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भारतीय समाज में महिलाओं की भूमिका एवं सामाजिक प्रस्थिति (अतीत से वर्तमान तक) | |||||||
Role and Social Status of Women in Indian Society (From Past to Present) | |||||||
Paper Id :
16959 Submission Date :
2023-01-01 Acceptance Date :
2023-01-10 Publication Date :
2023-01-13
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सारांश |
"किसी भी राष्ट्र की स्त्रियों की उन्नति एवं अवनति पर ही उस राष्ट्र की उन्नति या अवनति निर्भर है"- अरस्तु
विश्व का कोई भी समाज ऐसा नहीं रहा है, जिसकों महिला और पुरुषों के बीच असमानता लिंग के आधार पर तय की गई हो। यद्यपि प्रत्येक संस्कृति में महिला और पुरुषों के सांस्कृतिक संबंध अलग-अलग रहे हैं, परंतु किसी भी समाज में ऐसा उदाहरण नहीं मिलता जिसमें महिलाओं की श्रेष्ठ प्रस्थिति मौजूद रही हो। भारतीय समाज में महिलाओं की प्रस्थिति अंतर विरोधात्मक रही है, एक ओर धर्मशास्त्रों में महिला को ज्ञान, शक्ति और संपत्ति का प्रतीक माना गया है, वहीं दूसरी ओर महिलाओं को पुरुषों की तुलना में निम्न तथा अधिकारों से वंचित रखा गया है। जिसके परिणाम-स्वरूप महिलाओं को सामाजिक संरचना एवं व्यवस्था में उचित स्थान प्राप्त नहीं हो सका और महिलाओं की प्रस्थिति निम्न बनी रही।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | "The progress or degradation of any nation depends on the progress and degradation of the women of that nation" - Aristotle No society in the world has been such that inequality between women and men has been fixed on the basis of gender. To bring gender equality in the society with the changed mindset of women, it is necessary that the movement for gender equality is not against the existence and rights of men, but it is necessary for balanced development in achieving the goals of development of the society. Women's empowerment, its continuity despite adverse thinking, circumstances and events is a proof that the question of women's equality development power is not superficial or alleged, but the ground truth of reality, which cannot be ignored. |
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मुख्य शब्द | महिला, प्रस्थिति,भूमिका, अतीत, सामाजिक परिवर्तन, संघर्ष। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Women, Status, Role, Past, Social Change, Struggle. | ||||||
प्रस्तावना |
महिलाओं की सामाजिक प्रस्थिति के संदर्भ में ही विश्वव्यापी स्तर पर सशक्तिकरण की अवधारणा उत्पन्न हुई। वैसे इस अवधारणा का प्रयोग बहुत से सामाजिक समूहों के विकास के लिए किया गया है, परंतु महिलाओं की प्रस्थिति के संदर्भ में इस अवधारणा का विशेष महत्व रहा है। समाजशास्त्रियों ने सशक्तिकरण को वह शक्ति कहा है, जो इन समूहों को अधीनता के विरुद्ध संघर्ष करने की प्रस्थिति को प्रोत्साहन देती है।
सशक्तिकरण की अवधारणा अभाव के साथ जुड़ी हुई है, आर्थिक अभाव वर्तमान समाज की गंभीर समस्या है, किसी भी आर्थिक अभाव के निवारण का तरीका व्यक्ति को उन अभावो से मुक्ति दिलाना है, जो उसकी समस्या हो। समता और संपन्नता आज का विशेष सामाजिक लक्ष्य है, इसके लिए आवश्यक है कि समाज के पुरुषों के साथ- साथ महिलाओं का सशक्तिकरण।
सशक्तिकरण एक बहुआयामी प्रक्रिया है जो एक निर्बल सामाजिक इकाई को उसकी संपूर्ण क्षमता का ज्ञान कराती है।
सशक्तिकरण एक विश्वव्यापी प्रश्न है जो सामाजिक न्याय, क्षमता, समानता एवं समग्र सामाजिक विकास पर आधारित अवधारणा है।
सशक्तिकरण से तात्पर्य अधिकार लेने या देने से नहीं है वरन कानून व नीति निर्माण की प्रक्रिया की क्रियान्विति में सहभागिता निर्णय लेने व नियंत्रण करने की शक्ति का परिवर्तनशील कार्यों की ओर अग्रसर होना एवं जागरूकता व सामर्थ्य निर्माण की एक प्रक्रिया है ।
प्रस्तुत लेख भारतीय समाज में महिलाओं की प्रस्थिति की अतीत से वर्तमान तक की समस्या है कि किस प्रकार से वैदिक युग की स्वतंत्र नारी गृह कार्य में कैद होकर रह गई और समाज में पुरुषों की तुलना में उसकी प्रस्थिति द्वितीयक हो गई तथा समाज के उन सामाजिक सांस्कृतिक मूल्यों एवं संस्थाओं जिन्होंने महिलाओं के अस्तित्व एवं प्रस्थिति पर अनेकानेक प्रश्नचिन्ह लगा दिये।
मानव समाज का इतिहास, महिलाओं को सत्ता, प्रभुता एवं शक्ति से दूर रखने का इतिहास रहा है ओर इसलिए प्रत्येक देश, काल, जाति, धर्म में महिलाओं को पुरुषों के समकक्ष न आने देने की संरचनात्मक सांस्कृतिक बाध्यताएं बनाई गई।
आदिम समाजों की जीवन शैली इस बात का प्रमाण है कि प्रागैतिहासिक काल में स्त्री-पुरुष समानता विद्यमान थी। संगठित समाज की रचना उत्पादन के साधनों में बदलाव, परिवार, संस्था, अभ्युदय एवं स्वामित्व, संपत्ति के उदय के साथ सामाजिक संरचनाओं में आए परिवर्तनों ने स्त्री-पुरुष असमानता, भेदभाव एवं स्त्री की अधीनता तथा असशक्तिकरण की प्रक्रिया सूत्रपात किया। यह प्रक्रिया आश्चर्यजनक रूप से विश्व की सभी सभ्यताओं एवं कालखंडों में कमोवेश पनपती रही। अधीनीकरण कि इस प्रक्रिया में सामाजिक संरचनाओं, सांस्कृतिक नैतिक मूल्यों, मानको, अर्धतंत्र, राजनैतिक संस्थानों समेत अनेक कारकों का योगदान रहा। विभिन्न सदियो में भौतिक, धार्मिक, वैज्ञानिक, औद्योगिक, राजनैतिक क्रांतियां हुई, किंतु स्त्री प्रस्थिति के संदर्भों में सतही परिवर्तन ही हुये।
इतना अवश्य रहा कि उक्त क्रांतियों के फलस्वरूप स्त्री अधीनता एवं भेदभाव के खिलाफ स्त्रियों में तथा कुछ पुरुषों में चेतना का प्रारंभ हुआ।
नारी सशक्तिकरण के अनेक निहितार्थ है। वस्तुतः नारी सशक्तिकरण बहुआयामी है, किंतु मूल रूप से यह महिलाओं के बुनियादी मानव अधिकारों का प्रश्न है। लोकतांत्रिक मानकों के अनुरूप यह महिलाओं के मूल लोकतांत्रिक अधिकारों की प्राप्ति के लिए अवसरों की उपलब्धता का प्रश्न है- सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक, राजनैतिक, वैयक्तिक, सामूहिक वैश्विक सभी क्षेत्रों में सभी स्तरों पर । वर्तमान भारत में विगत कुछ वर्षों में अनेक मंचों से यह प्रश्न इसलिए उठा है कि विगत लगभग छ: दशकों ने देश में लोकतंत्र की अनेकानेक उपलब्धियों के बावजूद आधी आबादी को जो दर्जा मिलना चाहिए था, वह उससे वंचित है । इसके क्या कारण है? निदान या सुधार स्वरूप क्या रणनीतिया अपनाई गई? परिणाम कितने संतोषप्रद हैं? बदलती परिस्थितियों में सशक्तिकरण के क्या निहितार्थ हैं! ऐसे अनेक प्रश्न हमारे सामने खड़े हैं।
सशक्तिकरण एक बहुआयामी अवधारणा है जो व्यक्ति का व्यक्तियों के समूह को इस योग्य बनाने का प्रयास करता है कि वे जीवन के प्रत्येक क्षेत्र। कार्यों की पूर्ण अस्मिता एवं शक्तियों को प्राप्त कर सके। यदि किसी समाज में स्त्री-पुरुष समानता के बीच विद्यमान है तो यह उस समाज के समग्र विकास के लिए कैसे यथोचित है?
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय समाज में अतीत से वर्तमान तक महिलाओं की भूमिका एवं उनकी सामाजिक प्रस्थिति का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | किसी भी राष्ट्र या समाज के समग्र एवं
संतुलित विकास के लिए महिला वर्ग का राष्ट्र की मुख्य धारा से जुड़ा होना परमावश्यक
है। देश की आधी आबादी की पूर्ण सक्रियता एवं सहभागिता ही संबंधित समाज के समुचित विकास
की पूर्व शर्त है। इस तथ्य को स्पष्ट करते हुए अमेरिका विद्वान टॉक विल का कथन है कि अमेरिका महिलाओं की सर्वोपरिता ही अमेरिका लोकतंत्र
की सुदृढ़ता एवं समृद्धि का प्रमुख आधार है।[1] इसी प्रकार नेपोलियन बोनापार्ट जैसे सेनानायक
ने महिलाओं को शिशु व समाज दोनों की अनुवांशिक पाठशाला स्वीकारते हुए एक महान राष्ट्र
के निर्माण में उनकी उपादेयता यूं ही अकारण स्वीकार नहीं की थी। अमर्त्य सेन ने अपनी पुस्तक “india economic development and social
opportunity” में लिखा है “महिला सशक्तिकरण से न केवल महिलाओं का
जीवन में निश्चित रूप से सकारात्मक असर पड़ेगा बल्कि पुरुषों और बच्चों को भी इससे
लाभ मिलेगा। इसलिए राष्ट्र का सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक विकास शासन की गुणवत्ता एवं महिलाओं की सक्षमता
दोनों पर निर्भर करता है”।[2] समाजशास्त्रीय परिप्रेक्ष्य में देखते
हैं तो महिलाओं की प्रस्थिति
द्वितीयक पायदान पर क्यों? लेवी स्ट्रॉस के अनुसार “नारी परतंत्रता
सामाजिक गति-शीलता का परिणाम है”।[3] शैरी ओटनर के अनुसार “स्त्री एवं पुरुष के मध्य प्रकृति एवं संस्कृति के आधार पर तथाकथित भेदभाव स्वयं संस्कृति की उपज है”। ओटनर के अनुसार “लगभग सभी मानव समाजों में स्त्रियों की प्रस्थिति पुरुषों की तुलना में द्वितीयक होती है। स्त्री प्रकृति का प्रतिनिधित्व करती है तथा पुरुष ‘संस्कृति’ का। संस्कृति को प्रकृति के ऊपर ‘विजय एवं प्रकृति की पराजय’ के रूप में देखा जाता है।[4] |
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मुख्य पाठ |
मानव शास्त्र के परिप्रेक्ष्य में देखा
जाए तो पुरुष-स्त्री मौन संबंध स्थापित करने हेतु समूह स्थापना एवं समूहों की महिलाओं
का आदान-प्रदान रहा। एंजिस के मतानुसार स्त्री की द्वितीयक
प्रस्थिति का संबंध ऐतिहासिक रूप से वर्ग समाजों की उत्पत्ति एवं विकास से संबंधित
है। आदिम समाजों में सभी कार्यों, चाहे वह स्त्री या पुरुष करता था को समान सामाजिक
मूल्य प्राप्त था। संपत्ति पर संपूर्ण समुदाय का अधिकार होता है और कोई भी व्यक्ति
अपनी आवश्यकतानुसार समान से उपभोग कर सकता था। लेकिन धीरे-धीरे पितृसत्तात्मक समाज होने की वजह से
पुरुष के हाथ में संपत्ति का अधिकार आ गया।[5] प्राय: देखा गया है कि भारतीय समाज में स्त्रियों
को ज्ञान एवं शक्ति का प्रतीक माना गया है। उसे प्रतीकों के रूप में भारतीय समाज नारी
को सरस्वती, दुर्गा एवं लक्ष्मी के रूप में पूजता रहा है। समाज में स्त्री को पुरुष
की अर्धांगिनी के रूप में सम्मानजनक स्थान प्राप्त है। लेकिन व्यावहारिक रूप में स्त्री
की प्रस्थिति कुछ और ही है। स्त्री परिवार की नींव है परिवार समुदाय का आधार है तथा
समुदाय राष्ट्र का। जिस राष्ट्र अथवा देश में स्त्रियों का समुचित मान सम्मान होता
है वही राष्ट्र एक आदर्श और उन्नतिशील राष्ट्र बन सकता है। जवाहरलाल नेहरू ने कहा था कि “आप किसी राष्ट्र
में महिलाओं की स्थिति देखकर उस राष्ट्र के हालात बता सकते हैं”[6] प्रारंभिक काल में भारतीय समाज में महिलाओं
को अनेक अधिकार व प्रतिष्ठा मान-सम्मान प्राप्त थे। वैदिक काल तथा उत्तर वैदिक काल
के पश्चात समाज की मौलिक अवस्थाओं का स्थान रूढ़ियों ने ले लिया, इसका परिणाम
यह हुआ कि स्त्रियों का सम्मान और उनके अधिकार कम होते चले गए। पुरुष प्रधान समाज स्त्रियों
के अधिकारों का हनन करता गया और कभी सांस्कृतिक मूल्यों और कभी परंपराओं के नाम पर
स्त्री का शोषण होता चला गया। इन सब के परिणाम स्वरुप स्त्रियों की प्रस्थिति दिन-प्रतिदिन
बद से बदतर होती चली गई। रूढ़ियों एवं परंपराओं को धर्म के ज्ञाताओ एवं स्मृतिकारों
का सहयोग मिलने से स्त्रियां धीरे-धीरे पराधीन असहाय और निर्बल हो गई तथा समाज में स्त्री
की प्रस्थिति पुरुष की तुलना में द्वितीयक
हो गई। पुरुष ने स्त्री के पारिवारिक अधिकार सीमित कर दिये और स्वयं का प्रभुत्व स्थापित
कर लिया।[7] मध्य काल में भारतीय समाज में महिलाओं
की प्रस्थिति सर्वाधिक दयनीय एवं विचारणीय रही। जब भारत के कुछ समाज समुदायों में सती-प्रथा, बाल-विवाह और
विधवा विवाह, पुनर्विवाह पर रोक, सामाजिक जीवन का एक हिस्सा बन गयी थी। भारतीय उपमहाद्वीप
में मुसलमानों की विजय ने पर्दा प्रथा को भारतीय समाज में लाद दिया एवं राजस्थान के
राजपूत समाज में जौहर प्रथा। वैदिक युग की स्वतंत्र एवं स्वच्छंद नारी गृह कार्य में
कैद होकर रह गई। भारत के कुछ हिस्सों में देवदसियों एवं मंदिर की महिलाओं को यौन शोषण
का शिकार होना पड़ा। बहु विवाह एवं बाल विवाह की प्रथा का प्रचलन शुरू हो गया। रही
सही कमी “ढोल गवार पशु, शूद्र नारी से यह सब ताड़न के अधिकारी” जैसे विशेषण
का प्रयोग करते हुए तुलसीदास जैसे मनस्वियों ने पूरी कर दी। किन्तु इन सब के विपरीत
प्रस्थिति के बावजूद कुछ महिलाओं ने राजनीति, साहित्य, शिक्षा और धर्म के क्षेत्र में सफलता हासिल
की। महिलाओं को समाज में सम्मानजनक स्थान दिलाने हेतु सामाजिक व वैधानिक दोनों ही स्तरों
पर समाज सुधारकों व महिला आंदोलनों ने गंभीर प्रयास किए। महात्मा गांधी ने हिंद स्वराज में लिखा “जब तक आधी
मानवता के आंखों में आंसू है, मानवता पूर्ण नहीं कही जा सकती।[8] इसी के साथ
स्वतंत्रता और समानता पर आधारित लोकतांत्रिक मूल्यों की हवा ने भी महिलाओं को घर की
दहलीज़ से निकाल कर विश्व पटल पर स्थापित कर दिया। नीति नियामक स्तर पर यह भी महसूस
किया गया कि बिना आधी आबादी के भागीदारी के किसी भी लोकहित कार्यक्रम की शत-प्रतिशत सफलता
सुनिश्चित नहीं है। साहित्यिक के स्तर पर छायावादी युग के
जयशंकर प्रसाद ने उद्धघोषित किया- “नारी तुम केवल श्रद्धा हो, विश्वास रजत
नग पग तल में। पीयूष स्रोत सी बहा करो, जीवन के सुंदर समतल में”।[9] भक्ति आंदोलन ने भी महिलाओं की स्थिति
को बेहतर बनाने हेतु प्रयास किये। एक महिला संत कवयित्री मीराबाई भक्ति आंदोलनों के
सबसे महत्वपूर्ण नामों में से एक है। भक्ति आंदोलन के कुछ समय पश्चात ही सिखों के गुरु, गुरुनानक
ने भी महिला एवं पुरुषों के बीच समानता के संदेश को प्रसारित किया। उन्होंने महिलाओं
को धार्मिक संस्थानों का नेतृत्व करने सामूहिक प्रार्थना में गाए जाने वाले भजन कीर्तन, धार्मिक प्रबंधन
समितियों के सदस्य बनने। विवाह में समानता का अधिकार और अमृत (दीक्षा) में समानता
की वकालत की। भक्ति आंदोलन ने एक और महिलाओं की प्रस्थिति
में सुधार को सुधारने हेतु प्रयास किए किंतु दूसरी ओर संत महात्माओं ने स्त्रियों को
उनके मार्ग की बाधा माना। श्रीमती नीरा देसाई का कहना है कि स्त्रियों
के बारे में संत-महात्माओं के विचार समाज के अन्य लोगों से भिन्न नहीं
थे। इसका कारण यह था कि वह सभी मोक्ष चाहते थे और मोक्ष के मार्ग में आने वाली सभी
बाधाओं को दूर करना चाहते थे। भक्तों के विचार जो भी रहे हो, भक्ति आंदोलन
का एक लाभ अवश्य हुआ कि स्त्रियों के लिए भक्ति के मार्ग खुल गए।[10] इस प्रकार सोलहवीं शताब्दी से अठाहरवीं
शताब्दी तक का युद्ध मध्ययुग के रूप में जाना जाता है। इस युग में विशेष रुप से मुगलों
के शासन की स्थापना के पश्चात स्त्रियों की प्रस्थिति में विशेष रूप से पतन हुआ। ब्राह्मणों
ने भारतीय संस्कृति की रक्षा, स्त्रियों के सतीत्व एवं रक्त की शुद्धता बनाए रखने
हेतु स्त्रियों से संबंधित नियमों को अत्यधिक कठोर बना दिए। महिलाओं के सामाजिक प्रस्थिति का पुनरुत्थान
का काल ब्रिटिश काल से प्रारंभ होता है। ब्रिटिश शासन की अवधि में हमारे समाज की सामाजिक
आर्थिक संरचनाओं में अनेक परिवर्तन किए गए। ब्रिटिश शासन
के 200 वर्षों की अवधि में स्त्रियों के जीवन में प्रत्यक्ष व अप्रत्यक्ष अनेक
सुधार हुए। औद्योगिकरण, शिक्षा का विस्तार, सामाजिक आंदोलन में महिला संगठनों का उदय
व सामाजिक प्रावधानों ने स्त्रियों की दशा में बड़ी सीमा तक सुधार की ठोस शुरुआत की। स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व स्त्रियों
की निम्न दशा के प्रमुख कारण अशिक्षा, आर्थिक निर्भरता, धार्मिक, निषेद्य, जातीय बंधन, स्त्री नेतृत्व का अभाव तथा पुरुषों का
उनके प्रति अनुचित दृष्टिकोण इत्यादि रहे। भारतीय समाज मैं स्वतंत्रता प्राप्ति के
पश्चात स्त्रियों की प्रस्थिति में उल्लेखनीय परिवर्तन आया है। ‘स्वाधीनता
के पश्चात वर्तमान में जो स्त्रियों के सामाजिक, आर्थिक एवं राजनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तन
देखने को मिले उनकी कल्पना तो कोई कर ही नहीं सकता था। डॉ. एम.एन. श्रीनिवास ने पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण
और जातीय गतिशीलता को इन परिवर्तनों का प्रमुख कारण माना है।[11] इसके साथ
ही शिक्षा के प्रसार तथा औद्योगिकरण ने स्त्रियों को आर्थिक जीवन में प्रवेश करने के
पर्याप्त अवसर प्रदान किये। सरकार द्वारा महिलाओं की आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक
और राजनीतिक स्थिति में सुधार लाने तथा उन्हें विकास की मुख्यधारा में समाहित करने
हेतु अनेक कल्याणकारी योजनाओं और विकासात्मक कार्यक्रमों का संचालन किया गया। महिलाओं
को विकास की मुख्यधारा में शामिल करने हेतु शिक्षा के समुचित अवसर उपलब्ध कराकर उन्हें
अपने अधिकारों और दायित्व के प्रति सजग करते हुए उनकी सांस्कृतिक सोच में परिवर्तन
लाने, आर्थिक गतिविधियों में उनकी अभिरुचि उत्पन्न करने एवं आर्थिक, सामाजिक दृष्टि
से आत्मनिर्भरता एवं स्वावलंबन की ओर अग्रसर करने जैसे मुख्य उद्देश्यों की पूर्ति
हेतु पिछले कुछ दशकों में महत्वपूर्ण प्रयास किए गए। उन्नीसवीं सदी के मध्य काल से लेकर इक्कीसवीं
सदी तक आते-आते महिलाओं की प्रस्थिति में काफी सुधार हुआ। महिलाओं ने शिक्षा, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, प्रशासनिक, खेलकूद आदि
विविध क्षेत्रों में उपलब्धियों के नए-नए आयाम तय किए। के.एम. पन्निकर के अनुसार “कुछ मेधावी
स्त्रियों जिन्होंने उल्लेखनीय सफलता प्राप्त की है, वह भारत के लिए उतनी महत्व की नहीं है जितनी इस बात की कि कट्टरपंथी और पिछड़े
समझे जाने वाले ग्रामीण व्यक्तियों के विचारों में भी अब परिवर्तन होने लगा है। यहां
स्त्रियां उन सामाजिक बंधनो से बहुत कुछ मुक्त हो चुकी हैं ‘जिन्होंने
उन्हें रूढियों और बाबा वाक्य के प्रयोग’ की विचारधारा के द्वारा जकड़ रखा था।[12] भारत में महिलाओं की प्रस्थिति एक दृष्टि- यह विडंबना ही है कि भारतीय समाज में महिलाओं
को शक्ति का प्रतीक दुर्गा, धन का प्रतीक लक्ष्मी तथा ज्ञान का प्रतीक सरस्वती
मानी गई है अर्थात ज्ञान, वैभव और शक्ति का स्रोत स्त्रियों को माना गया है
तब भी भारतीय समाज में स्त्रियों की दशा निम्न है और उन्हें अनेक संरक्षण की आवश्यकता
पड़ रही है। नारी की जिस कोख ने संपूर्ण सृष्टि का सृजन किया, उसी कोख को
क्यों बलात्कार, यौन उत्पीड़न और वेश्यावृत्ति का कुप्रभाव झेलना पड़ता है। जो नारी विभिन्न
प्रस्थिति में भी पुरुष को ममता, स्नेह, समर्पण और वात्सल्यता का सुख देती है उसे पुरुषों
के हाथों अपमानित होना पड़ता है। भारतीय समाज में नारी एक जीवित विसंगति है, एक जीवित
विडंबना है, जीवित व्यथा है जिसकी दशा में सुधार के प्रयास अभी भी वास्तविक नहीं बन
पाए हैं। संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के
अनुसार भारतीय महिलाओं की पोषण, साक्षरता व लिंगानुपात तीनों में ही अत्यंत शोचनीय
स्थिति है। वैश्वीकरण के इस युग में भी कन्या जन्म अधिकांश घरों में हर्षोल्लास नहीं
जगाता अपितु चिंता का विषय बन जाता है। वर्तमान में बच्चियों व महिलाओं के साथ घट रही
दुर्घटनाएं भी इसका उत्तरदायी कारण है । इसी के परिणाम स्वरुप राष्ट्रीय लिंगानुपात 943 व उसमें भी 0-6 आयु वर्ग
का लिंगानुपात 927 से घटकर 2011 की जनगणना में मात्र 919 का हीं रह गया। इसी प्रकार 70.0 4 प्रतिशत राष्ट्रीय
साक्षरता में पुरुषों की 82.14 प्रतिशत के मुकाबले में महिला साक्षरता मात्र 65.40 प्रतिशत है।
महिलाओं के प्रति बढ़ते अपराधों का ग्राफ
अत्यधिक चिंताजनक है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के
अनुसार 2020 में 1719 हत्या, 6234 अपहरण, 5310 बलात्कार, 479 दहेज, मृत्यु 13765, महिला उत्पीड़न(498-A) व 8661 छेड़छाड़
के मामले दर्ज है। ये मामले तो वह हैं जो सरकारी दस्तावेजों में दर्ज है। वास्तविकता
कितनी भयावह होगी, इसका अंदाजा हम सहज ही लगा सकते हैं। शायद ही कोई
दिन ऐसा होगा जो इस रक्त रंजित घटनाओं से अछूता रहा है। गैंगरेप व मर्डर जैसी घटनाएं
रोंगटे खड़े कर देती हैं। घरेलू हिंसा के तौर पर देखा जाए तो महिलाओं
की स्थिति बदतर है कि 2005 में सरकार को घरेलू हिंसा निवारण अधिनियम पारित करवाना
पड़ा इसी तरह कामकाजी महिलाओं के साथ कार्य स्थल पर पुरुष सहकर्मियों द्वारा किया जाने
वाला बर्ताव उत्पीड़न हेतु 2013 में कार्यस्थल पर लैंगिक उत्पीड़न अधिनियम पारित करना इस बात का
साक्ष्य है कि महिलाएं कितनी सुरक्षित है। महिलाओं का घटता अनुपात भी एक चिंता का
विषय है। यदि समाज में लैंगिक असंतुलन अधिक हो गया तो इस बात का अंदाजा भी नहीं लगाया
जा सकता कि समाज की तस्वीर कितनी भयावह हो सकती है? इसी को ध्यान में रखते हुए 2015 में ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ पर भी जोर
दिया गया। लेकिन यह विचारणीय प्रश्न है कि क्या केवल कानून बना देना ही महिलाओं की
सुरक्षा या समाज की मुख्यधारा में शामिल करने हेतु पर्याप्त है। भारत में स्वतंत्रता के पश्चात महिलाओं की स्थिति में सुधार हेतु प्रयास- स्वतंत्रता के i'pkr~ भारत में महिलाओं की प्रस्थिति को सुधारने हेतु भारत
सरकार द्वारा वैधानिक स्तर पर कई कानून बनाए गए एवं कई योजनाएं एवं कार्यक्रम चलाए
गए। उनके परिणामस्वरूप महिलाओं की प्रस्थिति में काफी परिवर्तन आए हैं। स्वाधीनता के
पश्चात वर्तमान में जो महिलाओं की स्थिति में सामाजिक, आर्थिक एवं
राजनीतिक क्षेत्रों में परिवर्तन देखने को मिलते हैं उनकी तो कोई कल्पना ही नहीं कर
सकता था । लेकिन डॉ. एम.एन. श्रीनिवास ने “पश्चिमीकरण, लौकिकीकरण,और जाति गतिशीलता को इन परिवर्तनों का
प्रमुख कारण माना है” । साथ ही शिक्षा के प्रसार तथा औद्योगीकरण व वैश्वीकरण
ने महिलाओं को आर्थिक जीवन में प्रवेश के पर्याप्त अवसर प्रदान किए । भारत का संविधान महिला सशक्तिकरण एवं सुरक्षा
हेतु निम्न प्रावधान प्रदान करता है- सभी व्यक्तियों के लिए और कानून के समक्ष समानता (अनु.-14), धर्म, मूलवंश, जाति, लिंग या स्थान
के आधार पर भेदभाव निषेध अनु.
15(1) महिलाओं और बच्चों के लिए अनुच्छेद 15(3) में विशेष प्रावधान
। राज्य के अधीन किसी भी पद, रोजगार या नियुक्ति से संबंधित समान अवसर (अनु.-16) पुरुषों और
महिलाओं के लिए सुरक्षित जीविका के पर्याप्त साधन उपलब्ध कराने का अधिकार (अनु.- 39(ए)) समान कार्य
के लिए समान वेतन का अधिकार (अनु.- 39(द)) स्थानीय निकायों
के 1/3 आरक्षण का प्रावधान अनु.- 343(द) और अनु.- 39(त) इसके अतिरिक्त घरेलु हिंसा अधिनियम 2005, संपत्ति में अधिकार 2005, कन्या भ्रूण
हत्या अधिनियम 2003, अनैतिक व्यापार निरोधक अधिनियम 2006, कार्यस्थल पर यौन
उत्पीड़न से संरक्षण अधिनियम 2010, संशोधित अधिनियम 2013, बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ 2015, सती निवारण, बाल विवाह, हिंदू वसीयत
अधिनियम, विदेश विवाह अधिनियम के माध्यम से विधिक सुरक्षा संरक्षा प्रदत्त कर महिला
सशक्तिकरण के क्षेत्र में अथक प्रयास हुए हैं, । और इन प्रावधानों से समाज में महिलाओं
के प्रस्थिति परिवर्तन अवश्य हुए हैं। अत: समाज में लिंग असमानता दूर करने के लिए
आवश्यक है कि समाज अपनी मानसिकता में परिवर्तन लाए तभी समाज का विकास संभव है, जब महिला
वर्ग सबल एवं सशक्त हो लेकिन समाज में तमाम प्रयासों के बाबजूद अभी भी महिला वर्ग की
प्रस्थिति में अपेक्षित सुधार नहीं आया है। संभवतः इसलिए महिला सशक्तिकरण द्वारा विकास
के लिए व्यक्तिगत स्तर पर जागरूकता से लेकर राजनीतिक, सामाजिक एवं आर्थिक निर्णय प्रक्रिया में
महिलाओं की अर्थ पूर्ण भागीदारी अपेक्षित है। केवल स्त्री पुरुष समानता का नारा महिला
सशक्तिकरण नहीं हो सकता है। |
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निष्कर्ष |
निष्कर्षतः महिलाओं की परिवर्तित मानसिकता से समाज में लिंग समानता लाने के लिए यह आवश्यक है कि लिंग समानता के लिए आंदोलन पुरुषों के अस्तित्व व अधिकारों के विरुद्ध नहीं है बल्कि समाज के विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति में संतुलित विकास के लिए आवश्यक है। नारी सशक्तिकरण, प्रतिकूल सोच, परिस्थितियों एवं घटनाओं के बावजूद भी इसकी निरन्तरता इस बात का प्रमाण है कि नारी समानता विकास शक्ति के प्रश्न सतही या आरोपित नहीं है, बल्कि यथार्थ के धरातल की सच्चाई हैं, जिन्हे नजरअंदाज नहीं किया जा सकता। नजरअंदाज करने का अर्थ होगा धरातल के धराशाही होने की प्रक्रिया का सूत्रपात। खोखली नींव पर सुदृढ़ इमारत सुरक्षित नहीं हो सकती, इसलिए विषमता के यथार्थ का वस्तुगत आंकलन, विश्लेषण एवं समाधान समय रहते अपेक्षित है।
हालांकि वर्तमान में स्त्री शिक्षा समाज के बदलते हुए मूल्यों तथा महिलाओं के आर्थिक स्वतंत्रता ने जहां महिलाओं को अपने सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक अधिकारों के प्रति सजग बनाया है, वहीं वर्तमान परिवर्तित सामाजिक परिवेश के लिए नवीन भूमिकाएं भी ग्रहण कर रही है। लेकिन नई-नई चुनौतियों का सामना भी कर रही है। अत: स्पष्ट है कि गहराती बढ़ती चुनौतियों का सामना प्रभावी रचनात्मक संघर्ष द्वारा ही किया जा सकता है और यह मुकाबला केवल महिलाओं द्वारा ही नहीं, अपितु महिला-पुरुष दोनों को समूहगत स्तर पर प्रयास करना होगा। तभी समाज में लिंग समानता संभव है। |
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