ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
राजनीतिक व्यंग्य: राजस्थान के व्यंग्यकारों की दृष्टि
Political Satire: The Vision of Satirists of Rajasthan
Paper Id :  17006   Submission Date :  2023-01-13   Acceptance Date :  2023-01-21   Publication Date :  2023-01-24
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ओमबीर सिंह
शोधार्थी
हिन्दी विभाग
एमडीएस विश्वविद्यालय
अलवर,राजस्थान, भारत
रेणु वर्मा
सह आचार्य
हिन्दी विभाग
राजकीय महाविद्यालय
टोंक, राजस्थान, भारत
सारांश
राजनीतिक व्यंग्य पर राजस्थान के व्यंग्यकारों की पैनी दृष्टि रही है। इन्होंने अपने व्यंग्य लेखन द्वारा राजनीति की विसंगतियों को उजागर किया है। ऐसे व्यंगकारों में अजय अनुरागी फारूक आफरीदी यश गोयल, अतुल चतुर्वेदी, आदर्श शर्मा, यशवंत कोठारी तथा अरविंद तिवारी आदि प्रमुख हैं। इनमें पूरन सरमा तथा यशवंत व्यास आदि व्यंग्यकार राजनेताओं तथा राजनीति के कारनामों का चिट्ठा खोलते नजर आते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The satirists of Rajasthan have had a keen eye on political satire. He has exposed the anomalies of politics through his satirical writings. Ajay Anuragi, Farooq Afridi, Yash Goyal, Atul Chaturvedi, Adarsh Sharma, Yashwant Kothari and Arvind Tiwari are prominent among such satirists. In these, satirists like Puran Sarma and Yashwant Vyas are seen opening the book of the exploits of politicians and politics.
मुख्य शब्द गद्य, राजनीतिक व्यंग्य, व्यंग्य, हास्य, साहित्यिक डॉक्टर।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Prose, Political Satire, Satire, Humour, Literary Doctor.
प्रस्तावना
आधुनिक काल में गद्य की विभिन्न विधाओं में नवीनतम विद्या 'व्यंग्य है। व्यंग्य का कार्य विसंगतियों एवं विद्रूपताओं पर प्रहार कर उनका उन्मूलन करना है। इसी को लक्ष्य कर सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला ने कहा है- "गद्य अगर जीवन संग्राम की भाषा' है, तो व्यंग्य इस संग्राम का सबसे शक्तिशाली शस्त्र । व्यंग्यकार इस दृष्टि से समाज का साहित्यिक डॉक्टर होता है। आज राजनीति समाज के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा रही है। राजनीति अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए दूसरों की कार्यकता को निरर्थकता में तथा अपनी नाकामयाबी को कामयाबी में बदलने का काम कर रही है। इन सब स्थितियों पर राजस्थान के हिन्दी व्यंग्यकारों ने अपनी रचनाओं के द्वादाने व्यंग्य के प्रयोग द्वारा अपनी सजगता का परिचय दिया है।
अध्ययन का उद्देश्य
हिन्दी व्यंग्य के क्षेत्र में राजस्थान के व्यंग्यकारों के योगदान तथा व्यंग्य द्वारा जीवन के विविध क्षेत्रों में व्याप्त विद्रूपताओं तथा सामाजिक धार्मिक, सांस्कृतिक व्यंग्य के साथ विशेष रूप से राजनीतिक व्यंग्य के संबंध में राजस्थान के व्यंग्यकारों की दृष्टि को प्रकाश में लाना प्रमुख उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन

व्यंग्यकानों की दृष्टि जीवन के हर क्षेत्र तथा हर पहलू पर पड़ती है। कुछ क्षेत्र ऐसे हैं जो सहज दृष्टव्य नहीं हैं। व्यरम के दायरे में सभी क सभी कार्य-कलाप, सरकार-प्रशासन, राजनीति-धर्म-संस्कृति आदि आते है इस दृष्टि से राजस्थान के हिन्दी कांग्यकारों ने राजनीतिक व्यंग्य पर अपनी लेखनी बखूबी चलाई है। ऐसे व्यंग्यकारों में अजय अनुरागी इन्द्रेश फारूक आफरीदी आदि प्रमुख हैं। अजय अनुरागी ने अपनी रचना 'दबाव को राजनीति में पूरी राजनीति को ही दबावयुक्त बताया है तथा कहा है कि बिना दबाव के वह काम भी सही नहीं करती। इसी तरह देवेन्द्र इन्द्रेश जी ने 'लोकतन्त्र में हम खरबूजे' रचना में आम जनता को खरबूजे की तरह चित्रित किया है। इसी प्रकार फारूक खाफरीदी ने वे 'धन्य है आम आदमी' में मैं राजनीति में फैले वंशवाद पर टिप्पणी की है। अतुल चतुर्वेदी 'सपनों के बहारे देश' में बताते हैं कि यह देश सिर्फ सपनों पर ही यात्रा कर रहा है। कृष्ण कुमार आशु' अरविंद तिवारी यशवंत कोठारी तथा यश गोयल आदि ने भी अपनी-अपनी रचनाओं में राजनीति पर व्यंग्य किया है।

मुख्य पाठ

व्यंग्य का मूल स्रोत हजारों वर्ष प्राचीन सभ्यता, संस्कृति एवं जीवन में ऐसा देखा जा सकता है। व्यंग्य की यह धारा प्राचीन वैदिक काल से ही अवनवरत रूप से चली आ रही है। प्राचीन संस्कृत नाटकों एवं प्रहसन आदि में विदूषक नामक पात्र की उपस्थिति का विधान व्यंग्य एवं हास्य के लिए ही किया जाता था। संस्कृत से प्रवाहित होकर यह धारा क्रमशः पालि, प्राकृत, अपभ्रंश एवं हिन्दी साहित्य में समाहित देखी जा सकती है।
आधुनिक काल में गद्य की विभिन्न विधाएं पल्लवित एवं पुष्पित हुई। इन्ही गद्य की विधाओं में नवीनतम विधा है - व्यंग्य। व्यंग्य का कार्य विसंगतियों एवं विद्रुपताओं पर प्रहार करना है। व्यंग्य का व्युत्पत्ति की दृष्टि से आशय है - ‘‘शब्द का वह निगूढ़ अर्थ, जो व्यंजना वृत्ति के द्वारा सांकेतिक रूप से व्यक्त हो।’’
व्यंग्य के विषय में छायावादी कवि सूर्यकान्त त्रिपाठी ‘‘निराला’’ ने कहा है - ‘‘गद्य अगर जीवन संग्राम की भाषा है, तो व्यंग्य इस संग्राम का सबसे शक्तिशाली शस्त्र।’’ इस प्रकार व्यंग्य जीवनरूपी समर का सबसे सशक्त एवं दमदार हथियार है।
व्यंग्य लिखना सबसे दुरह कार्य है। इस कार्य के निर्वहन के लिए दृढ इच्छाशक्ति तथा मजबूत इरादे आवश्यक है। व्यंग्यकार समाज में व्याप्त विसंगतियों एवं विडम्बनाओं के उन्मूलन के लिए प्रयासरत रहता है। इस तरह वह समाज का साहित्यिक डॉक्टर होता है।
इस संबंध में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी द्वारा अपनी प्रसिद्ध पुस्तक कबीरमें दी गई व्यंग्य की परिभाषा सटीक मालूम होती है। वह कहते है ‘‘व्यंग्य वह है जहां कहने वाला अधरोष्ठों में हंस रहा हो और सुनने वाला तिलमिला उठा और फिर कहने वाले को जवाब देना अपने आपकों और भी उपहासास्पद बना लेना हो जाता है।[1]
व्यंग्य का आधार केवल चोट पहुंचाना या उपहास करना ही नहीं होता है। बल्कि यह संवेदनाओं से जुड़ा हुआ होता है। इसी बात को लक्ष्यकर डाॅ. सुभाष चन्दर कहते है- ‘‘एक पौधे से गुलाब के फूल को तोडना और उसकी खुशबू लेने का आनन्द हास्य है तो व्यंग्य उसी पौधे को टहनों पर लगे कांटों के दर्द का अहसास है। हास्य का आधार मनोरंजन है तो व्यंग्य का       संवेदना।’’[2]
आजादी के बाद के परिवेश तथा उसमें पनपती विसंगतियों ने हिन्दी व्यंग्य विद्या को बहुमुखी, अभिव्यक्ति प्रदान की है। आधुनिक समय में अति विस्तार पा चुकी विडम्बनाओं की खाई को पाटने में व्यंग्यकार प्रयत्नशील है। व्यंग्य विधा की इस स्वर्णिम लता को सींचने वाले हरिशंकर शंकर परसाई, शारदा जोशी तथा श्रीलाल शुक्ल की त्रयी ने इस क्षेत्र में अन्यतम उपलब्धि हासिल की। इनके अलावा शंकर पुणताम्बेकर, लतीफ घोंघी, रविन्द्र त्यागी, नरेन्द्र कोतली, प्रेम जनमेजय, हरीश नवल, ज्ञान चतुर्वेदी, डाॅ. मलम तथा बालेन्दु शेखर तिवारी इत्यादि व्यंग्यकारों ने इस विधा को स्थापित करने में महती भूमिका निभाई।
राजस्थान के परिप्रेक्ष्य में हिन्दी गद्य व्यग्य परम्परा बीसवीं सदी के पूर्वार्द्ध से मानी जाती है। तब व्यंग्य गद्य की विभिन्न विधाओं के बीच निश्चित रूप में लिखा जाता था। राजस्थानी साहित्य में भी व्यंग्य की पुरानी परम्परा रही है। राजस्थान हिन्दी व्यंग्य की विधिवत शुरूआत स्वतंत्रता के बाद ही हुई। सातवें दशक में सन 1962 में त्रिभुवन नाथ चतुर्वेदी का व्यंग्य संग्रह, ‘क्षमा कीजिएप्रकाशित हुआ। यह राजस्थान का प्रथम प्रकाशित व्यंग्य संग्रह माना जा सकता है। इसके बाद 1979 में अशोक शुक्ल का व्यंग्य संग्रह मेरा पैतीसवां जन्मदिनप्रकाशित हुआ।
राजस्थान के व्यंग्य के क्षेत्र में सन 1984 में मदन केवलिया के सम्पादन में राजस्थान के हास्य व्यंग्यकारकृति प्रकाशित हुई। इस समय के सक्रिय व्यंग्यकारों में अशोक शुक्ल, बुलाकी शर्मा तथा देवेन्द्र इन्दे्रश आदि है। इन व्यंग्यकारों ने समाज में फैले अन्याय एवं अत्याचार, सामाजिक एवं राजनीतिक बुराईयों आदि चित्रण कर व्यंग्य रचनाएं प्रस्तुत कीं।
बीसवीं सदी के अंतिम दशक के व्यंग्यकारों में यशवंत व्यास अनुराग वाजपेयी प्रभाशंकर उपाध्याय, मंगत बादल, फारूक आफरीदी, यश गोयल, आदर्श शर्मा अतुल चतुर्वेदी, अजय अनुरागी, अशोक राही, कृष्ण कुमार आशु, अतुल, कनक, सम्पत सरल आदि ने राजनीतिक एवं सामाजिक आदि बुराईयों पर तीक्ष्ण लेखन द्वारा राष्ट्रीय स्तर पर उपस्थिति दर्ज कराई। इन सभी व्यंग्यकारों को पैनी दृष्टि समाज में पनप रही बुराईयों तथा विषमताओं आदि पर रही। व्यंग्य लिए व्यापक पटल उपलब्ध था। सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक शैक्षिक तथा राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विषमताओं को लक्ष्यकर अपनी-अपनी व्यंग्य रचनाएं प्रस्तुत की।
राजनीतिक व्यंग्य
समाज में चहुँओर विसंगतियों एवं विडम्बनाओं का बोलबाला है। इन अवांछित विद्रपताओं के कारण ही व्यंग्य की उत्पत्ति होती है। राजनीतिक अनैतिकता से उत्पन्न विसंगतियों के प्रति आक्रोश की अभिव्यक्ति, वैश्वीकरण से पैदा हुई विषमताएं, जीवन मूल्यों में आई गिरावट के कारण उत्पन्न पीडा, मिलावट खोरी, शिक्षा का व्यवसायीकरण, रिश्वतखोरी, भ्रष्टाचार पूंजीपतियों व शोषकों का वर्चस्व, बेईमानी एवं दलाली आदि बुराईयों का आमजन पर गहरा असर पडा है। साधारणजन पीडित तथा विवश हो गया है। इन सब पर राजस्थान के व्यंग्यकारों ने अपने लेखन से करारी चोट की है। वैसे तो जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विषमताएं है। लेकिन राजनीतिक क्षेत्र में अग्रणी है। जितनी विषमाएं एवं कमियाँ राजनीतिक क्षेत्र में है शायद ही कहीं हो।
भारतीय राजनीतिक चेतना का स्तर काफी गिरा हुआ है। यहां राजनीति को सेवा नहीं शासन करने का प्रमाण पत्र माना जाता है। नेता जाति-धर्म, आडम्बर तथा क्षेत्रवाद आदि को अपना हथियार बनाकर चुनाव जीत जाते है। सम्प्रदायवाद की राजनीति चरम पर है। विभिन्न धर्मो के लोगों को राजनीतिक रोटियां सेकने के लिए लडाया जाता है। ऐसी स्थितियों में व्यंग्यकार इस दलदली राजनीति तथा नेताओं को लक्ष्य कर बुराईयों के उन्मूलन हेतु अपनी रचनाओं द्वारा व्यंग्यबाण चलते है।
आज राजनीति समाज के हर क्षेत्र में अपना प्रभाव जमा रही  है। इससे अनेक विद्रपताओं का जन्म हो रहा है। राजनीति अपना वर्चस्व स्थापित करते हुए दूसरों की सार्थकता को निरर्थकता में तथा अपनी नाकामयाबी को कामयाबी में बदलने का काम कर रही है। मतदाता को नेता सिर्फ एक दिन बांचता है-सिर्फ चुनाव वाले दिन। बाकी आगे के चार-पांच साल वही मतदाता राजनीति के लिए रद्दी पेपर होता है। यह स्वरूप है यहाँ की राजनीति का। यह चरित्र है यहाँ के नेताओं का। व्यंग्यकारों की नजर वैसे तो चारो तरफ रहती है। रह पहलू तथा हर क्षेत्र से इत्तेफाक रखता है लेकिन व्यंग्य के लिए उर्वरा भूमि राजनीतिक क्षेत्र से बडी कोई हो ही नही सकती। क्योंकि राजनीति बहत्तर छिदों वाली चालनी के समान है। किस छिद्र से कौनसी बुराई कब निकल जाए, कहा नहीं जा सकता है। राजस्थान के हिन्दी व्यंग्यकारों ने राजनीतिक को लेकर ढेर सारी रचनाएं तथा लेख आदि लिखे है। अपनी सजगता का परिचय उन्होनें दिया है।
राजस्थान के व्यंग्यकारों की दृष्टि
राजस्थान के व्यंग्यकार आजादी के बाद से ही जीवन के विविध क्षेत्रों में फैली बुराईयों को मिटाने हेतु व्यंग्य रचनाएं लिखते आ रहे है। राजनीतिक व्यंग्य को लगभग सभी व्यंग्यकारों ने अपने रचनाकर्म में शामिल किया है। आगे प्रमुख व्यंग्यकारों की दृष्टि को स्पष्ट किया जा रहा है-
अजय अनुरागी

अजय अनुरागी राजस्थान हिन्दी व्यंग्य के अग्रणी व्यंग्यकार है। इन्होनें जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में व्याप्त बिडम्बनाओं पर इनकी बारीक दृष्टि रही है। राजनीति में फैली विषबेल देश का सत्यानाश करने पर तुली है। देश की राजनीति का चेहरा बहुत ही कुरूप और विकृत हो चुका है। इनका मानना है कि राजनीति आज नैतिक सिद्धान्तों पर हावी हो चुकी है। राजनीति सिर्फ दबाव से चल रही है। चारों तरफ दबाव ही दबाव है। अपनी व्यंग्य रचना दबाव की राजनीति में अनुरागी स्त्री कहते है - ‘‘कुछ नेता दबाव की राजनीति करते है वे जानते है कि राजनीति दबाव से ही चलती है। दबाव के हटते ही राजनीति खत्म हो जाएगी। पूरी तरह राजनीति में समर्पण के साथ दबाव का सामना करना पडता है। राजनीति में आने पर दबाव के लिए तैयार रहना चाहिए। हर जगह, हर समय, हर स्थिति में।’’[3] राजनीतिक घात-प्रतिघातों से वातावरण दूषित हो गया है। जनता नेता और राजनीति के चक्कर में पिस रही है। आमजन मूलभूत सुविधाओं से वंचित है। तथा जनप्रतिनिधि जनता के ही पैसों पर ऐसा-आरम्भ की जिंदगी जी रहे है। ऐसे व्यंग्यकार आक्रोशित दृष्टि अपनाकर, व्यंग्य द्वारा नेताओं की छत्र-छाया में पल रहे लोगों की स्थिति स्पष्ट करते हुए अजय अनुरागी कहते हैं कि ‘‘एक क्रान्तिकारी ने मंत्री का मटका उठा लिया और मैत्री को देहरी पर दे मारा। बेचारा मटका टुकडे-टुकडे बिखर गया। मंत्री का मटका होने की सजा उसे मिल चुकी थी। काश वह मंत्री का चमचा होता, तो न फूटता, न टूटता सिर्फ लोगों को लूटता ही लूटता।’’[4]
इस तरह राजनीति ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार का अड्डा है। आमजन परेशान है। राजनीति उस मटके के समान हो गई है जिसका पानी सूख चुका है। प्यासी जनता की चिंता किसी को नहीं है। सत्ता वालों की नजर में पानी की कहीं कमी नही है। जबकि विपक्षी सूखा ही सूखा देख रहे है।
अनुरागी वाजपेयी:- आज अफसर शाही भी राजनीति से प्रभावित है। सब जगह राजनीतिक हस्तक्षेप बढ गया है। राजनीतिक लोग अपने चहेते भ्रष्ट अफसरों को मन इच्छित जगह पर लगा देते है। नेताओं की छत्र छाया मेंं धमा चौकड़ी मचाते है। भ्रष्टाचार और नैतिकता में संबध स्थापित हो गया है। अनुराग वाजपेयी अपने व्यंग्य लेख दे दो भ्रष्टाचार को मान्यतामें इस व्यंग्य कसते हुए कहते है कि - ‘‘नैतिकता की बातें वे ही लोग करते है जो अनैतिक होने का साहस नहीं जुटा पाते। भ्रष्टाचार को भी वे ही कोसते है जो मजबूरी में सदाचारी     है।’’[5]
देवेन्द्र इन्द्रेश - डाॅ. देवेन्द्र इन्द्रेश समाज में फैली विसंगतियों और विद्रपताओं से क्षुब्ध दिखाई पडते है। मानवीय भावनाओं और सामाजिक विद्रपताओं पर पैना व्यंग्य करना इनकी अनोखी पहचान है। राजनीतिक भ्रष्टाचार इस कदर हावी है। कि बिना पहुँच के कोई काम ही नहीं हो सकता है। राजनीति में लोकतंत्र शासन की एक प्रणाली है। इसमें राजनीतिक जनता का शोषण किस कदर करते है तथा नेताओं का बाल भी बाँका नही होता है। बिगड़ता सिर्फ भोली-भाली जनता का ही है। अपने व्यंग्य लेख लोकतंत्र में हम खरबूजे में इस इस विषय में कथन है। ‘‘मसलन हम खरबूजों को हर हाल में कटना ही है। अब हम ये मानकर चलते है कि इस लोकंत्रत में हमारी स्थिति लुढकते हुए खरबूजों से अधिक नहीं है। लगता है हमार जन्म ही तंत्र की चमचमाती हुई छुरियों से कटने के लिए ही हुआ है।’’[6]
इन्द्रेश जी मानते है कि राजनीति में सर्वत्र अयोग्य लोगों की भरमार है। यहाँ स्थापित होकर उसकी अयोग्यता योग्यता में, पाप पुण्य में तथा कदाचार सदाचार में बदल जाता  है। इसी प्रसंग में व्यंग्य लेख गधो का राजनीतिकरण में कहते है। कि ‘‘राजनीति के सरोवर में जो अवगाटन कर लेते है। वह अनेकानेक गुणों से विभूषित हो जाते है।’’[7]
फारूक आफरीदी - वर्तमान में राजनीति अनेक घुमावदार मोडों से गुजर रही है। लोगों को भ्रम में रखकर राजनेता अपना उल्लू सीधा करते है। फारूख आफरीदी की पैनी नजर राजनीति की चालबाजों तथा अटकलबाजियों पर रहती रही है। गरीब और सीधी जनता के प्रति व्यंग्यकार सहानुभूतिपूर्ण दृष्टिकोण रखते है। ऐसे लोगों में से एक है आफरीदी जी। आमजन को जागरूक कर राजनीति के खोखले आवरण से सचेत कराने की इनकी दृष्टि रही है। राजनीति में वंशवाद की रीति पर व्यंग्य करते हुए कह रहे है कि ‘‘आम आदमी समझता क्यों नहीं कि सिर्फ एक वोट देकर उसे अपने जीवन के सभी दायित्वों से मुक्त हो जाना है बल्कि जीवन से भी मुक्त हो जाना है। उसे देश सेवा, कल्याणकारी योजनाओं से जुडी नीति से कोई लेना देना नहीं है। इन सबके लिए तो हम और हमार भरा पूरा वंश है ना।’’[8]
अतुल चतुर्वेदी - अतुल चतुर्वेदी राजस्थान के समर्थ व्यंग्यकार है। वे अपने आस-पास की सामयिक विसंगतियों के प्रति सजग एवं सावधान रहते है। इनके व्यंग्य में समय की चिंता मौजूद रहती है। व्यंग्य का प्रयोग मानवीय समाज की बेहतरी के लिए करते रहे है। आज के समय में आस-पास कुछ भी अच्छा नही है। देश के कर्ताधर्ता राजनीति है। राजनीति देश को मनमाफिक दिशा प्रदान करती है। चतुर्वेदी जी ने सामयिक राजनीतिक विसंगतियों को अपना लक्ष्य बनाया है। ये आमजन की पीडा को महसूस करते हुए व्यंग्य के बाणों का संधान करते है।
अतुल चतुर्वेदी राजनीतिक विषयों के एक-एक पहलू को उजागर करते है, जिससे आमजन सचेत एवं सावचेत हो तथा नीति निर्धारक नेता अपने किए पर पश्चाताप करे। बयान देने की कलाव्यंग्य में नेताओं के भडकाऊ बोलों से राजनीतिक रोटियां सेकने का रहस्योदघाटन किया है। ‘‘अंत में आप ऐसा करे कि साफ पल्ला झाड ले, यू टर्न ले लें। बयान देते रहे। बस इतना सा ख्याल रहे कि नया बयान पहले से ज्यादा भडकाऊ हो, ताकि आपकी दुकान चलती रहे, बिना माल के भी।’’[9]
अरविन्द तिवारी - व्यंग्य परिस्थितिजन्य घटनाओं को नजर अंदाज नहीं कर सकता है। धार्मिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक आदि क्षेत्रों में फैली व्यापक बुराईयों को दूर करने का साधन व्यंग्य ही है। इन क्षेत्रों के अलावा राजनीतिक क्षेत्र ऐसा है जो बुराईयों तथा विषमताओं का सिरमौर है। अरविन्द तिवारी ने राजनीति के क्षेत्र  में फैली जहरीली लता को नष्ट करने हेतु व्यंग्यकारों का संधान किया है।
इनके व्यंग्य हमारे आस-पास के लोगों और घटनाओं से जुडे नजर आते है। देश में व्याप्त राजनीतिक असंगतियों पर व्यंग्य लेख ‘‘जनप्रतिनिधियों पर निंबंध में’’ में कहा है कि ‘‘ जन प्रतिनिधि होने के नाते गबन करना जरूरी हो जाता है। गबन-घोटाले आदि से मैं काफी सम्पत्ति अर्जित कर लेता और अपने रिश्तेदारों के नाम अनेक शहरों में प्लाट खरीद लेता। स्विस बैंक में रकम पहुंचा देता।’’[10]
कृष्ण कुमार आशु- कृष्ण कुमार आशु के अधिकतर व्यंग्य अपने आस-पास फैली विभिन्न क्षेत्रों की कुरीतियों पर है। समाज साहित्य और सियासत आदि इनके व्यंग्यों के प्रमुख क्षेत्र रहे है। व्यंग्यकार समाज का सच्चा हितचिंतक होता है। अतः उसकी दृष्टि राजनीति तथा समाज में व्याप्त पीडादायक स्थितियों पर रहती है। आशु जीके व्यंग्य भी राजनीति और समाज के विकृत चेहरे को सर्जरी करते है।
राजनीति में नेता कभी बुदियातें नही है। हमेशा चिरयुवा बने रहते है अथवा अपने आपको चिरयुवा मानकर चलते है। नई पीढी को अपने स्थान पर फटकने तक नहीं देते। यह है नेताओं का सत्ता सुंदरी से प्रेम। इसे लक्ष्यकर आशुजीअपने व्यंग्य लेख ‘‘पुरू की लालसा और आधुनिक ययाति’’ में कहते है कि ‘‘जिस दिन पिता (नेताजी) राजकुमार को लात मारकर घर से निकाल देंगे, उस दिन सत्ता सुंदरी तो दूर, गली की गधी भी उसका हाथ नही पूछेगी। वह मन ही मन दुआ करता है कि आधुनिक युग के ययाति (बुजुर्ग नेताजी) आठवें दशक को पार कर चुके मन में अब तो वैयाग्य उत्पन्न करों ताकि सत्ता सुन्दरी की लालसा में बुढियाते नए जमाने के राजकुमार पुरू की मनोकामना पूर्ण हो सके।’’[11]
यशवंत कोठारी - यशवंत कोठारी व्यंग्य के सशक्त हस्ताक्षर है। राजनीति के बिना देश चल ही नही सकता। राजनेता अपने आपको जनता का सेवनहार मानकर रज करना अपना कर्तव्य मानते है। नेता कुर्सी हासिल करना वह भी हर हाल में, लक्ष्य बना लेते है। ऐसे में जनता के मुद्दों को दरकिनार कर उलटे सीधे कामों में संलग्न रहकर चुनाव जीतने की भरपुर कोशिश करते है। ऐसी विडम्बनाओं को लक्ष्य कर व्यंग्यकार अपने लेखन द्वारा आमजन का हित साधन करना अपना परम उद्देश्य मानकर लेखन करते है। यशवंत कोठारी भी इसी क्रम में अपनी दृष्टि जनहित के साधनों पर रखते है।
कुर्सी और राजनीतिव्यंग्य लेख में राजनीति का लक्ष्य कुर्सी प्राप्त करने के उद्देश्य पर व्यंग्य करते हुए यशवंत कोठारी कहते है कि ‘‘चारों तरफ कुर्सियां है और राजनीति के दलदल में कुर्सी रूपी कमल खिल रहा है। कुर्सी कीचड में फंसी पडी है और राजनीति के आवारा सांड इस कुर्सी को धकेल रहे है। बिना कुर्सी के रजानीति यानि बिना दुल्हन के फेरे।’’[12]
पूरन सरमा - पूरन सरमा अपनी लेखनी द्वारा समाज में विखराव, मूल्यहीनता राजनीति तथा अन्य विसंगतियों पर चोट करते है। वैसे तो हर तरफ विसंगतियां ही विसंगतियां है लेकिन राजनीति का क्षेत्र इस दृष्टि से काफी आगे है। समाज की विद्रपताओं की जड यही राजनीति नजर आती है। ऐसे में पूरन सरमा जैसे व्यंग्यकार इन विसंगतियों को अपना निशाना बनाते   है। राजनेता दिखावे का विकास का राग अलापते है। इसकी आड़ में अपना तथा अपनी आगे की सात पीढ़ियों का इतंजाम करके चलते है। इन्होनें ‘‘विकास से लो विकास’’ व्यंग्य में स्पष्ट करते हुए बताया है कि ‘‘इस तरह विकास का धन्धा चल निकला और मैं दोनों हाथों से सूतने लगा। चुनाव में खर्च हुई राशि की भरपाई कर अगले चुनाव के लिए धनजमा किया। इसके बाद सात पीढी के संपूर्ण इंतजाम के लिए सक्रिया हो गया।’’[13]
इस तरह पूरन सरमा राजनेताओं के कारनामों का चिट्ठा खोलते नजर आते है। राजनीतिक बुराईयों के उन्मूलन के लिए प्रयासरत दिखाई देते है।
यश गोयल- लगातार अवमूल्यित होते जा रहे जीवन मूल्यों और दिशाहीन राजनीति तथा निरन्तर क्षीण होती जा रही अनुभूतियों को यश गोयल आपस मकें घुले मिले है। आज के समय में राजनीति बडी शक्ति है। जिसके इर्द-गिर्द सब कुछ केन्द्रित है। व्यंग्यकार की सहानुभूति साधारण जन की पीडा के प्रति पूरी है। इनकी दृष्टि सत्ता के अवैध केन्द्रों तथा उनकी असलियत को उघाडने में रहती है। राजनेता गरीब लोगों के नाम पर राजनीति बिसात बिछाये रखते है तथा अपना उल्लू सीधा करते रहते है। जानकर भी अनजान बने रहते है। पहचान के लोगों को पहचानने से इनकार कर देते है। मंत्री का चश्माव्यंग्य लेख में बताते है कि ‘‘समस्या ये थी कि नेताजी के मंत्री बनने के बाद अपने लोगों को पहचानना त्याग दिया था। नेता हो या मंत्री। उसकी मर्जी जिसे चाहे वह पहचाने, जिसे चाहे दुत्कार दे। उसके दोस्त सुगना को न जाने क्यों उम्मीद थी कि मंत्री अब भी उसे पहचान लेगें।’’[14]
डाॅ. आदर्श शर्मा - समसामयिक जीवन की वास्तविकताओं तथा राजनीति के अन्तर्विरोधों पर प्रहार करती हुई इनकी रचनाएं तथा इनके दृष्टिकोणों को स्पष्ट करते व्यंग्य लेख आमजन की पीडा को महसूस कराते जान पडते है। राजनीति तथा राजनीति के तले पोषित होती ब्यूरोक्रेसी के मिथ्या अहंकारों का खुलासा लेखिका ने अपने व्यंग्य लेखों में किया है। नेता जनता से मिलने में शर्म महसूस करते है। अपने को परमसत्ता से कम नहीं आंकते है। अर्थ पी.ए-महात्म्य व्यंग्य लेख में स्पष्ट करते हुए कहा है कि ‘‘तेरे (पी.ए) रहते क्या मजाल अदना से आदमी की कि वह अपने नेता का पार पा ले ? उनका अता पता और ठौर-ठिकाना ढूंढ निकाले ? पी.ए. तू महान है, लोकतंत्र की जान है। तेरे हाथ में टका है। तेरे सर पेशासन टिका है। तू अनोखा जीव है, लोकतंत्र की नींव है।’’[15]
इस तरह व्यंग्यकार ने नेता के निजी सहायक की भ्रम पाले छवि का वर्णन किया है। जब पी.ए. की यह स्थिति है तो नेताजी तो अपने को परमब्रह्मा से कम नहीं मानते।
यशवंत व्यास
व्यंग्यकार यशवंत व्यास समसामयिक विषय में व्याप्त बुराईयों को उजागर करने वाले व्यक्ति है। स्वस्थ और संवेदनशील जीवन की मांग करते है। राजनीति हो या अन्य क्षेत्र सभी पर पैनी दृष्टि रखकर व्यंग्य का प्रहार करते है। इनका लेखन उन लोगों के मौन को वाणी देता है जो चारो तरफ फैली विकृतियों से त्रस्त है।
राजनीति में चंहुओर भ्रष्टाचार और वासनाएं वाली नजरें नजर आती है। राजनीति में प्रवेश करना कोई मामूली खेल नहीं है। इसके लिए अपना सब कुछ दांव पर लगाना पडता है। विशेषतः महिलाओं के बारे में तो खतरों भरी डगर है। राजनीति की महिलाओं को अतृप्त कामवासनाओं का शिकार होना पडता है। यशवंत व्यास अपने व्यंग्य लेख फिर नैना की यादमें युवा नेत्री नैना साहनी काण्ड का जिक्र करते हुए बता रहे है कि राजनीति की डगर वास्तव में खतरों से भरी है। वे कहते है कि ‘‘चूंकि राजनीतिक दलों में टिकट, पद आदि पाना उतना ही कलुषित खेल हो गया है, इसलिए संदेह के स्तर पर स्त्री को, वहां भी एक विशिष्ट सतर्कता की दरकार होती है।’[16]

निष्कर्ष
आधुनिक गद्य विधाओं में नवीनतम एवं विशिष्ट विधा ‘व्यंग्य’ के विविध क्षेत्रों में व्याप्त असंगतियों एवं विसंगतियों पर प्रहार द्वारा उन बुराईयों के उन्मूलन हेतु प्रयासरत राजस्थान के समर्थ व्यंग्यकारों की दृष्टि का अवलोकन किया गया है। राजनीतिक क्षेत्र में व्याप्त विसंगतियों तथा राजनीतिक व्यंग्य पर उनके दृष्टिकोण तथा दृष्टि का अध्ययन किया गया है। इन व्यंग्यकारों में अजय अनुरागी, अनुराग वाजपेयी, इन्दे्रश, फारूक आफरीदी, अतुल चतुर्वेदी, अरविन्द तिवारी, कृष्ण कुमार, ‘आशु’ पूरन सरमा यशवंत कोठारी, यशवंत व्यास, यशगोयल तथा आदर्श शर्मा आदि प्रमुख है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. द्विवेदी हजारी प्रसाद - कबीर, पृ. सं. 164 2. चन्दर सुभाष - हिन्दी व्यंग्य का इतिहास, पृ.सं. 28 3. अनुरागी अजय - दबाव की राजनीति, पृ.सं. 7 4. अनुरागी अजय- मंत्री का मटका, पृ. सं. 150 5. वाजपेयी अनुराग - दे दो भ्रष्टाचार को मान्यता 6. इन्द्रेश देवेन्द्र - लोकतंत्र में हम खरबूजे, पृ. सं. 6 7. इन्द्रेश देवेन्द्र - लोकतंत्र में हम खरबूजे पृ. सं. 123 8. आफरीदी फारूक - धन्य है आम आदमी, पृ. सं. 13 9. चतुर्वेदी अतुल - सपनों के सहारे देश, पृ. सं. 30 10. तिवारी अरविंद - मानवीय मंत्रालय, पृ.सं. 28 11. ‘आशु’ कृष्ण कुमार- स्कैण्डल मार्च, पृ.सं. 117 12. कोठारी यशवंत - योगासन और नेतासन, पृ.सं 79 13. सरमा पूरन - मुख्यमंत्री दिल्ली गए, पृ.सं. 4 14. गोयल यश - मंत्री का चश्मा, पृ.सं. 28 15. शर्मा आदर्श - व्यंग्य तरंग, पृ. सं. 38 16. व्यास यशवंत - इन दिनों प्रेम उर्फ लौट आओ नीलकमल, पृ.सं. 30