ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XI February  - 2023
Anthology The Research
मैत्रेय पुष्पा के कथा साहित्य में लोकगीतों का सामाजिक सरोकार
The Social Concern of Folk Songs in the Fiction of Maitreya Pushpa
Paper Id :  17011   Submission Date :  2023-02-04   Acceptance Date :  2023-02-04   Publication Date :  2023-02-16
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गोविन्द शरण शर्मा
सहायक आचार्य
हिंदी विभाग
राजकीय कन्या महा विद्यालय,
टोडाभीम, करौली,राजस्थान, भारत
सारांश
लोकगीत जब सामान्य आदमी अपने भावों की अभिव्यक्ति गीत या कविता के माध्यम से लयात्मकता के साथ स्वर माधुर्य के साथ प्रस्तुति देता है। तो उसे लोकगीत कहते हैं ।लोकगीतों में हमारी संस्कृति छिपी हुई है। लोक गीत हमारे सामाजिक जीवन का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। ये केवल मनोरंजन ही नहीं करते अपितु हमें जागरूक सचेत भी करते हैं। लोक गीत हमारी संस्कृति के उज्जवल पक्ष को उजागर करते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Folklore when the common man expresses his feelings through song or poem with lyrical melody then it is called folk songs. Our culture is hidden in folk songs. Folk songs are an important part of our social life. They are not only entertaining but also make us aware. Folk songs highlight the bright side of our culture.
मुख्य शब्द लोकगीत, संस्कृति, मनोरंजन, कला, लय और संगीत, समाज।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Folklore, Culture, Entertainment, Art, Rhythm and Music, Society.
प्रस्तावना
लोक गीत प्राचीन रीतिरिवाज परम्पराओं के संवाहक हैं। वर्तमान काल में लोकगीतों के अनेक प्रकार हैं जैसे- ख्याल, ठुमरी, धमाल, ध्रुपद, टप्पा, तराना, भजन, दादरा, कब्बाली, सरगम आदि लोक गीत विशेष रूप से शुभ अवसर पर गाए जाते हैं।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य में लोकगीतों के सामाजिक सरोकार का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

लोकगीतों से हमारा मनोरंजन होता है यह एक कला है जिसमें सभी प्रभावित होते हैं इनसे समाज में नीरसता दूर होती है लोक गीत हमें आनंद, सुख, हर्ष, उत्साह आदि प्रदान करते हैं लोकगीत से न केवल मनुष्य अपितु बालक, पशु और सांप भी सम्मोहित होते हैं। लोकगीत हमारे उत्साह को जागृत करके मानसिक आनंद प्रदान करते हैं।

गीतों का गायन एक विशेष समूह द्वारा किया जाता है। लोकगीत भाषा की दृष्टि से हमारी संस्कृति के पक्षों को किस्से, कहावतें, चुटकुले, किवदन्तियों के माध्यम से समाज के सामने प्रस्तुत करते हैं।लोकगीतों को लोक साहित्य की आत्मा कहा गया है ।लोक साहित्य में लोकगीतों की अनुगूंज सुनाई देती है लोकगीत प्राचीन समय से लेकर वर्तमान समय तक अनवरत जनमानस के हृदय के गान को अभिव्यक्ति देते हैं।

लोकगीतों में लय और संगीत का विशेष महत्व है। संगीत कला में तीन कलाओं का समावेश है- गायन, वादन और वाद्य।

लोकगीतों के माध्यम से समाज में प्रेम, भक्ति, उमंग, हर्ष बिरह, श्रृंगार आदि भावों की रसानुभूति होती है। विभिन्न देश एवं राज्यों या क्षेत्र विशेष में अलग अलग प्रकार के लोकगीत पाए जाते हैं जैसे कि राजस्थान में गोरवन्द और काजलिया, उत्तर प्रदेश में बारहमासा।

लोकगीतों का प्रारंभ कब से माना जाए इस विषय में अनुमान लगाना मुश्किल है, हाँ किंतु इतना कहा जा सकता है की लोक गीत उतने ही पुराने है जितना मानव जीवन का प्रारंभ।

लोकगीतों के विषय में कहा जाता है कि ये अज्ञात स्रोत से पाए गए हैं। इसका मतलब यह कदापि नहीं है कि इनको कोई लिखने वाला या गाने वाला नहीं था अपितु प्राचीन समय में उनका नाम लिपिबद्ध नहीं किया गया इसलिए उनका  स्रोत  प्राप्त नहीं होता है। प्राचीन समय में टंकण व प्रकाशन का अभाव था या उस समय के लोग अनपढ़ रहे होंगे ऐसा माना जा सकता है।

लोकगीतों का अस्तित्व मौखिक परंपरा पर टिका हुआ है। इनको लिखने की अपेक्षा गायन पर अधिक महत्व दिया जाता है। लोकगीत एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक मौखिक गायन के माध्यम से आसानी से चला जाता है परंतु इसके रचयिता का नाम धीरे-धीरे विलुप्त होता हुआ अंत में भुला दिया जाता है। आज भी हमारी संस्कृति में जाति विशेष के आधार पर लोकगीतों का निर्माण किया जाता है। लोकगीतों में लोग साहित्य का अधिकांश अंश समाया हुआ है। पश्चात विचारक विलियम्स ने लोकगीतों के विषय में कहा है-

लोकगीत न पुराना होता है न नया।

वह जंगल के एक वृक्ष के समान है

जिसकी जड़ें भीतर तक धरती में

धंसी हुई है पर जिसमें निरंतर नई

नई डालियां पल्लव और फल फूल  रहते हैं।

इसी प्रकार डॉ. सत्येंद्र ने लोकगीतों के विषय में कहा है---

वह गीत जो लोक मानस की अभिव्यक्ति हो अथवा जिनमें लोकमानस भाव भी हो लोकगीत के अंतर्गत आता है। 

लोकगीतों के विषय में हीरामणी सिंह साथी ने कहा है कि- लोकगीत जनमानस की कोख से उपजे धरती के गीत है जिनमें बांसुरी का आकर्षण भी है और बीन का मिठास भी पुरवैया की मादकता भी है नारी कंठों का इंद्रजाल भी है इसकी बीन में एक युग बोलता है एक व्यवस्था बोलती है और एक अनुशासित समाज बोलता है इनमें पीड़ा भी है, उल्लास भी है, अपमान भी है और प्रेम समर्पण का विस्तार भी है, जहाँ एक व्यक्ति की बोली  बन जाती है।

लोकगीतों के विषय में देवेन्द्र सत्यार्थी ने कहा है- लोकगीत किसी संस्कृति के मुँह बोले चित्र होते हैं।

रामनरेश त्रिपाठी ने तो लोकगीतों को ग्राम्यगीत कहा है।

ग्रामगीत प्रकृति के उदार हैं। इनमें अलंकार नहीं केवल लय है, लालित्य नहीं केवल माधुरी है। सभी मनुष्य अर्थात स्त्री पुरुषों के मध्य में हृदय नामक आसन पर बैठकर प्रकृति गान करती है, प्रकृति के ही समान  ग्राम्य गीत हैं।

लोकगीतों के विषय में श्याम परमार ने कहा है-

लोकगीतों में विज्ञान की तलाश नहीं मानव संस्कृति का सरल और व्यापक भावों का उभार है कहने का तात्पर्य है कि मानव जीवन के सुख, दुख, हर्ष, विषाद, उल्लास लोकगीतों में अंतर्निहित है लोकगीत जनमानस के सरोकार है यह मनुष्य के निश्चल एवं स्वच्छंद भावों की अभिव्यक्ति हैं।

लोकगीत हमारी संस्कृति के संवाहक हैं। वे सामाजिक जीवन के अभिन्न अंग हैं। यह केवल मनोरंजन ही नहीं करते अपितु हमारे समाज के अनेक पहलुओं की जानकारी प्रदान करते हैं। मैत्रेयी पुष्पा के कथासाहित्य में प्रचलित विभिन्न प्रकार के लोकगीत आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि विभिन्न रूपों की जानकारी देते हैं।

डॉ रविंद्र भ्रमर लोकगीतों के विषय में लिखते हैं-

लोकगीत लोकमानस के व्यक्तिगत और सामूहिक सुख-दुख की लयात्मक अभिव्यक्ति होते हैं। लोककथा की भाँति यह भी लोककंठ की मौलिक परंपरा की धरोहर और लोकमानस की विविध चिंतन धाराओं के कोण माने गए हैं।[1]

ग्रामीण समाज में पर्वो, त्योहारोंउत्सवों एवं जन्मदिनों पर लोकगीत की रौर या धुन सुनाई पड़ती है। लोकगीतों को तकनीक के युग में हर रोज़ सुना जा सकता है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में लोकगीतों का बहुत अधिक प्रयोग विंध्याचल के लोगों की भावनाओं की सशक्त अभिव्यक्ति है। हम मैत्रेयी  पुष्पा के कथासाहित्य में विभिन्न अवसरों पर गाए जाने वाले गीतों को इस प्रकार अभिव्यक्ति दे सकते हैं- जैसे सुख या खुशी के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत, दुख या वेदना के अवसर पर गाये जाने वाले लोकगीत, होली के अवसर पर, खेल के अवसर पर, शगुन के अवसर पर, धार्मिक या ईश्वरीय, लोकनृत्य, प्रेमकथा एवं सांप्रदायिक लोकगीत आदि।

मैत्रेयी पुष्पा के कथासाहित्य में लोकगीतों के सामाजिक सरोकारों को हम इस प्रकार अभिव्यक्ति दे सकते हैं-

मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य में सुख एवं खुशी के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीत उनकी कहानी संग्रह गोमा हस्ती है में खुशी के अवसर पर सोहर गाए जाने का उल्लेख मिलता है-

ऐसे फूले  सालिगराम  डालें, हाथ लिए रमपइया

एलला के बाबा, आज बधाई बाजी त्यारे।[2]

1. इसी प्रकार अल्मा कबूतरी उपन्यास में लेखिका ने कबूतरा जनजाति  के लोकगीतहोली के समय गोल घेरे में खड़े होकर खुशी और आनंद में लोकगीतों का गायन करते हैं-

मोरी चंदा चकोर काजर लगा के आई गईभोर ही भोर

मोदी चंदा चकोर, छतिया पे तोताकरिहापै मोर।[3]

2. दुखया वेदना के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों के द्वारा मनुष्य अपने दुख को भूल जाता है। मैत्रेयी पुष्पा के उपन्यास झूलानट की शीलो लोकगीतों को गाकर अपने दुख को भूलना चाहती है-

दिल है बेकरार तुम्हारे बिना

राजा देखो हमारी आंखिया,

हुई रो रो के लाल तुम्हारे बिना।[4]

इसी प्रकार कही ईसुरी फाग उपन्यास में रज्जू अपनी विरह वेदना को लोकगीतों के माध्यम से बताती है-

रातें परदेसी संग सोई छोड़ गयो निर्ममोई

अंसुवा ढरक परै लाइन पैजुबन  भींग गए दोई।[5]

इसी प्रकार अल्मा कबूतरी उपन्यास में मैत्रेयी पुष्पा कबूतरा जनजाति में कबूतराओं में मौत पर भी गीत गाने का प्रचलन था। जंगलियों की मौत पर कबूतरियां गीत गाती है-

आओ तो जाजो तो रेपन फुटो मत जातो रे

घोड़ो घोड़ो घूमती मोर आवंती।

फूलवादी केवडा

आवतीं आवतीं हमरी दे वीर देव-[6]

मैत्रेयी पुष्पा के कथा साहित्य में लोकगीतों में लोककथाएँ रची बसी हैं। जो विंध्याचल के परिवेश में उल्लेखनीय हैं। जिनमें नारी का दुख दर्द कसकता है। दर्द की कसमसाहट है। ऐसी ही एक लोक कथा है चंदना की जिसे लोकगीतों के माध्यम से गाया गया है

पहली कटारी कुंवर जीमारियै  जी।

एजी कोई दूजी लैलई बांहन ओट-[।7]

3. त्योहार के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों के द्वारा मनुष्य के त्योहार या उत्सव का आनंद कई गुना बढ़ जाता है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने उपन्यास चाक में होली के त्योहार पर राधा कृष्ण के मनमोहक लोकगीतों के माध्यम से होली के आनंद को कई गुना बढ़ा दिया है

कान्हा बरसाने में आ जइयों बुला रही थी राधा प्यारी।

बुला रही राधा प्यारी रे, बुला रही राधा प्यारी।।[8]

4. खेल के अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीतों से खिलाड़ी के मन में जोश और उत्साह का संचार होता है। मैत्रेयी पुष्पा ने इदन्नमम उपन्यास में शामली के गांव में सुआटा खेलने की प्रथा का उल्लेख किया है। जिसमें बहुएं लोकगीत गाती हैं। मंदाकिनी भी इसी रीतिका निर्वाह करती है और गाती है-

किनारे निजी के घर पर फ़रीं तुरइयां  को टोरै को खाय।[9]

5. शगुन होने पर पारंपरिक लोकगीत गाए जाते हैं। जिसमें समाज में ऊर्जा, जोश, उत्साह, विश्वास की भावना जागृत होती है। मैत्रेयी पुष्पा ने विंध्याचल के रीति रिवाजों, परंपराओं एवं रूढ़ियों का लोकगीतों के माध्यम से अभिव्यक्ति दी है। जब परिवार में दुल्हन पहली बार अपनी ससुराल में जाती है, तब उसे रीति रिवाज के अनुसार लोकगीत सबको सुनाने पड़ते हैं। यह शगुन माना जाता है- वेतवा बहती रही उपन्यास में उर्वशी जब पहली बार अपने ससुराल में जाती है तब रीतिनुसार लोकगीत गाती हैं-

कोई लैलो मटर की दो फलियां

सोने की थाली में भोजन परोसे

जिन्हें जैवे सनम की दो सखिया।[10]

6. धार्मिक या ईश्वरीय लोकगीत- मनुष्य सामाजिक प्राणी होने के नाते विभिन्न प्रकार के आयोजन करता है। उसमें धार्मिक आयोजन भी प्रमुख हैं ।हम ईश्वर की भक्ति कहते हैं। विभिन्न प्रकार के धार्मिक आयोजनों को संपन्न करवातें हैं। इससे ईश्वर के प्रति हमारा विश्वास और आस्था बढ़ती है। संकट के समय ये लोकगीत हमें आत्मविश्वास पैदा करते हैं। एक समाज में विभिन्न प्रकार के धार्मिक कार्यक्रम आयोजित किए जाते हैं। जिससे मनुष्य का सामाजिक सारोकार बना रहता है-

कान्हा वरसाने में  आ जइयों बुला रही राधा प्यारी।-[11]

7. लोकनृत्य लोकगीतों पर नृत्य भी किया जाता है। जिसके माध्यम से लोकमानस में लोकनृत्य को बढ़ावा दिया जाता है। मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कथासाहित्य में ब्रज प्रदेश में विवाह के अवसर पर ललमनियां में लोकनृत्य का बहुत ही सुंदर चित्रण किया गया है-

देख ललमनियां

पीरी पाग वारे तू देख ललमनियां

नैनन सुरमा वारे तू देख ललमनियां।[12]

8. प्रेम कथा- प्रेम जीवन का शाश्वत सत्य है। प्रेम से ही सृष्टि का उदय हुआ है। प्रेम के द्वारा ही जीव संसार में एक दूसरे से बंधा हुआ है। घनानंदजी प्रेम के विषय में कहते हैं- अति सूधो सनेह को मारग है ,जहाँ नेकु सयानप बांक नहीं ,जहाँ सांचचले तज आप नेझिझके कपटी, जो निशांक नहिं

आधुनिक काल के कवि दिनकर प्रेम के विषय में कहते हैं- लगता है उसे फिर नींद नहीं आती है,

दिवस रूदन में ,रात आह भरने में कट जाती है-

मैत्रेयी पुष्पा ने अपने कथासाहित्य में बताया है कि बृज प्रदेश में राधा कृष्ण के प्रेम को आधार बनाकर लोकगीत गाने की परंपरा है। इसका उल्लेख लेखिका ने किया है-

कन्हैया मांगत दान दही कौ

नहात में चीर हरें सब ही कौ

गोपियां क्यों इतरानी रे-[13]

मैत्रेयी पुष्पा ने कही ईसुरी फाग उपन्यास में लोक कवि ईसुरी और रज्जो की प्रेम कथा को लोकगीतों के माध्यम से वर्तमान परिदृश्य में प्रस्तुत किया है। रज्जो और ईसुरी की प्रेम कथा में अद्भुत मधुर्यभरा पड़ा है---

देखो नइयां बहौत दिनन में

बुरऔ लगत है मन में[14]

9. साम्प्रदायिकता- एक संप्रदाय द्वारा दूसरे संप्रदाय के विरुद्ध लोकगीतों को जनमानस में प्रचारित करना सांप्रदायिकता कहलाती है अर्थात एक पंथ, धर्म या अन्य कोई विविधता के आधार पर धार्मिक भावना को आहत करता है। तब सांप्रदायिक लोकगीत सामाजिक सरोकार के लिए हानिकारक है। मैत्रेयी पुष्पा ने गुड़िया भीतर गुड़िया कृति में सांप्रदायिक वैमनस्य के कारण बने लोकगीतों का उल्लेख किया है-

इस स्टेशन पर बैठी छोरी मुसलमान की

बाबूजी मेरा टिकट काट दो पाकिस्तान की

नाबामन की ना बनिये कीछोरी शेख पठान की

बाबूजी मेरा टिकट काटदो पाकिस्तान की-।[15]

10. वैवाहिक अवसर पर या मांगलिक अवसर पर गाए जाने वाले लोकगीत पारिवारिक वातावरण में एकता का भाव जागृत करते हैं। परिवार समाज के लोग सब मिलकर मांगलिक अवसर का आनंद उठाते हैं। सभी लोग गीतों के माध्यम से निकटता का अनुभव करते हैं। वैवाहिक अवसर पर बन्ना-बन्नीदेवी-देवता, लोक देवता आदि को प्रसन्न करने के लिए विभिन्न राग- रागिनियों में लोकगीत गाए जाते हैं।

11. लोक संस्कृति- भारतवर्ष में विभिन्न जाति, धर्म, पंथवर्ण के लोग रहते हैं उन सभी की अपनी-अपनी संस्कृति है। संस्कृति मनुष्य को सुसंस्कार देती है। उसे सुयोग्य बनाती है। लोकसंस्कृति अर्थात सामान्य जनों की संस्कृति, उनका रहन-सहन, खान-पान, भेष-भूषा, आचार-विचार, नियम-धर्म, पाप-पुण्य आदि सभी लोकसंस्कृति के अंग है। मैत्रेयपुष्पा ने विद्यांचल की लोकसंस्कृति का बहुत ही सुंदर चित्रण किया है----

कोई लैलो मटर की दो फलियां

सोने की थाली में भोजन परोसे

जिन्हें जेंवे सनम की दो सखियां-।[17]

लेखिका के लोकगीतों में अंचल विशेष की संस्कृति प्रतिविंबित हुई है। मानवीय संवेदनाओं को सशक्त अभिव्यक्ति दी गयी है-

ऊपर बंदर धैराय,तरें गोरी पनियां खो निकरीं

जाए जो कहियो उन राजा ससुर सो अंगना में कुंअला खुदाएं-।[18]

कहने का तात्पर्य है कि लेखिका ने इसमें अंचल विशेष की लोकसंस्कृति को उजागर किया है। मैत्रेयी पुष्पा ने लोकगीतों के माध्यम से सामाजिक सरोकार को सशक्त अभिव्यक्ति प्रदान की है। लेखिका ने इन गीतों के माध्यम से अपने मनोभावों की सहजसरलईर्ष्या, द्वेष बिनानिश्चल सामाजिक सरोकार पर बल दिया है। लेखिका के साहित्य के ये लोकगीत पात्रो की आत्माभिव्यक्ति या आत्माभिव्यंजना है। इसमें रागात्मकता, संगीतात्मकता, भावोद्रेकता, संक्षिप्तता तथा भावान्विति का अद्भुत गुण है। लेखिका के सभी लोकगीतों में ब्रज और विंध्याचल की लोक संस्कृति साकार एवं सजीव हो उठी है।

निष्कर्ष
लोकगीत हमारी लोकसंस्कृति में पग-पग पर रचे बसे हैं। भारतीय संस्कृति में लोकगीतों का बोलबाला जन्म से लेकर मृत्यु तक चलते रहते है। लोकगीतों का प्रारंभ हमारा हमारे जन्म से ही प्रारंभ हो जाता है या यों कहें कि गर्भाधान होने के बाद से ही लोक गीतों का प्रारंभ हो जाता है तो कोई अतिश्योक्ति नहीं होगी- बच्चा जन्म ले लेता है, तब जन्म होने के लोकगीत गाए जाते हैं। इसके पश्चात नामकरण संस्कार के लोकगीत गाए जाते हैं। मुंडन संस्कार के अवसर पर लोकगीत गाए जाते हैं। शिक्षा प्रारंभ करने के समय गणेश वंदना, गुरु पूजा करवाई जाती है, जिसे लोक भाषा में पट्टी पूजन कहा जाता है। बालक जब लगभग 12 वर्ष की अवस्था प्राप्त कर लेता है तब जनेऊ संस्कार के अवसर पर लोक गीतों का गायन किया जाता है। विवाह के अवसर पर विभिन्न प्रान्त ,देश में विभिन्न लोकगीतों का आयोजन किया जाता है- जैसे पीडी चिट्ठी के समय बन्ना- बन्नी लोकगीत, लग्न गीत, भात गीत, बिदाई गीत, स्वागतगीत आदि। विभिन्न लोकगीतों का आयोजन किया जाता है और अंत में मृत्यु पश्चात स्त्रियों द्वारा शोकगीत या मर्सिया गीत गाए जाते हैं। कहने का तात्पर्य है कि मनुष्य के जन्म से लेकर हर सुख- दुख में लोकगीत गाए जाते हैं, अतः लोकगीतों का भारतीय समाज में बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डा रविन्द्र भ्रमर, हिंदी भक्ति साहित्य में लोकतत्व पृ संख्या 135 2. मैत्रेयी पुष्पा ,गोमा हंसती है,पृ संख्या 168 3. मैत्रेयी पुष्पा, अलमा कबूतरी पृ संख्या 42 4. मैत्रेयी पुष्पा, झूलानट ,पृष्ठ संख्या 44 5. मैत्रेय पुष्पा कही ईसुरी फाग ,पृष्ठ संख्या 155 6. मैत्रेयी पुष्पा ,अल्मा कबूतरी ,पृष्ठ संख्या 26 7. मैत्रेयी पुष्पा, चाक, पृष्ठ संख्या 13-14 8. मैत्रेयी पुष्पा ,चाक,पृ संख्या 356 9. मैत्रेयी पुष्पा ,इदन्नमम,पृ संख्या 116 10. मैत्रेय पुष्पा ,बेतवा बहती रही ,पृ संख्या 49 11. मैत्रेयी पुष्पा, चाक पृ संख्या 356 12. मैत्रेयी पुष्पा, ललमनियां ,पृ संख्या 67 13. मैत्रेयी पुष्पा इदन्नमम ,पृ सं 118 14. मैत्रेयी पुष्पा,कही ईसुरी फाग ,पृ सं 247 15. मैत्रेयी पुष्पा, गुड़िया भीतर गुड़िया, पृष्ठ संख्या 110 16. मैत्रेयी पुष्पा, कस्तूरी कुंडल बसै,पृष्ठ संख्या 213 17. मैत्रेयी पुष्पा ,बेतवा बहती रही, पृष्ठ संख्या 49 18. मैत्रेयी पुष्पा, अगन पाखी ,पृष्ठ संख्या 43