ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
वर्तमान परिदृश्य में गांधी के अस्पृश्यता सम्बंधी विचार
Views of Gandhi on Untouchability in The Present Scenario
Paper Id :  16950   Submission Date :  2023-01-02   Acceptance Date :  2023-01-10   Publication Date :  2023-01-13
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सुनीता मीना
एसोसिएट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबू शोभाराम राजकीय कला महाविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
सारांश
समाज को गति एवं दिशा देने वाले व्यक्ति महापुरूष हो जाते हैं। वह अनुकरणीय होते है। यही कारण है कि वो इतिहास को प्रिय होते है और इतिहास उन्हें प्रिय होता है। इन महान प्रतिभाओं में एक है, महात्मा गांधी जिन्हें विश्व "बापू" के नाम से भी जानता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The person who gives speed and direction to the society becomes a great man. He is exemplary. This is the reason why they love history and history is dear to them. One of these great personality is 'Mahatma Gandhi whom the world also knows by the name of Bapu.
मुख्य शब्द गांधीजी, अनुपम व्यक्तित्व, जनसमुदाय के विचार, भाव, कार्य, प्रभावित।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Gandhiji influenced the thoughts, feelings and actions of the masses as a unique personality.
प्रस्तावना
अटल सत्य के इस प्रतीक ने न केवल हमें प्रकाश दिया बल्कि हमारे अंतः करण को जाग्रत किया जिसने हिंसा को अहिंसा से, कटुता को सद्भाव से, घृणा को प्रेम से, अंधकार को प्रकाश से तथा अविश्वास को विश्वास से जीतने वाली शक्ति प्रदान की डां. स्टैनले जोन्स ने गांधीजी के विषय में कहा है कि "इतिहास के एक सर्वाधिक इसाई जैसे व्यक्ति को एक बार भी इसाई नहीं कहा गया उनके जीवन में "मधुरता" और आलोक की पूर्णता थी बुद्ध के बाद सम्पूर्ण मानवता को इनसे अधिक सशक्स सहारा देने वाला इस विश्व को दूसरा नाम नहीं मिलता," नेहरू को इस छोटे से इन्सान में इस्पात की शक्ति अनुभव हुई थी "इस दुबले पतले छोटे से इन्सान में इस्पात सा कुछ था चट्टान जैसा उसमें ऐसी राजसीयता और गरिमा थीं जो दूसरों को खुशी-खुशी उनकी बात मान लेने के लिए बाध्य करती थी।
अध्ययन का उद्देश्य
अस्पृष्यता वो सामाजिक बुराई है। जिससे हमारे समाज में सदियों एक तबके द्वारा दूसरे तबके का शोषण एक अधिकारों का हनन किया जाता रहा है। अनेको समाज सुधारको एवं महापुरुषों ने अस्पृष्यता को दूर करने एवं सामाजिक समानता लाने में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। इन्हीं प्रयासो में महात्मा गांधी के अस्पृष्यता सम्बन्धी विचार एवं उनका योगदान अति महत्वपूर्ण है। इस शोध का उद्देश्य गांधी जी द्वारा किये गए सामाजिक समानता के प्रयासो का अध्यन करना है।
साहित्यावलोकन

सर्वोदय में गांधी ने सर्वोदय का शाब्दिक अर्थ सबका उदय या सब का उत्थान कहा है। सर्वोदय का दर्शन अपरिग्रह आध्यात्म एक ट्रस्टीशिप की योजना है। जो वास्तव में सामाजिक व्याज की स्थापना करती है। "गांधी का समर्थ भारत" 2019 में प्रो. नृपेन्द्र प्रसाद, मोदी ने गांधी जी के स्वच्छ एवं समर्थ भारत का वैश्विक परिहत्य पर प्रकाश डाला है। "अस्पृष्यता निवारण आंदोलन में महात्मा गांधी का योगदान" 2019 में डॉ. मीनाक्षी वर्मा. ने हिन्दू समाज में अस्पष्यों की दशा तथा अस्पृष्यता पर गांधी के विचारों में बहुत ही सारगर्भित तरीके से प्रस्तुत किया है।

मुख्य पाठ

गांधीजी ने अनुपम व्यक्तित्व के रूप में जनसमुदाय के विचारों, भावों और कार्यों को प्रभावित किया। उन्होंने अविजित और शक्ति बनकर, प्रेम, अहिंसा और सत्य विधान का निरूपण    किया। इनकी दिव्य आत्मा ने सत्य का हाथ पकड़कर राजनीतिक कर्म को सम्पादित किया। उनका चिंतन जटिलता के स्थान पर सरलता, नैतिक सत्ता के प्रति आग्रह, आध्यात्मिक अनुभूतियों से परिपूर्ण है। उन्होंने "कृति" और "तर्क" के साथ समझौता करके रहस्यवादी परस्पराओं को जीवन दिया, उन्होंने धर्म, संस्कृति इतिहास और आर्थिक चिंतन को जिस रूप में प्रभावित किया। उसका मूलाधार उनके सामाजिक एवं राजनीतिक कार्य ही थे। गांधी एक मनोवैज्ञानिक पृष्ठभूमि लेकर आये थे। भारत की आध्यात्मिक मान्यताओं और शोषित मानवता ने उन्हें महान बना दिया, गांधी हर आंख के आसू को मोती बनाना चाहते थे। उनके लिये न कोई धर्म पराया था न सम्प्रदाय अपरिचित उन्होंने यदि अन्यजों को गले लगाया तब विभिन्न धर्मावलम्बियों के लिये उनके द्वार सदा खुले हुए थे। गांधीजी भारत को केवल स्वतंत्र ही नहीं देखना चाहते थे वह उसे सुखी भी देखना चाहते थे। उनके सपनों के भारत में पशुबल के लिये कोई जगह नहीं थी 

अस्पृश्यता भारतीय समाज पर एक कलंक

आज संसार वैज्ञानिक युग की सीमा रेखा पर पहुँच गया है। जहां समाज में समरूपता सी दिखाई देती है लेकिन भारतीय सामाजिक जीवन में अस्पृश्यता एक कलंक के रूप में सदैव विद्यमान रही है। भारतवर्ष के सांस्कृतिक इतिहास में वर्ण व्यवस्था को धर्म एवं अध्यात्म से जोड़ देना एक ऐसा कार्य था जिसकी तुलना हम एक भयावह दुर्घटना से कर सकते है। उस दुर्घटना के परिणामस्वरूप हिन्दू रामाज में विघटन विरांगति, विद्वेष, घृणा, शोषण, दमन आदि प्रवृत्तियों के विशाक्त जीवाणुओं का संक्रमण हो गया। ब्राह्मणों द्वारा परिचालित एवं निरन्तर विकासमान धर्म ने जब वर्ण-व्यवस्था का पणिग्रहण कर दिया तब उनके परस्पर सहयोग से अनेक नई जातियों का जन्म हुआ। ब्राह्मणों के हाथ में धर्म का अमोघ अस्त्र था, वे पृथ्वी के देवता "भूसुर" अथवा "भूदेव" कहे जाते थे। वे समाज के मस्तिष्क के निर्माता एवं संचालक थे। उन्होंने अनेक प्रकार की जातियों का नामकरण किया। उनके कार्यों और अधिकारों को निर्धारित किया तथा उनकी अस्पृश्यता एवं स्पृश्यता का भी सूक्ष्म विवेचन प्रस्तुत करते हुए महत्वपूर्ण शास्त्रों को रचा। प्रायः सभी धर्मशास्त्रों में उन विभिन्न जातियों का सर्वांगीण विश्लेषण प्रस्तुत हुआ है जो वर्णों के संकर से उत्पन्न होते है। साथ ही उन जातियों की उत्कृष्ठता और हेयता का प्रचार भी उपलब्ध होता है। यह आश्चर्य की बात है कि जीव मात्र में आत्मा की एकता को मानने वाले वेदांत, साख्य और बौद्ध जैसे दर्शनों को प्रश्रय दिया। जिसके कारण हिन्दूओं के ही एक बड़े वर्ग को सभी मानवीय अधिकारों से वंचित कर दिया गया और उसे उस तरह के कृत्रिम धार्मिक शासन में जकड़ा गया। ताकि प्रगति के सभी रास्ते उसके लिये हमेशा के लिये अवरुद्ध हो गए वर्तमान युग के लिये यह कम गौरव की बात नहीं है कि इसी युग में अनेक महापुरुषों ने जाति प्रथा एवं अस्पृश्यता के अभिशाप को निरस्त करने का जी तोड़ प्रयास किया। अर्थात ऐतिहासिक दृष्टि से अस्पृश्यता आर्यों की भारत विजय का सामाजिक परिणाम था। आर्यों ने इस देश पर विजय करने के बाद बहुत से विजितों को अपने गुट में मिला लिया। विजितों में से जो सबसे पिछड़े हुऐ लोग थे वे अछूते रह गए। कालान्तर में अस्पृश्यता प्रथा को धार्मिक अनुमोदन प्राप्त हो गया। बुद्ध रामानुज, रामानन्द, कबीर, नानक, चैतन्य, तुकाराम दयानन्द, राजाराममोहनराय, विवेकानन्द, गोखले जैसे लोकनायकों ने समय-समय पर इस प्रथा को समाप्त करने की चेष्टा की पर वे अपने लक्ष्य में पूर्ण सफल न हो सके इन्ही नायकों में एक नाम है- महात्मा गांधी जिन्होंने आजीवन अस्पृश्यता को समाप्त करने के भरसक प्रयास किये।


अस्पृश्यता समस्या एवं निवारण गांधी के विकल्प

महात्मा गांधी अस्पृश्यता को हिन्दू धर्म का अभिषाप मानते थे। उन्होंने देश को सचेत किया अस्पृश्यता से समग्र हिन्दू राष्ट्र कष्ट हो जायेगा अछूतों का उद्धार करने के लिए गांधी जी ने जिस नीति का अनुसरण किया वह राजनीतिक या कानूनी नहीं बल्कि उनकी आध्यात्मिक उच्चता, सदायशता और उपनिषदों में वर्णित समदृष्टी से प्रेरित थी। वो किसी भी पेशे को ऊँचा था नीचा नहीं मानते थे। प्रत्येक मनुष्य को समान दृष्टि से देखते थे अंत्यजों के बीच में स्वयं भी अंत्यज बन जाते थे क्योंकि उनकी दृष्टि में अत्यंज तथा ब्राह्मण में कोई अंतर नहीं था। पुरुलिया में अत्यजों की सभा में भाषण देते हुए उन्होंने घोषित किया "जिन भाइयों और बहनों में हाथ उपर कर बताया कि हिन्दू उन्हें अस्पृश्य मानते हैं। उन्हें में बता देना चाहता हूँ कि मैं भी डोम या भंगी हूं। मेरा दृढ़ विश्वास है कि मैला उठाने मात्र से कोई आदमी बुरा नहीं बन जाता मां सदैव अपने बच्चे का मैला साफ करती है। लेकिन समाज उसे बुरा नहीं मानता, अस्पृश्य वह है जो बुरा काम करें। जिसका हृदय अपवित्र हो मैं अपने डोम भाई-बहिनों से तथा दूसरी अस्पृश्य जातियों के लोगों से यही अनुरोध करना चाहता हूं कि वो हिन्दूओं से या हिन्दू धर्म से घृणा न करें।" जिस दिन मुझे यह विश्वास हो जाएगा कि अस्पृश्यता हिन्दू धर्म का अनिवार्य अंग है उस दिन मैं हिन्दू धर्म त्याग दूगा उनका मत है कि अस्पृश्यता सहस्त्र फनों वाला सर्प है। जिसके एक-एक फन में विषैले दांत है। उसकी कोई परिभाषा संभव नहीं गांधीजी स्वराज्य के लिये भी अस्पृश्यता निवारण को अनिवार्य मानते थे। "जो अपने आपको हिन्दू मानते है, यदि वे सब सच्चे हृदय अस्पृश्यता का त्याग करने के लिए तैयार नहीं तो मैं अकेला होने पर भी यही कहूंगा कि हमें इस पाप को दूर किये बिना स्वराज्य नहीं मिलेगा। जैसे धूप के बिना अन्न नहीं पक सकता वैसे ही अस्पृश्यता रूपी अंधकार का नाश हुए बिना स्वराज्य रूपी अन्न की फसल कभी नहीं पक सकती।" अत्यंजों के उद्धार की कार्यप्रणाली में गांधी ने एक ऐतिहासिक कदम लिया और वह था उनका नाम परिवर्तन असंख्य जातियों में बटे हुए अंत्यजों और उनके नामों से उनकी निम्नता का एहसास होता था गांधी ने इस युगीन आवश्यकता को समझकर सभी जातियों के अत्यजों को सामूहिक नाम प्रदान किया 'हरिजन' इस नाम को देकर उन्होंने सहज ही वर्ण व्यवस्था से बहिष्कृत अंत्यजो को पुनः वर्ण व्यवस्था में शामिल कर लिया।

चूँकि गांधी जी ने दक्षिण अफ्रीका में स्वयं इस भेदभाव को महसूस किया था जहाँ हिन्दुस्तानी लोग पटरी पर अधिकार पूर्वक चल नहीं सकते थे और रात नौ बजे बाद 'परवाने' के बिना बाहर नहीं निकल सकते थे एक बार एक सिपाही ने बिना चेताए तथा बिना कुछ कहे उन्हें धक्का मारा, लात मारी और नीचे उतार दिया क्योंकि उस सिपाही की दृष्टि से वे काले थे क्योंकि वहां हब्शियों के साथ ऐसा ही किया जाता था।

इसी प्रकार एक बार जब गांधी जी दक्षिण अफ्रीका की यात्रा पर थे उन्होंने सिकरम में अग्रेज जो सिगरेट पी रहा था उसके पैरों में बैठने से इन्कार कर दिया तो अग्रेज ने उनके साथ दुर्व्यवहार किया, गांधी जी कहते हैं कि "मुझ पर तमाचों की वर्षा होने लगी और वह गोरा मेरी बांह पकड़कर मुझे नीचे खींचने लगा। वह मुझे गालियां दे रहा था खींच रहा था और मार भी रहा था। इसी प्रकार यात्रा के समय पहले दर्जे की टिकट होने पर भी मुझे ट्रेन से नीचे उतार दिया गया, सिपाही आया उसने मेरा हाथ पकड़ा और मुझे धक्का देकर मेरा सामान उतार दिया मैंने दूसरे डिब्बें में जाने से इन्कार किया तब तक ट्रेन चल दी।"

उपर्युक्त कुछ उदाहरण उनके जीवन के वो पल थे जब उन्होंने इस भेदभाव रूपी दुख को भोगा था। अतः उन्होंने हिन्दुस्तान में इस असमानता, अस्पृश्यता रूपी अभिशाप को समाप्त करने का बीड़ा उठाया।

अछूतोद्धार का यह अभूतपूर्व आंदोलन हमेशा दो समानान्तर परिप्रेक्ष्यों में चलता है। पहला परिप्रेक्ष्य सामाजिक था जिसमें दलित जातियों के नेता अछूतों के जीवन स्तर को ऊँचा उठाने का प्रयास करते थे अछूतों में शिक्षा का प्रचार एवं प्रसार किया गया, मंदिर प्रवेश का आंदोलन चला, कुंओं, तालाबों एवं सड़कों को अछूतो के लिए खोलने का प्रयास किया गया। दूसरा परिप्रेक्ष्य राजनीतिक था। इसके अन्तर्गत दलित जातियों के प्रबुद्ध नेताओं ने अछूतों के अधिकारों के लिए संघर्ष किया।

गांधी के प्रयास एवं अस्पृश्यता निवारण आंदोलन

15 नवम्बर 1920 महात्मा गांधी ने गुजरात नेशनल यूनिवर्सिटी की स्थापना की जिसमें अछूत छात्रों को प्रवेश देना स्वीकार किया जिसके परिणामस्वरूप गांधी को सवर्णों के भीषण विरोध का सामना करना पड़ता और आगे जो अस्पृश्य आंदोलन डॉ. अम्बेडकर ने चलाये उनकी पृष्ठभूमि कहीं न कहीं गांधी ने तैयार की थी। जिसमें महाड़ आंदोलन 19-20 मार्च, 1927, मनुस्मृति का दहन 25 दिसम्बर 1927, अमरावती आंदोलन 13 नवम्बर 1927, दि परेड क्लास एजूकेशन सभा, चिपलून का अछूत आंदोलन, बराद का अछूत सम्मेलन मई 1927, पार्वती मंदिर में अछूत प्रवेश आंदोलन 1929, कालाराम मंदिर प्रवेश आंदोलन 1930, डॉ अम्बेडकर द्वारा अछूतों की राजनीतिक स्वतंत्रता की मांग आदि हांलाकि गांधी ने इस आंदोलनों का अनुमोदन नहीं किया। इसका कारण यह था कि ये सभी आंदोलन हिंसात्मक थे। लेकिन अछूत सामजिक उत्पीड़न से मजबूर होकर हिंसा का सहारा ले रहे थे गांधी ये बात जानते थे यहीं उन्होंने 30 जून 1927 यंग इण्डिया में लिखा था।

साम्प्रदायिक पंचाट (कम्यूनल एवार्ड)

17 अगस्त, 1932 को प्रधानमंत्री रैमजे मैक्डोनाल्ड ने अल्पसंख्यको के लिये एक कार्यक्रम की घोषणा की जिसे कम्यूनल एवार्ड कहा जाता है। जिसमें समस्त दलितों को अल्संख्यक मान लिया गया और उन्हें पृथक निर्वाचन का अधिकर मिल गया दुहरे मतदान का अधिकार दिया गया तथा बहुत से सुरक्षित स्थानों के अतिरिक्त सामान्य निर्वाचन क्षेत्रों से चुनाव लड़ने की छूट दी गई यह व्यवस्था 20 वर्ष के बाद समाप्त हो जायेगी यह भी स्पष्ट किया गया गांधी जी ने इसका भरपूर विरोध किया क्योंकि उनका मत था कि सवर्णो से कटकर अस्पृश्य बहुत कमजोर हो जायेगें गांधी का मत था कि अछूतों को प्रथक मतदान का अधिकार देकर सरकार ने एक जहर की सुई लगाई है। जिससे हिन्दुत्व नष्ट हो जायेगा और अछूतों को भी कोई लाभ नहीं होगा साथ ही गांधी ने हरिजन पत्रिका का सम्पादन और हरिजन सेवक संघ की स्थापना भी की।

गांधी की अस्पृश्यता निवारण यात्रा (धर्म विजय यात्रा)

नवम्बर, 1933 को गांधी जी वर्धा से हरिजन टूर के लिए निकले प्रारम्भ में वर्धा में राम मंदिर में गए और उपवास काल में हरिजनों के लिए खोल दिया, तत्पश्चात् लक्ष्मीनारायण मंदिर सबके लिये खोल दिया, उन्होंने समस्त भारत की यात्रा की, मध्य भारत की यात्रा की, दक्षिण भारत की यात्रा, बिहार की यात्रा, असम की यात्रा, उड़ीसा की यात्रा, गुजरात एवं राजस्थान की यात्रा, मंदिर प्रवेश आंदोलन एवं मंदिर प्रवेश विधेयक, इस प्रकार महात्मा गांधी ने अस्पृश्यता निवारण के लिए न केवल समस्त देश की यात्राऐं की बल्कि जगह-जगह उन्हें कट्टरपंथियों के विरोध का भी सामना करना पड़ा, उनका पुतला जलाया गया तथा काले झण्डे दिखाए गए। लेकिन उन्होंने अपनी यात्रा जारी रखी। इस प्रकार महात्मा गांधी ने अपने जीवन में अस्पृश्यता को अहिंसा एवं सत्याग्रह का माध्यम प्रदान किया, गांधी ने 'हरिजन', 'हरिजन बंधु' और 'यंग इण्डिया' आदि के माध्यम से हरिजन समस्या का राष्ट्रव्यापी प्रचार किया। गांधी के हस्तक्षेप से हरिजन समस्या को इतना व्यापक महत्व मिला कि संविधान में अस्पृश्यता उन्मूलन का विशेष प्रावधान किया गया। लेकिन अब प्रश्न ये उठता है कि उन समस्त प्रयत्नों के बावजूद भी भारतीय समाज इस अस्पृश्यता रूपी कलंक से मुक्त हो पाया है कि नही

वर्तमान समाज में अस्पृश्यता का बदलता स्वरूप
जैसा कि हम पूर्व में स्पष्ट कर चुके हैं कि अस्पृश्यता एक बुराई है। जिसमें समाज के एक तबके द्वारा दूसरे तबके का न केवल अधिकरों का हनन किया जाता है बल्कि हर तरह से उसे शोषित, पीड़ित और दामित किया जाता है। अनेक समाज सुधारकों के भरसक प्रयास के साथ ही भारतीय संविधान में भी अनुच्छेद 17 अस्पृश्यता उन्मूलन की बात करता है। लेकिन फिर भी आज ग्रामीण परिवेश या अशिक्षित लोगों की बात छोड़ दी जाये तो भी शिक्षित कहे जाने वाले समाज एवं शिक्षण संस्थाओं में भी अस्पृश्यता का एक नया स्वरूप सामने आ रहा है। प्रस्तुत उदाहरण उसकी हकीकत बयां करते है। नई दिल्ली के वर्धमान मेडिकल कॉलेज में अनुसूचित वर्ग के साथ जातिगत भेदभाव के दौरान इस वर्ग के 35 विद्यार्थियों को खास विषय फिजियोलोजी में बार-बार फेल किया गया। इसी प्रकार देश के अग्रणी चिकित्सा संस्थान एम्स (अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान) में 2010 में एक दलित छात्र की आत्महत्या करने की खबर आई इसके अगले साल फिर वैसी ही एक और घटना हुई संस्थान में जातिगत भेदभाव की घटनायें सुर्खियां बनी थी। जिसके चलते अनुसूचित जाति आयोग ने हस्तक्षेप कर मामले की जाँच कराई। इसी तरह लखलऊ के चिकित्सा विश्वविद्यालय में एक विषय में दलित छात्रों को फेल किये जाने को लेकर छात्रों ने आयोग का दरवाजा खटखटाया तत्पश्चात् संस्थान के बदले हुए से अवसाद में आये एक छात्र ने आत्महत्या करने की कोशिश की, इसी प्रकार का एक मामला महाराष्ट्र, नागपुर का है। जिसमें जाति प्रमाण पत्र नहीं होने के कारण अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति एवं अन्य पिछड़ा वर्ग से आने दस हजार से अधिक छात्र समाज कल्याण महकमें के चलते अपनी पसंद के पेशेवर पाठ्यक्रम पूरा करने से रोकने के लिए बाधाएँ खड़ी की जाती है तो दूसरी तरफ मिड डे मिल देने से लेकर स्कूलों में बैठने तक मामले में उनके साथ भेदभाव किया जाता है। उस भेदभाव का सीधा असर अनुसूचित तबके के छात्रों के स्कूली शिक्षा अधबीच में ही छोड़ देने में दिखता है।
वर्किंग ग्रुप की रिपोर्ट उच्च शिक्षा में उपस्थित जातिगत भेदभाव के तमाम उदाहरण पेश करती है। जिनमें अध्यापकों द्वारा अनुसूचित तबके के छात्रों की उपेक्षा, उन्हें परीक्षा में जबरन फेल करने, विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा इन छात्रों को विशेष सहायता प्रदान करने के इन्कार से लेकर उनके सामाजिक बहिष्कार और शारीरिक प्रताड़ना की भी चर्चा है।
भेदभाव का यह सिलसिला छात्रों के स्तर तक ही नहीं रूकता इन तबको से आने वाले प्रात्रता प्राप्त अभ्यार्थियों के अध्यापक बनने के रास्ते में भी तमाम बाधाएँ खड़ी की जाती हैं। यह अकारण नहीं है कि तमाम केन्द्रीय विश्वविद्यालयों में आज भी अनुसूचित जाति जनजाति के हजारों आरक्षित पद खाली पड़े है।
इसके साथ हमारे देश की संकुचित राजनीतिक सोच ने भी हमेशा से दलितों के साथ प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से भेदभाव एवं अत्याचार किया है। 2017 हमारे प्रधानमंत्री के ग्रहराज्य गुजरात में शिवसेना की गुजरात इकाई से ताल्लुक रखने वाले स्वयं भू गौ रक्षकों का एक समूह चार दलित लड़को की सरेआम पिटाई करते देखा गया तो गुजरात पुलिस ने कथित रूप से इस दृश्य से अपनी आंखें फेर ली और कोई दखल नहीं दिया। इसी प्रकार 17 जुलाई को एक मोटर बाइक चुराने के आरोप में उच्च जाति के पुरुषों की भीड़ ने दो दलित लड़कों की पिटाई की और उनके ऊपर पेशाब कर दिया देश अभी जातिगत उत्पीड़न की इन खबरों से जूझ ही रहा था कि 21 जुलाई को संसद हिल उठी जब बी. जे. पी. के नेता दयाशंकर सिंह ने देश की सबसे ताकतवर दलित नेता (B.S.P.) सुप्रीमो मायावती को "वेश्या से भी बत्तर" कह डाला गांधी के देश में इससे ज्यादा शर्मनाक बात और क्या हो सकती हैं कि दलित जो देश की 25 फीसदी आबादी है।
आजादी के सात दशक बाद भी सुरक्षित एवं सम्मानित नहीं है। कभी धर्म के नाम पर, कभी जाति के नाम पर, कभी गरीबी के कारण तो कभी डायन के नाम पर, कभी चोरी तो कभी हिन्दूत्व के नाम पर कभी गौरक्षा के नाम पर तो कभी पीने के पानी को लेकर तो कभी राष्ट्रवाद के नाम पर सभी जगह किसी न किसी बहाने से दलितों पर अत्याचार हो रहे है। इन घटनाओं ने पूरी दुनियां में भारत की छवि एक मध्ययुगीय देश की मानसिकता के रूप में प्रस्तुत की हैं, और आश्चर्य की बात ये है कि इनमें से किसी घटना पर केंन्द्र सरकार कुछ नहीं बोली लेकिन जब उना की घटना के हफ्तेभर बाद दलितों के गुस्से ने संगठित रूप ले लिया और कई शहर हिंसा की चपेट में आ गए तो राज्य के साथ केन्द्र सरकार ने इतना माना कि कहीं कुछ गड़बड़ है।

निष्कर्ष
रोहित वेमुला की घटना के बाद हजारों भेदभाव के मामले उभरे है। तथाकथित राष्ट्रभक्तों का कहना हैं कि रोहित वेमुला जैसी घटनाओं से राष्ट्र को जिनकी हानि होती है उतनी शायद किसी से नहीं लेकिन इतनी बड़ी आबादी को दबाकर और अलग करके क्या किसी देश को विकसित और खुशहाल बनाया जा सकता है। शायद अतीत से हमने कुछ नहीं सीखा सिकन्दर (327) से लेकर अंग्रेजों तक ने हमें परास्त किया। इसका कारण ये नहीं था कि हमारे बाजुओं में दम नहीं था या हमारे पास बुद्धि की कमी थी इसका कारण था कि हम जातियों में बंटे थे अंग्रेजों ने तो हमें दो भागों में बाँटा लेकिन हमने अपने आप को जाति के आधार पर हजारों टुकड़ों में बाँट रखा है और शायद यही कारण है कि हम राजनीतिक रूप से चाहे स्वतंत्र हो गए हो और 21वीं सदी के लोकतात्रिक उदारवादी युग में जी रहे हो लेकिन मानसिक रूप से आज भी 18वीं सदी या ये कहे कि मध्ययुगीय मानसिकता के गुलाम हैं तो शायद गलत नहीं होगा क्योंकि आज के शिक्षित, आधुनिक सभ्य एवं वैज्ञानिक समाज में उपर्युक्त उदाहरण हमें हमारे समाज एवं राजनीति की वास्तविकता का आइना दिखाते हैं कि जिस प्रकार जातिगत भेदभाव एवं अस्पृश्यता के कारण प्रतिदिन कितने ही बच्चे, वृद्ध, नौजवान महिलाऐं बलिकाऐं किसी न किसी रूप में अपमानित एवं शोषित होते है। क्योंकि आज भी असमावेशी मानसिकता समाज में गहरी जड़े जमाऐं बैठी है। जब तक यह अस्पृश्यता रूपी कलंक भारतीय समाज से समाप्त नहीं होगा तब तक कितने ही एकलव्यों को अपने अगूठे खोते रहना पड़ेगा और कितने ही रोहित वेमुला जैसे नौ जवानों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा, कितनों की माता, बहिनों को अपमान का घूँट पीकर समाज का मैला सिर पर ढोते रहना पड़ेगा। इन सब को समाप्त करने के लिये अभी और आवश्यकता हैं। हमें सामाजिक चेतना की, मानसिक गुलामी से आजादी की अभी ओर आवश्यकता है। हमें महात्मा ज्योतिबा फूले, सावित्री फूले, कबीर, राजाराम मोहन राय, विवेकानन्द, अम्बेडकर या महात्मा गांधी की ताकि हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी का समानता के समाज का सपना पूर्ण हो सके।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. गांधी वाड्मय ग्रंथ 26 / 521 2. "सत्य के साथ मेरे प्रयोग" मो. क. गांधी नवजीवन प्रकाशन, अहमदाबाद 3. महात्मा गांधी और अस्पृश्यता द्वारकाप्रसाद गुप्ता ज्ञान भारती दिल्ली 1998 4. महात्मा गांधी व्यक्ति और विचार विश्व प्रकाश गुप्ता, मोहनी गुप्ता राधा पब्लिकेशन दिल्ली 1996 5. गंधी चितन- डॉ. शैलबाला शर्मा- शील सन्स जयपुर 2007 6. गांधी विचार और दृष्टि- हरदान हर्ष श्याम प्रकाशन जयपुर 1996 7. भारत में दलित चेतना गांधी और अम्बेडकर - सदीप सिंह चौहान, Publisher Jaipur. 2004 8. जनसत्ता' समाचार पत्र 21 नवम्बर 2012 ( हाशिये के हक पर हमला) 9. इण्डिया टुडे 10 अप्रैल 2016 पृ. 14 (दलित आवरण कथा) 10. इण्डिया टुडे 3 अप्रैल 2016 पू.स. 30 11. 4 फरवरी 2016 "जनसत्ता"