहीं दे सकता। 

3. मध्य पूर्व के संकट से शीतयुद्ध में उग्रता आती रही। 

4. तेल कूटनीति ने समूचे विश्व को प्रभावित किया और विश्व आर्थिक संकट का प्रमुख कारण यही है। 

5. मध्य पूर्व समस्या ने विश्व राजनीति में मजहब की भूमिका को उभारा है क्योंकि येरूसलम पश्चिम ऐशिया का सर्वांधिक पुराना शहर एवं धार्मिक स्थल है।

इजराइल फिलीस्तीनी समझौता (1994)

लगभग आधी सदी से स्वतंत्र फिलीस्तीनी के लिये खून बहा रहे फिलीस्तीन मुक्त संगठन (P.L.O.) का सपना जो मई 1994 की आधी रात के बाद मिश्र की राजधानी काहिरा में सम्पन्न हुये राविन अराफात करार के बाद साकार हुआ। इस दिन से गाजा पटटी और जोर्डन नदी के पश्चिमी तट पर अवस्थिति जेरिको नगर के आस-पास कुछ क्षेत्र एक स्वायत्त फिलीस्तीनी क्षेत्र बन गया। 

फिलीस्तीनी को जो मिला है वह मात्र एक शुरूआत है और अब अगर वह चाहे तो इसे धीरे-धीरे और भी आगे बढा सकता है। 1948 में इजराइल के अस्तित्व में आने के बाद से ही अरबों में जिनमें फिलिस्तीनी भी आते है यह शत्रु भाव गहरे बैठा हुआ था। इसी का परिणाम था सितम्बर 1967 का वह छः दिनी युद्ध जिसमे अरवे का गाजा पट्टी, गोलन पहाड़ियाँ और पश्चिमी तट की काफी भूमि गवानी पडी थी इसके बाद भी उन्होंने इजराइल के अस्तित्व को नहीं स्वीकारा और समस्या उलझती ही गई। फिलीस्तीनियों ने इसके उपरान्त भी खून खराबे की नीति जारी रखी और दोनों में दुश्मनी गहरी होती गई मिश्र जो इजराइल को कभी फूटी आंखों से भी देखना पसन्द नहीं करता था सबसे पहले सही राह पर आया और उसने कैम्प डेविड सन्धि पर हस्ताक्षर करके इजराइल को एक ठोस वास्तविकता के रूप में स्वीकार कर लिया हालांकि उसके इस कार्य से अरब जगत उससे नाखुश हो गया परन्तु उसने इसकी ज्यादा परवाह नहीं की। बदली हुई परिस्थितियों में उनके सामने और कोई विकल्प ही नहीं रह गया था फिलिस्तीनी मुक्त संगठन का सबसे बड़ा समर्थक मित्र था सोवियत संघ जो समाप्त हो चुका है। और अमरीकी जो इजराइल का अंघोषित संरक्षक है। अकेली विश्व शक्ति बन चुका है। ऐसे में अराफत के आगे सारे रास्ते बन्द हो चुके है। यह उम्मीद जगी है कि लगभग आधा सदी तक भंयकर रक्तपात और उथल पुथल के बाद मध्य पूर्व में शान्ति लौट आई है। पर सभी विशेषज्ञ इस बारे में एक मत नहीं है। 

अब तक इस क्षेत्र में रहने वाले फिलीस्तीनी कट्टर पंथी यहूदियों के हाथों उत्पीड़ित थें उन्हें घेर कर जिस तरह की मलिन बस्तियों में जीवन यापन के लिये विवश किया गया था वह स्थिति पाशविक और अमानवीय ही कही जा सकती थी। किशोर फिलीस्तिनियों की एक पीढ़ी इन यहूदियों को अपना शत्रु समझाती थी। सम्प्रदायिक वैमनस्य और जातीय वैमनस्य के बीज गहरे बोये जा चुके है। स्वशासन का अर्थ स्वयं में व यह नहीं लगाया जा सकता कि स्थिति सामान्य हो गयी है। इस भू भाग को स्वशास्ति या स्वायत्त घोषित कर देने से विकास की समस्याऐं हल नहीं हो जाती संसाधनों को जुटाना अभी भी बाकी है। मुक्ति संग्राम का छापामारी और बड़े अनौपचारिक राजमय में फिलिस्तीनी कितना ही कुशल क्यों न सिद्ध हुये हो अभी उन्हें यह प्रमाणित करना है कि रोजाना काम आने वाले उत्कृष्ट कौशल उन्हें हासिल है। इस प्रदेश में रहने वालों की अपेक्षा अब यासिर अराफत और उनके सहयोगियों से दूसरी तरह की होगी, रोटी, कपडा, और मकान, स्वास्थ्य सेवाऐं और स्कूल सुलभ करवाने वाली। 

जहाॅ एक ओर इजराइल में कुछ लोग इस बात से निश्चित हुये है कि समस्या के समाधान की दिशा मे कम से कम पहला कदम तो उठाया गया है। वही ऐसे लोगों की भी कमी नहीं जिन्हें लगता है कि सरकार ने बहुत गलत कदम उठाया है। अनेक इजराइली नेताओं ने बेहिचिक यह बात कही कि उन्हें लगता है कि उनके पुरखों का खून-पसीना व्यर्थ ही बहाया गया था उनकी नजर में अराफत जैसे फिलीस्तीनी अपराधी है। जिन्हें दडिंत करने के स्थान पर पुरस्कृत किया गया है। 

मध्य पूर्व समस्या का सबसे अहम पहलू भले ही फिलिस्तीनियों की शरणार्थी समस्या और क्रान्तिकारिता रही हो पर यह समझना गलत होगा कि मध्य पूर्व में अशान्ति सिर्फ इनके कारण रही है। फिलीस्तीनी अरब और इजराइलियों के बीच जो समझौता हुआ वह इस समस्या के छोटे से हिस्से स्पर्शमात्र है। 

एक ओर फिलिस्तीनी सैनिक दृष्टि से अक्षम दूसरी ओर उनकी शरण और सहायता देने वाले अरब राष्ट्र संकट ग्रस्त है। तीसरे सोवियत संघ के विघटन के बाद अन्तर्राष्ट्रीय परिदृश्य नाटकीय ढंग से बदल चुका है। ऐसी परिस्थिति में जब पूरी रोटी मिलने की कोई गुंजाइश न हो तब आधी को ग्रहण करना ही बुद्धिमानी ही कहा जा सकता है। यासिर अराफत के सामने कोई और विकल्प नहीं बचा था। 

समझौता (1997)

जनवरी 1997 में इजराइल के प्रधानमंत्री बेंजामीन नेत न्याहू और फिलिस्तीनी मुक्ति मोर्चे के चेयर मैन यासर अराफत ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किये जा हिबरोन (HEBRON) के बारे में था परन्तु इससे यह बात स्पष्ट नहीं हुई कि फिलिस्तनियों को भूमध्य सागर और जार्डन नदी के बीच की भूमि मिलेगी या नहींअब स्थिति यह है कि एक लाख चालीस हजार अरब जेरूशलम में और बीस हजार हिबरोन में इजराइली अधिपत्य के नीचे रहेंगे हिबरोन वह जगह है, जहाॅ सन् 1929 में अरबों ने साठ यहूदियों को मार दिया था। यही 1994 में एक यहूदी ने 29 अरबों की हत्या कर दी थी। हिबरोन का यह स्थान अरब और इजराइल दोनों के नागरिकों के लिये विशेष महत्व रखता है। वहाॅ अल इब्राहिमी मस्जिद है जिसे यहूदी लोग कुल गुरूओं का मजार कहते है लगता  है कि बात इस पर अटक गयी है कि हिबरोन में फिलिस्तीनियों को कितनी आजादी दी जाये और वहाॅ के यहूदी उपनिवेश की कहाॅ तक सुरक्षा का प्रबन्ध किया जाये। इस मजार मस्जिद के बारे में क्या किया जाए उधर इजराइली मंत्री मण्डल के सदस्यों ने नेता न्याहू और यासर अराफत के इस समझौते पर नाराजगी जाहिर की। 

भारतीय तत्कालीन राष्ट्रपति श्री प्रणव मुखर्जी ने 2015 में फिलिस्तीन की यात्रा की। जनवरी 2016 में भारतीय विदेश मंत्री श्रीमती सुषमा स्वराज ने फिलिस्तीन की यात्रा की। तत्पश्चात नवंबर 2016 को भारतीय विदेश राज्य मंत्री श्री एम जे अकबर ने फिलिस्तीन की यात्रा की इसके बाद  मई 2017 को फिलिस्तीन के राष्ट्रपति श्री महमूद अब्बास ने भारत की यात्रा की जो उनके कार्यकाल की पांचवी यात्रा थी। इसके अलावा अन्य यात्राओं का परिणाम यह रहा कि भारत व फिलिस्तीन के मध्य व्यापार होने लगा और भारत की विदेश नीति का मूल हिस्सा फिलिस्तीन व इजरायल के मध्य समझौता हो। 

सोवियत संघ के विघटन के पश्चात् रक्षा आपूर्ति के लिए भारत ने इजरायल के महत्व को स्वीकारा क्योंकि इजराजल रक्षा सामग्री का एक महत्वपूर्ण आपूर्तिकर्ता देश है। इसलिए अब भारतीय विदेश नीति में ‘‘समान दूरी का सिद्धान्त‘‘ अपनाया है।

भारत- इजरायल संबंध को फिलिस्तीन विरोधी मानना तार्किक नहीं है। बल्कि यह संबंध फिलिस्तीन समस्या के शांतिपूर्ण समाधान में योगदान दे सकता है। सहयोग क्षेत्र निम्न है-

1. सैन्य आधुनिकीकरण

2. कृषि विकास एवं शोध

3. इजरायल का भारत में निवेश

4. आतंकवाद विरोधी रणनीति में सहयोग

5. सामाजिक, राजनीतिक एवं सांस्कृतिक सहयोग। 

15 सितंबर 2020 को अमेरिकी राष्ट्रपति श्री ट्रंप ने अपने यहां इजरायल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू व संयुक्त अरब अमीरात तथा बहरीन के विदेश मंत्रियों को ऐतिहासिक अब्राहम समझौते प्रपत्र पर हस्ताक्षर करने के लिए आमंत्रित किया। इस समझौते के प्रति भारत का रूझान सकारात्मक रहा। विदेश विभाग के प्रवक्ता अनुराग श्रीवास्तव का कथन है कि भारत ने हमेशा पश्चिम ऐशिया में शांति, स्थिरता व विकास का लगातार समर्थन किया है जो भारत से सुदूर है। इसी क्रम में हम संयुक्त अरब अमीरात, बहरीन व इजराइल में सामान्य प्रक्रिया बहाली का स्वागत करते है।

वर्तमान सरकार के द्वारा इजरायल एवं फिलिस्तीन के लिए अलग अलग या पृथक् नीति का निर्धारण किया गया इस कूटनीति को डीलिंकिंग नीति कहा जाता है। प्रधानमंत्री श्रीमान नरेन्द्र मोदी फिलिस्तीन जाने वाले पहले भारतीय प्रधानमंत्री हैं। वर्तमान सरकार ने इजरायल संबंधों को समान महत्व दिया। स्वतंत्रता के बाद सन 2017 में किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने पहली बार इजरायल की यात्रा की।

वर्तमान परिप्रेक्ष्य में अमरीका के द्वारा समूचे येरूसलम को इजरायल की राजधानी स्वीकार करते हुए वहां अपना दूतावास स्थापित करने की घोषणा की। लेकिन भारत अमेरिका के इस रूख का समर्थन नहीं करता। वर्ष 2021 में हमास व इजरायल के बीच भीषण युद्ध आरंभ हुआ, जिसमें भारत ने प्रैगमैटिक नीति अपनाते हुए हमास की हिंसा का समर्थन नहीं किया।

पश्चिमी एशिया भारत का पड़ौसी क्षेत्र है जिसके साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध रहे है। शीतयुद्ध के दौरान भारत ने सउदी अरब व ईरान दोनों के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक संबंध बनाएं रखे व 2005 में भारत ने लुक वेस्ट पाॅलिसी लागू की। यही कारण है कि पश्चिम एशिया के साथ राजनयिक संबंधों ने भारत अमेरिका संबंधों का प्रभावित किया है।

निष्कर्ष पश्चिमी एशिया भारत का पड़ौसी क्षेत्र है जिसके साथ भारत के ऐतिहासिक संबंध रहे है। शीतयुद्ध के दौरान भारत ने सउदी अरब व ईरान दोनों के साथ महत्वपूर्ण आर्थिक संबंध बनाएं रखे व 2005 में भारत ने लुक ईस्ट पॉलिसी लागू की। यही कारण है कि पश्चिम एशिया के साथ राजनयिक संबंधों ने भारत अमेरिका संबंधों का प्रभावित किया है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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