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अवध के नवाबकालीन समाज | |||||||
Nawab Society of Awadh | |||||||
Paper Id :
17094 Submission Date :
2023-01-13 Acceptance Date :
2023-01-23 Publication Date :
2023-01-24
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सारांश |
अवध एक क्षेत्र, एक सूबे और एक ऐसे सांस्कृतिक प्रदेश का नाम है जो अपने राजनीतिक इतिहास, अपनी भाषा एवं संस्कृति के लिए दूर-दूर तक प्रसिद्ध है। यह रघुवंशीय साम्राज्य से लेकर नवाबों के शासनकाल तक अवध सूबे की सामाजिक, भौगोलिक और राजनैतिक दशाऐं समय-समय पर बदलती रही है।
अवध की शालीनता अनुकरणीय रही है। बड़ों का सम्मान और छोटों को स्नेह करना यहाँ की परम्परा रही हैं। अवध अपने अतिथि सत्कार के लिए विश्व विख्यात है। हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रभाव को भी शोध पत्र में व्यक्त करने का प्रयास किया गया है। साथ ही साथ इसमें जो एक सामाजिक गत्यात्मकता (Mobility) थी उस पर भी प्रकाश डालने का प्रयास किया गया है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Awadh is the name of a region, a province and a cultural region which is famous far and wide for its political history, its language and culture. The social, geographical and political conditions of the Awadh province have been changing from time to time from the Raghuvanshi kingdom to the reign of the Nawabs. Awadh's decency has been exemplary. It has been a tradition here to respect the elders and love the younger ones. Awadh is world famous for its hospitality. An attempt has also been made to express the impact of Hindu-Muslim unity in the research paper. At the same time, an attempt has been made to shed light on the social mobility that was there in it. |
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मुख्य शब्द | अवध, समाज, एकता। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Awadh, Society, Unity. | ||||||
प्रस्तावना |
अवध एक ऐतिहासिक स्थल रहा है यहाँ बहुत सारे वर्गों एवं सम्प्रदायों के लोग रहते चले आ रहे है और सभी के संयुक्त प्रयास से लखनऊ शहर (अवध) आज का रूप लेकर हमारे सामने विधमान हैं इसमें संदेह नहीं है कि अवध की समृद्धि में हिन्दू मुस्लिम, उलेमा, उमरा व अन्य वर्गों का विशेष महत्व रहा हैं।
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अध्ययन का उद्देश्य | अवध के किस्सों में लंबी यात्राएं हैं भारतीय समाज की आंतरिक संरचना में जाति और वर्ण आदि की सकारात्मक और नकारात्मक धारणा क्या है यह समझने का प्रयास किया गया है अवध के समाज में निम्न वर्ग और उच्च वर्ग के बीच की सामाजिक तथ्यात्मकता को दर्शाने का प्रयास किया गया है। |
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साहित्यावलोकन | हिन्दू समाज हिन्दूओं की जब अवध में बात आती है तो सर्वप्रथम कश्मीरी पण्डितों का नाम आता है। इनका अवध में आना तब शुरू हुआ जब मुगल साम्राज्य के इस सूबे का केन्द्र, अयोध्या के पास, बंगला था जो बाद में फैजाबाद के नाम से प्रसिद्ध हुआ। मुगल बादशाह मुहम्मदशाह ने ईरान से आए हुए सरदार मीर मुहमद सआदत खाँ को बुरहानमुल्क का खिताब देकर 1722 ई० में अवध का सूबेदार घोषित किया। उन्होंने बंगला को अपनी राजधानी बनाया किन्तु उनका रहना सहना लखनऊ में भी था बुरहानुल्मुल्क ने अपनी सैनिक और प्रशासनिक व्यवस्था में हिन्दुओं के उच्च पदों पर नियुक्त कर एक ऐसी परम्परा की नींव रखी जिसका अनुसरण उसके उत्तराधिकारी भी करते रहे। इस प्रकार हिन्दुओं में पूर्ण विश्वास प्रदर्शित करते हुए अवध के नवाबों ने उनकी धार्मिक आस्था में किसी प्रकार का हस्तक्षेप नहीं किया। इतना ही नहीं, हिन्दू आस्थाओं में अनेक बार विश्वास प्रदर्शित करते हुए इन शासकों ने अवध में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों का एक नया अध्याय जोड़ा। उनके बाद उनके दामाद सफदरजंग उनके उत्तराधिकारी हुए। जो दिल्ली दरबार की राजनीति में भी महत्वपूर्ण बने रहें। उनके पुत्र शुजाउद्दौला अवध के तीसरे नवाब बने जिन्होंने फैजाबाद को अपनी राजधानी का रूप दिया। चौथे नवाब आसफुद्दौला ने 1775 ई0 में लखनऊ को राजधानी बनाया तो सरकारी सेवा में लगे कश्मीरी पण्डित भी लखनऊ में आ गए। लखनऊ में कश्मीरी पण्डित बड़ी संख्या में चौथे नवाब आसफुद्दौला (1775-1797) के शासनकाल में आये जब उन्होंने फैजाबाद के स्थान पर लखनऊ को अवध की राजधानी बनाया। जिस जगह पर्दा प्रथा का को आकर बसे वह इलाका कश्मीरी मुहल्ले के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस समय था। इसी कारण हवेली में चोर रास्ते हुआ करते थे, ताकि औरतों को एकहवेली से दूसरी हवेली में जाने के लिए सड़क पर न चलना पड़े। अवध प्रान्त में विभिन्न धर्मों को मानने वाली विभिन्न जातियाँ थीं। हिन्दू समाज में बहुदेववाद प्रथा अत्यन्त प्राचीन काल से थी। बहुविवाह एक प्रचलित रीति थी। प्रेमिकाओं व वेश्याओं पर अपार धन व्यय किया जाता था। जुआ भी प्रचलित था। अवध के हिन्दू समाज में कुछ और भी कुप्रथाएं प्रचलित थी इनमें से एक ओर थी सती प्रथा स्त्री अपने पति की अंत्येष्टि की चिता में बैठ जाती थी, उसकी गोद में पति का सिर रख दिया जाता था। श्रद्धालू लोगों का समूह दोनों ओर खड़े होकर इस दृश्य को देखता था। मुगल सम्राट अकबर ने जब फारसी को राज्य की भाषा बनाया तो इसे सीखने वाले कायस्थ ही थे। परिणाम यह हुआ कि उन्हें प्रशासन में प्रवेश आसानी से मिल सका। बुरहानुल्मुल्क के हरम के दरेगा राय केशमराम भी कायस्थ थे। उन्होंने जिन राजा अमृतलाल को अपना दीवान नियुक्त किया वे भी कायस्थ थे। सफदरजंग जो अवध के दूसरे नवाब बने उनके सबसे विश्वासपात्र महाराजा नवल राय थे जो सक्सैना कायस्थ थे उनको नवाब दोयम कहा जाता था। उनको पर्दा माफ था। नवाब उन पर पूर्ण विश्वास करते थे। आसफुद्दौला के काल में सबसे पहले नाम राजा टिकैतराय का जाना जाता है। टिकैतराय ने उस काल में 20/- मासिक पर नौकरी शुरू की थी और अपनी योग्यता से उनके नवाब बन गए। वास्तव में वे अवध के सबसे मूल्यवान रत्न थे। बाराबंकी, रायबरेली, लखनऊ, कानपुर, बदायूँ, कलकत्ता आदि के गजेटियर में उनका उल्लेख करते हुए लिखा है- "ही वाज ए मैन ऑफ ग्रेट पब्लिक स्पिरिट ।" मुस्लिम समाज अवध में मुस्लिम समाज का नाम शिया शासन की याद दिलाता है। मुगल सम्राट अकबर ने अपने साम्राज्य को 12 सूबों में विभाजित किया। जिनमें एक अवध था जिसका मुख्यालय लखनऊ था। अन्य सूबों के समान यहाँ भी सूबेदार नियुक्त किए जाते थे औरंगजेब (1618-1707) के बाद मुगल शासन कमजोर पड़ने लगा तो सूबेदारों के लिए अपने सूबे को नियंत्रण में रखना कठिन हो गया। उस स्थिति का अनुमान इस बात लगाया जा सकता है कि 1707 ई० और 1722 ई० के बीच अवध में एक के बाद एक लगभग 13 सूबेदार नियुक्त किए गए थे पर वे सूबे को नियंत्रित न कर सकें। 1722 ई० में मुगल सम्राट मुहम्मद शाह ने अपने एक ईरानी मूल शियाफौजदार सैयद मुहम्मद अमीन (सआदत खा) को अवध का सूबेदार नियुक्त किया। उसे बुरहानुल्मुल्क के साथ 'नवाब' (सम्राट का प्रतिनिधि) की उपाधि प्रदान की गयी अर्थात् सम्राट की ओर से काम करने या निर्णय लेने का अधिकार मिल गया। उसने लखनऊ के उद्दण्ड शेखों को कुशलतापूर्वक दबा दिया परन्तु अपना मुख्यालय अयोध्या के निकट सरयू के किनारे बनाया, उसी के पास में फैजाबाद की स्थापना हुई जहाँ 1775 ई0 तक अवध के नवाबों की राजधानी रही वास्तव में अवध के नये शासकों की सामाजिक दृष्टि प्रथम नवाब के शासन से ही प्रकट होने लगी थी जिसका उसके उत्तराधिकारियों ने विस्तार किया। वास्तव में अवध के शिया नवाबों के शासन में लखनऊ में जिस विशेष तहजीब या संस्कृति का विकास हुआ। जिसके लिए यह शहर सारे संसार में जाना जाता है। उसकी नींव आसिफुद्दौला ने ही रखी। नवाब की उदारता का यह हाल था कि 1784 ई0 में जब अकाल पड़ा तो उन्होंने लोगों का काम देने के लिए बड़ा इमामवाड़ा बनवा डाला। सामान्य लोगों की तकलीफों को दूर करने के लिए राजा टिकैतराय के अनुसार रिफाहे आम (relief to all) का प्रव किया कि हर लखनऊवासी की जुबान पर था। “जिसको न दे मौला, तिसको दे आसिफुद्दौला" लखनऊ के शिया नवाब वजीरों व बादशाहों ने अवध समाज की बुनियाद को एकता और आपसी भाईचारे की रस्सी से ऐसा बांध दिया जो कि पूरी दुनिया में अपने आप में एक मिसाल के रूप में है। उमरा वर्ग भारत में उमरा वर्ग कोई विधिसम्मत परम्परागत वर्ग नहीं था। "उमरा शब्द (अमीर का बहुवचन) मुगलकाल में सामान्यतः उन सभी अधिकारियों के लिए प्रयुक्त होता था जो अमीर वर्ग से थे। अमीरों अर्थात उमरा वर्ग का महत्व केवल सुल्तान की कृपा पर ही निर्भर रहता था अमीरों की स्थिति जैसा की सल्तनत काल से ही रही थी की गद्दी से उतारना और बैठाने के कार्य के रूप में ही बना रहा इससे सिद्ध होता है अमीरों को प्राय आंतरिक शासन में स्वतंत्रता प्राप्त थी राजवंशों के उत्थान और पतन दोनों में ही अमीरों का हाथ था आधुनिक इतिहासकार आई एच कुरेशी बताते हैं कि "अमीर राजा के सामने कभी नहीं झुके, झुके तो सिर्फ अपने हितों के सामने"। बड़े-बड़े अमीरों की जीवन शैली तड़क-भड़क से भरी हुई थी। जिसके पास बड़ी-बड़ी बहुमंजिली इमारतें थी, जिनके बगीचे और अशस्त्र जल प्रवाह की व्यवस्था होती थी, विशाल हरम होता था और भारी संख्या में नौकर चाकर होते थे। दक्कन में एक अमीर के रहने लायक एक मकान की लागत 1,50,000/- आती थी। मुलायम, भारी गलीचे कीमती पर्दे और जड़ाऊ उपस्कर, जिसमें पलंग, दर्पण, कुर्सियाँ और मेजें शामिल होती थी, आवश्यक समझे जाते थे। छत में भरपूर जड़ाई होती थी व फर्श और दीवारों पर प्लास्टर, खाने-पीने पर भी पैसा खर्च किया जाता था। चीनी बर्तनों के अलावा जो अपने आप में बहुत मंहगे होते थे। सोने चांदी के बर्तन भी इस्तेमाल किए जाते थे, अपने शरीर के विभिन्न अंगों को सजाने हेतु दोनों ही स्त्री-पुरूष आभूषणों का उपयोग के आदी थे। 18वीं शताब्दी में इस दौर में भारी संख्या में उमरा वर्ग, विद्वान व कवि समीपवर्ती जात रियासतों एवं अन्य शहरों जैसे फरूखाबाद, लखनऊ और फैजाबाद आदि में चले गए इसलिए राजनीतिक शक्ति व संरक्षण के नए केन्द्र के रूप में अवध, फर्रुखाबाद, मुर्शिदाबाद, हैदराबाद उभर रहे थे। उलेमा वर्ग 16 वीं शताब्दी में उलेमाओं की भूमिका अधिक रही। किन्तु 17 वीं शताब्दी में उलेमा वर्ग में कमी आ गयी थी मुगलों में अकबर ने उलेमाओं को विशेष महत्व नहीं दिया और जहाँगीर व शाहजहाँ के काल में उलेमा शासन कार्यों में हस्तक्षेप करने से बचते रहे किन्तु औरंगजेब के शासनकाल में फिर से उलेमा वर्ग शक्तिशाली हुआ। अकबर के शासनकाल में बदायूँनी ने लिखा है एक रात उलेमाओं की गर्दनों की नसे आवेश में तन गई और भयंकर कोलाहल मचने लगा। शहंशाह उनके इस व्यवहार से बहुत क्रोधित हुआ। उलेमाओं को खुश करने के लिए गैर इस्लामी माने जाने वाले रीति रिवाजों पर रोक लगाकर तो खुश किया ही साथ ही उसने मस्जिदों और फकीरों के आवास की मरम्मत करवायी तथा वैतानिक इमाम, मुअज्जम और चाकर भी नियुक्त किए। स्पष्ट है कि इन कार्यवाइयों के मुख्य लाभानुभोगी उलेमा थे।" उलेमा के साथ तथा उनके लोगों में उनकी पगड़िया भी अलग होती थी। अब के कपड़ों के साथ सिर पर केवल एक रूमाल डाला जाता जिसका चलन आज भी है हिन्दुस्तान के उलेमाओं के पहले सुन्नत ने दिल्ली के दरबार तक संस्कृति प्राप्त कर ली थी और इसी संस्कृति के साथ इस लिबास को निभाया। आज भी हिन्दुस्तान की संस्कृति में यह कायम है।" हिन्दू मुस्लिम एकता अवध में सबसे बड़ा उदाहरण हिन्दू मुस्लिम एकता का मिलता है। माना जाता है कि अवध के तीसरे नवाब शुजाउद्दौला अयोध्या के हनुमान गढ़ी के पुजारी द्वारा दी गयी भभूत से अपनी पुरानी बीमारी से मुक्त हुए और हनुमान गढ़ी का मन्दिर बनाने के लिए जमीन दी जिस पर महाराज टिकैतराय द्वारा बनवाया गया मन्दिर खड़ा है। दूसरा लखनऊ के बड़े इमामबाड़े में महाराज बनारस की ओर से रोशनी होती थी तो बनारस के विश्वनाथ मन्दिर में अवध के नवाब की ओर से शहनाई बजती थी यहाँ तक वाजिदअलीशाह स्वयं कृष्ण लीला किया करते थे और स्वयं कृष्ण की वेशभूषा पहनकर रास लीला किया करते थे । अवध में हिन्दू समाज, मुस्लिम समाज, उलेमाओं और उमराओं की स्थिति अच्छी रही। हिन्दुओं को उच्च पदों पर नियुक्त किया जाता था अवध में बाहर से आने वाले समाज का भी आदर किया गया। इसमें बंग समाज, कायस्थ समाज, कश्मीरी पण्डित भी आये जो अवध में आकर बसे। यहाँ पर उच्च वर्ग की स्त्रियों का सम्मान किया जाता था। किन्तु निम्न वर्ग की स्त्रियों को नवाब अपनी बेगम होने का दर्जा दे देते थे। कहीं कहीं पर यह भी पढ़ने को मिला कि स्त्रियों को मनोरंजन का साधन समझा जाता था।नवाब जिन स्त्रियों को अपनी बेगम स्वीकार कर लेते थे, वे ऐशो-आराम का जीवन व्यतीत करती थी और उन्हें प्रत्येक प्रकार का सुख दिया जाता था किन्तु स्त्रियों के स्वभाव में स्त्रियों से ही ईर्ष्या रखना स्वाभाविक माना जाता है इसीलिए वे एक-दूसरे को नीचा दिखाने के लिए गुप्त योजनाएं बनाती रहती थी। रसेल ने स्त्रियों को सम्मान देते हुए लिखा है कि बेगम हजरतमहल का वजूद दरअसल उसके शौहर से कहीं अच्छा था। उच्च कोटि और निम्न कोटि की स्त्रियों में समानता का भाव नहीं था। बाल-विवाह, सती प्रथा प्रचलित थी। ऊँचे वर्ग में दहेज प्रथा भी प्रचलित थी। बहुपत्नी प्रथा भी प्रचलित थी। शिक्षा हिन्दूओं और मुसलमानों में शिक्षा के प्रति विशेष रूचि रही परन्तु भारतीय शिक्षा का उद्देश्य संस्कृति था, साक्षरता नहीं था। अपने-अपने वर्ग कुल तथा मर्यादा के अनुसार व्यवसायिक प्रशिक्षण प्राप्त करने का भी चलन था जिससे लोगों में विशिष्टता आ जाती थी। हिन्दुओं और मुसलमानों में शिक्षा धर्म से सम्बन्धित थी। मुस्लिम विद्यालयों को मकतब और हिन्दू विद्यालय को पाठशाला कहा जाता था स्त्री शिक्षा अभीष्ट नहीं थी। कोई भी समाज कितना ही सभ्य हो किन्तु उसको नापने का सबसे अच्छा तरीका वहाँ की शिक्षा व्यवस्था को जानना है शिक्षा से ही वहाँ के समाज का पता चल जाता है। नवाबी काल में परम्परागत हिन्दू व्यवस्था के साथ ही साथ मुस्लिम शिक्षा व्यवस्था भी थी। इस समय परम्परागत गुरूकुल स्थापित थे ही साथ ही साथ पाठशालाएँ भी स्थापित थी जिनमें विद्यार्थियों को लेखा-जोखा सिखाया जाता था गुरू अपने शिष्यों का विशेष ध्यान रखते थे। तेरहवीं सदी में एक ब्राह्मण, जिसका नाम बुद्धि शर्मा था ने लखनऊ की कम्पनी बाग में एक पाठशाला व एक यज्ञशाला का निर्माण करवाया था। छात्रों को उच्च शिक्षा प्राप्त करने हेतु माध्यमिक पाठशालाओं में जाना पड़ता था। यहाँ छात्रों को भोजन, वस्त्र व पुस्तकें निःशुल्क दी जाती थी।लखनऊ में एक फ्रांसिसी व्यापारी के भवन को औरंगजेब ने निजामुद्दीन को रहने के लिए दे दिया। निजामुद्दीन ने यहाँ शिक्षा हेतु विद्यालय बनाये जाने की नींव रखी। ये भवन ही बाद में 'फिरंगी महल' के रूप में प्रसिद्ध हुआ। मुस्लिम शिक्षा दो प्रकार से विद्यालयों में दी जाती थी- एक नवीन मकतब (प्राथमिक पाठशाला) जो छोटी होती थी। यहाँ मौलाना बच्चों को निःशुल्क शिक्षा देते थे और कुरान शरीफ का सही अर्थ समझाते थे। दूसरा उच्च शिक्षा हेतु संज्ञा मदारिस उच्च शिक्षा संस्थान होते थे जहाँ एक विषय में विशिष्टता हासिल की जाती थी। इसके अतिरिक्त 'खानकाह' भी होते थे ये धार्मिक संस्थाएं थी जहाँ रहकर सूफी धर्मोपदेश देते थे। लखनऊ में ऐसे मदरसे मस्जिदें थी। कहा जा सकता है कि यह नवाबी स्वरूप आज भी विद्यमान है। महिलाओं की शिक्षा पर मुस्लिम समाज में थोड़ा बहुत ध्यान अवश्य दिया गया किन्तु यह केवल उच्च वर्गों तथा सम्पन्न परिवारों तक ही सीमित रहा। सामान्यतः मुस्लिम शिक्षा अपने धार्मिक दायरे से ऊपर ही नहीं उठ पायी थी। ऊवाधारीय और क्षैतिज सामाजिक गत्यात्मकता समाज में सबसे महत्वपूर्ण स्थान सम्राट का होता है इसका अनुकरण अभिजात वर्ग करता था। ये लोग वित्तीय कठिनाईयों के होते हुए भी ऐश्वर्यमय जीवन व्यतीत करते थे। सबसे नीचे ग्राम में रहने वाला कृषक तथा हस्तशिल्पी होते थे जो प्रायः निर्धनतापूर्ण जीवन व्यतीत करते थे। हिन्दू समाज में जाति प्रथा का बहुत महत्व था। प्राचीनकाल से ही जाति का महत्व तो रहा ही है इसी तरह अवध में भी हिन्दू समाज में जाति के कारण ही विकास नहीं हो पाया, क्योंकि उदाहरण के लिए एक ब्राह्मण जाति का व्यक्ति एक शूद्र जाति के व्यक्ति को उतना सम्मान नहीं पाता था जितना कि वह अपनी जाति के व्यक्ति को देता था यदि एक शूद्र जाति का व्यक्ति पद पर विद्यमान होता था तो सामाजिक स्तर पर ही उसका सम्मान किया जाता था किन्तु उस अपने मानसिक स्तर पर सम्मान नहीं मिल पाता था। कोई भी एक उच्च जाति का व्यक्ति अपनी पुत्री का विवाह निम्न जाति के लड़के से नहीं करता था। चाहें वह किसी उच्च पद पर ही विद्यमान क्यों न हो किन्तु मुस्लिम वर्ग में ऐसा नहीं था जातियाँ तो मुस्लिम वर्ग में भी थी किन्तु हम यहाँ देखते है कि यदि कोई निम्न जाति का मुस्लिम उच्च पद पर होता था तो उच्च जाति के मुस्लिम को अपनी पुत्री का विवाह करने में कोई ऐतराज नहीं होता था । धीरे-धीरे हिन्दुओं में निम्न जाति के लोगों में यह स्पर्धा तो आई कि वह अपनी क्षमता के अनुसार उच्च पद ग्रहण करने लगा, लेकिन सामाजिक स्थान में वह निम्न जाति का ही माना जाता था। |
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निष्कर्ष |
अवध में गंगा जमुनी तहजीब रही है जिसके रहते सभी वर्ग में सामंजस्य पूर्ण व्यवहार था। वाजिद अली शाह स्वयं हिंदुओं के त्योहारों में सम्मिलित होने का उदाहरण मिलता है अंत में कहा जा सकता है कि अवध की जनता में किसी भी प्रकार का नवाबों के प्रति कोई रोष नहीं था। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. हमारा लखनऊ पुस्तकमाला - तृतीय पुष्प-लखनऊ के कश्मीरी पण्डित - डॉ० बैकुण्ठनाथशर्मा - पृ० 10
2. अवध के प्रमुख कवि डॉ० ब्रज किशोर मिश्र पृ0 57-58
3. हमारा लखनऊ पुस्तकमाला - अष्टम पुष्प लखनऊ का कायस्थ समाज हेमन्त कुमार- पृ0 7.
4. वही, पृ0 8
5. मध्यकालीन भारत खण्ड-2- हरीशचन्द्र वर्मा पृ0 824
6. मध्यकालीन भारत सल्तनत से मुगलों तक (1526-1748) सतीशचन्द्र पृ0 286
7. गुजश्त लखनऊ- मौलाना अब्दुल हलील शरर पृ0 222-223
8. अवध के तालुकदार, लेखक-पवन बख्शी, रूपा पब्लिकेशन 2012
9. "अवध सिंफनी," असलम महमूद, रूपा पब्लिकेशन फर्स्ट एडिशन 2017,
10. 1857 अवध का मुक्ति संग्राम" अखिलेश मिश्र ,संपादक वंदना मिश्रा, राजकमल प्रकाशन 2020
11. अखिलेश मिश्र संपादक वंदना मिश्र राजकमल प्रकाशन ,2020 नई दिल्ली |