ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था पर एक अध्ययन
A Study on The Judicial System in Ancient India.
Paper Id :  17004   Submission Date :  2023-01-08   Acceptance Date :  2023-01-22   Publication Date :  2023-01-25
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संजीव कुमार
सहायक आचार्य
इतिहास विभाग
से.ने.म.टी.राजकीय स्नात्कोत्तर महिला महाविद्यालय
झुंझुनूं ,राजस्थान, भारत
सारांश
भारतीय व्यवस्थाकारों ने समाज को व्यवस्थित और नियंत्रित करने के लिए जिन परम्पराओं, प्रथाओं एवं विधानों को लिपिबद्ध किया उसे न्याय व विधि की संज्ञा दी गई। न्याय व्यवस्था वैदिक युग में ही स्थापित होना प्रारम्भ हो गई थी। बाद में मनु, याज्ञवल्क्य, बृहस्पति, नारद, शुक्र आदि स्मृतिकारों एवं धर्मसूत्रों में इसे और अधिक विधिवत बनाया गया। सूत्र साहित्य में विधि का मुख्य आधार वेदों को ही माना गया। जब राज्य की स्थापना हुई तो राजा को न्याय प्रशासन का कार्य सौंपा गया। राजा देवता (वरूण) के प्रतिनिधि के रूप में न्याय करता था। वह पापियों को दण्ड देता था और सज्जनों की रक्षा करता था। राजा श्रृति-साहित्य, वेदों, ब्राह्मणों, आरण्यकों, उपनिषदों की सहायता से न्याय करता था। राजा की सहायता के लिए एक परिषद् होती थी। धर्माधिकारी, प्राड्विवाक, सभ्य, पुरोहित, ग्रामणी, कायस्थ एवं पुस्तपाल आदि अधिकारी न्याय का कार्य करते थे। राज्य में अनेक न्यायालय होते थे परन्तु न्याय की अन्तिम अदालत राजा की अदालत होती थी। समय के साथ न्याय व्यवस्था में अनेक अनियमितताओं एवं भ्रष्टाचार भी देखने को मिला। परन्तु प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था में चरित्रवान व्यक्तियों को नियुक्त किया जाता रहा, जहाँ किसी भ्रष्ट अधिकारी के आचरण की सूचना मिली उसे दण्डित करने का प्रावधान भी किया गया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The traditions, customs and laws written by the Indian organizers to organize and control the society were given the noun of justice and law. The judicial system had started to be established in the Vedic era itself. Later, it was made more methodical in Smritikars and Dharmasutras like Manu, Yajnavalkya, Brihaspati, Narad, Shukra etc. The Vedas were considered to be the main basis of law in the Sutra literature. When the state was established, the king was entrusted with the administration of justice. The king administered justice as the representative of the deity (Varuna). He used to punish the sinners and protect the gentlemen. The king used to do justice with the help of scriptures, Vedas, Brahmins, Aranyakas, Upanishads. There was a council to assist the king. Officers like Dharmadhikari, Pradvivak, Civil, Purohit, Gramani, Kayastha and Pustapal etc. used to do the work of justice. There were many courts in the state, but the final court of justice was the king's court. With time, many irregularities and corruption were also seen in the judicial system. But in ancient India, persons of character were appointed in the judicial system, where the conduct of a corrupt official was reported, a provision was also made to punish him.
मुख्य शब्द विधि, ऋत, श्रुति, कार्षापण, विनिश्चय महापात्र, सूत्रधार, अष्टकुलक, भाण्डागारिक, कानून, धर्मसूत्र, स्मृति, ब्राह्मण, पुराण, परिषद्, धर्मस्थान, धर्माधिकरण, धर्मस्थीय, कण्टकशोधन, प्राड्विवाक, सभ्य।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Vidhi, Rit, Shruti, Karshapan, Decision Mahapatra, Sutradhar, Ashtakulak, Bhandagarik, Law, Dharmasutra, Smriti, Brahmin, Purana, Parishad, Dharmasthana, Dharmadhikaran, Dharmasthya, Kantakshodhan, Pradvivak, civilized.
प्रस्तावना
प्राचीन भारत में व्यवस्थाकारों ने समाज एवं मनुष्य को व्यवस्थित और नियंत्रित रखने के लिए जिन मान्य परम्पराओं, प्रभावों और विधानों को लिपिबद्ध किया है, उन्हीं नियमों को विधि, न्याय और कानून की संज्ञा प्रदान की है। विधि या कानून का शुरूआती सिद्धान्त ऋग्वेद के ‘ऋत’ शब्द में पाया जाता है। इस शब्द का अर्थ था सर्वोच्च लोकोत्तर कानून या आदेश, जो पूरे विश्व पर लागू होता था और जिसमें देवता भी निष्ठा रखते थे। इसके बाद ‘धर्म’ ने ‘ऋत’ की जगह ली। हालांकि स्मृति साहित्य में धर्म का मतलब विधि था। केन के मुताबिक धर्म शब्द के अर्थ में कई बदलाव आये। यह मनुष्य के विशेषाधिकारों, कर्तव्य, दायित्व एवं जाति का सदस्य तथा जीवन के किसी चरण में होने की वजह से मनुष्य व्यवहार के स्तर को इंगित करता था। वैदिक साहित्य में विधि द्वारा न्याय करने के संकेत मिलते है। उत्तर वैदिक काल में धर्मशास्त्रों, सूत्रसाहित्यों एवं समृतिग्रन्थों में विभिन्न प्रकार से विधि का स्वरूप निर्मित हुआ। सूत्र साहित्य में विधि का मुख्य आधार वेदों को ही माना गया। आप स्तम्ब-धर्मसूत्र के अनुसार धर्म, व्यवस्था के मूल स्त्रोत वेद है तथापि इतिहास, स्मृति और आचार से भी धर्म व्यवस्था का बोध होता है।[1]
अध्ययन का उद्देश्य
प्राचीन भारत में व्यवस्थाकारों ने समाज व मनुष्य को व्यवस्थित करने के लिये किस प्रकार की व्यवस्था की। कानून के स्रोत क्या थे तथा प्राचीन न्याय प्रक्रिया में किस प्रकार परिवर्तन होते गये। इसके साथ ही वैदिक काल से गुप्त काल तक न्याय व्यवस्था में क्या सुधार हुये।
साहित्यावलोकन
वैदिक युग में वरूण को प्रशासन और न्याय का अधिष्ठातृ देवता माना गया हैजिसके प्रतिनिधि के रूप में राजा इस लोक में राज्य करता हैजो पापियों को दण्ड देता है और सज्जनों की रक्षा करता है। महावीर चरित नाटक में स्पष्ट है कि जो व्यक्ति प्रजाजनों के विरूद्ध आचरण, जान बूझकर पाप और अपराध करता है उसको राजा अवश्य दण्ड देता      है।[2] प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था आप्त’ वाक्यों के रूप में श्रूति-साहित्यवेदोंब्राह्मणोंआख्यको तथा उपनिषदों में दी गई थी और आगे चलकर जिनका स्पष्टीकरण नियमों तथा उपनियमों के रूप में स्मृतियोंधर्मसूत्रों तथा वेदांगो आदि में किया गया था। प्राचीन भारत में समाज के नियम राज्य नहीं बनाता था। भारतीय व्यवस्थापकों की धारणा थी राज्य का अधिकार जिन लोगों के पास रहता हैं वे सांसारिक दृष्टि से महत्वाकांक्षी होते है तथा स्वार्थसिद्धि के लिए वे निष्पक्ष नहीं रह सकते। यही कारण था कि समाज के नियम या उन नियमों के स्पष्टीकरण के अधिकार के लिए परिषद’ नाम की एक संस्था का निर्माण किया गया। मनुस्मृति में परिषद’ के विषय में कहा गया है कि स्मृति में बताये धर्म के विषय में यदि कोई शंका है तो जिस नियम को शिष्ट ब्राह्मण मान्यता दे उसी को शंकारहित होकर धर्म समझना चाहिए अथवा दस या तीन श्रेष्ठ ब्राह्मण की परिषद’ में धर्म का निर्णय होना चाहिए।[3] याज्ञवलक्य व पाराशर स्मृतियों तथा गौतम धर्मसूत्र में भी परिषद के सम्बन्ध में इसी प्रकार के विचार व्यक्त किये गये है कि धर्म-संशय के निर्णय के लिए तीन व्यक्तियों की परिषद में ऋग्वेदयजुर्वेद तथा सामवेद के ज्ञाता ही रहने चाहिए।[4]
मुख्य पाठ

न्याय के स्त्रोत के लिए हमें मनु को आधार मानना होगा। मनू ने धर्म की व्याख्या ऐसे की है - सम्पूर्ण वेद धर्म का स्त्रोत है, फिर परंपरा (स्मृति) है और उनकी परंपरा व व्यवहार, जो वेद को जानते है और पवित्र व्यक्तियों के रिवाज तथा अंत में अपना सन्तोष।[5] मेंघातिथि एवं याज्ञवलक्य मनु से सहमत थे। अतः धर्म में मान्यता प्राप्त स्त्रोत तीन है। श्रुति से उत्पन्न अर्थात वेद, स्मृति से उत्पन्न धर्मशास्त्र और सदाचार। कौटिल्य ने कानून के चार अंग बताये है। धर्म (पवित्र कानून), व्यवहार (अनुबन्ध), चरित्र (रिवाज) और राजा का शासन (शाही आदेश)।[6] राजा विधि को लागू करने वाली सबसे बड़ी शक्ति थी। नारद द्वारा दी गई विधि को लागू करने के लिए राजा सबसे बड़ा होता था नारद द्वारा दिए विधि के चार स्त्रोत कौटिल्य द्वारा दिए स्त्रोतों के समान है।[7] बृहस्पति के व्याख्या करने वाले कथन कौटिल्य व नारद के कथन को स्पष्ट करते है। बृहस्पति के मुताबिक जब निर्णय प्रतिवादी द्वारा शपथ के आधार पर होता था, उसे धर्मकहते थे, जब निर्णय शास्त्र या साक्ष्य या जिरह पर लिए जाते थे, उसे चरित्रकहते थे, और वह विवादित मामला जो राजा (जो न तो शास्त्र के खिलाफ हो और न ही सभ्य के मत के खिलाफ हो) द्वारा लिया जाता था उसे राजाजन कहते थे, यह आदेश स्थानीय रिवाजों के ऊपर होता है।

धर्मशास्त्र तथा विधिशास्त्रों में आपसी विवादों के नियमों को व्यवहार नाम से संबोधित किया गया है। व्यवहार के नियम धर्मसम्मत होते थे। शुक्रनीति और याज्ञवल्क्य स्मृति में कहा गया है कि स्मृतियों और आचार के उल्लंघन से यदि कोई दूसरों द्वारा पीड़ित हो और वह राजा के यहाँ आवेदन करें, तो वह क्रिया व्यवहार पद है।[8] काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि को मनुष्य का प्रबल शत्रु माना गया है। इनके वशीभूत होकर मनुष्य अपने धर्म का उल्लंघन कर अन्य व्यक्तियों को कष्ट अथवा हानि पहुँचाता है, जो समाज में कलह और द्वेष-भावना की वृद्धि का कारण बन जाता है। उस द्वेष और कलह की भावना को रोकने के लिए प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रकारों ने न्याय व्यवस्था का विधान किया था। राज्य में अराजकता ना फैले, जनता सुखी जीवन व्यतीत करे, इसके लिए सुव्यवस्थित शासन पद्धति को स्थापित किया गया एवं निश्चित नियम बनाये गये। प्राचीन भारत में न्याय व्यवस्था और प्रशासन के दो उद्देश्य थे। पहला सत्य का ज्ञान करना और दूसरा न्याय से सम्बन्धित वादों के नियमों का पालन करना और कराना। प्राचीन भारत में राजा विधि निर्माण के स्थान पर न्यायिक प्रशासन का नेतृत्व करता था। न्यायधीशों पर भी विधि के अतिरिक्त अन्य कोई दबाव नहीं था। कार्यपालिका और न्यायपालिका के क्षेत्र अलग-अलग निर्धारित थे। यद्यपि दोनों का अध्यक्ष एक ही होता था। न्याय समाज के स्वीकृत नियमों के आधार पर होता था। अश्वघोष के अनुसार न्याय का मुख्य उद्देश्य राष्ट्र में सुख व समृद्धि का प्रसार करना था, ताकि सबल व्यक्ति दुर्बल व्यक्तियों को न सताने पाये। दण्डय व्यक्ति दण्ड से मुक्त न हो और अदण्ड्य व्यक्ति दण्डित न हो।[9] प्राचीन भारतीय धर्मशास्त्रों से पता चलता है कि राजा भी विधि के अधीन था और न्याय से ऊपर नहीं था। अपराध सिद्ध हो जाने पर राजा भी दण्डि होता था। मनुस्मृति में उल्लेख है कि जिस अपराध के लिए साधारण व्यक्ति को एक कार्षापण का दण्ड दिया जाए, उसी अपराध के लिए राजा को एक सहस्त्र कार्षापण का दण्ड दिया जाना चाहिए। ऋग्वेद काल में भी न्यायिक व्यवस्था के कुछ साक्ष्य मिलते है। न्याय वितरण का कार्य सम्भवतः पुरोहित करता था। रात में पशुओं की चोरी आम अपराध था, मृत्यु दण्ड की प्रथा नहीं थी। शारीरिक दण्ड तथा जुर्माने किये जाते थे। हत्या के अपराध में धनदान द्वारा मुक्त होने की प्रथा थी। अपराधी को खूँटे से बाँधे जाने की प्रथा थी।[10] सूत्रों के काल में ही हमें विकसित न्यायदान प्रणाली का चित्र देखने को मिलता है, वेद स्मृति, विद्धानों के आचरण ही विधि के स्त्रोत माने गये है। न्याय करते समय विविध जातियों एवं कुलों की प्रथाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजो आदि का पूरा ध्यान रखा जाता था। राजा ही मुख्य न्यायाधीश होता था। अपराधियों को उचित दण्ड देना उसका पवित्र कर्तव्य था। राजा गूढ़ मामले परिषद को सौंपता था। सूत्रकार कठोर-दण्डों के समर्थक है। किन्तु सूत्रकालीन न्याय व्यवस्था वर्ग-भेद पर आधारित थी। एक ही अपराध में शुद्र के लिए कठोर तथा द्विज के लिए साधारण दण्ड दिये जाते थे।[11]

बृहस्पति स्मृति के अनुसार राज्य के सर्वोच्च अधिकारी राजा होते थे और उसे ही न्याय का आस्पद का गया है।[12] रघुवंश से न्यायकरण राजा के पद का कर्तव्य माना गया है।[13] इसी तरह भास के अनुसार राजा दुष्टो को दण्ड देकर प्रजा के परस्पर विवादों को शान्त कर राज्य में शांति स्थापित करता है।[14] बुद्धघोष की टीका सुमंगलविलासिनीमें वज्जिसंघ की न्याय व्यवस्था की जानकारी मिलती है। वज्जिसंघ में आठ प्रकार के न्यायालय होते थे। कोई भी व्यक्ति तभी दण्डित किया जा सकता था जब वह एक-एक करके आठो न्यायालयों द्वारा दोषी ठहराया गया हो। प्रत्येक न्यायालय अपराधी को मुक्त करने के लिए स्वतन्त्र था। इन न्यायालयों के प्रधान अधिकारी इस प्रकार थे - विनिश्चय महापात्र, व्यवहारिक, सूत्रधार, अष्टकुलक, भाण्डागारिक, सेनापति, उपराजा, राजा। राजा का न्यायालय अन्तिम होता था। दण्ड देने का अधिकार केवल राजा का था, अन्य न्यायालय निर्दोष होने पर अपराधी को मुक्त तो कर सकते थे परन्तु दण्ड नहीं दे सकते थे। राजा दण्ड देते समय पवेनियोपटकअर्थात पूर्व दृष्टान्तों का अनुसरण करता था। लिच्छवी गणराज्य में व्यक्ति की स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखा जाना विश्व इतिहास में शायद अद्वितीय है।[15] मौर्यो के काल में सम्राट सर्वोच्च न्यायाधीश होता था, वही अन्तिम अदालत था, न्यायालय दो प्रकार के थे - (1) धर्मस्थीय तथा (2) कण्टकशोधन। हम इन्हें क्रमशः दीवानी व फौजदारी न्यायालय कह सकते है। इन दोनों में तीन-तीन न्यायाधीश एक साथ बैठकर न्याय का कार्य करते थे। दण्ड विधान कठोर था। कैद, कोड़े मारना, अंग-भंग तथा मृत्युदण्ड की सजा दी जाती थी। इसके अलावा अर्थदण्ड भी दिया जाता था। ये तीन प्रकार के होते थे - (1) पूर्व साहस दण्ड- 48 से 96 पण तक, (2) मध्यम साहस दण्ड- 200 से 500 पण तक तथा (3) 500 से 1000 पण तक। अर्थशास्त्र में एक स्थान पर उल्लेख है-

              मत्स्यायथाडन्त सलिले चरन्तो ज्ञातुं न शक्यां सलिले दिबन्त।

              युक्तास्तथा कार्यविधौ नियुक्ता ज्ञातुं न शक्याः धनभाददानाः।।[16]

युक्त नामक अधिकारी प्रायः धन का अपहरण करते थे, जिस प्रकार जल में विचरण करती हुई मछलियों को जल पीते हुये कोई नहीं देख सकता उसी प्रकार आर्थिक पद पर नियुक्त युक्तों को धन का अपहरण करते हुऐ कोई नहीं जान सकता है। ये अधिकारी यदि कर चोरी करते थे तो उसे दण्ड का प्रावधान था। उस समय जल, अग्नि एवं विष द्वारा दिव्य परीक्षाएं ली जाती थी। मैगस्थनिज के विवरण से पता चलता है कि दण्डों की कठोरता के कारण अपराध प्रायः नहीं होते थे। लोग कानून की शरण बहुत कम लेते थे। अर्थशास्त्र से पता चलता है कि जो अमात्य धर्मोपधाशुद्धअर्थात धार्मिक प्रलोभनों द्वारा शुद्ध चरित्र वाले सिद्ध होते थे उन्हें ही न्यायाधीश बनाया जाता था। न्यायाधीशों को धर्म, व्यवहार, चरित्र तथा राजशासन का अध्ययन करके ही दण्ड का निर्णय करना पड़ता था। गलत निर्णय करने वालों को भी दण्ड दिया जाता था।

              धर्मश्च व्यवहारश्च चरित्रं राजशासनम्।

              विवादार्थश्चतुष्पादः पश्चिम पूर्वबाधकः।।[17]

              समकालीन स्मृतियों नारद तथा बृहस्पति से पता चलता है कि गुप्तकाल में प्रथम बार दीवानी व फौजदारी अपराधों से सम्बन्धित कानूनों की व्यवस्था प्रस्तुत की गयी। उत्तराधिकार सम्बन्धी स्पष्ट एवं विशद कानूनों का निर्माण किया गया। सम्राट न्याय की सर्वोच्च अदालत था। सम्राट के अलावा एक मुख्य न्यायाधीश तथा अनेक अन्य न्यायाधीश होते थे। न्यायालय में प्रमाण भी लिये जाते थे। जहाँ प्रमाण नहीं मिलता था वहाँ अग्नि, जल, विष, तुला आदि के द्वारा दिव्य परीक्षाएं ली जाती थी। फाहियान के विवरण से पता चलता है कि दण्ड विधान अत्यन्त कोमल था मृत्युदण्ड नहीं दिया जाता था और न ही शारीरिक यातनायें मिलती थी।[18] मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि चारूदत्त को हत्यारा सिद्ध हो जाने पर भी मृत्युदण्ड नहीं दिया गया था। अपराधों में सामान्य आर्थिक जुर्माने लिये जाते थे। गुप्तों के प्रशासन में प्राचीन भारतीय दण्ड विधान में मानवीय सुधार के एक नये युग का सूत्रपात किया था।[19] राजा के लिए सबसे बड़ा यज्ञ उचित न्याय की व्यवस्था मानी गयी है। यही कारण है कि वह समाज और विधि की मर्यादाओं के अन्तर्गत रहकर, न्याय का आयोजन करता था। राजा का कर्तव्य था कि अपराधी को दण्ड मिले तथा निरपराध व्यक्ति दण्डित न हो पाये। मालविकाग्निमित्र में राजा अग्निमित्र प्रजा को न्याय देने में संलग्न बताया गया है।[20] बुद्धचरित में अश्वघोष ने राजा शुद्धोधन की धर्मनिष्ठा और कर्तव्यपरायणता का उल्लेख करते हुए कहा है कि राजा अपराध करने वालों को दण्ड देता था, यद्यपि उसे क्षमा का अधिकार था, किन्तु अपराधियों को छोड़ा नहीं जाता था, निष्पक्ष न्याय करने वाले राजा को वही फल मिलता है जो पवित्र यज्ञ करने से प्राप्त होता है।[21] निरपराधियों को दण्ड देने वाले राजा के लिए न केवल नरक का भय था अपितु प्रजा भी उसके प्रति विद्रोह कर सकती थी। राजा कर्तव्यानुसार राजसभा में स्वयं उपस्थित होकर समस्त विवादों का निर्णय करता था। उत्तर रामचरित में भवभूति ने राजा से धर्मासन पर बैठकर स्वयं न्याय करते हुए बताया     है।[22]

बृहस्पति स्मृति में पहली बार स्पष्ट रूप से नागरिक एवं आपराधिक कानून के बीच अंतर स्थापित किया। नागरिक कानून के विषय में मनु ने भी विस्तार से बताया है तथा इसके लिए नियम भी बनाये। बृहस्पति ने चार तरह की अदालतों का जिक्र किया है- (1) प्रतिष्ठित, जो नगर जैसे एक निश्चित स्थान पर स्थापित होती है। (2) अप्रतिष्ठित, एक स्थान पर स्थापित नहीं होती, परन्तु गतिशील होती है। (3) मुद्रित, न्यायाधीश का दरबार जो शाही मुहर का इस्तेमाल करने के लिए अधिकृत होता है और (4) ससित और सस्रित, वह न्यायालय जिसकी अध्यक्षता राजा स्वयं करता है।[23] याज्ञवलक्य (11.30), बृहस्पति (1.92, 94) एवं नारद (1.7) कहते है कि कानूनी मुकदमों का निपटारा वरीयता के आधार पर कुल, श्रेणी, गण/पुग, न्यायाधीशों तथा राजा द्वारा किया जाता था। जब राजा द्वारा समस्त विवादों का समाधान संभव नहीं था तो राजा ने अमात्यों, पुरोहितों और न्यायसभा की सहायता लेने लगे थे।[24] स्मृति साहित्यों में न्यायालयों के लिए धर्मस्थान, धर्मासन, धर्माधिकरण आदि शब्द प्रयुक्त किये गये है। मृच्छकटिक में इनकों व्यवहार-मण्डप और अधिकरण-मण्डप नामों से अभिहित किया गया है।[25]

न्यायधीशों की नियुक्ति करते समय विशेष ध्यान रखा जाता था। इसके लिए व्यक्ति गुणसम्पन्न, योग्य, उदारकुलीनउद्वेगरहितस्थिर, क्रोध रहित और धर्मनिष्ठ होना   चाहिए।[26] मत्तविलास प्रहसन के अनुसार न्यायाधीश कुटिलतारहित, स्थिर स्वभाव, कोमलवृत्ति, उत्तम कुल में उत्पन्न तथा आन्वीक्षिकी त्रयीवार्ता, दण्डनीति, श्रृति, स्मृति आदि में पारंगत होना चाहिए।[27] व्यवहार प्रकाश के अनुसार न्यायाधीश ब्राह्मण वर्ग का होना चाहिये, योग्य ब्राह्मण के न मिलने पर क्षत्रिय या वैश्य को भी न्यायाधीश नियुक्त किया जा सकता है, किन्तु शुद्र को किसी भी अवस्था में न्याय-संबंधी कार्य में नहीं लगाया जा सकता। प्राचीन भारतीय न्याय-प्रक्रिया अत्यधिक सरल थी। न्याय के इच्छुक वादी को अपनी याचिका के साथ न्यायालय में उपस्थित होना पड़ता था। न्यायालय में प्रस्तुत मुकदमों को व्यवहारतथा व्यवहार के लिए आने वाले व्यक्ति को अभ्यर्थीकहा जाता था। याचिका लिखित रूप से शुद्ध और संक्षिप्त होनी आवश्यक थी। याचिका में सभी तथ्यों का समावेश हो तथा वह दायें हाथ से न्यायालय में प्रस्तुत की जाये। इस प्रकार का विवरण युक्तिकल्पतरू तथा नारद स्मृति में दिया गया है।[28] अभ्यर्थी की याचिका के आने के बाद प्रतिवादी को इसकी सूचना दी जाती थी। यह कार्य श्रावणिक नामक कर्मचारी करता था। न्यायाधीश दोनों पक्षों को सुनकर न्यायसभा के सदस्यों से परामर्श करता था। या तो वह स्वयं निर्णय देता था या निर्णय राजा के लिए सुरक्षित रख लेता था। पूर्व में उल्लेख मृच्छकटिक से ज्ञात होता है कि चारूदत्त को बसन्तसेना की हत्या का अपराधी माना गया तथा न्यायाधिकरण ने उसे केवल देश निर्वासन का दण्ड दिया परन्तु राजा ने इस निर्णय को अमान्य करते हुए चारूदत्त को मृत्यु दण्ड    दिया।[29] विवादों के निर्णय में साक्षियों का बहुत अधिक महत्व था। प्राचीन समय में दो प्रकार के साक्ष्य प्रचलित थे- मौलिक साक्ष्य और लिखित साक्ष्य। साक्ष्य देने से पूर्व साक्षी को सत्य बोलने की शपथ ग्रहण करनी होती थी। अगर कोई साक्षी न्यायालय में उपस्थित नहीं होता था तो दण्ड का प्रावधान था।[30] मौखिक साक्ष्यों की अपेक्षा लिखित साक्ष्यों को अधिक प्रमाणिक माना जाता था। साक्षी देने से पहले शपथ लेनी होती थी। झूठी शपथ लेना निंदनीय भी और अपराध भी।[31]

प्राचीन भारत में यद्यपि न्याय-व्यवस्था अत्यधिक सरल, सुव्यवस्थित एवं पक्षपात रहित थी तथापि चौथी शताब्दी ई. तक आते-आते उसमें पक्षपात एवं भ्रष्टाचार प्रारम्भ हो गया था। मृच्छकटिम में विवरण मिलता है कि राजा का साला शकार, चारूदत्त पर न्यायालय में वसन्तसेना की हत्या करने का अभियोग प्रस्तुत करते समय न्यायाधीश को राजा का भय दिखाकर प्रभावित करने का प्रयास करता है।[32] पादताड़ितक भाग में विवरण मिलता है कि उस समय न्याय व्यवस्था काफी पंगु हो गई थी उसमें भ्रष्टाचार तथा पक्षपात व्याप्त हो गया था। इस सम्बन्ध में एक उदाहरण मिलता है कि मदयन्ति नामक एक वेश्या, उपगुप्त से आधा पण धन के लिए न्यायालय की शरण में गई थी। ये भी विवरण मिलता है कि मुकदमा सुनते समय प्राड़विवाक विष्णुदास ऊँघता रहता था और न्यायालय के अधिकारी, पुस्तपाल, कायस्थ, कोष्ठक और महत्तर रिश्वत माँगते थे। यह सब भ्रष्टाचार और अव्यवस्था देखकर उपगुप्त ने सोचा कि रिश्वत देने से अच्छा तो यही है कि वेश्या को ही धन दे दिया      जाये।[33]मन्तविलासप्रहसनसे भी यही संकेत मिलता है कि न्यायालय के कर्मचारी रिश्वत लेकर न्याय के विपरित निर्णय देते थे।[34]

निष्कर्ष
इस तरह वैदिक काल से लेकर गुप्तकाल तक न्याय व्यवस्था में धर्म एवं रीतियों के आधार निरन्तर संशोधन होते रहे। सामाजिक व्यवस्था को नियमों के द्वारा नियंत्रित किया जाता था जिसे धर्म कहते थे। कानून को प्रगतिशील बनाने के लिए रीतियों की महत्वपूर्ण भूमिका थी। इस तरह इसमें समय-समय पर परिवर्तन हुए जिससे कि कानून से सम्बन्धित नियमों तथा बदलती सामाजिक परिस्थितियों तथ जरूरतों के बीच के अन्तर को पाटा जा सके। सिद्धान्त व व्यवहार के मसले पर जब संघर्ष की स्थिति आती थी तो व्यवहारिक मसले को महत्व दिया जाता था। धर्म के नियम सुझाव के रूप में थे परन्तु अनिवार्य नहीं थे।
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