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संत तुकाराम का जीवन-दर्शन | |||||||
Life and Philosophy of Saint Tukaram | |||||||
Paper Id :
16942 Submission Date :
2022-11-09 Acceptance Date :
2022-11-17 Publication Date :
2022-11-24
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सारांश |
संत तुकाराम का जन्म पुणे जिले के देहू नामक गाँव में सन 1598 में हुआ। इनके पिता का नाम बहेबा (बोल्होबा) तथा माता का नाम कनकाई था। संत तुकाराम को अपने जीवन में प्रारम्भ से ही अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। इन सब विकट स्थितियों के कारण संत तुकाराम सांसारिक सुखों से विमुख होकर भगवान की भक्ति में निमग्न हो गए। संत तुकाराम का जीवन सरलता और सादगी की मिसाल था। इन्होंने अपने कार्य और व्यवहार से जनता को सन्देश दिया कि सभी ईश्वर की संतान हैं। इसलिए किसी में किसी भी प्रकार का अंतर नहीं है। सब समान हैं। उन्होंने जाति, धर्म, वर्ग के आधार पर किए जाने वाले भेदभाव को समाप्त करने का प्रयास किया।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Saint Tukaram was born in the year 1598 in Dehu village of Pune district. His father's name was Baheba (Bolhoba) and mother's name was Kankai. Saint Tukaram had to face many problems from the very beginning in his life. Due to all these critical situations, Saint Tukaram became engrossed in the devotion of God by turning away from worldly pleasures. The life of Saint Tukaram was an example of simplicity. He gave the message to the public by his work and behavior that all are the children of God. So there is no difference of any kind. All are equal. He tried to end discrimination on the basis of caste, religion, class. | ||||||
मुख्य शब्द | देहू ग्राम, पंढरपुर, वारकरी संप्रदाय, कीर्तन, अभंग, पांडुरंग भगवान, तीर्थ, योग, यज्ञ, अस्पृश्यता। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Dehu Village, Pandharpur, Warkari Sect, Kirtan, Abhang, Pandurang God, Pilgrimage, Yoga, Yagya, Untouchability | ||||||
प्रस्तावना |
संत तुकाराम एक वरकरी संत और कवि थे। इन्होंने धर्म को अलग करके जीवन को नहीं समझा, बल्कि उसे एक हितकारी कर्म के रूप में स्वीकार किया।
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अध्ययन का उद्देश्य | संतों का जीवनऔर व्यवहार सदा ही अनुकरणीय होता है। इस लेख को पढकर संत तुकाराम के जीवन और दर्शन को समझने में सहायता मिलेगी। इसे पढ़कर संत तुकाराम के काव्य को पढ़ने की रूची जागृत होगी। इस लेख के माध्यम से संत तुकाराम के उपदेशों को समझने में सहायता मिल पाएगी |
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साहित्यावलोकन | इस लेख के सन्दर्भ में चन्द्रावती
राजवाड़े, प्रथम संस्करण, 2000, संत तुकाराम जीवन और उपदेश, राधास्वामी सत्संग
व्यास, अमृतसर, पंजाब, जवाहिरलाल जैन (1958), संत तुकाराम जीवनी,
राजस्थान खादी संघ, जयपुर, परशुराम चतुर्वेदी (2014), उत्तरी भारत की संत
परंपरा, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, हरि रामचन्द्र दिवेकर, 1936,
संत तुकाराम, हिन्दुस्तान अकेडेमी,
इलाहाबाद तथा भक्तिकालीन निर्गुण साहित्य के साथ ही अन्य
पत्र-पत्रिकाओं का अवलोकन किया है। वैसे महापुरुषों को जीवन और दर्शन को समझ पाना
बहुत दुष्कर कार्य है फिर भी उक्त पुस्तकों के माध्यम से संत तुकाराम के जीवन और
दर्शन को समझने का प्रयास किया है। |
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मुख्य पाठ |
संत तुकाराम का जन्म पुणे जिले के देहू नामक गाँव में
सन 1598 में हुआ। इनकी जन्मतिथि के संबंध में
विद्वानों में मतभेद है, परन्तु सभी दृष्टियों से विचार करने
पर यही मान्य प्रतीत होता है। ‘‘सन् 1598 उनके जन्म को सबसे प्रामाणिक वर्ष माना जाता है। देहू में पायी जाने वाली
तुकाराम की वंशावली से इसकी पुष्टि होती है।‘‘[1] इनके पिता का नाम बहेबा (बोल्होबा) तथा माता का नाम कनकाई था। इनके पिता
स्वभाव से धर्मात्मा थे। इनके कुल में विट्ठल की उपासना बराबर चली आ रही थी। इनके
कुल के सभी लोग पंढरपुर (पांडुरंग भगवान की पूजा के लिए) की यात्रा के लिये नियमित
रूप से जाते थे। भगवान बिट्ठल का मंदिर पंढरपुर में था। इनके घर से मंदिर की दूरी
काफी थी। इसके बावजूद भी वे पंढरपुर की वारी (यात्रा) नहीं भूलते थे। यहाँ तक कि
वे प्रत्येक सप्ताह में पंढरपुर की यात्रा करने लगे। ये शूद्र जाति में पैदा हुए
थे परन्तु इनकी जाति शूद्र होते हुए भी इनका व्यवसाय वैश्य का था। वे इस संदर्भ
में कहते हैं कि- ‘‘मेरी जाति शूद्र है। मैंने वैश्य का
व्यवसाय किया। शुरू से ही मेरे कुल में पांडुरंग भगवान की पूजा होती थी।”[2] तुकाराम के सबसे पुराने पूर्वज का नाम विश्वम्भर
था, जो संत ज्ञानदेव के समकालीन थे। इनका बाल्यकाल इनके माता कनकाई व पिता बहेबा
(बोल्होबा) की देखरेख में अत्यंत दुलार से बीता, किंतु जब ये
लगभग 18 वर्ष के थे तब इनके पिता का स्वर्गवास हो गया तथा
पिता की मौत के एक वर्ष पश्चात माता कनकाई का स्वर्गवास हुआ। इसी समय देश में पड़े भीषण अकाल के कारण इनकी प्रथम पत्नी व छोटे बालक की भूख के कारण तड़पते हुए मृत्यु
हो गई। संत तुकाराम पर दुःखों का पहाड टूट पड़ा। उसके बाद अठारह बरस की उम्र में
ज्येष्ठ बंधु सावजी की पत्नी (भावज) चल बसी। पहले से ही घर-गृहस्थी में सावजी का
ध्यान न था। पत्नी की मृत्यु से वे घर त्यागकर तीर्थयात्रा के लिए निकल गए। जो कभी वापस लौटे ही नहीं। परिवार के चार सदस्यों का उनको बिछोह सहना पड़ा।
पत्नी आवली या जिजाई का स्वभाव अच्छा नहीं था। ‘‘इनकी दूसरी पत्नी आवली या जिजाई कर्कशा स्त्री थी। उनके द्वारा तुकाराम को सुख मिलना तो दूर रहा,
समाज में दुर्दशा ही भोगनी पड़ी।” थी।”[3] इन सभी परिस्थतियों से ये सांसारिक सुखों से
विरक्त हो गए। इसलिए वे चित्त की शांति के लिए प्रतिदिन देहू गाँव के समीप भावनाथ
नामक पहाड़ी पर जाते और भगवान विट्ठल के नामस्मरण में दिन व्यतीत करने लगे। उन्होंने
अपना सारा ध्यान पूजा, भक्ति, सामुदायिक
कीर्तन और अभंग काव्य-रचना में लगा दिया। संत तुकाराम के व्यक्तित्व में नेकनीयती, ईमानदारी, उदारता के गुण समाहित थे। इसी कारण वे
सबके प्रेमपात्र थे एवं सभी उनका आदर करते थे। रैदास की तरह तुकाराम ने अपनी जाति
को कभी भी नहीं छुपाया, बल्कि अपने कई पदों में उन्होंने
अपने को शूद्र के रूप में स्वीकार किया है। यद्यपि इनके परिवार में महाजनी जैसा
व्यवसाय था परन्तु संत तुकाराम का जीवन आर्थिक रूप से बहुत अधिक समृद्धिशाली नहीं
था। महाजनी व्यवसाय को संत तुकाराम ने भी आगे बढ़ाया। व्यवसाय में संलिप्त होने के
बावजूद भी भगवान बिट्ठल की भक्ति में तल्लीन रहते थे। संत तुकाराम ने ‘‘अभंगों” की रचना की। अपने इन्हीं ‘‘अभंगों” के माध्यम से इन्होंने सामाजिक परिवर्तन करने का बीड़ा उठाया। इन्होने
भक्ति आंदोलन की यात्रा को आगे बढ़ाया। संत तुकाराम महाराष्ट्र के प्रमुख दलित संत
के रूप में अपनी उपस्थिति दर्ज करवाते हैं। इस संदर्भ में आचार्य परशुराम
चतुर्वेदी ने लिखा है कि-‘‘संत’ शब्द
का प्रयोग किसी समय विशेष रूप से, केवल उन भक्तों के लिए ही
होने लगा था जो विठ्ठल या वारकरी संप्रदाय के प्रधान प्रचारक थे और जिनकी साधना
निर्गुण-भक्ति के आधार पर चलती। इन लोगों में ज्ञानदेव, नामदेव,
एकनाथ व तुकाराम जैसे भक्तों के नाम लिए जाते हैं, जो सभी महाराष्ट्र प्रांत से संबंध रखते थे।’’[4] संत तुकाराम का समस्त जीवन भगवान विट्ठल की श्रद्धा और सामाजिक सेवा में
व्यतीत हुआ। संत तुकाराम की शिक्षाएँ वेदांत आधारित थी।
इन्होंने समानता पर बल दिया। इन्होंने कहा कि सभी मनुष्य परमपिता ईश्वर की संतान
हैं, इस कारण समान हैं। संत तुकाराम से
महाराष्ट्र धर्म का प्रचार किया, जो कि भक्ति आंदोलन से
प्रभावित था। महाराष्ट्र धर्म के सिद्धांत भक्ति आंदोलन से ही प्रभावित थे। संत
तुकाराम ने अपने अभ्यंग साहित्य में भक्ति संत नामदेव, ज्ञानेश्वर,
संत कबीर और एकनाथ का भी उल्लेख किया है। संत तुकाराम ने “अभंग कविता” नामक साहित्य की एक मराठी शैली की रचना
की। इसमें आध्यात्मिक विषयों के साथ साथ लोक कहानियों को भी सम्मिलित किया गया है। सत्संग, आध्यात्मिक जीवन, साधना
और समाज सेवा को जीवन का आधार बनाया। संत तुकाराम का जीवन काम, क्रोध एवं लोभ आदि से दूर विरक्ति की ओर लेकर जाता है। उनका मत है कि काम,
क्रोध, लोभ के समाप्त होने पर मानव विरक्त हो
जाता है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि-‘‘हमारे काम, क्रोध, लोभ आदि विकार जहां के तहां खत्म हो गए हैं।
इसलिए हमें अब सारी सृष्टि आनंद रूप हो गयी है।’’[5] संत तुकाराम के सम्पूर्ण व्यक्तित्व का अध्ययन करें तो हम पाएंगे कि संत
तुकाराम का जीवन सरलता, सादगी और सहजता की मिसाल है। उनके
द्वारा किए गए कार्यों और उपदेशों का वाणी में समेट पाना मुश्किल है। संत साहित्य
के शोध और अनुसंधानों के अनुसार, संत तुकाराम बहुत ही सौम्य,
मृदुभाषी थे। संत तुकाराम ने तत्कालीन परिस्थितियों को देखा और
भोगा था। उन्होंने देखा कि समाज गुलामी में खोया हुआ है। लोग आपस में झगड़ रहे थे।
रूढ़िवादी लोगों ने चतुर्वर्ण व्यवस्था को मजबूत किया। पाखंडी और अंधविश्वासी लोगों
ने समाज पर नियंत्रण कर लिया था। कुछ धार्मिक लोगों ने वेदों में ज्ञान का
एकाधिकार कर लिया था। बहुजन समाज सो रहा था। सरल और भोले अन्धविश्वासों में जकड़े
हुए हैं। कुछ चतुर-चालाक लोगों द्वारा इन स्थितियों का फायदा उठाया जा रहा था। संत
तुकाराम ने इस बहुजन समाज को जागृत करके उनकी भ्रान्तियों को नष्ट करने का प्रयास
किया। उन्होंने अपने अभंग के माध्यम से जनता को उपदेश दिया। अस्पृश्यता एवं छुआछूत ऐसा कलंक है जो सदियों से चला
आ रहा है। इसके कारण समाज के बहुत से लोग मान-समान और हक-अधिकारों से वंचित हैं।
तत्कालीन समय में भी अस्पृश्यता एवं छुआछूत के कारण जनसंख्या का एक बड़ा भाग अपनों
से ही दूर हाशिए पर था। अपने ही देश के लोग, अपने ही
देशवासियों की परछाईयों तक से भी अपने को अपवित्र समझते थे। ऐसी स्थिति के विरोध
में भक्ति आन्दोलन के माध्यम से आवाजें उठनी प्रारम्भ हुईं। उन्हीं आवाजों की कड़ी
में संत तुकाराम को भी देखा जा सकता है। संत तुकाराम अस्पृश्यता एवं छुआछूत को
पूरी तरह से खारिज करते हुए कहते हैं कि-‘‘त्रस्त, पीड़ित और दुखी लोगों को जो अपनाता है उसी को साधु जानो। वहां भगवान का ही
वास है।’’[6] संत तुकाराम की वाणी में इसका विरोध होना स्वाभाविक
भी था क्योंकि वे स्वयं शूद्र जाति से थे, जिसके कारण
उन्हें अस्पृश्यता एवं छुआछूत का दंश बखूबी झेलना पड़ा। संत तुकाराम का मानना है कि
इस सृष्टि का निर्माणकर्ता तो स्वयं विट्ठल भगवान हैं। इन्होंने ही सबको निर्मित
किया है, फिर मानव को, मानव से भेद
करने का अधिकार कैसे? अस्पृश्यता एवं छुआछूत के विरोध में
उन्होंने अपने ‘अभंग’ के माध्यम से ढेर
सारे सवाल खड़े किये एवं इस अमानवीय व्यवस्था के पुनर्निर्माण हेतु आवाजें उठायीं। संत तुकाराम संतों और सच्चे भक्तों के सत्संग में
जाने का अवसर हाथ से कभी निकलने नहीं देते थे। उनके अभंग ऐसे संतों की स्तुति से
भरे पड़े हैं, जो केवल जीवन के उद्धार के लिए इस संसार
में आते हैं और अपनी अमृत-तुल्य वाणी से परमार्थ करके जीवों को तृप्त करते हैं।
संत तुकाराम के शब्दों में- ‘‘जगाच्या कल्याणा संतांच्या विभूति। देह
कष्टविती उपकारें।। भूतांची दया हें भांडवल संतां। आपुली ममता नाहीं
देही।। तुका म्हणे सुख पराविया सुखें। अमृत हें मुखें स्त्रवतसे।।”[7] संतों की महानता इसी में है कि वे जगत के कल्याण के
लिए आते हैं। वे जीवों का उपकार करने के लिए अपने शरीर पर कष्ट झेलते हैं। वे सब
प्राणियों के लिए दया के भंडार होते हैं। उनमें अपने देह के प्रति ममता नहीं होती।
तुकाराम कहते हैं कि संतों के मुख से अमृत बरसता है और उन्हें दूसरों के सुख से
सुख मिलता है। परंतु तुकाराम नकली साधु से सावधान रहने की चेतावनी भी देते हैं। वे
बड़े ही स्पष्ट शब्दों में पाखंडी और कपटी गुरुओं की आलोचना करते हैं। वे सब लोगों
पर खेद प्रकट करते हैं, जो गैरुए या पीले वस्त्र पहनकर और जटा
बढ़ाकर साधु बनने का स्वांग करते हैं और दर-दर भीख मांगते फिरते हैं। वैसे जीवन को
धिक्कारते हैं, जिसमें दूसरों की कमाई पर पेट पालना पड़े। संत तुकाराम ऐसे लोगों की भी आलोचना करते हैं जो
तीर्थ यात्रा करते हैं और कहते हैं कि ऐसा करने से सभी पाप धुल जाते हैं और उन्होंने
खूब पुण्य कमा लिया है। ऐसे लोगों को तुकाराम फटकारते हैं- ‘‘जामुनिया तीर्था काय तुवां केलें। चर्म
प्रक्षालिले वरी वरी। अंतरिचें शुद्ध कासयानें जालें। भूषणं त्वा केलें
आपणया।। तुका म्हणे नाहीं शांति, क्षमा, दया। तोंवरी कासया फुंदां तुम्ही।।”[8] अर्थात तीर्थ में जाकर तुमने क्या किया? केवल ऊपर से अपनी त्वचा को धोया। तीर्थ स्थान से भला तुम्हारे अंतर की
शुद्धि कैसे हुई? जो तुमने इसे अपने शोभा का साधन बना लिया
है। तुकाराम कहते हैं कि इससे तुम्हारे अंदर शांति क्षमा और दया तो आई नहीं। फिर
तुम फूले-फूले क्यों फिरते हो? अन्य संतों की ही तरह तुकाराम भी मनुष्य के शरीर को
परमात्मा का मंदिर मानते हैं। जिसके अंदर परमात्मा की खोज की जा सकती है और उसे
पाया जा सकता है। आत्मा और परमात्मा के बीच केवल उनकी ही दीवार है। संत तुकाराम
कहते हैं अपने अहम् को दूर करो अपने मन को इस पर दर्पण के समान निर्मल बनाओ। हिंसा, निंदा और कपट को त्यागो। अब तुम्हें किसी तीर्थ स्थान पर जाने की जरूरत
नहीं, क्योंकि प्रभु का भक्त स्वयं ही तीर्थ होता है। तुकाराम कोरे बाहरी ज्ञान की आलोचना करते हैं।
योगाभ्यास, यज्ञ, कठोर तप आदि
करने से या शास्त्रों को पढ़ने उन पर विचार करने से परमात्मा का ज्ञान कभी प्राप्त
नहीं हो सकता। उनका स्पष्ट कथन है- ‘‘योग याग तपें देहाचिया योेगें। ज्ञानाचिया
लागें न सांपडसी।”[9] अर्थात योग, यज्ञ और इन
सारे साधन और धर्म ग्रंथों के ज्ञान के द्वारा परमात्मा को नहीं पाया जा सकता।
आचार्य विनोबा भावे ने तुकाराम को ‘‘वैराग्य और समर्पण की
मूर्ति‘‘ कहा है। तुकाराम सांसारिक सुख-सुविधाओं के प्रति
बिल्कुल उदासीन थे। बल्कि वे दुखों का स्वागत करते थे। उनका मत था कि यदि दुःख मनुष्य को परमात्मा के अधिक निकट समय पहुंचाने में मदद करता है तो मुझे इन सब सुखों से
दूर कर दो। उन्होंने कहा हैः- ‘‘मुझे धन, धाम और बाल
बच्चों के मोह से विहीन कर दो, मुझे विपत्ति दो, मुझे भूखों मार
दो, मुझे झूठे कलंक का दुख दो, पर मुझे प्रभु से मिला दो, मेरे मन और हृदय में केवल प्रभु का ही वास रहे।”[10] परमात्मा के प्रति अत्यधिक अनुराग के कारण उन्हें
अपने शरीर और सांसारिक वस्तुओं के प्रति कोई राग नहीं रहा। उनका ध्यान परमात्मा
में इतना केंद्रित हो गया कि उनकी अपने शरीर की कोई रूचि नहीं रही। संतो ने कर्म को ही सच्चा धर्म स्वीकार किया है। संतों का मत है कि कर्म
के अभाव में जीवन व्यर्थ है। संत ने भी कर्म को जीवन के एक महत्वपूर्ण हथियार के
रूप में स्वीकार किया है और कर्म की पवित्रता पर विशेष बल दिया है। संतों ने जीव
हिंसा का विरोध किया है। संत तुकाराम भी जीव हत्या का विरोध करते हैं। चाहे वह
हिंसा मांस के लिए की जाती हो या अन्य उद्देश्य से। इन्होंने जाति, वर्ण और आपसी भेदभाव का विरोध किया। इनका मत था कि मनुष्य की सच्ची शोभा
जाति, वर्ग, धर्म और सम्प्रदाय से नहीं
अपितु परमात्मा की भक्ति से होती है। वे कहते हैं, ‘‘सत्य
(वचन तथा कर्म) यही धर्म है। असत्य कर्म (पाप) है। इसके सिवाय और कुछ सार नहीं है।’’[11] उनका मत था कि संत को सदैव सत्य और हितकारी कर्म के साथ जीवन को
व्यतीत करना चाहिए। संत तुकाराम के जीवन को हम देखें तो इनका जीवन भी त्याग और
समर्पण से पूरी तरह प्रतिबद्ध रहा है। संत तुकाराम अपने दुश्मनों को भी उचित
सम्मान और सहयोग देते हैं। उनके काव्य का अनुशीलन करने पर ज्ञात होता है कि
उन्होंने ऐसे अनेक लोगों के प्रति सहानुभूतिपूर्ण व्यवहार किया है जिन्होंने इनको
कष्ट पहुँचाया था। संत तुकाराम की मृत्यु कब और कहाँ हुई इस पर विद्वान एकमत नहीं हैं। ऐसी मान्यता है कि 125 वर्ष की अवस्था में संत तुकाराम भगवान विट्ठल के मंदिर में कीर्तन करते समय अदृश्य हो गये थे। आषाढ़ी एकादशी के दिन देहु से पंढरपुर में संत तुकारामजी की पालकी ले जायी जाती है। यहाँ सालो से श्रद्धालुओं में पंढरपुर की पैदल यात्रा करने की परंपरा चल रही है। संत तुकाराम को भाग्यवादी संत माना जा सकता है। वे मन से भाग्यवादी थे इसलिए उनके द्वारा चित्रित मानवी संसार का चित्र निराशा, विफलता और उद्वेग से रँगा हुआ है, तथापि उन्होने सांसारिकों के लिये संसार का त्याग करो इस प्रकार का उपदेश कभी नहीं दिया। इनके उपदेश का यही सार है कि संसार के क्षणिक सुख की अपेक्षा परमार्थ के शाश्वत सुख की प्राप्ति के लिये मानव का प्रयत्न होना चाहिए। |
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निष्कर्ष |
संत तुकाराम ने अपने ‘‘अभंगों‘‘ के द्वारा सामाजिक समरसता और ईश्वर भक्ति का उपदेश दिया। पद-दलित लोगों की बौद्धिक बेबसी को दूर करने में संत तुकाराम ने महत्त्पूर्ण योगदान किया। उन्होंने अथक परिश्रम से उपदेश देकर लोगों में इस भावना को जागृत किया कि सब मनुष्य समान हैं। उन्होंने मानव-जीवन की गरिमा को फिर से स्थापित करने का कार्य किया। सर्वसाधारण जनता जो जातिवाद की घोर असमानता का शिकार थी, उसे आत्मसमान से जीना सिखाया। उन्होंने लोगों को विश्वास दिलाया कि परमात्मा सर्वशक्तिमान और सबका रक्षक है। इस प्रकार संतु तुकाराम का सम्पूर्ण जीवन सरलता, सहजता, सादगी की मिसाल रहा है। उनकी वाणी आज भी लोगों के मानस को अपनी और आकृष्ट करती है। आज भी उनकी वाणी की अमिट छाप देखी जा सकती है। जो उपदेश उन्होंने संतो के जीवन को लेकर दिया था, वह उनके जीवन में सहजता से दिखाई पड़ता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. चन्द्रावती राजवाड़े, प्रथम संस्करण, 2000, संत तुकाराम जीवन और उपदेष,, राधास्वामी सत्संग व्यास, अमृतसर, पंजाब, पृ. सं. 16
2. जवाहिरलाल जैन (1958), संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 2
3. वही, पृ. 17
4. परशुराम चतुर्वेदी (2014), उत्तरी भारत की संत परंपरा, साहित्य भवन प्राइवेट लिमिटेड, इलाहाबाद, पृ. 16
5. जवाहिरलाल जैन (1958), संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 64
6. वही पृ. 70
7. चन्द्रावती राजवाड़े, प्रथम संस्करण, 2000, राधास्वामी सत्संग व्यास, अमृतसर, पंजाब, प्रथम संस्करण, पृ. सं. 18
8. वही, पृ. सं. 38
9. वही, पृ. सं. 39
10. वही, पृ. सं. 40
11. जवाहिरलाल जैन (1958), संत तुकाराम जीवनी, राजस्थान खादी संघ, जयपुर, पृ. 79 |