ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
महिला लेखिकाओं के उपन्यासों में स्त्री
Woman in the Novels of Female
Paper Id :  17005   Submission Date :  2023-01-18   Acceptance Date :  2023-01-22   Publication Date :  2023-01-25
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रेनू जोशी
असिस्टेंट प्रोफ़ेसर
उच्च शिक्षा विभाग
राजकीय महाविद्यालय, लमगडा,
अल्मोड़ा,उत्तराखंड, भारत
सारांश
महिला उपन्यासकारों ने परिवार और समाज के केंद्र में नारी और उसकी निजी समस्याओं के उद्घाटन का प्रयास किया। साथ ही सामाजिक एवं पारिवारिक समस्या प्रधान उपन्यासों की रचना भी की। महिला उपन्यासकारों के समक्ष मात्र नारी की समस्याएं ही औपन्यासिक कथावस्तु नहीं रह गयी थी; अपितु नारी का व्यक्तित्व; अहमता, घर से बाहर की खोज या पारिवारिकता के घेरे तोड़कर कही मुक्त रूप मे नौकरी और अन्य व्यवसायों से जुड़ना मुक्त साहचर्य, क्रांति में भागीदारी, राजनीति में योगदान आदि से घिरी नारी भी स्वयं ही वर्ण्य विषय बन गई। महिला उपन्यासकार पारिवारिक, सामाजिक एवं वैयक्तिक स्तर पर नारी मन की आशा- निराशा, अनास्था, जीवनमूल्य, नैतिकता- अनैतिकता, दैहिक भूख और अतृप्ति के क्षणों में भोगी एकांत रुग्णता तथा पुरुष के अनौचित्य पूर्ण व्यवहार से उत्पन्न ठंडेपन को नारी का आत्मसातीकृत रूप में चित्रण करते हुए सर्वाधिक मुखर रही है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Women novelists tried to expose woman and her personal problems at the center of family and society. Along with this, she also composed social and family problem oriented novels. In front of women novelists, only the problems of women were not left as a novel subject matter; but the personality of the woman; Women surrounded by importance, search outside the house or breaking the circle of familiality and joining jobs and other businesses freely, participation in revolution, contribution in politics, etc., also became the subject of description for women novelists. At the individual level, the female mind has been most vocal in portraying the hope-disappointment, disloyalty, value of life, morality-immorality, bodily hunger and unsatisfied solitude, illness and the coldness generated by the man's inappropriate behavior in an assimilated form.
मुख्य शब्द विराप्ता, संत्रास, अंततः प्रवृत्ति, ग्रंथी,द्वंद्व, संवेदनशीलता, रहस्यात्मकता, त्रिवेणी, विद्रुपता, अनुकरणीय।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Virapta, Santras, Finally Trend, Gland, Duality, Sensitivity, Mysteriousness, Triveni, Ugliness, Exemplary.
प्रस्तावना
स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक हैं, किन्तु वे दो ऐसे छोर भी हैं ,जो सृष्टि के क्रम को बनाये हुए हैं। पाश्चात्य विचारक लामर्टिना के शब्दों में- ‘’सभी महान कार्यों के आरम्भ में नारी का हाथ रहा है’’। इसी प्रकार महीयशी महादेवी वर्मा के शब्दों में- नारी केवल मॉसपिंड की संज्ञा नहीं है आदिमकाल से आज तक विकास पथ पर पुरुष का साथ देकर उसकी यात्रा को सरल बनाकर उसके अभिशापों को झेलकर और अपने वरदानों से जीवन में अक्षय- शील भरकर मानवी ने जिस व्यक्तित्व चेतना और हृदय का विकास किया है उसी का पर्याय नारी है"।[1]
अध्ययन का उद्देश्य
शारीरिक दृष्टि से जिस तरह नारी अंगों का झुकाव कोमलता की ओर है वहीं पुरूष अंगों का झुकाव कठोरता की ओर है। इसी प्रकार मानसिक दृष्टि से जहाँ पुरूष में विजय की भूख होती है; नारी में समर्पण की; पुरूष जहाँ लूटना चाहता है; नारी वहीं लुट जाना चाहती है। फिर भी वह स्नेह और सौजन्य की प्रतिमूर्ति होती है। वह वाणी से जीवन को अमृतमय कर देती है। उसका हृदय संतप्तों को शीतल छाया देता है, और उसका हास्य निराशा की कालिमा को पोंछ कर आशा की किरणें बिखेरता है।यदि नारी वर्तमान के साथ भविष्य को भी हाथ में ले ले तो वह अपनी शक्ति से बिजली की तड़प को भी लज्जित कर सकती है। आदिकाल से ही जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में पुरूष के साथ नारी चलती रही है । भारतीय नारी आज जब चाहर दीवारी से बाहर आ चुकी है तब उसका व्यवहार भी बहुत सीमा तक बदल गया है। वह विभिन्न क्षेत्रों में प्रवेश कर रही है; और सभी क्षेत्र संयुक्त रूप से अपना प्रभाव उस पर डाल रहे हैं। वह नारी जो अब व्यावसायिक क्षेत्र में आ चुकी है तो उसे सभी प्रकार की समस्याओं का धैर्ययुक्त सामना करना पड़ रहा है। नारी जीवन के प्रत्येक पक्ष का उत्तरदायित्व सर्वप्रथम उसकी शारिरिक रचना विधान पर है: साथ ही सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक मान्यतायें भी बहुत कुछ उसके मानसिक जगत को निरन्तर प्रभावित करती रहती हैं। इन सभी कारणों से उसके रूपों में समय की गति के साथ परिवर्तन होता रहता है। परिवर्तित परिस्थितियों में आज नारी केवल भोग या विलास की सामग्री ही नहीं रह गयी है; वह उस सीमा से आगे जा चुकी है। धीरे-धीरे वर्तमान युग की बुद्धिवादिनी नारी का दृष्टिकोण यथार्थवादी बनता चला जा रहा है। अर्थात वह शीत युग की तरह भावुकता के फेर में पड़कर अहम्वादी पुरूष की इच्छा के बहाव में अपने को पूर्णतया बहाना और मिटाना पसन्द नही करती, बल्कि स्थिति की वास्तविकता को समझकर व्यक्ति और समाज के अत्याचारों का सामना पूर्णशक्ति से करने के योग्य अपने को बनाने की चेष्टा में जुट रही है।[2] घर का सीमित वातावरण अब उसके विकास की राह में समस्या नहीं है। वह जिस सीमा तक गृहलक्ष्मी है; उसी सीमा तक हमारे संघर्षो में हमारी सहयोगिनी भी है। इसका मार्ग प्रेमचंद ने सुझाया था; और आगे चलकर जैनेंद्र ;भगवती प्रसाद वाजपेयी; यशपाल; उपेंद्रनाथ अश्क़; इलाचन्द जोशी; अज्ञेय आदि ने उसे और भी पुष्ट किया।[3]
साहित्यावलोकन

परिणाम स्वरूप जहाँ जैनेन्द्र के उपन्यास त्यागपत्र की नायिका मृणाल को लेकर हम एक गम्भीर समस्या में पड़ जाते हैं; कि अन्ततः नारी की मुक्ति किसमें है, क्या वह केवल इसलिये संकट झेले; इसलिये यन्त्रणायें सहन करे; क्योंकि वह पुरुष के सहारे आश्रित है। वहीं इलाचन्द जोशी के उपन्यास प्रेत और छाया की नायिका मंजरी इसका समाधान प्रस्तुत करती है; कि नारियाँ अपने पैरों पर खड़ी होकर गन्दगी और सामाजिक विषमताओं से ऊपर उठ स्वावलम्बी बन अपना जीवन व्यतीत कर सकती है। यही नही आगे चलकर कृष्णा सोबती की मित्रो, मंजुल भगत की अनारो; मृदुला गर्ग के उपन्यास चित्तकोबरा की नायिका उषा प्रियंवदा की राधिका शिवानी की कृष्णकली की नायिका आदि वर्तमान समय और परिवेश के ऐसे सजीव चारित्रिक कृतित्व हैं; जो हिन्दी उपन्यास जगत की उपलब्धि के साथ महिला उपन्यासकारो की बोल्ड एक्सप्रेशनकी सीमा में सर्वोच्च स्थान पाते हैं।

आधुनिक उपन्यासों में अस्तित्व बोध की भावना को लेकर सक्रिय नारी की मानसिकता की अभिव्यक्ति समसामयिकता तथा आधुनिकता की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। क्योंकि व्यक्ति की विराप्ता एवं विशिष्टता का जो सर्वाधिकार पुरूषों के पास था; वह अब सही अर्थों में नारियों तक भी पहुँचा; और पहली बार उनके स्वतन्त्र चेता मानस एवं स्वाधीन व्यक्तित्व की नयी प्रवृत्तियॅा दृष्टिगाचर हुईं।[4]

प्रत्येक साहित्यकारों ने अपने साहित्य की अभिव्यक्ति के लिये नारी को ही प्रायः अपनी अभिव्यक्ति का साधन बनाया है। साहित्य के सभी अंगों-कविता कहानी; नाटक; उपन्यास में नारी का विस्तृत विवरण मिलता है। नारी ने ही साहित्य को गति दी; और साहित्यकार को प्रेरणा, पर जहाँ नारी साहित्य की अभिव्यक्ति का साधन बनायी गई, वहाँ वह स्वयं भी साहित्य रचना की ओर अग्रसर हुई।

साहित्य की प्रत्येक विधाओं में उसने अपनी प्रतिभा का परिचय दिया। एक पाश्चात्य साहित्यकार का मत है कि ‘’उपन्यासों एवं नाटकों में स्त्रियों के चरित्र का जैसा अच्छा चित्रण और विकास स्त्री लेखिकाओ द्वारा होता है; वैसा अच्छा चित्रण और विकास पुरुष लेखकों के द्वारा नहीं होता।

वस्तुतः इस मत की सत्यता में कोईं सन्देह नहीं। नारी हृदय का जैसा अच्छा ज्ञान एक नारी को हो सकता है वैसा पुरुष के लिए असंभव है।

मुख्य पाठ

आधुनिक महिला उपन्यासों में स्त्री की कुंठा, संत्रास मृत्युबोध तथा एकाकीपन की असह्य यातना विद्यमान है। जिनमें ममता कालिया का बेघर; कृष्णा सोबती का सूरजमुखी अंधेरे के; डार से बिछुडी; एवं मित्रो मरजानी; मंजुल भगत का अनारो; मृदुला गर्ग का चित्तकोबरा आदि उपन्सासों में नारी की मानसिकता एवं शारिरिक प्रभावों का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। मानव के चेतन; अवचेतन तथा अर्द्धचेतन मन की गहराईंयों में पैठकर उसकी मूल प्रेरणाओं और अन्तः प्रवृत्तियों को अपनी रचना का आधार बनाकर स्त्री लेखिकाओं ने मानव के आन्तरिक द्वन्द्वों, कुंठाओं और विकृतियों को विविध रूपों और रंगों से विभूषित किया है। तथा अपने उपन्यासों में उच्च मध्यवर्गीय एवं मध्यवर्गीय नारी चरित्रों को ही प्रधानता दी है।
आपका बंटी का लेखन एक नारी (मन्नू भण्डारी) द्वारा होने के कारण यह उपन्यास नारी की आन्तरिक पीडा का आइना है। वात्सल्य से ओतप्रोत माँ और प्रेम के लिये तरसती शकुन इस उपन्यास के प्रमुख नारी पात्र हैं। जो नारी पात्रों की आन्तरिक पीडा; जीवन के बदलते सन्दर्भों के साथ सामन्जस्य स्थापित करने की आकुलता के कारण उभरती अहंकारिणी वृत्ति की प्रतीक रही है। इसी कारण अहम् को लेकर वह अपने साथ संसर्गित पुरूष को हर घटना; हर स्थिति पर परास्त करने की धुन में वह स्वयं अकेली असहाय सी अपने आपको कोसती रह जाती है। आधुनिक नारी जीवन में व्याप्त रिक्तता; उदासी; खोखलापन; परिस्थितिजन्य विवशता के कारण भीतर ही भीतर टूटते चले जाने की नियति इस उपन्यास में व्यापक सामाजिक सन्दर्भों के रूप में अभिव्यक्त हुईं है। इस उपन्यास में लेखिका ने अनुभूत जीवन को बिना सचेष्ट कलात्मक कौशल के सीधी सपाट शैली में प्रस्तुत किया है। उपन्यास के तीन प्रमुख पात्र अजय; शकुन; बंटी हैं तीनों ही हीन- ग्रन्थि के शिकार हैं परन्तु मुख्य रूप से बंटी के मानसिक उलझाव का विस्तार ही सम्पूर्ण उपन्यास में दृष्टिगोचर होता है। आपका बंटी का लेखन नारी की आन्तरिक पीडा का आइना है; जो नारी द्वारा नारी की आन्तरिक पीडा की सजीव कथा बन जाता है।
रजनी पनीकर के उपन्यास "मोम के मोती" की माया एक ऐसी नारी पात्र है जो "समाज के बहशी जानवरों की हविश का शिकार है; तथा रोटी के लिये अपने शरीर तक बेचती है और अपनी नारी- जन्य लालसाओं को दफन कर देती है; उसके शरीर से खेलकर सभी के अलग हो जाने के कारण उसका मन दुर्बल हो जाता है और जीवन के लिये संघर्षरत नारी टूट जाती है। नारी मन की गहरी पकड़ और अपनी सजग दृष्टि से परिवेश को यथार्थ के धरातल पर अंकित करने में शिवानी सक्षम हैं। कृष्णकली में सूक्ष्म संवेदनशीलता के धरातल पर नारी का वास्तविक मन अपनी सम्पूर्ण गहराई के साथ चित्रित हुआ है। इस उपन्यास में नारी की मानसिकता को आन्तरिक एवं बाह्य धरातलों पर बड़ी सूक्ष्मता से अचेतन मानस की रहस्यात्मकता की थाह पाने के लिये शिवानी का नारी मन सदैव जागरूक रहा है। उपन्यास में जहाँ एक ओर रोमांस से ओतप्रोत स्नेह और ममता में डूबी नारी का चित्रण है तो दूसरी ओर मानसिक वृत्तियों की जटिलताओं से जूझती नारी का सशक्त चित्रण है। ऐसे ही शिवानी के उपन्यास शमशान चम्पा में आत्मरुद्ध नारीगत सौष्ठव शालीनता, गरिमा, निष्ठा से परिपूर्ण युवती चम्पा के जीवन के हर मोड़ पर अपने भाग्य की विडम्बना ही नही परिवेश की यातना झेलने की मार्मिक कथा है दुर्भाग्यवश बहुत सी घटनायें उसके साथ जुड़ जाती हैं, जिनके लिये वह जिम्मेदार नहीं है। पिता का कलंक उसका पीछा नहीं छोड़ता और उसकी सगाई भी टूट जाती है। अतः इन विडम्बनाओं से त्रस्त होकर एकान्त में नौकरी हेतु दूर चली जाती है; परन्तु वहाँ भी उसे विचित्रताओं का सामना करना पड़ता है। कहीं भी चली जाय उसे शान्ति नहीं मिलती । कुo शशिबाला पंजाबी के अनुसार "यह प्रतीकात्मक उपन्यास है। चम्पा के सजीव चित्रांकन के बावजूद घटनाओं का संयोजन बड़ा अद्भुत और विचित्र है। ये विचित्रतायें उपन्यास में गौण नहीं बल्कि मुख्य हैं। कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि एक गहरी वेदना के अतिरिक्त इस उपन्यास की कोई उपलब्धि नहीं हैं।[5] 
उषा प्रियंवदा का उपन्यास "पचपन खम्भे लाल दीवारें" में लेखिका ने एक भारतीय नारी की सामाजिक एवं आर्थिक विषमताओं से उत्पन्न मानसिक यंत्रणाओं का अत्यन्त मार्मिक चित्रण प्रस्तुत किया है। छात्रावास के पचपन खभे और उसकी लाल दीवारों के समान अपनी अनचाही उलझनों में कैद सुषमा एक प्रकार की घुटन का तीखा एहसास कराती है। और वह कुण्ठा तथा एकाकीपन की पीड़ा से ग्रस्त रहती है अपनी एकरस जिन्दगी से उसे अब और चिढ भी होने लगी है। ऐसे ही शेष यात्रा (उषा प्रियंवदा) की अनु रचनात्मक सोच की उपज है। पति द्वारा त्याग दिये जाने पर वह नारी की परम्परागत सामर्थ्य हीनता को अनुकरणीय रूप में   तोड़ती है। उच्च मध्यवर्गीय प्रवासी भारतीय समाज इस उपन्सास में अपने तमाम अन्तःविरोंधोँ; व्योमोहों और कुंठाओं सहित मौजूद है। अनु प्रणव दिव्या और दिपांकर जैसे पात्रों का चित्रण लेखिका ने जिस अन्तरंगता से किया है; उससे वे पाठकीय अनुभव का अविस्मरणीय अंग बन जाते हैं। इस उपन्यास में लेखिका ने नारी जीवन की त्रासद स्थितियों का ऐसा मार्मिक चित्रण किया है; जिसने मन को गहराई तक प्रभावित किया है। प्रत्येक नारी चरित्र का भावनाशील; मनोजगत और आत्मद्वन्द्व बारिकी से पढने; परखने का कार्य किया है। और रचनात्मक स्तर पर चाहा है; कि वह साहस व संघर्ष से अपनी दारूण नियति को बदलने में कामयाब हो ।
कृष्णा सोबती के उपन्यास मित्रो मरजानी की मित्रो सपने में संकुचित रहने वाली स्त्री नहीं बल्कि स्वच्छन्द विचरण करने वाली एक आधुनिक ग्रामीण है। वासना; प्रेम और त्याग की त्रिवेणी का ही नाम मित्रौ है। इसी प्रकार डार से बिछुडी की मिन्नो आज की व्यवस्था में पिसती नारी का प्रतिनिधित्व कर एक आग्रह और संस्कार पर थूकती प्रतीत होती है। कृष्णा सोबती का दूसरा उपन्यास जिन्दगी नामा आज से पचास वर्ष पूर्व के पंजाब के किसी गाँव की झॉकी की अलग- अलग घटनाओं के रूप में प्रस्तुत की गयी है। इसमें हमें पंजाब के जीवन की जीवन पद्धति, रहन सहन सोच-विचार सामाजिक आचार विचार का सहजता से दर्शन होता है। भीष्म साहनी इसे इन्सानी रिश्तों से जाड़ते हुए कहते हैं कि "लेखिका ने अपने दिल में से मिट्टी खोद-खोद कर उस अंचल का निर्माण किया है। वस्तुगत दृष्टि से उस जीवन की झलकियॅा सच्ची हैं; प्रमाणिक हैं और उस प्रदेश के जीवन को ऑकते हुए लेखिका का दिल बार-बार हिलोरे लेने लगता है। एक-एक दृश्य को जैसे सहला-सहला कर पेश कर रही है"[6]
कृष्णा अग्निहोत्री का उपन्यास "बात एक औरत की’’ की नायिका कामना का परिचय देती हुईं लेखिका कहती है- ‘’मेरी नायिका महज औरत है वह औरत जो सम्पूर्ण समय के साथ लडाईं लड़ना चाहती है जिसके भीतर मनोवेग है, आन्तरिक विषमतायें हैं। जिसे संस्कार अपनी ओर खींचते हैं; अनुभव अपनी ओर हर चौराहे पर खडा एक नया पुरूष उसमें केवल औरत : जिस्म की औरत ढूंढता है वह नारी अपने पुरुष को नही पाती।[7] वह अपने प्रति हुए अत्याचार के विरुद्ध विद्रोह न करके स्वपीडन का सहारा लेती है। एसे ही कुमारिकायें उपन्यास में लेखिका ने उन परम्पराओं को चुनौती दी है जो संस्कार वश पुत्र जन्म पर हर्ष और कन्या जन्म पर विषाद की अभिव्यक्ति है, विवाह के बाद पुत्री को पतिगृह भेज दिया जाता है; जहाँ उसे पति की हर स्थिति से समझौता करना होता है। यदि कोई युवती कुँआरी रहना चाहती है; उसे समाज रहने नहीं देता तथा उसे तरह-तरह से अपमानित भी करता है। लेखिका ने उपन्यास की भूमिका में लिखा है- "ये समाज; परिवार इतने सक्षम नहीं कि वे परिस्थितियों से जुझती अविवाहित इन लडकियों का मजाक बना उन्हें कुंठित करें।…………. कॅुआरी नई पीढ़ी के अपने प्रश्न हैं और समस्याएं हैं जिन्हें लें वे आपके सामने विभिन्न रूपों मे प्रस्तुत हैं’’[8]
कृष्णा अग्निहोत्री ने "टेसू की टहनियॅा’’ उपन्यास में पारिवारिक; सामाजिक; आर्थिक स्थितियों को एक साथ समेटने का प्रयत्न किया है"[9] वास्तव में यह उपन्यास देश; समाज; राजनीतिक तथा पारिवारिक विघटनों को दर्शाता है। उपन्यास की मुख्य पात्र सीता है जिसके चरित्र को केन्द्र में रखकर ही सारा ताना बाना बुना गया है और उसके मूल में अर्थ की विद्रूपता है। समाज में व्याप्त नाना विकृतियों को लेखिका ने उजागर करते हुए आज के घोर आर्थिक संकट में नीच से नीच कर्म करने के लिये तत्पर व्यक्ति का चित्रण किया है। अपने-अपने घेरों में घिरा हुआ हर व्यक्ति मुक्त होने के लिये छटपटाता तो अवश्य है; परन्तु मुक्त नहीं हो पाता। और अपनी आने वाली पीढ़ी को भी यही विकृतियाँ दे रहा है। ऐसी विषम स्थिति में निष्कपट रूप से किये गये राहत कार्य मानव को कुछ राहत देते हैं और उससे जुडने की नयी जीवन दृष्टि देते हैं तथा मन को टेसू के समान प्रकाशित करती हैं।

निष्कर्ष
साहित्य युग चेतना से संश्लिष्ट होता है। आज का युग विज्ञान, औद्यौगिक प्रगति और राजनीति का युग है। आधुनिक युग में बदलते मानव मूल्यों की जीवन्त अभिव्यक्ति जितनी सश्क्त रूप में उपन्यासों में हुई है उतनी अन्य विधाओं में नहीं। जहाँ तक महिला उपन्यासकारों का प्रश्न है उन्हें नारी हृदय की गहनतम सम्वेदनाओं की प्रकृति तो मिली ही है। और नारी मन के विविध आलोडन-विलोडन के निकष पर नारी मन के स्पष्ट अंकन का अवसर भी मिला है। ऐसी स्थिति में हिन्दी उपन्यास विधा के विकासात्मक इतिहास में महिला उपन्यासकारों के इस योगदान को भुलाया नही जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. महादेवी वर्मा - दीपशिखा - भूमिका से। 2. इलाचन्द जोशी - विवेचना- 1946-पृष्ठ सं-1241 3. डॉ सुरेश सिन्हा - हिंदी उपन्यासों मे नायिका की परिकल्पना-पृष्ठ सं–35 । 4. लक्ष्मी सागर वार्ष्णेय - हिन्दी उपन्यास-उपलब्धियाँ । 5. कु0 शशि बाला पंजाबी- शिवानी के उपन्यासों का रचना विधान- पृष्ठ सं-17। 6. भीष्म साहनी - जिन्दगी नामा आजकल फरवरी 1980 पृष्ठ सं-35। 7. कृष्णा अग्निहोत्री - बात एक औरत की भूमिका से 8. कृष्णा अग्निहोत्री - कुमारिकायें- भूमिका से । 9. कुमार अहसकर-इतवारी पत्रिका - पृष्ठ सं-11