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राष्ट्रीय आन्दोलन और हिन्दी पत्रकारिता: एक ऐतिहासिक अनुशीलन | |||||||
National Movement and Hindi Journalism: A Historical Study | |||||||
Paper Id :
16872 Submission Date :
2022-12-10 Acceptance Date :
2022-12-22 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन को दिशा देने में हिन्दी पत्रकारिता की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। यह वह दौर था जब पत्रकारिता का व्यवसाईकरण नही हुआ था। पत्रकारिता पेशा न होकर स्वतंत्रता संघर्ष का एक सशक्त हथियार थी। राष्ट्रवाद के ज्वार में पत्रकार हर कीमत चुकाने को तत्पर था। फिर वह चाहे काला पानी की सजा हो, कुर्की हो या फिर मृत्यु दण्ड। पत्र व पत्रकारों का लक्ष्य स्पष्ट था ब्रिटिश हुकूमत व उसके पैरोकारों की मजम्मत करना। इसके लिए पत्रकार कोई भी कीमत चुकाने को तैयार था। यही कारण है कि जब भारत के स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान राजनीतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक जागरण की बात आती है तो हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास पर दृष्टि स्वमेव पहुँचजाती है। ऐसे में स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास के साथ-साथ हिन्दी पत्रकारिता के इतिहास का अनुशीलन भी आवश्यक हो जाता है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Hindi journalism has played an important role in giving direction to the Indian national movement. This was the period when journalism was not commercialised. Journalism was not a profession but a powerful weapon in the freedom struggle. In the tide of nationalism, the journalist was ready to pay any cost. Then whether it is punishment of black water, attachment or death penalty. The aim of the papers and journalists was clear to blame the British government and its supporters. For this the journalist was ready to pay any price. This is the reason that when it comes to political, social and cultural awakening during India's independence movement, then the vision automatically reaches on the history of Hindi journalism. In such a situation, along with the history of freedom struggle, it becomes necessary to study the history of Hindi journalism. | ||||||
मुख्य शब्द | पत्रकारिता, राष्ट्रीय आन्दोलन, स्वतंत्रता संघर्ष, समाचार पत्र, जागरण, व्यवसाईकरण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Journalism, National Movement, Freedom Struggle, Newspaper, Awakening, Commercialization. | ||||||
प्रस्तावना |
भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन का इतिहास एक नजरिये से वास्तव में पत्रकारिता का ही इतिहास है विशेषकर हिन्दी पत्रकारिता तीन महत्वपूर्ण भूमिकाओं का निर्वहन कर रही थी। स्वतंत्रता संघर्ष की लौ को तीव्र करना और जनमानस को आजादी के हवनकुण्ड में आहुति देने हेतु प्रेरित करना। समाज सुघार व सामाजिक बंघनो की कसावट को कमजोर कर राष्ट्रीय एकता के लिये प्रयास करना। साहित्य का परिष्करण करना। इन तीनों ही भूमिकाओं में हिन्दी पत्रकारिता ने जो कार्य किया वह विस्मरणीय है।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तावित शोध पत्र का उद्देश्य भारतीय स्वाधीनता आंदोलन में हिन्दी समाचार पत्रों के योगदान की महत्ता को उद्घाटित करना है। |
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साहित्यावलोकन | 1. रूपम कुमारी लिखित शोधपत्र ‘‘हिन्दी पत्रकारिता और
राष्ट्रवाद‘‘ के अवलोकन से ज्ञात होता है कि
स्वाधीनता आन्दोलन के दौरान भारतीय राष्ट्रवाद के जागरण में हिन्दी पत्रकारिता की
अहम भूमिका रही है। शोध पत्र यह दर्शाता है कि स्वतन्त्रता पूर्व की हिन्दी
पत्रकारिता में राष्ट्रीय आन्दोलन को गति, शक्ति व दिशा प्रदान की और
सशक्त जनसंचार का माध्यम बनी। इसने समाज के सबल व दुर्बल दोनो ही पक्षों से भारतीय
जनमानस को जागरूक कर राष्ट्रीय चेतना के विकास में महत्वपूर्ण योगदान दिया। 2. डा0 सन्मुख नागनाथ मुच्छटें के शोध पत्र ‘‘हिन्दी पत्रकारिता और भारतीय स्वतन्त्रता के अवलोकन से ज्ञात होता है कि देश की स्वाधीनता में हिन्दी पत्रकारिता की अहम भूमिका रही। पत्रकारिता ने जनता की सुशुप्तावस्था को तोड़ा और उसे स्वाधीनता के पथ पर अग्रसर किया। हिन्दी पत्र पत्रिकाओं में अभिव्यक्त विचारों से राष्ट्रीय चेतना के प्रसार को बल मिला। इसलिये इस दौर की पत्रकारिता अत्याधिक निर्भीक, सत्यवादी और व्यवसायिकता से दूर रही। 3. एम. बी. शाह लिखित ‘‘हिन्दी पत्रकारिता और स्वाधीनता संग्राम‘‘ के दर्शन को दिशा देने का कार्य मुख्यत: हिन्दी पत्रकारिता ने किया और 150 साल तक गुलामी में सड़ने वाले इस देश के दिल व दिमाग को सही राह पत्रकारिता ने दिखाई। यह शोध पत्र यह दर्शाता है कि युगीन पत्र व पत्रकारों के लिये एक ही दुश्मन था- अंग्रेज। एक ही देश था- हिन्दुस्तान और एक ही लक्ष्य था- आजादी। |
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मुख्य पाठ |
सही मायनों में राष्ट्र में स्वतंत्रता का बिगुल
सर्वप्रथम पत्रकारों ने ही बजाया। 1857 में
अजीमुल्ला खाँ ने दिल्ली से हिन्दी व उर्दू में एक छोटा सा समाचार पत्र ‘पयामें आजादी’ निकाला। पत्र में एक गीत की कुछ
पंक्तियाँ कुछ इस प्रकार छापी गई।- ‘‘हम है इसके मालिक, हिन्दुस्तान हमारा, पाक वतन है कौम का, जन्नत से भी प्यारा।’’ ‘पयामें आजादी’ पत्र
की समस्त प्रतियाँ जब्त कर ली गई। सम्भवतः इसकी एक प्रति बची जो लन्दन में उपलब्घ
है। ‘पयामें आजादी’ के
पश्चात लगभग एक दशक तक पत्रकारिता सन्नाटे के दौर से गुजरी। इसके पश्चात भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र के ‘कवि वचन सुधा’ से एक
नये दौर की शुरुवात हुई। ‘कवि वचन सुधा’ का उदेश्य था’’ सत्य निज भारत अहे’’। तब से अघिकांश समाचार पत्रों की प्रारम्भिक पक्तियाँ देश व राष्ट्रहित
को प्रधानता देने वाली थी। अब समय आ चुका था जब ग्रंथो का प्रारम्भ ईश्वर या
सरस्वती वंदना के बजाये राष्ट्र की वंदना से किया जाये। वास्तव में स्वदेशी शुरु
करने का श्रेय ‘कवि वचन सुधा’ को ही
जाना चाहिये। लाला जुगल किशोर शुक्ल के ‘बंगदूत’, शिवप्रसाद सितारे हिन्द के ‘बनारस अखबार’ आदि ने पत्रकारिता को ‘स्वांतः सुखाय’ की मानसिकता से बाहर निकाल ‘जनहित हिताय’ पर केन्द्रित किया। प्रथम दैनिक ‘सुधावर्षण’ ने बहादुरशाह जफर के अंग्रेजो के विरुद्ध
युद्ध छेड़ने के फरमान को छापकर अंग्रेजी हुकूमत को खुली चुनौती दी। आजादी की लड़ाई में हिन्दी पत्रकारिता ने जो कीमत
चुकाई उसका अंदाजा लगा पाना एक दुरुह कार्य है। 1900 से 1920
तक हिन्दी पत्रकारिता में बाल गंगाघर तिलक का बोलबाला रहा। 1920
से स्वतंत्रता प्राप्ति तक गाँधी जी ने पत्रकारिता कोनई दिशा दी।
युगांतर, गदर, संध्या, स्वराज्य, प्रताप, कर्मयोगी, वन्देमातरम, तेज, मिलाप, भारत मित्र, कर्मवीर आदि कुछ ऐसे पत्र थे जिनमें
अनवरत राष्ट्रप्रेम की ज्वाला धधक रही थी। विपिन चंद्र पाल व हलदर के ‘वदेमातरम्’ पत्र ने न सिर्फ बंगाल अपितु
सम्पूर्ण उत्तर भारत ऐसी हलचल पैदा कि कि अंग्रेजी हुकूमत सख्ते में आ गई। ‘गदर’ पत्र के संपादको में लाला हरदयाल और करतार सिंह
सराभा सहित कुल आठ लोगों को फाँसी की सजा हुई। ‘युगान्तर’
पत्र का आदर्श वाक्य था ‘फिरंगेर कांचा माथा’। इसके कई संपादको को कारावास में डाल दिया गया। 1907 में इलाहाबाद से प्रकाशित होने वाले ‘स्वराज्य’
पत्र ने स्वधीनता संग्राम में पत्रकारिता के क्षेत्र में साहस व
शूरता की अद्भुत मिसाल कायम की। शांति नारायण भट्नागर के नेतृत्व में निकलने वाले
इस पत्र के आठ संपादको को कुल मिलाकर 125 वर्ष के कालापानी
की सजा दी गई। लेकिन ‘स्वराज्य’ को कभी
भी संपादको की कमी महसूस नहीं हुई। हर संपादक की सजा के बाद ‘स्वराज्य’
में विज्ञापन निकलता- ‘संपादक चाहिये: वेतन-
दो सूखी रोटी, एक गिलास ठण्डा पानी और हर संपादकीय के लिये 20
साल की जेल’। राजा राम मोहन राय से लेकर अरविन्दो घोष, लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक, महत्मा गाँधी, गणेश शंकर विद्यार्थी, पराडकर, दुर्गा प्रसाद, बाल कृष्ण भट्ट, बाल मुकुन्द गुप्त आदि सभी किसी न किसी रुप में पत्रकारिता से जुड़े हुये
थे। गणेश शंकर विद्यार्थी की हत्या, प0 रुद्रदत्त शर्मा का भूखों मरना, प0 अमृतलाल चक्रवर्ती का कर्जा न चुका पाने के कारण जेल जाना, कन्हैयालाल मिश्र के ‘प्रभाकर’ पत्र की 80 बार कुर्की होना आदि तमाम ऐसी घटनायें है
जो पत्रकारिता के संघर्ष की कहानी बया करती है। बावजूद इसके ‘कर्मयोगी’ जैसे पत्र जो पाबन्दी के बावजूद चोरी-
छिपे जनता के बीच पहुँच ही जाते थे यह दर्शाते है कि अस्तित्व के संकट से जूझती
पत्रकारिता अपने उदेश्यों तक पहुँच ही जाती है। राष्ट्रीय आन्दोलन के दौर में समाचार पत्रों का कार्य
आज की भांति अघिकाघिक ग्राहक बटोरना नही था अपितु वह तो समर्पित पाठक तैयार करते
थे। ऐसे पाठक जो दूर- दराज गांवो में रहते थे। देहातों में लोग तिलक के ‘केसरी’ व गाँधी जी के ‘हरिजन’ पत्र के आने की राह देखा करते थे। उस समय
पत्रकारिता ने सामाजिक व राजनीतिक जागरण का जो जिम्मा अपने कांधे पे लिया उसे
बखूबी निभाया। वास्तव में पत्रकारिता पर तब तक पूजींवाद का रंग नही चढ़ा था। वास्तव
में पत्रकारिता तब एक वृत्ति न होकर, एक व्रत थी। गाँधी जी के आगमन से राष्ट्रीय आन्दोलन नये आयामों से
परिचित हुआ। पत्रकारिता के क्षेत्र में भी बदलाव स्वाभाविक ही था। गाँधी जी का
स्पष्ट तौर पर यह मानना था कि समाचार पत्रों या पत्रकारिता का प्रथम उदेश्य जनसामान्य
के विचारों को समझना व व्यक्त करना: द्वितीय उदेश्य जनभावना को जाग्रत करना और
तीसरा उदेश्य बिना किसी भय के सार्वजनिक दोषों को उजागर करना। स्वयम् गाँधी जी इन
उक्त उदेश्यों को केन्द्र में रखकर पत्रकारिता करते थे। बिना किसी उत्तेजित व
भड़काने वाली भाषा का प्रयोग कर विरोधी के जाल को कैसे तोड़ना है उसका नमूना गांधी
जी की पत्रकारिता में दिखता है। 1857 से लेकर 1947 तक जितने भी समाचार पत्र निकले वह सभी राष्ट्रीय स्वतंत्रता संग्राम के
प्रति समर्पित थे यह कहना अंतशयोक्ति होगा बावजूद इसके ऐसे पत्रों की कमी नही थी
जिन्होने इमानदारी से स्वतंत्रता संघर्ष में अपनी भूमिका निभाई। इंडियन ओपिनियन, यंग इंडिया, नवजीवन तथा हरिजन आदि पत्रों ने जो
सत्यवादिता की नींव रखी उसने यह भी दर्शाया कि पत्रकारिता एक जबरजस्त अहिंसात्मक
ताकत भी हो सकती है। कन्हैयालाल मिश्र प्रभाकर, विकास जैसा 5-8
पृष्ठों का साप्ताहिक चलाते थे, उनकी निर्भयता
व सत्यवादिता की दाद देश का बड़े से बड़ा नेता देता था। एक महत्वपूर्ण बात यह भी है कि तत्कालीन पत्रकारो के
लिये स्वराज्य का लक्ष्य स्पष्ट था। तिलक, गांधी जी, माखनलाल चर्तुवेदी, गणेशशंकर विद्यार्थी हो या फिर
प्रेमचंद्र व निराला वह बिलकुल ठीक से जानते थे कि स्वराज्य में ‘‘स्व’’ का अर्थ है किसान, मजदूर, मेहनतकश। 1908 में राधामोहन गोकुल का ‘देश का धन’, महावीर प्रसाद का ‘संपत्तिशास्त्र’, 1918 में
गंगाधर पंत का लेख ‘अवध के जमींदार और काश्तकार’ जनार्दन भट्ट का ‘हमारे गरीब किसान और मजदूर’
इन सभी लेखों में देश के कृषक व मजदूर वर्ग की जहाँ एक ओर चिन्ता
परिलक्षित होती है। तो वही दूसरी ओर धन्ना सेठों व बड़े से बड़े सत्ताधीसों से बिना
डरे जमींदारो व शोषक अंग्रेजी हुकूमत पर तीक्ष्ण प्रहार किया गया। 1924 में ‘प्रताप’ में विद्यार्थी
जी ने लिखा ‘‘देश में जो स्वराज्य होगा वह किसी धनवान का नही, शिक्षितों का नही, वह होगा साधारण से साधारण इंसान
तक का।’’ पत्रकारिता ने न सिर्फ राजनीतिक चेतना के प्रसार व
अंग्रेजी हुकूमत की पोल खोलने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई अपितु समाज में मौजूद
तमाम प्रकार के भेद-भाव व सामाजिक बुराइयों पर भी कड़ा प्रहार कर सामाजिक
श्रेणीक्रम को भी तोड़ने का प्रयास किया। इस प्रकार एक ओर पत्रकारिता अंग्रेजी
हुकूमत को चुनौती दे रही थी तो वही दूसरी ओर अपने ही समाज में विभिन्न कारणों से
पनपने वाले दकियानूसी विचारों व रुढिवाद के विरुद्ध भी लड़ रही थी। भारतेन्दु
हरिश्चन्द्र ने सामाजिक कुरीतियों पर करारे हमले किये तो वही प0 बालकृष्ण भट्ट ने हिन्दू धर्म मे विद्यमान पाखण्ड पर
टीका-टिप्पणी की। प0 प्रताप नारायण मिश्र ने बाल विवाह, अनमेल विवाह पर, बाबू बाल मुकुंद गुप्त ने मारवाड़ी
समाज की अ-सामाजिकता पर, गांधी जी व तिलक ने अस्पृश्यता पर, गणेश शंकर विद्यार्थी ने जाति -भेद पर करारे हमले किये। |
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निष्कर्ष |
राष्ट्रीय आन्दोलन का दौर संघर्ष व रचना का ऐसा काल था जिसमें लम्बे समय से गुलामी का दम्भ झेल रहे भारत को हिन्दी पत्रकारिता ने सही राह दिखाई। इस दौर के समाचार पत्रों ने नेतृत्वकर्ता व सलाहकार दोनो ही भूमिकाओं का निर्वहन किया। पत्रकारिता ने न सिर्फ राजनैतिक चेतना का ही संचार किया अपितु सदियों से जड़ जमा चुकी सामाजिक कुरीतियों के प्रति भी समाज को सचेत कर राष्ट्रीय एकता के मार्ग प्रशस्त किये। गाँधीवादी युग के पूर्व की हिन्दी पत्रकारिता का स्वर मूलतः साहित्यिक था। किन्तु जैसे-जैसे राजनैतिक परिदृश्यों में बदलाव आया हिन्दी पत्रकारिता का कलेवर व स्वर भी परिवर्तित हुआ। परिणामतः गाँधीवादी युग में पत्रकारिता ने नवीन आदर्शो व जीवन मूल्यों की स्थापना की। अगर संक्षेप में कहे तो इस दौर में पत्रकारिता का एक ही शत्रु था- अंग्रेज तथा एक ही लक्ष्य था- आजादी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. अम्बिका दत्त बाजपेयी,‘‘ समाचार पत्रों का इतिहास ’’, ज्ञानमण्डल लिमिटेड, वाराणसी प्रथम संस्करण।
2. जगदीश प्रसाद चर्तुवेदी ,‘‘ हिन्दी पत्रकारिता का इतिहास ’’, प्रभात प्रकाशन ,दिल्ली।
3. राम गोपाल,‘‘ स्वतंत्रतापूर्व हिंन्दी के संघर्ष का इतिहास ’’,हिन्दी साहित्य सम्मेलन ,इलहाबाद 1964।
4. कमलपति त्रिपाठी ,‘‘ पत्र और पत्रकार ’’,ज्ञान मण्डल लिमिटेड ,वाराणसी 1943।
5. कृष्ण बिहारी मिश्र,‘‘हिन्दी पत्रकारिता ’’, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन ,1968।
6. लक्ष्मीकान्त वर्मा ,‘‘ हिन्दी आन्दोलन ’’ हिन्दी साहित्य सम्मेलन ,इलहाबाद ,1964।
7. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय ,‘‘ हिन्दी साहित्य का संक्षिप्त इतिहास ’’,लोक भारती प्रकाशन ,इलहाबाद 1975।
8. शेखर बंदोपाध्याय,‘‘ नेशनलिस्ट मूवमेन्ट इन इण्डिया’’,ए रीडर आक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस ,2009। |