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भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण | |||||||
Environmental Protection in Indian Culture | |||||||
Paper Id :
17069 Submission Date :
2023-01-30 Acceptance Date :
2023-02-23 Publication Date :
2023-03-02
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सारांश |
भारतीय धर्म और संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण और चिंतन सभी जगह मिलता है । भारत के सभ्य मनुष्यों ने प्रकृति एवं उसके उपादानों, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं आदि को आध्यात्मिक रूप प्रदान करके, भारतीय धर्म और संस्कृति से पर्यावरण को अभिन्न रूप से जोड़ दिया है । प्राचीन, धार्मिक जीवन पद्धति एवं धर्म का विकास प्रकृति एवं उसकी विभिन्न शक्तियों से प्रभावित होकर हुआ । इसी कारण प्राचीनकाल से ही पर्यावरण एवं उसके संरक्षण का चिन्तन भारतीय सांस्कृतिक जीवन में स्थायी रूप से समाहित रहा ।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Environmental protection thinking is found everywhere in Indian religion and culture. Civilized human beings of India have integrally linked the environment with Indian religion and culture by giving spiritual form to nature and its elements, animals, birds etc. The development of ancient, religious way of life and religion was influenced by nature and its various powers. For this reason, since ancient times, the thought of environment and its protection remained permanently included in Indian cultural life. | ||||||
मुख्य शब्द | संस्कृति, पर्यावरण एवं उसका संरक्षण। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Culture, Environment and its Conservation. | ||||||
प्रस्तावना |
भारतीय इतिहास के अनुशीलन से विदित होता है कि चिरकाल से ही प्रकृति एवं पर्यावरण के विभिन्न रूपों को संस्कृति में समाहित कर संरक्षण प्रदान किया गया है । गायत्री मंत्र में ॐ भू:र्भूवः स्वः में प्रार्थना है कि जो सूर्य, पृथ्वी और भुवः और स्वर्ग तीनों लोकों को प्रकाशमान करता है, वह मेरी बुद्धि को भी दिव्य और प्रखर करे । सूर्य के तेज को बुद्धि के तेज से जोड़ने की कामना प्रकृति के तत्वों को संस्कृति से जोड़ने की कामना ही तो है । हड़प्पाकालीन संस्कृति में पवित्र पशुओं, वृक्षों और नदियों का संकेत हम पाते हैं।[2] हड़प्पा सभ्यता में पीपल, बबूल, नीम, ताड़ आदि वृक्षों, वृषभ, नाग आदि पशुओं एवं जल-पूजा आदि के साक्ष्य मिले हैं । प्रारंभिक आर्य प्रकृति की विविध शक्तियों को देवता रूप मानकर उनकी उपासना किया करते थे । वैदिक आर्यों के देवताओं को हम प्रकृति के विभिन्न रूपों में देख सकते हैं ।[3] प्राचीन भारतीय विद्वानों ने हमारी दिनचर्या को धर्म और संस्कृति से जोड़कर प्रकृति संरक्षण भावना को विकसित करने एवं उसको बढ़ाने का प्रयास किया । प्रातःकाल उठकर तालाबों एवं नदियों में स्नान करना एवं स्नान के समय व बाद में मंत्रोच्चारण कर पूजा-पाठ को करने से मन शांत एवं वातावरण शुद्ध होता है । यज्ञादि की आहुतियों से उत्पन्न धुंआ से वातावरण शुद्ध होता है । हवन एवं पूजा पाठ के समय मंत्रोच्चारण की ध्वनि- तरंगों के साथ ही शंख-ध्वनि एवं घंटियों आदि के बजाने से उत्पन्न तरंगों से मानव मस्तिष्क, शरीर एवं सम्पूर्ण वातावरण पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है ।[4] हमारे धार्मिक क्रियाकलापों एवं त्यौहारों में वृक्ष एवं पशु-पूजा का विशिष्ट महत्व सदा से रहा है । हमारी संस्कृति में नदियों, पर्वतों, पत्थरों तथा वृक्षों से लेकर माटी तक की पूजा का विधान करके उन्हें संरक्षण देने का प्रयास किया गया है ।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय संस्कृति में पर्यावरण संरक्षण का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | भारतीय इतिहास में
हम अनेक स्थानों पर वृक्षों एवं वनस्पतियों की पूजा एवं उनके संरक्षण की भावना के
भाव का उल्लेख पाते हैं। हड़प्पा काल से लेकर वैदिककाल तक और वैदिककाल से लेकर
वर्तमानकाल तक हम भारतीय संस्कृति में प्रकृति पूजा को निरंतर रूप से पाते हैं।
तुलसी, पीपल, बरगद,
केला, आम्रपत्र आदि वृक्षों की, गंगा, यमुना, सरस्वती
आदि नदियों की, सूर्य, चन्द्र,
वायु, अग्नि, पृथ्वी
आदि के प्रति श्रद्धा एवं पूजा का भाव भारतीयों में हमेशा रहा है। इसके मूल में
हमारे प्राचीन ज्ञानियों की दूरदर्शिता ही थी, जिन्होंने
प्रकृति के इन रूपों को आध्यात्मिक संरक्षण प्रदान किया। भारतीय धर्मशास्त्रों
में पेड़-पौधों और वनस्पतियों के रोपण, पोषण, संवर्द्धन को पुण्य कार्य माना गया है।[5] भारतीय
धर्मशास्त्रों में प्रकृति के विभिन्न तत्वों की आराधना एवं स्तुति के प्रमाण
मिलते हैं। इन स्तुतियों में प्रकृति के विभिन्न तत्वों से प्रार्थना की गई है कि
ये हमें अपनी शक्तियां प्रदान करें। वामन पुराण की
एक स्तुति में वर्णित है कि “पृथ्वी अपनी सुगंध, जल अपने बहाव, अग्नि अपने तेज, आकाश अपनी शुद्ध ध्वनि और वायु अपने स्पर्श गुण के साथ हमारे प्रातःकाल
को अपना आशीर्वाद दे, यही हमारी कामना है।[6]” अर्थववेद की एक ऋचा में हम पृथ्वी के प्रति कृतज्ञता का भाव पाते हैं,
जिसमें उल्लेखित है- जिस धरती पर वृक्ष, वनस्पति एवं औषधियां हैं, जहां स्थिर और चंचल
सबका निवास है, उस पृथ्वी के हम आभारी हैं, हम उसकी स्वतंत्रता की हमेशा रक्षा
करेंगे। |
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मुख्य पाठ |
गीता में भगवान श्रीकृष्ण
ने अपनी प्रकृति के आठ रूपों को बताया है और इनमें पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु एवं आकाश के साथ-साथ मन, बुद्धि एवं
अहंकार की भी गणना की गई है। भारतीय धर्मशास्त्रों में जल, वायु, अग्नि के गुणों
की प्रशंसा की गई है, जो मनुष्य को अपनी प्रकृति से लाभांवित करते हैं। जल के गुणों का स्मरण करके मनुष्य के चरित्र में इन गुणों के विकास की कामना की
गई है । उस वायु की आराधना की गई है, जिसको लेकर लोग संसार में प्रवेश करते हैं और जिसे छोड़ते ही संसार से विदा हो
जाते हैं। अग्नि की आराधना करते हुए वर्णन है कि जिसके प्रताप से जल वाष्प बनकर
उड़ता है, फिर बादल बनते हैं, तब वर्षा होती है।[7] इस प्रकार, भारतीय संस्कृति में प्रकृति को अपना आवरण प्रदान करके, उसके संरक्षण की महान परम्परा को विकसित किया। प्राचीन
ऋषि-मुनियों ने प्रकृति एवं पर्यावरण को संस्कृति से जोड़कर उसके संरक्षण का मार्ग
प्रशस्त किया। संस्कृति को प्रकृति से जोड़ने के मूल में और कुछ नहीं, प्रकृति और उसकी शुद्धि का भाव ही है। यज्ञ, पर्यावरण और मन दोनों को पवित्र करता है और दोनों को
प्रदूषण से बचाता है। भारतीय संस्कृति ने हमेशा से वन की वंदना की है, वन ने उसे संबल भी दिया है और सहारा भी, शक्ति भी दी है, इस प्रकार प्रकृति एवं पर्यावरण का सम्बन्ध भारतीय संस्कृति से अभिन्न है।[8] यह पृथ्वी जो कि असीम
सौन्दर्य से भरी पड़ी हुई है, जिसकी सुन्दरता
न केवल नये जीवन व ऊर्जा का संचार करती है, अपितु सभी जीवधारियों का आश्रय, जीवन व रक्षा कवच है, इसे हरा-भरा व जीवित बनाये रखना भी सभी का
कर्तव्य है। प्राचीन आदर्शो के सन्दर्भ
में ज्ञात होता है कि हमारे देश की सभ्यता नदियों के किनारे विकसित हुई। ये
नदियां, ये वृक्ष इनसे जुड़े पवित्र तट पर प्राचीन काल से
होते रहे उत्सव, पर्व मनुष्य को प्रकृति और मानव के अगाध संबंध
की ओर इंगित करते हैं। आवश्यकता इस बात की है कि आने वाली पीढ़ी को हम अपनी
संस्कृति व धरोहर के बारे में जागरूक करें। प्राचीन संस्कृति पर आधारित इन वृक्षों
को रोपने के पीछे विज्ञान यह है कि ये ही वृक्ष हैं, जो अधिक मात्रा में आक्सीजन प्रदान करते हैं व इनकी पूजा होने के कारण इन्हें
काटना भी वर्जित था। इसके पीछे यही कारण था कि वृक्षों को सम्मान देकर उन्हें
जीवित रखा जाता था। ऐतिहासिक विश्लेषण से ज्ञात
होता है कि भारतीय धर्मशास्त्रों ने पेड़-पौधों के काटने, पशु-पक्षियों की हत्या करने एवं पर्यावरण को प्रदूषित करने
पर तीखी प्रतिक्रिया व्यक्त की जाती है। स्कन्द पुराण में किसी भी प्रकार के पेड़
को काटना निंदनीय बताया है। मनु स्मृति में सभी प्रकार की हिंसा की निंदा की गई
है, जो व्यक्ति पशु हत्या का आदेश देता है, पशुओं को काटता है, उन्हें मारता है, मास बेचता है या खरीदता है, जो उसे परोसता है और उसे खाता है, वे सब हत्या के दोषी हैं। भारतीय धर्मग्रंथों में जीव
संरक्षण का भाव रखते हुए अनेक पशु-पक्षियों का संबंध देवी-देवताओं से जोड़ा है।
पुराणों में अनेक पशु-पक्षी देवताओं के वाहन के रूप में सम्बद्ध किये गये हैं।[9]
इन प्राचीन आदर्शों को वर्तमान शिक्षा पद्धति में पाठ्यक्रम का अनिवार्य हिस्सा
बनाया जाये, जिससे कि आने वाले पीढ़ी उन संस्कृतियों से
प्रेरणा ले सके, व प्रकृति के सभी जीवों के साथ सह-अस्तित्व कर
इस पृथ्वी को एक शुद्ध प्राकृतिक वातावरण प्रदान कर सके। जिस देश में भूमि को माता
और गाय की संज्ञा की जाती है, वह यह परिलक्षित
करता है कि विज्ञान ने जिस पर्यावरण के प्रति-जन को जागरूक बनाया है, उसकी प्राचीनकाल से हमारे देश में जन-चेतना थी। भारतीय
संस्कृति में वसुधा को कुटुम्ब माना गया है, जिसे आज ग्लोबलाइजेशन शब्द दिया गया है। आवश्यकता आज इस तथ्य की है कि
प्राचीन ग्रंथों के आदर्शों को नये सिरे से पुनः अध्ययन किया जाये व नई पीढ़ी को
संस्कारों में उनका स्थान दे दिया जाये, जिससे पृथ्वी पर मानव समाज के अस्तित्व को बचाया जा सके । समाज का दायित्व
केवल इसी जागरूकता कि सरकार क्या कर रही है, प्रशासन क्या कर रहा है, अपितु सोचने का
समय आ गया है कि हम क्या कर रहे हैं?[10] मशीनीकरण से जहां सुविधाएं
और तकनीकी विकसित हुई, वहीं प्रकृति के अतिदोहन से हम संख्या में तो बढ़
गये, किन्तु प्रकृति सिमटती गई, जिसके कारण ग्लोबल वार्मिंग, ग्रीन हाउस प्रभाव व अम्ल वर्षा आदि ने जन्म लिया। प्रदूषण का राक्षस जो कि
वायु, जल, मिट्टी, ध्वनि, मानस सभी में कलयुग की तरह स्थान बना चुका है। यह अपनी जड़ें और गहरी करें, इसके पूर्व ही इसे समाप्त करना अतिआवश्यक है। यदि बच्चों
को बचपन से इस बात की ओर ध्यान आकर्षित किया जाय कि गर्मी की छुट्टियों में उन्हें
पर्यटन के लिए कोई घाटी, नदी, जंगल प्राकृतिक स्थान ले जाये, तो निश्चित ही वे बचपन से इसका महत्व समझ जायेंगे और उन्हें शिक्षा के द्वारा, अपने परिवार के द्वारा पर्यावरण संरक्षण की जागरूकता
प्राप्त हो जायेगी। अतः पर्यावरण शिक्षा का प्रथम विद्यालय परिवार ही है। परिवार
से नगर, नगर से राज्य, राज्य से देश और एक देश से दूसरे देश, सम्पूर्ण समाज को जागृत करना इसी प्रकार से ही हो सकता है। मनुष्य इस संसार
की अप्रियतम कृति है, जिसके अन्दर बुद्धि एवं विवेक की शक्ति है।
अन्य जीवों में उन्नत होने का दायित्व मनुष्य को समझना चाहिए, उसे ऐसे फैसले लेने चाहिए।[11] प्रकृति के प्रति लगाव, अनुराग तथा उसके संरक्षण में भारतीय संस्कृति का अनूठा
योगदान रहा है। भारतीय संस्कृति में वृक्षों की महिमा का जितना वर्णन मिलता है, वह अन्य देशों की संस्कृति में नहीं मिलता है। भारतीय
संस्कृति में वृक्ष मानव के स्वास्थ्य एवं पर्यावरण के प्रमुख घटक के रूप में माने
जाते हैं । वनस्पति सदियों से भारतीय चिकित्सा पद्धति आयुर्वेद का आधार रही है।
भारतीय संस्कृति में वृक्षों की देन के कारण इन्हें देव समान पूजनीय माना गया है ।
वेदों में वृक्षों को पृथ्वी की संतति कहकर इन्हें अत्यधिक महत्व एवं आदर प्रदान
किया गया है। लेकिन ज्यों-ज्यों मानव सभ्यता का विकास हुआ, वह प्रकृति से दूर होने लगा। मनुष्य बस्ती, गांव एवं शहरों का निर्माण कर उनमें निवास करने लगा।
धीरे-धीरे मनुष्य पर्यावरण की उपेक्षा करने लगा।[12] वैदिक संस्कृति में
प्रारम्भ से ही पर्यावरण का अपना एक स्थान रहा है। भारतीय संस्कृति को पर्यावरणीय
संस्कृति का पर्याय कहा जा सकता है। वेदों में वर्णित ‘ऋत’ को प्राकृतिक पर्यावरण के नाम से जाना जाता है।
वन, वृक्ष और पर्वतों से युक्त मानव सभ्यता का काल सर्वविदित है। वन और जन एक दूसरे के पूरक है। भारतीय संस्कृति के उत्तर वैदिककाल में
अरण्यका-ब्राह्मणों एवं उपनिषदों की रचना हुई। ब्रह्मचर्य, वानप्रस्थ एवं सन्यास ये तीनों वनों से जुड़े आश्रम हैं। आदि
समय में ऋषियों के आश्रम भी वनों में समाज से दूर बनाये जाते थे, जो कि शिक्षा के भी केन्द्र हुआ करते थे। |
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निष्कर्ष |
भारतीय संस्कृति में मनुष्य प्रकृति का नियता नहीं, बल्कि उसकी संतान है । पर्यावरण के प्रति ऋषि-मुनियों की भावुकता व अनुराग इसका प्रमाण देती हैं । ऋग्वेद के पृथ्वीसूक्त में मनुष्य और पृथ्वी के स्नेह बंधन के अनेक प्रमाण मिलते हैं, जहां पृथ्वी को माता के रूप में पूजने की बात कही गयी है ।14 तमाम जीव-जन्तुओं का जन्म और पालन-पोषण पृथ्वी पर देखा है । ‘शस्य श्यामला’ की अवधारणा, उसकी उर्वरक क्षमता और पालन-पोषण की शक्ति के प्रति श्रद्धा और अनुराग के कारण मातृभूमि जैसी अवधारणा का जन्म हुआ । यजुर्वेद में पर्यावरण संरक्षण पर बल देते हुए लिखा है- “समग्र पृथ्वी सम्पूर्ण परिवेश शुद्ध हों।” ‘बिन पानी सब सुन’ को चरितार्थ होते हुए हम वेदों में देख सकते हैं । वेदों की असंख्य ऋचाओं में प्रकृति के विभिन्न अंगों के प्रति अनुराग व श्रद्धा व्यक्त की गई है । भारतीय संस्कृति में सूर्य, चांद, तारे, आकाष, पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि आदि को देवतुल्य मानकर उनकी उपासना का विधान है । मनुष्य प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग कर उनके प्रति कृतज्ञता अर्पित करता है ।15
ऋग्वेद की अनेक ऋचाएं हैं, जो मानव को पर्यावरणीय कर्तव्य बोध की शिक्षा देती है । ऋग्वेद की ऋचाओं में सूर्य, अग्नि, वायु, जल, पृथ्वी इन पंचतत्वों की व्याख्या की गई है तथा मानव को धर्म से जोड़कर उनकी रक्षा की गई है । ऋग्वेद की ऋचाओं में कामना की गई है कि पृथ्वी माता की धूल और पितृ तुल्य आकाश का प्रकाश मंगलमय हो । सूर्य अपने तेज के साथ अपने अंग से जुड़ा रहे । |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. ऋग्वेद - 3.62.10
2. वाषम ए.एल. अद्भूत भारत, शिवलाल अग्रवाल एण्ड कम्पनी, आगरा, पृ. 15-15
3. पाण्डेय, जे.एन. पुरातत्व विमर्श, प्राच्य विद्या संस्थान, इलाहाबाद, 2000, पृष्ठ 417
4. शुक्ल, एम.एल., आवाज और हम, विद्या विहार, नई दिल्ली, 1990, पृष्ठ 61-62
5. शर्मा, लीलाधर, भारतीय संस्कृति कोष, राजपाल एण्ड संस, दिल्ली, 1995, पृष्ठ 537
6. वामन पुराण, 14.26
7. शतपथ ब्राह्मण - 5.3-5.17
8. शर्मा, दामोदर एवं व्यास, हरिशचन्द्र, आधुनिक जीवन और पर्यावरण, प्रभात प्रकाशन, दिल्ली, 1991, पृष्ठ 292-293
9. शर्मा, लीलाधर - पृष्ठ 523
10. पर्यावरण चेतना, म.प्र. हिन्दी ग्रंथ अकादमी, भोपाल
11. हमारा पर्यावरण, गांधी शांति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली
12. शुक्रदेव प्रसाद - पर्यावरण और हम
13. शर्मा दामोदर - आधुनिक जीवन और पर्यावरण
14. व्यास हरिश्चंद्र - जनसंख्या प्रदूषण और पर्यावरण
15. व्यास किशोरीलाल - भारतीय संस्कृति और पर्यावरण |