P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VII , ISSUE- VIII November  - 2022
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
विवेकानंद के चिंतन में अंतर्राष्ट्रवाद
Internationalism in The Thought of Vivekananda
Paper Id :  16938   Submission Date :  06/11/2022   Acceptance Date :  19/11/2022   Publication Date :  23/11/2022
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संध्या गुप्ता
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
,कोटा, राजस्थान, भारत
सारांश विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के एक प्रमुख प्रणेता थे और एक महान अंतर्राष्ट्रीयतावादी भी। यह बात विरोधाभासी लग सकती है किंतु विवेकानंद के चिंतन में इनमें विरोध नहीं। वे राष्ट्रवादी व अंतर्राष्ट्रवादी दोनों थे। राष्ट्र की सीमाओं से परे मानव मात्र की भलाई का संदेश देते हुए अद्वैतवादी विवेकानंद ने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर है और ईश्वर को प्रत्येक रूप में प्यार ना कर पाना असंभव है। व्यक्तियों को राष्ट्र की सीमाओं में बांधकर उनमें पृथकता नहीं की जा सकती। उनका कहना था कि विश्व बंधुत्व नहीं बल्कि विश्वात्म भाव हमारा आदर्श है। मानव मात्र के प्रति प्रेम का आव्हान करने वाले विवेकानंद अन्य राष्ट्रों से कैसे घृणा कर सकते थे। उन्होंने एक बार कहा कि निस्संदेह मुझे भारत से प्यार है पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि अधिक निर्मल होती चली जाती है उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक राष्ट्र की अपनी भूमिका एवं कर्तव्य है ।हमें इन सब को एकत्र करना होगा और संभवतः भविष्य में जिन के समन्वय से ऐसी अद्भुत नई जाति की उत्पत्ति होगी जिसकी विश्व ने कल्पना नहीं की होगी ।उनका आध्यात्मिक तर्क था कि यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनंद होता है तो अनेक शरीरों की चेतना का आनंद ,विश्व चेतना का बोध ,आनंद की परम अवस्था होगी।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda was a major proponent of Indian nationalism and also a great internationalist. This may seem contradictory, but there is no contradiction in Vivekananda's thinking. He was both a nationalist and an internationalist. Advaitaist Vivekananda, giving the message of the good of the human being beyond the boundaries of the nation, said that there is God in every person and it is impossible not to love God in every form. Individuals cannot be separated by tying them within the boundaries of the nation. He said that not universal brotherhood but universalism is our ideal. How could Vivekananda, who called for love towards human beings, hate other nations. He once said that no doubt I love India but every day my vision becomes more pure. He said that every individual and every nation has its own role and duty. Such a wonderful new race will be born by the coordination of which the world would not have imagined. His spiritual logic was that if there is so much joy in the consciousness of this one small body, then the joy of the consciousness of many bodies, the realization of the world consciousness, the joy of Will be the ultimate stage.
मुख्य शब्द विवेकानंद, अंतर्राष्ट्रवाद, राष्ट्रवाद, अद्वैत, व्यक्ति, वैश्विकता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vivekananda, Internationalism, Nationalism, Advaita, Individual, Universalism
प्रस्तावना
प्रसिद्ध भारतीय चिंतक विवेकानंद (1863 -1902) जिन्हें भारतीय राष्ट्रवाद के प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए याद किया जाता है,ने अद्वैतवाद के आधार पर राष्ट्रवाद के साथ-साथ अंतर्राष्ट्रवाद का भी प्रतिपादन किया। प्रत्येक मनुष्य में ईश्वर के अंश को स्वीकारना और इस आधार पर संपूर्ण मानव जाति की एकता व उत्थान की इच्छा करना ,पूर्व व पश्चिम की संस्कृतियों के मध्य समन्वय के प्रयास करना ,पूरी वसुधा को अपना कुटुंब मानना उनके चिंतन की वैश्विकता को प्रकट करता है। वर्तमान समय में जब राष्ट्रों के बीच यहां तक कि व्यक्तियों के बीच भी एकता व सद्भावना की स्थापना एक बड़ी चुनौती है तब विवेकानंद के विचार इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं। भारतीय वेदांतिक दर्शन से अनुप्राणित उनका चिंतन अंतर्राष्ट्रवाद के प्रसार के साथ-साथ भारतीय दर्शन की समन्वयवादिता को भी उजागर करता है।
अध्ययन का उद्देश्य विवेकानंद चिंतन में अभिव्यक्त अंतर्राष्ट्रवाद के मूल स्वरों का प्रतिपादन करना। भारतीय दर्शन एवं विवेकानंद के विचारों में विद्यमान मानवीय एकता व सद्भावना के भाव व प्रेरणाओं को अभिव्यक्त करना।
साहित्यावलोकन

विवेकानंद चिंतन पर अद्वैत आश्रम कोलकाता द्वारा प्रकाशित विवेकानंद साहित्य का प्रमुख रूप से अध्ययन किया गया है। इसके अतिरिक्त  विवेकानंद चिंतन पर उपलब्ध अन्य पुस्तकों एवं टीकाओं का जैसे रोमा रोलां कृत 'द लाइफ ऑफ विवेकानंद एंड द यूनिवर्सल गोस्पेल', ईस्टर्न एंड वेस्टर्न डिसाइपल्स- लाइफ ऑफ स्वामी विवेकानंद, के .एस. भारती कृत इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्स, जवाहरलाल नेहरू  कृत डिस्कवरी ऑफ इंडिया, के. दामोदरन कृत इंडियन थॉट-अ क्रिटिकल सर्वे, कतिपय आलेखों जैसे द रिलेशंस ऑफ तिलक एंड विवेकानंद- वी. पी. वर्मा,अन्य शोध पत्रों जैसे स्वामी विवेकानंद टुडे एंड टुमारो-भावेश प्रामाणिक(2017), रिलीजन फॉर सेक्यूलर एज: मैक्स मूलर, स्वामी विवेकानंद एंड वेदांता-जीन सी.मेकफॉल (2021), स्वामी विवेकानंद: हिज लाइफ लेगेसी  एंड लिबरेटिव  एथिक्स- माइकल बर्ले ( 2021) का भी अध्ययन किया गया है। अन्य शोध पत्रों से इतर यह शोध पत्र विवेकानंद के चिंतन में अंतर्राष्ट्रवाद के मूल स्वरों के प्रतिपादन का प्रयास करता है।

मुख्य पाठ

विवेकानंद भारतीय राष्ट्रवाद के एक मुख्य प्रणेता थे और एक महान अंतर्राष्ट्रीयतावादी भी। यह बात विरोधाभासी लग सकती है किन्तु विवेकानंद के चिंतन में इनमें विरोध नहीं है। वे राष्ट्रवादी और अंतर्राष्ट्रवादी दोनों थे- उनका राष्ट्रवाद अंतर्राष्ट्रवाद का मार्ग अवरूद्ध नहीं      करता। उनका राष्ट्रवाद अथाह शक्ति संचित करना चाहता है पर केवल अपने राष्ट्र के लिए, दूसरे राष्ट्र को आक्रांत करने के लिए नहीं। वे वैश्विक व्यक्तित्व थे। भारत-उद्धार उनका लक्ष्य था पर एकमात्र लक्ष्य नहीं। वे तो संपूर्ण मानव जगत् से जुड़े थे, सबका उत्थान चाहते थे। उन्होंने कहा, ‘‘मैं पूरी दुनिया से उतना ही जुड़ा हूँ जितना भारत से।’’[1]  उनके प्रयत्नों से स्थापित रामकृष्ण मिशन का उद्देश्य वाक्य भी आत्मनो मोक्षार्थम् जगत् हिताय चहै। वे महान देशभक्त थे, पर उनके संदेश सार्वभौमिक थे। उन्होंने भारतीयों को पश्चिम की अंधभक्ति से रोका पर साथ ही उसके कुछ गुण अपनाने की भी सलाह दी। वे प्राच्य और पाश्चात्य संस्कृति में मेल चाहते थे। जहाँ उन्होंने भारतीयों को पश्चिम से कुछ सीखने को कहा वहीं पश्चिमी देशों में भारतीय आध्यात्मिकता को परोसा। इसी तरह का अंतर्राष्ट्रीय आदान-प्रदान ही वैश्वीकरण का मूल आधार है।

विवेकानंद अद्वैत वेदांत के अनुगामी थे जो यह मानता है कि परमात्मा और जीवात्मा में अभेद है और सभी व्यक्तियों में विद्यमान आत्मा उसी एक परम ब्रह्म का अंश है। वेदांत स्वयं संपूर्ण मानव जाति से प्रेम की व एकत्व की शिक्षा देता है। वेदांत के इसी भाव से अनुप्राणित उनका मानना था कि बहुत्व का बोध अज्ञान है। मनुष्य को मनुष्य से, स्त्री को पुरूष से, राष्ट्र को राष्ट्र से, पृथ्वी को चंद्र से, परमाणु को परमाणु से भिन्न मानना अवास्तविक और दुखों का कारण है।’’[2]

राष्ट्र की सीमाओं से परे मानव मात्र की भलाई का संदेश देते हुए उन्होंने कहा कि प्रत्येक व्यक्ति में ईश्वर है और ईश्वर को प्रत्येक रूप में प्यार न कर पाना असंभव है। व्यक्तियों को राष्ट्र की सीमाओं में बाँधकर उनमें पृथकता नहीं की जा सकती। वे सभी ईश्वर के अंश हैं और इस भावना से जगत् से भलाई करना और प्रेम करना सहज हो जाता है। सब कुछ पवित्र प्रतीत होने लगता है। सभी उसकी संतान हैं, उसके अंग हैं फिर कैसे किसी को भी चोट पहुँचा सकते हैं।54  बल्कि उनका तो कहना था, ‘‘हर मनुष्य से अपने जैसा ही प्रेम करो, अपने भाई जैसा नहीं जैसा कि ईसाई धर्म में है। विश्व बंधुत्व नहीं, विश्वात्म भाव हमारा आदर्श है।’’[3]

मानव मात्र के प्रति प्रेम का आह्वान करने वाले विवेकानंद अन्य राष्ट्रों से भी कैसे घृणा कर सकते थे ? उन्होंने एक बार कहा था निस्संदेह मुझे भारत से प्यार है, पर प्रत्येक दिन मेरी दृष्टि अधिक निर्मल होती चली जाती है। हमारे लिए भारत या इंग्लैंड या अमेरिका क्या हैं ? हम तो ईश्वर के सेवक हैं। जड़ में पानी देने वाला क्या वृक्ष को नहीं सींचता है ?’’[4]

विवेकानंद सभी राष्ट्रों के निवासियों के मध्य आत्मीय संबंध की स्थापना चाहते थे। घृणा पर आधारित राष्ट्र प्रेम उनके लिए नागवार था। भारत के संदर्भ में उन्होंने कहा, ‘‘कोई मनुष्य, कोई जाति दूसरों से घृणा करते हुए नहीं जी सकती। भारत के भाग्य का निपटारा उसी दिन हो गया था। जिस दिन उसने म्लेच्छ शब्द को ढूँढ निकाला।’’[5]

उन्होंने भारतीय सभ्यता व संस्कृति के प्रबल पक्षधर होते हुए भी दूसरे राष्ट्रों के गुणों को अपनाने में संकोच न करने की सलाह दी। वे स्वयं भी पाश्चात्य देशों की क्रियाशीलता, तर्कशीलता, वैज्ञानिकता आदि की प्रशंसा किया करते थे। उन्होंने एक बार कहा, ‘‘हमें बहुत सी बातें सीखनी हैं, हमें जीवन भर नई और ऊँची बातों के लिए संघर्ष करना है। जो व्यक्ति और समाज दूसरों से कुछ नहीं सीखता वह मौत की दाढ़ों में पहुँच जाता है।’’[6] वे पूर्व और पश्चिम में समन्वय चाहते थे और उनकी वैज्ञानिकता के बदले अपनी आध्यात्मिकता का प्रसार पश्चिम में करना चाहते थे। वे विश्व के सभी धर्मों में भी समन्वय चाहते थे। वे समन्वयवादी थे, उदार थे, इसलिए वैश्विक थे। उन्होंने भारतीयों के समक्ष पाश्चात्य संस्कृति के कतिपय दुर्गुणों को उजागर किया था पर यह आलोचना एक पक्षीय नहीं थी। उनका दृष्टिकोण विशाल था। वे भले ही भारतीयता के दूत थे पर अन्य राष्ट्रों के प्रति भी उनकी कोई दुर्भावना नहीं थी। वे तो मानवता की एकता के संदेश वाहक थे। उन्होंने तो कहा, ‘‘एक सर्वसामान्य मंच, ज्ञान की एक सर्वसामान्य भूमि, एक सर्वसामान्य मानवता हमारे कार्यों का आधार होनी चाहिए।’’[7]

उनके लिए प्रति व्यक्ति, प्रति राष्ट्र महत्वपूर्ण था। उनका कहना था कि प्रत्येक व्यक्ति व प्रत्येक राष्ट्र की अपनी भूमिकाएँ व कर्तव्य हैं। सब अपना अपना अंश पूरा करते हैं। इन सब अंशों के एकीकरण से पूर्णता प्राप्त होती है। उन्होंने कहा, प्रत्येक जाति (राष्ट्र) का एक विशेष कर्तव्य है, उसे मानव प्रकृति के एक पक्ष को उन्नत करना है, हमें इन सब को एकत्र करना होगा और संभवतः सुदूर भविष्य में विभिन्न जातियों की आश्चर्य जनक पूर्णताओं का समन्वय होकर एक ऐसी अद्भुत नई जाति की उत्पत्ति होगी जिसकी विश्व ने कल्पना नहीं की होगी।’’[8]

वे समुदायवादी विचारक थे। उनकी नजर में व्यक्ति महत्वपूर्ण है, पर व्यक्ति से राष्ट्र व राष्ट्र से विश्व अधिक महत्वपूर्ण है।

वे अपने दृष्टिकोण से भी वैश्विक थे। समन्वय, संतुलन, सहिष्णुता, सहानुभूति, उदारता उनकी विचारगत विशेषताएँ थी। वे किसी भी तरह की संकीर्णता के खिलाफ थे। क्षुद्र व्यक्तित्व को खोकर संपूर्ण विश्व से एकाकार हो जाने में ही आनंद है इसी वैश्विक भाव का प्रसार करते हुए उन्होंने अपना आध्यात्मिक तर्क दिया कि ‘‘यदि इस एक क्षुद्र शरीर की चेतना से इतना आनंद होता है तो शरीरों की चेतना का आनंद अधिक होना चाहिए। और उसी तरह क्रमशः अनेक शरीरों की चेतना के साथ आनंद की मात्रा अधिकाधिक बढ़नी चाहिए। विश्व चेतना का बोध होने पर आनंद की परम अवस्था प्राप्त हो जाएगी।’’[9]

सामग्री और क्रियाविधि
प्रमुख रूप से विषय वस्तु विश्लेषण को महत्व दिया गया है एवं आवश्यकतानुसार दार्शनिक, ऐतिहासिक एवं तुलनात्मक पद्धतियों का प्रयोग किया गया है।
निष्कर्ष एक अंतरराष्ट्रीयतावादी विचारक के रूप में विवेकानंद पूर्व व पश्चिम की संस्कृतियों के मध्य समन्वय चाहते थे। वे दोनों के गुणों का मेल चाहते थे उनका जीवन व चिंतन पूर्व व पश्चिम के मध्य एक सेतु की तरह था । वे भले ही एक बड़े राष्ट्रवादी थे किंतु उनके चिंतन में वैश्विकता निहित थी। वे संपूर्ण मानव जाति का उत्थान चाहते थे। वेदांत के आध्यात्मिक भ्रातृत्व के आधार पर वे विश्वबंधुत्व व वसुधैव कुटुंबकम के हिमायती थे ।उनके इन मानवतावादी समन्वयवादी विचारों में वैश्वीकरण की प्रेरक व सशक्त पैरवी विद्यमान है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. भारती, के.एस., इनसाइक्लोपीडिया ऑफ एमिनेंट थिंकर्स ,वॉल्यूम 8 ,नई दिल्ली, कंसेप्ट पब्लिशिंग कंपनी 1998, पृ. 48 2. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-2, कोलकाता ,अद्वैत आश्रम, 1989, पृ. 157 3. उपर्युक्त, भाग-4, पृ. 57 4. अवस्थी अमरेश्वर एवं अवस्थी रामकुमार, आधुनिक भारतीय सामाजिक एवं राजनीतिक चिंतन, नई दिल्ली एवं जयपुर, रिसर्च पब्लिकेशन, 1997, पृ. 92 5. उपर्युक्त, पृ. 92 6. उपर्युक्त 7. विवेकानंद, स्वामी, विवेकानंद साहित्य, भाग-1, पूर्वोक्त, पृ. 309 8. उपर्युक्त, पृ. 309 9. उपर्युक्त, पृ. 15