ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
पूर्व मध्यकालीन भारत में स्त्रियों की दशा एक सूक्ष्म अध्ययन
A Microscopic Study of the Condition of Women in Early Medieval India
Paper Id :  17027   Submission Date :  03/01/2023   Acceptance Date :  20/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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शालिनी गुप्ता
प्रवक्ता
इतिहास विभाग
जवाहर लाल नेहरू मेमोरियल पी0जी0 कालेज
बाराबंकी,(उ0प्र0) भारत
सारांश वैदिक कालीन भारत में नारी पूजा थी किन्तु इसके उपरान्त विभिन्नकारणों के वशीभूत नारी की स्थिति का पतन होता चला गया। यह पतनक्रमिक रूप में हुआ है, जिसके परिणाम स्वरूप नारी की दो असुधायें सामने आती हैं। भक्तिकालीन अवधि में नारी को पुरुष से बहुत दूर कर दिया गया। उसका सानिध्य पुरुष के पतन का कारण प्रमाणित किया। भक्तिकालीन कवि कबीर दास ने कहा है कि- ‘‘नारी की झाई परत अना होत भुजंग। कबिरा तिन की क्यागति, जेनित नारी संग।।’’ कबीर की इस घोषणा ने नारी के प्रति समाज में हेय भावना को उत्पन्न किया इसी प्रकार कवि तुलसीदास ने नारी पर पूर्ण अविश्वास कारण कह डाला कि ‘‘ढोल गंवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।" इस प्रकार मध्यकालीन भारत में महिलाओं की स्थिति अत्यन्त शोचनीय थी जहां प्राचीन भारत में नारी पूज्य थी बाद के समय में उसे घृणा व उपेक्षा के योग्य समझा गया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Women were worshiped in India during the Vedic period, but after that, the status of women started deteriorating due to various reasons. This has happened in a progressive way, as a result of which two difficulties of women come to the fore. In the Bhakti period, the woman was kept far away from the man.
Her association proved the reason for the downfall of man.
The devotional poet Kabir Das has said that-
‘‘नारी की झाई परत अना होत भुजंग।
कबिरा तिन की क्यागति, जेनित नारी संग।।’’
This declaration of Kabir created a sense of contempt towards women in the society. Similarly, poet Tulsidas, because of complete disbelief on women, said that ‘‘ढोल गंवार शुद्र पशु नारी। सकल ताड़ना के अधिकारी।" Officer of gross chastisement. Thus, the condition of women in medieval India was very deplorable where in ancient India women were worshiped, in later times they were considered worthy of hatred and neglect.
मुख्य शब्द वैदिक साहित्य, समकालीन, हेय दृष्टि, अल्पावस्था, सीथियन जाति, तुरही, नक्कारे, सरोवर, अनुसरण, हृदय विदारक, अमानवीय कृत्य, हरम, परिणति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vedic Literature, Contemporary, Heya Vision, Shortness, Scythian Caste, Trumpet, Nakkare, Sarovar, Pursuance, Heart-rending, Inhuman Act, Haram, Consequence.
प्रस्तावना
समाज में स्त्रियों के प्रति उस समाज की मनोधारणा का सामाजिक महत्व होता है। किसी भी सभ्यता के विकसित स्वरूप को समझने तथा उसकी सीमाओं का मूल्यांकन करने का सर्वोत्तम उपाय यह है कि तत्कालीन समाज में स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन किया जाय।
अध्ययन का उद्देश्य हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही परिवारों में कन्या जन्म को अप्रसन्नता की दृष्टि से देख जाता था। अमीर खुसरों लड़की पैदा होने पर दुःख प्रकट करता है तथा उसे परदे में रहने की सलाह देता है। लड़की परिवार के लिए अनचाहा मेहमान समझी जाती थी। राजपूत परिवार में उस माता को हेय दृष्टि से देखा जाता था जिसके गर्भ से लड़की उत्पन्न होती थी। प्रसव काल में न उसकी समुचित देख भाल की जाती थी और न ही नवजात शिशु का सत्कार किया जाता था। मध्यकाल से पूर्व बाल हत्या का प्रचलन नहीं था। आलोच्य काल में इसका उल्लेख मिलता है। हिन्दू मुख्यता राजपूत प्रायः जन्म लेते ही कन्या को अफीम आदि खिलाकर मार डालते थे। दहेज प्रथा का प्रचलन राजपूतों में अधिक था। राजपूत विवाह का खर्च उठाने में असमर्थ होने के कारण अपनी कन्याओं को जन्म लेते ही मौत की नींद सुला देते थे। कर्नल टाॅड ने सविस्तार कन्या शिशु हत्या के कारणों का उल्लेख किया है।
साहित्यावलोकन
भारतीय समाज में क्रमशः होने वाले राजनैतिक एवं सामाजिक परिवर्तन के फलस्वरूप स्त्रियों की स्थिति में भी परिवर्तन हुआ। वैदिक काल में स्त्रियों की स्थिति सम्मानजनक थी। वह प्रत्येक सामाजिक, धार्मिक एवं बौद्धिक क्षेत्र में भाग लेती थी। वैदिक साहित्य में नारी को देवी के रूप में प्रस्तुत किया गया है। परवर्ती युग यद्धपि नारी जीवन में कुछ गिरावट आई किन्तु उनका सामाजिक जीवन अधिक स्वतंत्र था। हिन्दू काल में स्त्रियों की स्थिति मुस्लिम काल की अपेक्षा अच्छी थी। मुस्लिम युग में स्त्रियों की स्थिति में निरंतर गिरावट आती गई। समकालीन विवरण से ज्ञात होता है कि समाज में पर्दा प्रथा प्रचलित थी। पुत्रों के रूप में उसे पिता, स्त्री के रूप में पति तथा विधवा हो जाने पर बड़े पुत्र के संरक्षण में जीवन यापन करना पड़ता था। समाज में प्रचलित, बालहत्या, बहु विवाह, सती प्रथा, दहेज प्रथा तथा पर्दे की प्रथा का प्रचलन था। मुस्लिम आक्रमकों के अमानवीय कृत्यों के भय के फलस्वरूप हिन्दू समाज के जौहर जैसी प्रथा का भी प्रचलन हो गया था जिसने नारी जीवन को अत्यन्त दयनीय बना दिया था। इस्लाम धर्म  में स्त्रियों को स्वतंत्रता प्रदान करने के पक्ष में नहीं था। इस्लाम धर्म में बाल-विवाह, बहुविवाह तथा तलाक की प्रथा का प्रचलन था। 
मुख्य पाठ

सल्तनत काल के हिन्दू परिवारों में बाल विवाह का प्रचलन था। माता-पिता अपनी कन्याओं का विवाह बाल्यावस्था में सम्पन्न कर अपने को भाग्यशाली समझते थे। बंगाल में 9 वर्ष की उम्र में लड़कियों की शादी कर दी जाती थी। कभी-कभी समाज में दहेज से छुटकारा पाने हेतु माता-पिता लड़कियों की शादी पाँच या छः वर्ष में कर देते थे।[1] बाल विवाह के प्रचलन में मुस्लिम सैनिकों के आतंक पूर्ण कार्य ने अधिक योगदान दिया। मुस्लिम सैनिक प्रायः अविवाहित लड़कियों का विवाह कम उम्र में ही सम्पन्न कर भावी आपदाओं से छुटकारा पा जाते थे।[2] मुस्लिम समाज में भी बाल विवाह का उल्लेख मिलता हैं विवाह के समय राजकुमार खिज्रखान की उम्र 10 वर्ष तथा देवल रानी की उम्र 8 वर्ष थी।[3] सुल्तान फिरोज तुगलक के शासन काल में अमीर अपनी पुत्रियों की शादी अल्पावस्था में कर देते थे। पुत्रियों की शादी के लिए राजकोष से धन प्राप्त होता था।[4]

दहेज प्रथा:

मध्य युग में दहेज, प्रथा का व्यवस्थित उल्लेख मिलता है।[5] दहेज के अभाव में लड़कियों का विवाह एक कठिन समस्या थी। राजस्थान में इसका प्रचलन विशेष रूप से था।[6] कर्नल टाॅड ने दहेज प्रथा का वर्णन किया है। दहेज के कारण बहुत सी राजपूत कन्याओं ने विष खाकर अपने जीवन को समाप्त कर दिया।[7] बंगाल में दहेज प्रथा का प्रचलित स्वरूप इतना कठिन था कि कन्या के पिता को कभी-कभी दहेज के रूप में कन्या की बहन को भी समर्पित करना पड़ता था।[8] पिता को दहेज के अभाव में योग्य वर की उपेक्षा कर देनी पड़ती थी।[9]

बहुविवाह:

कुलीन वर्ग एक से अधिक विवाह करने में आगे थे। राजपूत लोग बहु विवाह के पक्ष में अधिक थे। कर्नल राॅड ने लिखा है कि सप्ताह में जितने दिन होते उतनी रानियाँ रखना राजपूतों में असमान्य बात नहीं थी।[10] मुस्लिम समाज में बहुत विवाह का प्रचलन अधिक था। उनका धर्म ग्रन्थ कुरान भी उन्हें 4 विवाह करने की अनुमति प्रदान करता है।[11] शासकों द्वारा मुख्य पत्नियों के अतिरिक्त उप पत्नियों तथा रखैलों को रखने की कोई निश्चित नियम नहीं था।27 मुबारक शाह खिलजी से साम्राज्य हड़पने के बाद खुसरों खाँ ने उसकी पत्नियों पर अधिकार कर विवाह कर लिया था।[12] इसी प्रकार इब्नबतूता ने अपने जीवन काल में 4 विवाह किया था।[13] अलाउद्दीन खजली ने गुजरात के राजा करण देवी की पत्नी कमला देवी को अपनी रानी बना लिया था।[14] सल्तनत काल में मुस्लिम शासकों की पत्नियों एवं रखैलों की संख्या अधिक थी उनके रहने के लिए अलग से हरम की व्यवस्था की गई थी।

सती प्रथा:

प्राचीन हिन्दू समाज में सती प्रथा के प्रचलन का उल्लेख मिलता है।[15] पति के मृत्यु के पश्चात् हिन्दू स्त्री अपने पति के शव के साथ चिता पर जलकर अपनी जीवन समाप्त कर देती थी। पति के शव के साथ पत्नी के जीवित जलने की प्रक्रिया को सती कहा था। भारत में इस प्रथा का प्रचलन सिथियन जातियों द्वारा आने पर हुआ। इनमें सती प्रथा का पालन किया जाता था। जिसे सहज ही में आर्यो द्वारा अपना ली गई।[16] भारत में इसका प्रचलन मुख्यतया ऊँची जातियों में था।[17] तेरहवीं सदी के पश्चात् सती प्रथा का व्यापक रूप में प्रसार हुआ। 14वीं शताब्दी का अरब यात्री इब्नबतूता ने सती प्रथा के हृदय विदारक दृश्य आँखों देखा विवरण प्रस्तुत किया है। उसके अनुसार जब वह अजमेर में नियुक्त था वहां सात काफिर हिन्दू मारे गये। इनमें तीन की पत्नियाँ थी। उन्होंने अपने को अग्नि में जला डालने का निश्चय किया। पति के मृत्यु का समाचार पाकर वे खूब गाती-बजाती रहीं, फिर स्नान कर सुगन्धित द्रव्यों का सेवन कर बहुमूल्य वस्त्रों के साथ सती होने के लिए तैयार हुई। वे दाहिने हाथ में नारियल तथा बांये हाथ में दर्पण लिए घोड़े पर बैठ गई। शीघ्र ही एक जुलूस तैयार हो गया जिसमें लोग आगे-आगे तुरही, नक्कारे तथा बिगुल बजाते हुए चल रहे थे। जुलूस एक सरोवर पर पहुँचता जहाँ झाड़ियां एवं गुम्बद बने थे। स्त्रियों ने सरोवर में स्नान किया तत्पश्चात अपने आभूषण एवं वस्त्र दानकर दिये और मोटी साड़ी धारण की। मानसरोवर के नीचे अग्नि प्रज्जवलित की गई इस पर सरसों का तेल छोड़ा गया। उस चिता के पास आकर जहां पहले से आग के सामने रजाई लगा दी गई थी। स्त्रियों ने कहा तुम मुझे आग से डराते हो। तत्पश्चात् अदम्य साहस से अभिवादन कर अपने को चिता में डाल दी। उपस्थित लोग जो लकड़ियों की टुकड़ी लिए हुए थे चिता पर डाल दिया तथा शोर करने लगे। इसके साथ ही नगाड़े बज उठे विवरणकर्ता वहां उपस्थित था यह दृश्य देख कर बेहोश हो गया।[18]

कभी-कभी पति के शव के बिना भी सतीत्व व्रत का पालन किया जाता था। इसे ‘अनुसरण’ कहा जाता था। ‘सहमरण’ में विधवा अपने पति के शव के साथ-साथ चिता पर जल जाती थी।[19] इब्नबतूता एवं अन्य इतिहासकारों ने सहमरण का उल्लेख किया है। गर्भवती विधवाएं प्रायः शिशु को जन्म देने के पश्चात् सती का पालन करती थी। राजा रतनसेन की पत्नियां नागमति और पद्मावत् ने पति के मृत्यु के पश्चात् जीवन भर के वैमनस्य त्याग कर एक ही चिता पर सती हो गई।[20] बंगाल में भी सती प्रथा का प्रचलन था। सहज में भयभीत होने वाली बंगाली स्त्रियाँ अग्नि में कूद पड़ती थी।[21] सल्तनत काल में मुहम्मद बिन तुगलक के पूर्व के किसी सुल्तान ने इसको रोकने का प्रयास नहीं किया। मुहम्मद तुगलक के काल में सती होने के लिए राज्य से अनुमति लेनी पड़ती थी।[22] हिन्दू समाज में इस प्रथा को प्रोत्साहित करने में पति पत्नी के बीच पारलौकिक जीवन के पवित्र धार्मिक सिद्धान्त ने काफी योगदान दिया।[23] सती व्रत का पालन करने वाली स्त्री के परिवार को समाज में बड़ी ख्याति मिलती थी।[24]

जौहर

युद्ध में पराजय के भय से समस्त परिवार को जीवित जल देने की प्रक्रिया को जौहर25 कहा जाता है।[25] ईसा की सातवीं सदी से लेकर मध्यकाल तक मुगलों तथा पठानों द्वारा राजपूतों का भयावह विध्वंस हुआ। इसके फलस्वरूप जो प्रथा समाज में प्रचलित हुई वह कालान्तर तक निर्जीव न हो सकी। जौहर भी इन्हीं वाह्य आक्रमणों के परिणामस्वरूप अंकुरित एक सामाजिक प्रथा भी जो राजस्थान में विशेष रूप में प्रचलित हुई।[26]

जौहर प्रथा का उल्लेख समकालीन मुस्लिम और हिन्दू स्रोत ग्रन्थों में प्राप्य है। भारत में मुस्लिम शासन की स्थापना के पश्चात् सर्वप्रथम जौहर व्रत का पालन 1286 ई0 में बलवन के जैसलमेर आक्रमण के समय किया गया था। इस युद्ध में विशाल संख्या में राजपूत नारियों ने अग्नि का आलिंगन किया तथा 2800 राजपूतों ने अपने प्राणों की आहुति दे दी[27] खजाइनुलफुतूह के लेखक अमीर खुसरो लिखते हैं कि 1301 ई0 में अलाउद्दीन ने रणथम्भौर का घेरा डाल दिया। किले के भीतर खाद्य सामग्री की कमी हो गई। विजय की कोई आशा न दिखने पर जौहर का वीरतापूर्ण कार्य सम्पन्न किया गया।

तुगलक शासन काल में कम्पिला के राजा द्वारा किया जौहर सुस्पष्ट है। वहीउद्दीन गश्तस्प नामक विद्रोही को राजा द्वारा शरण दिये जाने के कारण सुल्तान मुहम्मद तुगलक ने कम्पिला पर आक्रमण कर दिया। राजा ने अपने सम्बन्धियों को सम्बोधित करते हुए कहा- ‘‘मैनें मृत्यु का आलिंगन करने का निश्चय किया है और तुम लोगों में से जो चाहे वह मेरा अनुसरण   करें।’’ सम्राट बाबर द्वारा चन्देरी पर आक्रमण के समय मेदिनी राय द्वारा जौहर के जिस रूप का अनुसरण किया गया वह जौहर इतिहास में अत्यन्त हृदयविदारक एवं भयावह था।[28] विजय की निराशा में मेदिनी राय ने समस्त परिवार के स्त्री-बच्चों को मार डाला तत्पश्चात् राजपूतों ने एक-दूसरे के तलवार से आत्महत्या कर ली। यह प्रथा केवल राजपूतों तक ही सीमित न थी। इसका प्रभाव मुस्लिम समाज पर भी पड़ा। तैमूर के भटनेर विजय के समय उसके सैनिकों के भय से मुस्लिम स्त्रियों ने भी जौहर का पालन किया था।[29] कर्नल टाड ने इसकी समीक्षा करते हुए लिखा है कि राजपूत बालाओं के इस साहसिक कदम ने भविष्य में आक्रांतों द्वारा किये जाने वाले अमानवीय कृत्यों को कम करने में औषधि का कार्य किया।[30]

पर्दा प्रथा:

मध्ययुग में स्त्रियों की सामाजिक एवं धार्मिक जीवन की स्वतंत्रता को बाधित करने में पर्दा प्रथा का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। प्राचीन काल में पर्दा का प्रचलन समाज में नहीं था।[31] स्त्रियाँ प्रायः पुरूषों से पृथक्कता का पालन करती थी तथा बाहर निकलते समय घूंघट कर लेती थी।32 किन्तु पर्दा के जिस स्वरूप का प्रचलन मुस्लिम काल में हुआ वह इस्लाम के प्रभाव का परिणाम था।[33] मुस्लिम सैनिकों के आतंकपूर्ण कार्य का भय ने इस प्रथा को प्रोत्साहित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया।[34]

14-15वीं शताब्दी में  पर्दा प्रथा का प्रसार सम्पूर्ण उत्तरी भारत में हो गया था।[35] मुस्लिम समाज में पर्दा प्रथा का पालन कठोरता से किया जाता था। पर्दा का पालन न करने वाली स्त्री समाज में निकृष्ट मानी जाती।[36] सन्त निजामुद्दीन औलिया स्त्रियों के स्वतन्त्रता के विरूद्ध थे, उनके अनुसार वह दिन कयामत का दिन होगा जब स्त्रियाँ घोड़े की सवारी करेंगी।[37] फिरोज तुगलक ने स्त्रियों की स्वतन्त्रता पर रोक लगा दी। मुस्लिम स्त्रियाँ जो प्रत्येक शुक्रवार को इबादत हेतु सन्तों के मकबरों पर जाया करती थी, को बन्द करवा दिया। उसके अनुसार स्त्रियों द्वारा अपनाया गया मार्ग शरियत के विरूद्ध था।[38] सिकन्दर लोदी ने भी पूर्ववर्ती सुल्तान के मार्ग का अनुसरण किया तथा स्त्री स्वतन्त्रता पर रोक लगा दिया था।[39] दिल्ली के सुल्तान पर्दे का समुचित पालन करवाते थे। इसके लिए ‘हरम’ की व्यवस्था किया था। हरम की देखरेख वृद्धा स्त्रियाँ अथवा हिजड़े करते थे। दस वर्ष से ज्यादा उम्र के बच्चे भी हरम के अन्दर प्रवेश नहीं कर सकते थे। हरम के अन्दर कोई संदेश तीन मध्यस्थों द्वारा होकर गन्तव्य स्थान को पहुँचता था।[40] अमीर लोग अपनी स्त्रियों के लिए आवरणयुक्त डोलियों का प्रयोग करते थे।

मुसलमानों द्वारा इस प्रथा के पालन के प्रति कड़ा रूख अख्तियार करने के कारण गैर-मुस्लिम स्त्रियाँ भी पर्दे का पालन करती थी। 15वीं शताब्दी में इस प्रथा का विकास बंगाल, बिहार में भी अधिक हुआ। इसका उल्लेख विद्यापति और मुहम्मद जायसी के काव्यों में भी मिलता है।[41] हिन्दू कुलीन वर्ग तो मुस्लिम अमीरों के तौर-तरीके अपना लिए तथा बतौर ‘हरम’ का पालन करने लगे थे।42 धीरे-धीरे पर्दा समाज में सम्मान का माप बन गया। हिन्दुओं ने स्त्रियों की पवित्रता की सुरक्षा के लिए उपयोगी समझकर पर्दा अपना लिया था।

तलाक:

हिन्दू समाज में विवाह विच्छेद की सम्भावनाएं अत्यन्त क्षीण थीं। विवाह विच्छेद सामाजिक विधानों के विपरीत माना था। पति का सन्यासी या नपुंसक होने की स्थिति में स्त्री को दूसरा विवाह करने की अनुमति हिन्दू समाज में थी। इसी प्रकार पत्नी के पुत्रहीन होने की स्थिति में पुरूष द्वारा दूसरा विवाह किया जाता था।[43] किन्तु मुस्लिम समाज में ऐसा कोई नियम नहीं था। यदि पति-पत्नी वैवाहिक सम्बन्ध के अन्तर्गत जीवन निर्वाह नहीं कर सकते थे तो तलाक देने की छूट थी।[44] यद्धपि की पैगम्बर साहब ने विवाह विच्छेद को अनुचित ठहराया है परन्तु मुस्लिम समाज में तलाक की प्रथा प्रचलित थी। पुरूष को स्त्रियों की अपेक्षा तलाक देने की अधिक स्वतन्त्रता थी।[45] तलाक में पति को निश्चित अवधि तीन माह तक की प्रतीक्षा करनी पड़ती थी। इस अवधि में पुरूष द्वारा तलाक की घोषणा तीन बार करनी पड़ती थी। पहली दो बार की घोषणा तक पति-पत्नी को एक साथ रहने की व्यवस्था थी किन्तु तीसरी और अंतिम बार तलाक की घोषणा हो जाने पर वह विवाह विच्छेद पूर्ण मान लिया जाता था।[46] तलाक में साक्ष्यों की उपस्थिति अनिवार्य थी। स्त्री को तलाक की अधिक स्वतन्त्रता नहीं थी। वह पति की सहमति से ही तलाक ले सकती थी।[47] यदि कोई पति अपनी पत्नी को पुनः प्राप्त करना चाहता तो उसे तलाक दी हुई पत्नी के पुर्नविवाह तथा पिछले विच्छेद की इन्तेजारी करनी पड़ती थी।[48] आलोच्य काल में तलाक प्रथा के प्रचलन का उल्लेख मिलता   है।

वेश्यावृति :

प्रारम्भ से ही प्राचीन भारतीय समाज में वेश्यावृति का प्रचलन था। आलोच्य काल में ऐसी स्त्रियों का घर सैनिकों का प्रिय स्थान होता था।[49] समाज में व्याप्त इस बुराई का विस्तृत उल्लेख विद्यापति के काव्य में मिलता है।[50] राज्य द्वारा इस कुरीति को रोकने का प्रयास नहीं किया गया बल्कि उनकी वृद्धि में प्रोत्साहन मिलता था।51 अलाउद्दीन ने आर्थिक नियंत्रण को लागू करते समय, एक सैनिक के कहने पर जो स्वयं एक वेश्यागामी था, वेश्याओं की कीमत भी निर्धारित कर दी। ये निर्धारित मूल्य से अधिक कीमत नहीं ले सकती थी।[52] अलाउद्दीन राज्य में इनकी संख्या अधिक हो जाने के कारण बहुतों को वैवाहिक बन्धन में बंधवा दिया। समाज में पर्दा की कठोरता ने इस प्रथा के प्रचलन में महत्वपूर्ण योगदान दिया।[53] समाज के लिए एक बुराई थी। इससे न केवल स्त्री जीवन कलंकित होता था अपितु पुरूषों का चारित्रिक पतन हो जाता था।[54]

स्त्री शिक्षा:

प्राचीन काल में स्त्रियाँ शिक्षा के क्षेत्र में आगे थी।55 सल्तनत काल में स्त्री शिक्षा का स्तर गिर गया था। सुल्तानों ने स्त्री शिक्षा के प्रति कोई अभिरूचि न दिखाई। शासक तथा अमीर यदा-कदा अपनी कन्याओं की शिक्षा की व्यवस्था अलग से कर दिया करते थे। बेगम रजिया फारसी और अरबी में पारंगत  थी। उसे पूरा कुरान कण्ठस्थ था।[56] मिथिला की रानी लक्ष्मी देवी शिक्षा में अभिरूचि रखती थी

स्त्रियों की राजनैतिक भूमिका:

स्त्रियाँ राजनीतिक क्षेत्र में शून्य न थी। प्राचीन काल में ऐसे अनेक उदाहरण मिलते हैं जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि स्त्रियाँ पति के मृत्यु के उपरान्त प्रशासनिक क्षेत्र में अहम भूमिका का निर्वाह करती थी।58 तेरहवीं शताब्दी में बेगम रजिया का सुल्तान बनना तथा राज्य का संचालन करना स्त्रियों की राजनीतिक भूमिका स्पष्ट नमूना है। वह साम्राज्य को अपने हाथ में केन्द्रित कर खुलेआम दरबार में बैठती थी और शासनतन्त्र को चलाती थी।59 सुल्तान फिरोज की पत्नी मलिकेजहाँ के राजनीतिक हस्तक्षेप के कारण अलाउद्दीन को कड़ा जाकर रहना पड़ा था।60 मलिकेजहाँ फिरोज खलजी की मृत्यु के पश्चात् भी राज्य के कार्यों में हस्तक्षेप करती रही। उसने अपने पुत्र रूक्नुद्दीन इब्राहिम को गद्दी पर आसीन कराने में असफल प्रयास किया। तुगलक शासन काल में स्त्रियों का प्रभुत्व था। सुल्तान मुहम्मद तुगलक की करता मखद्मेजहाँ का हरम की महिलाओं तथा कर्मचारियों पर प्रभुत्व था।61 सुल्तान फिरोज तुगलक की बहन खुदावन्द जादा, मुहम्मद तुगलक की मृत्यु के पश्चात् अपने पुत्र दावरबख्श को शासक बनाना चाहती थी।62 अतः उसने सुल्तान फिरोज तुगलक की हत्या का षड़यन्त्र रचा परन्तु सफल न हुई।[63] लोदी सुल्तानों की हरम की स्त्रियाँ तत्कालीन राजनीति में सक्रिय भाग लेती थी। इस सम्बन्ध में बहलोल लोदी के ज्येष्ठ पुत्र ख्वाजा वायजीद की बीबी मन्तू का नाम विशेष उल्लेखनीय है। जौनपुर के सुल्तान महमूद के आक्रमण के समय वह किले में घिरे। स्त्रियों के साथ पुरूष वेश पहनकर किले की रक्षा बहलोल की अनुपस्थिति में करती रही।[64] तारीखे-दाउदी के लेखक अब्दुल्लाह के अनुसार सुल्तान शर्की की पत्नी ने दिल्ली पर आक्रमण करने के लिए अपने पति को प्रोत्साहित किया था।[65] इसी प्रकार बहलोल लोदी की पत्नी बीबी अम्बा जो सिकन्दर लोदी की माँ भी थी, ने अफगान सरदारों के एक दल को जिसका नेता खानेखाना नुवानी थी, का सहयोग प्राप्त कर अपने पुत्र सिकन्दर लोदी को गद्दी दिलाने का सफल प्रयास किया।[65] जौनपुर के शर्की सुल्तान हुसैन शाह शर्की की माता बीबी खुन्दा बहादुर एवं बुद्धिमान औरत थी। वह राज्य के महत्वपूर्ण प्रशासनिक कार्यों में भाग लेती थीं।[66] बंगाल की स्त्रियाँ पुरूषों के साथ युद्ध में भाग लती थीं।[67]

निष्कर्ष उपरोक्त नकारात्मक तत्वों के साथ ही तत्कालीन भारतीय समाज में स्त्रियों के कतिपय सम्मानित पक्ष भी है। हिन्दू नारी के लिए मातृत्व, आदर्श की चरम परिणति मानी जाती है।[68] माता के रूप में नारी साधारण स्तर से ऊँचा उठ जाती हैं और उसका स्थान समाज में पूज्यनीय हो जाता है। मनु के हजारों पिता की तुलना में माता का स्थान ऊँचा बताया है।[69] हिन्दू समाज में माँ का स्थान सम्माननीय था। राजपूत अपनी माँ का अधिक सम्मान करते थे। वे माता को आदर्श सूचक शब्द ‘माँ’ जी से सम्बोधित करते थे।[70] ये लोग माता की आज्ञाओं का पालन धर्म की भाँति करते थे।[71] किसी कार्य पर जाते समय हिन्दू माँ का चरण छूते थे।[72] मुस्लिम समाज में भी माता को अधिक सम्मान दिया जाता था।[73] मुहम्मद बिन तुगलक अपनी माता का बड़ा सम्मान करता था तथा उसके चरणों का चुम्बन लिया करता था। उसका प्रभाव हरम पर अधिक था सभी लोग उनका सम्मान करते थे।[74]
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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