ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
Anthology The Research
कबीर के भक्ति भावना की व्यापकता
The Prevalence of Devotional Spirit of Kabir
Paper Id :  16699   Submission Date :  05/11/2022   Acceptance Date :  19/11/2022   Publication Date :  25/11/2022
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महेन्द्र नारायण
प्रवक्ता
हिन्दी विभाग
श्री चन्दन लाल नेशनल इण्टर कॉलेज
कान्धला, शामली,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश संत कवि कबीर दास न केवल निर्गुण भक्ति काल से लेकर समसामयिक काल में भी प्रासंगिक है, अपितु अनन्त युगों तक उनकी भक्ति-भावना लोगों की आस्था की केंद्र बनी रहेगी। उनकी भक्ति-भावना जनसामान्य से लेकर दर्शनशास्त्र की गूढ़ से गूढ़तम विषयों को स्पर्श करती है। इसी कारण कबीरदास की भक्ति को जहाँ गाँव का एक अनपढ़ व्यक्ति भी समझता है, वहीं अनेक विद्वान आज भी उनकी आध्यात्मिकता पर शोध- कार्य में निरन्तर प्रयासरत हैं। कबीरदास के भक्ति भावना की व्यापकता इसी दृष्टिकोण से असीम है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Saint poet Kabir Das is not only relevant from Nirgun Bhakti period to the contemporary period, but his devotional spirit will remain the center of people's faith till eternal ages. His devotional spirit touches the most esoteric subjects ranging from the common to the esoteric of philosophy. For this reason, where even an illiterate person in the village understands the devotion of Kabirdas, on the other hand, even today, many scholars are making continuous efforts in research on his spirituality. The broadness of the devotional spirit of Kabirdas is limitless from this point of view.
मुख्य शब्द संत कवि कबीर दास, निर्गुण भक्ति काल।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Saint Poet Kabir Das, Nirgun Bhakti Period.
प्रस्तावना
हिन्दी साहित्य के मध्य युग का पूर्वार्ध भक्ति युग को स्वर्णिम युग के रूप में भी घोषित किया गया है, जिसमें भक्ति आन्दोलन का रूप अखिल भारतीय था, जिसके प्रथम सोपान में प्रमुख निर्गुण वादी कबीरदास की भक्ति भावना अद्भुत है, जो न केवल आध्यात्मिक, दार्शनिक दृष्टिकोण से चिन्तन योग्य है, अपितु नैतिक, सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक मूल्यों की दृष्टि से भारत की बौद्धिक सम्पदा के रूप में अमूल्य धरोहर है। कबीरदास एक घर के दैनिक क्रिया-कलापों से अपनी भक्ति की अलख जगातें हैं, जिसका स्वर इतने उच्च स्तर तक पहुँचता है कि बड़े से बड़े ज्ञानियों को उनके मंतव्य तक पहुँचने के लिए उनके दिमाग को एड़ी चोटी का जोर लगाना पड़ता है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. कबीर की भक्ति भावना का नूतन परिचय 2. कबीर की भक्ति को जन सामान्य से जोड़ना 3. वर्तमान में भक्ति भावना की प्रासंगिकता 4. कबीर की भक्ति से धार्मिक ,सांस्कृतिक एकता का दृष्टिकोण 5. कबीर की भक्ति का सामाजिक स्वरूप 6. कबीर की भक्ति का व्यवहारिक महत्त्व
साहित्यावलोकन

प्रस्तुत शोधपत्र में आ० रामचन्द्र शुक्ल की हिन्दी साहित्य का इतिहास, हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा रचित कबीर, डा० पारस नाथ तिवारी की कबीर, डॉ० मंधाता राय की प्राचीन काव्य किया गया है।



मुख्य पाठ

कबीर के भक्ति भावना का स्वरूप

कबीरदास के अनुसार अनुकूल भाव से भगवान के विषय में अनुशीलन करना ही भक्ति है। कबीर की भक्ति वेद पुराणों से प्रभावित जान पड़ती है, जैसा कि पुराण बताते हैं कि ईश्वर का स्वरूप मानवीय चिन्तन शक्ति से नहीं देखा जा सकता है। वह अचिंत्य है, अनन्त और अगम्य है। अकथ एवं अगाध है। कबीर दास ने इसी बात को समझाने हेतु ईश्वर को अविगत अनन्त तथा अनुपम कहा है। उन्होंने ईश्वर को अचिंत्य एवं अकथ बताया है। गूँगे का गुण कहा है -

"सैना  बैना कहि समझाऊँ गूँगे का गुड़ भाई''

कबीर के इसी भक्ति के कारण उनके रूढ़ियों अंधविश्वासों, ढोंगी परम्पराओं के खण्डन पद्धति को बल मिला है। यहाँ तक कि पूजा-पाठ, अजान, गीता ,कुरान, व्रत, नमाज आदि को भी उन्होंने ढ़ोंग माना है-

एक निरंजन अलह मेरा हिन्दू तुरुक दुँह मेरा।

राखूँ व्रत न मुहर्रम जाना,तिस ही सुमिरुँ जो रहे निदाना।

पूजा करूँ न निमाज गुजारुँ, एक निराकार हिर दे नमस्कारूँ।

ना हज जाऊँ न तीरथ पूजा, एक पिछाण्यां तौं क्या दूजा।

कहैं कबीर भरम सब भागा, एक निरंजन सूमन लागा।

कबीरदास की ऐसी अभिव्यक्ति का लक्ष्य पौराणिक भक्ति- पद्धति का तत्कालीन प्रचलित कुप्रथाओं का विरोध कर समाज में शुद्ध सात्त्विक निराकार भक्ति साधना का परिमार्जन कराना था। उन्होनें सद्‌गुरू को अपनी भक्ति का सूत्रधार माना है, इसीलिए उन्होंने बार-बार कहा है कि सद्गुरु ही भक्ति ले आए हैंI इसी कारण वे एक रूप में ईश्वर से भी सद्गुरु को महान मानते हैं। भक्ति प्रेरक तत्वों में उन्होनें सर्वाधिक सद्‌गुरु एवं सत्संग को दिया क्योंकि बिना गुरु के सत्संग सम्भव हो ही नहीं सकता। उन्होनें भक्ति साधना में सद्गुरु को जो स्थान दिया है वह अपूर्व है। उनका यह दृष्टिकोण मात्र सैद्धान्तिक न होकर व्यवहारिक भी थाI आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि-

"जिस दिन से महागुरु रामानन्द ने कबीर को भक्ति रूपी रसायन दी, उस दिन से उन्होंने सहज समाधि की दीक्षा ली आँख मूँदने और कान रुँधने के टंटे को नमस्कार किया। मुद्रा और आसन की गुलामी को सलाम दे दी।"

इस प्रकार कबीर दास ने आध्यात्मिकता के सहारे समाज को व्यापकता प्रदान किया है। कबीरदास के भक्ति का मार्ग जो सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य स्थल पर जाता हैवह है आध्यात्मिक एकता के माध्यम से राष्ट्रीय एकता, राष्ट्रीय एकता के माध्यम से विश्व एकता अर्थात मानव एकता, जिसकी व्यापकता उनके द्वारा प्रतिस्थापित ईश्वर स्वरूप के समान है। डॉ० रामविलास शर्मा ने लिखा है कि- "जो लोग यह समझते हैं कि अंग्रेजों के आने से पूर्व यहाँ राष्ट्रीय एकता का भाव था उन्हें भक्ति आन्दोलन के इस अखिल भारतीय रूप पर विचार करना चाहिए।"

कबीर दास जी के समय में यद्दपि हिन्दू संस्कृति बाहरी अनाचारों से त्रस्त थी, फिर भी उन्होंने इसी की प्रेरणा से जो महान एकता स्थापित करने की कोशिश की वह चिन्तन योग्य है। उन्होंने राम रहीम केशव करीम में कोई भेद स्वीकार नहीं किया है। दोनों को एक माना है- "एकमेवा द्वितीयम्‌"-

हमारे राम रहीम करीमा केसौं रामा सति सोई।

बिसमिल मेटि बिसम्भर एकै और न दूजा कोई॥

धर्म समन्वयक दृष्टि में उनकी विचार साधना सभी बाधाओं से ऊपर थी, इसलिए उन्होंने जातिगत, धर्मगत, संस्कारगत, शास्त्रगत कुलगत जैसी संकुचित विचारधाराओं को पद दलित करने का कार्य किया। यही कारण था कि उन्होंने ब्राह्याचार तथा बाह्याडम्बर का क्रांतिकारी रूप में विरोध किया। भक्ति के माध्यम से इस प्रकार की जनता में उन्होंने जो भावात्मक एकता स्थापित करने की चेष्टा की, वैसी आज की राजनीति शास्त्र का कोई भी ऐसा सूत्र नहीं है जिससे द्वारा जनतंत्र में सम्पूर्ण जनता को एकताबद्ध किया जा सके।

भक्ति भावना के क्षेत्र में कबीर दास का दार्शनिक दृष्टिकोण भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। उनकी यह साधना आध्यात्मिकता की  दिव्य लौ में सम्मिलित प्रतीत होती हैजिसकी प्रकाश से बड़े-बड़े आलोचकों की आँखें चौंधिया जाती हैं। फल स्वरुप कुछ आलोचक कबीर को कवि न मान कर विचारक, दार्शनिक एवं एक भक्त के रूप में मानते हैंI वास्तव में  प्रत्येक कवि एक दार्शनिक या विचारक ही होता है। कबीर दास रामानुज के प्राप्ति मार्ग से प्रभावित हैं। फिर भी उनका उद्देश्य अंत में ईश्वर से मिलकर एकमेक हो जाना ही है-

"एकमेक ह्वै मिलि रहा दास कबीरा राम"

कबीरदास का यही दार्शनिक स्वरूप ही उनको अद्भुत रहस्यवाद की ओर उन्मुख करता है ।जब जीवात्मा परोक्ष प्रियतम से प्रेमाभिव्यक्ति करती है, तो उनका हृदय असंख्य उमंगों का सागर प्रतीत होता है। आ० रामचन्द्र शुक्ल का कहना है कि "उन्होंनें भारतीय ब्रह्मवाद के साथ सूफियों के भावात्मक रहस्यवाद ,हठयोगियों के साधनात्मक रहस्यवाद और वैष्णवों के अहिंसा बाद और प्रपत्ति का मेल करके अपना पंथ खड़ा किया"(हिदी साहित्य का इतिहास (पृष्ठ 67)- आ० रामचन्द्र शुक्ल, प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली !

उनकी भक्ति में निर्गुण निराकार ब्रह्म की साधना निहित है।  भक्ति आन्दोलन वैसे हिन्दी मध्ययुग के पूर्वार्द्ध  का प्रमुख केन्द्र बिन्दु है, परन्तु रहस्यवाद को लेकर भक्त कवियों में कहीं न कहीं विभिन्नता अवश्य है। जायसी के अनुसार -

परगट गुपुत से सरब वियापी।

धरमी चीन्ह न चीन्है पापी॥

गोस्वामी तुलसीदास ने कहा है-

अगुन सगुन दुई ब्रह्म सरूपा।

अकथ अगाध अनादि अनूपा॥

एक दासगत देखिय एकू।

पावक सम जुग ब्रह्म विवेकू॥

निर्गुण और सगुण भक्ति को परस्पर विरोधी माना गया है जिसमें एक ही सत्ता व्यक्त और अव्यक्त दोनों है।  इस पर कबीर दास जी की यह उक्ति दर्शनीय है -

जँह चेत अचेत खम्भ दोऊ मन रच्या है हिण्डोर।

तँह झूले जीव जहान जँह कतहूँ  नहि थिर ठोर॥

डॉ0 पारसनाथ तिवारी ने लिखा है कि- "कबीर का अन्य सभी रूप उनके भक्तों रूप के ही अन्तर्गत है। दार्शनिक वे उसी सीमा तक है जिस सीमा तक तुलसी या सूर।"

हठयोग तथा विरह की भावना कबीर के भक्ति भावना की परम साधना है, जिसका मन्तव्य निर्गुण पंथ को आलोकित करने का स्पष्ट रूप से आलोकित होता है। योग साधना को उन्होंने गुरुकुल परम्परा से प्रसूत किया है। इसी क्रम में दिव्य बिरहानुभूति की ह्रदय दायक उक्तियाँ भी अत्यन्त महत्वपूर्ण हैं, जिनके द्वारा भक्ति साधना का चरम बिन्दु देखा जा सकता है। अनेक स्थानों पर एक श्रेष्ठ काव्य के लिए उदाहरण के समान है जैसे प्रिय वियोग की अति रंजना एवं तीव्र वेदना को निम्नांकित उक्ति के माध्यम से देखा जा सकता है -

विरहिन उठि उठि  भुईं परै दरसन कारन  राम।

मुए पिछे दरसन देहुँगे तो आवे कौने काम॥

इस प्रकार उनकी विरहानुभूति, व्यष्टिमूलक, एकान्तिक, शाश्वत शक्ति तथा प्रेम की  कसौटी के रूप में उद्‌भूत हुई है। परमात्मा के परिष्करण हेतु कबीर ने मन की स्थिरीकरण पर भी बल दिया है, जो योग के क्षेत्र में  उल्लेखनीय है। माया से आसक्त एक साधक पर वे व्यंग्य कसते हुए कहते हैं कि -

माला तो कर में फिरे जीभ फिरे मुख माँहि।

मनुवा तो चहुँ दिसि फिरे यह तो सुमिरन नॉंहि॥

कबीर की भक्ति साधना में ज्ञान का महत्वपूर्ण स्थान है इस सम्बन्ध में उनका स्पष्ट दृष्टिकोण है कि ज्ञान कोई भी व्यक्ति प्राप्त कर सकता है यदि वह अपने अज्ञान से मुक्त होना चाहता है। उस पर गुरु की विशेष कृपा हो। उन्होंने भक्ति के क्षेत्र में ज्ञान और साधना को जोड़ने का प्रयास किया है। कबीर दास ने ज्ञान को ही ईश्वर प्राप्ति का प्रमुख साधन स्वीकार किया है।

कबीर की भक्ति साधना का मूल केन्द्र प्रेम है। उनका भगवत्प्रेम अनुपम है, जो कि सगुण उपासकों के विपरीत है। उनका प्रेम बाह्याचारों बाह्याडम्बरों से बहुत उच्च कोटि का है। वे व्यर्थ के अहंकार युक्त पांडित्य को अनर्थ समझते थे। उनका प्रेम जग में सब कुछ है। प्रेम भक्ति एक अदृश्य अनुपम साधना है। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखा है कि -

"कबीर के भक्ति साधना का केन्द्र बिन्दु प्रेम लीला है, किन्तु इस लीला का जो स्वरूप कबीर दास ने उपस्थित किया है, वह बहुत कुछ व्यापक और विशाल है।"

जो लोग प्रेम रस को उनके भक्ति मूलक वाणियों से ऊपर देखतें हैं, उन्हें रस का वास्तविक साक्षात्कार नहीं हो सकता। भक्ति भाग्य की चीज है, प्रेम प्रीति का विषय हैI वह उससे नहीं पा सकता-

भाग बिना नहिं पाइए, प्रेम प्रीति कौ भक्त॥

बिना प्रेम नहि भक्ति कुछ भक्त परयौ सब भक्त॥

आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी का यह कथन सटीक है कि -

"कबीर भगवान नृसिंह की मानव में प्रतिमूर्ति थे। नृसिंह भगवान की भाँति वे नाना असम्भव समझी जाने वाली परिस्थितियों के मिलन बिन्दु पर अवतीर्ण हुए थे।''

जैसे कि हिरण्यकश्यप ने वर माँगा था कि उसको मरने वाला न मनुष्य हो, न पशु हो। उसके मारे जाने का समय न दिन हो न रात हो, न पृथ्वी हो, न आकाश हो, मारे जाने का हथियार न धातु का हो न पाषाण हो, इसलिए  भगवान ने अद्भुत मिलन बिन्दु को चुनकर एक दिव्य स्वरूप में अवतरित हो लीला किया। कबीरदास लगभग ऐसे ही थे, जिन्होंने इस विकट संसार माया तथा असत्य को मारने के लिए भक्ति साधना के एक अलौकिक स्वरूप को प्रकट किया। एक अद्भुत योद्धा की भाँति लड़ते रहे। ज्ञान उनका तलवार था। मार्ग प्रेम था। कबीर की भक्ति न केवल वर्तमान में अपितु अनन्त काल तक प्रासंगिक रहेगी, यह अटल सत्य है।

निष्कर्ष कबीर दास की भक्तिभावना बौद्धिक- सलिल के रूप में उस सागर के समान हैं, जिसमें कितने अनमोल रत्न हैं, पता लगाना एक दुष्कर कार्य है। ऐसा भी नही है कि उनकी भक्ति मात्र साधकों के लिए ही। एक जुलाहे की ताना-बाना में वे जीव जगत को देखते हैंI गृहस्थ जीवन व्यतीत करते हुए भी एक ऐसी अथाह, अगम शक्ति की साधना में लीन रहते हैं जिसे पाने के लिए बड़े से बड़े ऋषि-मुनियों ने असंख्य वर्षों तक एकान्त जंगल में तपस्या की हैI डा० मंधाता राय के अनुसार- "कबीर दास भक्ति काल के महत्वपूर्ण संत कवि थे उनके समान प्रखर प्रतिभावान रूढ़िमुक्त, क्रांतिकारी कवि फक्कड़ और परमात्मा का भक्त इस युग में कोई संत नहीं मिलता है।" प्राचीन काव्य (पृष्ठ 13) डॉ० मंधाता राय (विजय प्रकाशन वाराणसी ) कबीर की भक्ति की व्यापकता असीम, अनुपम, दिव्य है। उसे न तो किसी वाद में, न किसी सिद्धान्त में बाँटा जा सकता है। वह अपरिमेय है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. पद्मावत- मलिक मुहम्मद जायसी 2. रामचरित मानस- गोस्वामी तुलसीदास 3. कबीर ग्रन्थावली- डा० श्याम सुन्दर दास 4. कबीर- आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी 5. कबीर-डा० पारसनाथ तिवारी 6. प्राचीन काव्य-डा० मंधाता राय 7. हिन्दी साहित्य का इतिहास- आ० रामचन्द्र शुक्ल (प्रभात प्रकाशन नई दिल्ली ) 8. कबीर- आ० हजारी प्रसाद द्विवेदी (प्रकाशक - हिन्दी ग्रन्थ रत्नाकर बम्बई 1942 ई०) 9. कबीर- डा० पारस नाथ तिवारी (नेशनल बुक ट्रस्ट ऑफ इंडिया , नई दिल्ली , प्रकाशन -2015) 10. प्राचीन काव्य डॉ० मंधाता राय (विजय प्रकाशन वाराणसी प्रकाशन - 2000) 11. कबीर ग्रन्थावली- डा० श्याम सुन्दर दास, इण्डियन प्रेस लिमिटेड प्रयाग। (काशी नागरी प्रकाशन 19वाँ संस्करण 1997 ईं०)