P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VI February  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
भारतीय जातिवाद का डाॅ.भीमराव अम्बेडकर के दृष्टिकोण के आधार पर ऐतिहासिक एवं परम्परागत अध्ययन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में
Historical and Traditional Study of Indian Casteism on The Basis of Dr. Bhimrao Ambedkars point of View in Present Perspective
Paper Id :  17158   Submission Date :  10/02/2023   Acceptance Date :  14/02/2023   Publication Date :  23/02/2023
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प्रेमसिंह दौलिया
सहायक आचार्य
राजनीति शास्त्र विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय शिवगंज
सिरोही,राजस्थान, भारत
सारांश प्राचीन भारत के इतिहास की तरह ही भारतीय वर्णव्यवस्था, जातिभेद और अस्पृष्यता का प्रारंभिक काल भी समय के कुहासे में विलुप्त है। उसके प्रत्यक्ष प्रमाण उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में उसके उदय ओैर विकास के बारे में जानकारियाॅं परोक्ष प्रमाणों पर ही निर्भर है। विश्वसनीयता और व्याख्याओं के बारे में इतिहासकारों एवं समाज-विज्ञानियों में गहरे मतभेद हैं। किंतु इससे उनका महत्व कम नहीं होता। कारण कि ‘‘हमारे इतिहास और संस्कृति की ऐसी कोई भी व्याख्या विचार योग्य नहीं हो सकती, जिसमें जातिव्यवस्था की भी व्याख्या सम्मिलित न हो।’’ पारंपरिक हिंदू समाज तो अस्पृश्यता के विभिन्न रूपों में भी भेद करता रहा है। कुछ विषेश अवसरों पर ब्राहाण पुरोहित भी अस्पृश्य होता है। इस प्रकार से ऋतुकाल में स्त्रियाँ भी अस्पृश्य होती थी। इसी तरह मृत्यु और जन्म से सम्बन्धित अशौच काल में भी व्यक्ति को छूना वर्जित है। किंतु अस्पृश्यता के ये सभी रूप अस्थायी हैं। दलितों पर लगाया हुआ अस्पृश्यता का जन्मजात कलंक स्थायी और अमिट है। यह साधारण जल से ही नहीं, गंगास्नान से भी पूरी तरह से नहीं मिटता है; न ही यह अस्पृस्यता स्वर्ण छूआए जल के छींटों से धुलती है,जो कि कुछ एक अन्य अस्पृश्यताओं से शुद्धि के लिए धर्मषास्त्रों में बताया गया उपाय है। दूसरी व्यवस्था इन नियमों की अवहेलना करनेवालों के लिए दंड-विधान थी। यह स्थायी अस्पृश्यता संतों की सीख, समाज -सुधारकों के आंदोलन, महात्मा गांधी के छूआछूत मिटाने के अभियान, डाॅ.अम्बेडकर के नेतृत्व में दलितों की पृथक राजनीतिक शक्ति के प्रादुर्भाव और भारतीय गणतंत्र के संविधान द्वारा अस्पृश्यता के उन्मूलन तथा उसे दंडनीय अपराध घोषित कर देने के बावजूद आज भी भारतीय सामाजिक जीवन की कटु वास्तविकता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Like the history of ancient India, the early period of Indian caste-system, caste discrimination and untouchability is also extinct in the mist of time. Its direct evidence is not available. In such a situation, information about its rise and development is dependent on indirect evidence only. There is a deep difference of opinion among historians and social scientists regarding the reliability and interpretations. But this does not diminish their importance. The reason is that "no such explanation of our history and culture can be considered, which does not include the explanation of the caste system."The traditional Hindu society has even been making a distinction between various forms of untouchability. On some special occasions the Brahmin priest is also an untouchable. Similarly, women are also untouchable during the season. Similarly, touching a person is prohibited even during the Ashaucha period related to death and birth. But all these forms of untouchability are temporary. The innate stigma of untouchability imposed on Dalits is permanent and indelible. There is a solution mentioned in the scriptures for this.
The second system was punishment for those who disobeyed these rules. This permanent untouchability was followed by the teachings of saints, the movement of social reformers, Mahatma Gandhi's campaign to eradicate untouchability, the emergence of separate political power of Dalits under the leadership of Dr. Ambedkar and the Constitution of the Republic of India. Despite the abolition of untouchability and declaring it a punishable offense, it is still a bitter reality of Indian social life.
Research have tried to tell through this research paper that there has been a historical development of untouchability and caste discrimination in India. Along with this, an attempt has been made to study the efforts made by the states in different eras to eradicate it and review their failures. And in this study by me, Gandhi and Ambedkar, Dayanand Saraswati, Gautam Buddha Jyotirao Phule Mahavir, Kautilya, Adi's ideas, differences and views about Varna-systems, caste discrimination and untouchability.
मुख्य शब्द जातिभेद, अस्पृश्यता, परम्परागत, ऐतिहासिक विकास वर्ण व्यवस्था, मिथक ,धर्मशास्त्र, वैदिकोत्तरयुग, दण्डव्यवस्था, धर्मसुधार आन्दोलन निषेधशास्त्र, भक्तिधारा, चोखामेला संत भला समाज सुधार आन्दोलन, सांस्कृतिक क्रान्ति , राष्ट्रीय जागरण , साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Caste, Untouchability, Traditional, Historical, Developmentscast System, Myth, Theology, Vedic Penalty Of Reform , Movement Prohibilitation Bhaktidhara, Chokhamela, Santbhala, Social Reform Movement , Cultural Revolation, National Awakeing Commuanal Representaltion .
प्रस्तावना
प्राचीन भारतीय समाज में वर्ण-व्यवस्थाओं ,जातिवाद एवं अस्पृश्यता प्रारंभिककाल से अस्तित्व में थे। आधुनिक भारत में 19 शताब्दी की शुरूआत में मनुस्मृति और ऋग्वेद जैसे धर्मग्रथों की सहायता से जाति का विकास हुआ है। जाति+वाद- जातिवाद उन दो शब्दों से मिलकर बना है जातिवाद एक प्रकार से अपनी जाति को श्रेष्ठ मानने का सिद्धांत है इसमें दूसरी जाति को हीन माना जाता है। यह संकीर्ण धारणा है। और अपनी जाति के प्रति निष्ठा रखने की भावना ही जातिवाद कहलाता है। और जाति शब्द का उदय पुर्तगााली भाषा के शब्द ‘कास्टा’ से हुआ है। सी.एच. फुले ने वर्गविभेद को वंशानुगत मानते हुए उसे जाति की संज्ञा दी है। मनुस्मृति में मानव समाज को चार त्रेणियों में विभाजित किया गया जिनमें, ब्राहम्ण, क्षत्रिय, वैश्य, शुद्र। प्रारंभ में वर्ण विभाजन जन्मजात नहीं था। पी.बी. काणे ने ऋग्वैदिककाल में वर्ण-व्यवस्था को अमान्य किया है। वैदिकोत्तरकाल में दण्ड़ व्यवस्था, जाति-व्यवस्था एवं वर्णव्यवस्था को माना गया है जिसमें कार्यो के आधार पर वर्ण का विभाजन किया गया है। बौद्ध युग में धर्मानन्द साम्बी ने प्रतिपादित किया की बोैद्ध श्रमण और उपनिषदों के ऋषिमुनि जाति भेद नहीं मानते थे उन्होंने मातंक जातक से गाथा उदधृत की है। समाजसुधारकों में संत रविदास, कबीरदास, गुरूनानक, राजाराममोहनराय, दयानन्द सरस्वती, डाॅ. भीमराव अंबेडकर महात्मागांधी, अर्जुनदेव ने जाति प्रथा को समाप्त करने के प्रयत्न किये हैं। कबीर, नानक पलटूदास ने ठीक ही कहा ह कि जनेऊ धारण करने से ब्राहम्ण नहीं कहा जा सकता जैसा कि कबीर दास ने यहां तक कहां है किः- घालि जनेऊ जो ब्राहम्ण होना मेेहरिया कया पहिरिया। वेा जो जनम की सूद्रिन परसैे तुम पांडे क्येां खाया ।। महाराष्ट्र में समाजसुधार आन्दोलनकर्ताओं में गोविन्द रानाडे, ज्योतिराव फुले, रामकृष्ण गोपाल भण्डारकर, नारायण गणेश चंदावरकर रानाडे , धोडो केशव कर्वे ने सामाजिक जाग्रति लाकर अछूत बच्चों एवं स्त्रियों को शिक्षा के लिये और ज्योतिराव फुलेे ने विद्यालय खोले जिसमें जातिवाद केा समाप्त करने में अहम भूमिका रहीं ।
अध्ययन का उद्देश्य शोधार्थी के द्वारा शोधपत्र के अध्ययन के उद्देश्यों का विवेचन निम्नांकित बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया हैः- 1. शोधपत्र का उद्देश्य भारतीय शोधार्थियों को भारत में प्राचीनकाल से वर्तमान काल तक जाति व्यवस्था एवं वर्ण व्यवस्था का उदभव एवं विकास केैसे हुआ? उसकी ऐतिहासिक जानकारी प्रदान करना । 2 शोधार्थी के द्वारा शोधपत्र का उदेश्य भारतीय नागरिेकों को जातिगत एवं वर्ण व्यवस्था रूपी बुराई के दुष्परिणामेां की जानकारी देना व इस बुराई केा दूर करने के सुझाव देना । 3. शोधपत्र के माध्यम से विभिन्न प्रकार की अध्ययन पद्धतियों जिनमें ऐतिहासिक एवं परम्परागत पद्धति का प्रमुख रूप से छात्राओं को ज्ञान कराना । 4. नवीन तथ्यों की जानकारी प्रदान करना । 5. मानवता का कल्याण करना एवं उन्हें अपने अधिकारों के प्रति जागरूक करना । 6. सामाजिक घटनाओं से सम्बन्धित परिस्थितियों का पता लगाना। 7. सामाजिक एवं राजनीतिक घटनाओं का वैज्ञानिक अध्ययन करना एवं उनका समाजीकरण करना तथा वैज्ञानिक सिद्धांतों का निर्माण करना । 8. सामाजिक एवं राजनीतिक भ्रांतियों एवं बुराईयों को जड़ से मिटाना। 9. राज्यों की राजनीति में उभरती हुई नवीन प्रवृत्तियों की जानकारी शोधार्थियों को प्रदान करना। 10. वर्तमान में सामाजिक व्यवस्थाओं में सहभोज एवं अंतर्जातीय विवाह एवं सामूहिक सम्मेलनों में किये जाने वाले विवाहों के माध्यम से जातिप्रथा एवं अस्पृश्यता को दूर करने के उपाय नागरिकों व आम जनता को बतलाना ।
साहित्यावलोकन

शोधार्थी  द्वारा इस शोधपत्र के माध्यम से यह बतलाने का प्रयास किया गया है कि भारत में अस्पृश्यता एवं जातिगत भेदभाव की ऐतिहासिक विकास की स्थिति रही है। इसके साथ ही राज्यों के द्वारा इसे मिटाने के लिए विभिन्न युगों में किए गए प्रयत्नों और उनकी विफलताओं की समीक्षा का अध्ययन करने का प्रयास किया गया है। शोधार्थी  द्वारा इस अध्ययन में वर्णव्यवस्था, जातिभेद तथा अस्पृश्यता के बारे में गांधी और अम्बेडकर, दयानन्द सरस्वती, गौतम बुद्ध, ज्यातिराव फुले महावीर, कौटिल्य, आदि के विचारोंमतभेदों तथा उनके अस्पृश्यता विरोधी जनअभियानों की शक्ति और सीमाओं का आंकलन वर्तमान परिप्रेक्ष्य में कर सकेंगे। 

कौटिल्य के अर्थशास्त्र में शूद्रों को ही आर्य माना गया है।  इससे पूर्व भी शूद्रों को आर्य माना जाता था। भक्तिधारा के अनुसार वर्ण व्यवस्था की निंदा की गई थी। वारकरी संतों कबीर एवं गुरूनानक ने वर्ण व्यवस्था का कठोर विरोध डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने भी वर्णव्यवस्था का कठोर विरोध किया है। गुरूनानक, रामदास, अर्जुनदेव, ने भी वर्ण व्यवस्था का का विरोध करते हुए कहा है कि ‘‘ब्राहमण, क्षत्रिय, और वैश्य, ये सभी एक ही नाभि या गर्भ से उत्पन्न हुए हैं। 

-जातिगत जनगणना की शुरूआम लॉर्ड मेयो के अधीन 1872 में कराई गई थी। हालांकि पहली पूर्ण और व्यवस्थित जनगणना लॉर्ड रिपन द्वारा 1881 में कराई गई और 1921 कों भारतीय के विभाजक वर्ष के रूप में जाना जाता है। स्वतंत्र भारत में जाति पर आधारित जनगणना कराने वाला कर्नाटक राज्य प्रथम एवं  द्वितीय राज्य बिहार को माना जाता है। जनगणना संघसूची का विषय है जिसका अनुच्छेद-(246) में विवेचन किया गया है। 1931 तक प्रत्येक जनगणना मे जातिगत आंकड़े शामिल थे। 1941 में जातिगत आंकडे़ एकत्रित किये गये परन्तु प्रकाशित नहीं हुए। भारत के गृह मंत्री अमित शाह ने घोषणा की है कि अगली जातिगत जनगणना  ऑनलाइन अर्थात् ई-मोड के माध्यम से की जायेगी। भारत में प्रत्येक 10 वर्ष  (दसवार्षिक) में जनगणना 2011 तक 15 बार की जा चुकी है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (NCSC) के प्रथम अध्यक्ष मार्च 2004 में श्री कुंवर सिंह को बनाया गया  था और वर्तमान में इसका द्वितीय अध्यक्ष विजय सांपला को बनाया गया है। राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग एक संवैधानिक निकाय है जो भारत में अनुसूचित  जातियों के विकास,उत्थान एवं उनकी समस्याओं के समाधान से सम्बन्धित कार्य करता है। इस आयोग से सम्बन्धित विवेचन  भारतीय संविधान के अनुच्छेद 338 में किया गया है।

राजस्थान पत्रिका के 22 नवम्बर 2022 के भरतपुर संस्करण में प्रकाशित किया गया था कि जातिवाद के शोषण से मुक्त हेाने के लिये धर्म परिवर्तन का प्रयास किया गया यह प्रयास राजस्थान राज्य के भरतपुर जिले के कुछ व्यक्तियों के द्वारा सितम्बर 2022 में बौद्ध धर्म ग्रहण करने की घटना सामने आयी थी। 

शोधार्थी द्वारा लेखक श्री इंद्रेश कुमार द्वारा लिखित पुस्तक छूआछूत मुक्त समरस भारत’, प्रभात प्रकाशन,संस्करण 2022, में प्रकाशित पुस्तक में से लिया गया है। हमारे भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि -‘‘मुझें लगता है कि इस देश में मजबूती तभी आएगी जब आपस में समरसता का वातावरण निर्मित होगा। केवल समानता की काफी नही है।‘‘ समरसता के बिना समता असंभव है। समरसता के इस सपने को साकार करने का संकल्प समाजसेवी एवं राष्ट्रवादी चिंतक श्री इंदे्रश कुमार ने लिया और पूरे देश के उच्च शिक्षण संस्थानों में कार्यरत शिक्षाविदों व पत्रकारों तथा युवा पीढी के भावी छात्र प्रतिनिधियों तथा ऐसे सभी नागरिकों के माध्यम से जातिवाद को समाप्त करने हेतु समरसता के अमृत को जन-जन तक पहुँचानें का प्रयास कर रहे हैं। 

बाबा साहेब डॉ. भीमराव अम्बेडकर की 125 वीं जयंती पर देशभर में उनके विचारों, कार्य,लेखन एवं संघर्षों के सम्बन्ध में नये सिरे से वैचारिक चिंतन व वर्तमान भारत में उनकी भूमिका पर विचार-विमर्श चल रहा है। इसी सन्दर्भ में इंद्रेश कुमारजी के प्रयासों से दिल्ली विश्वविद्यालय के हंसराज महाविद्यालय में वंचित, उपेक्षित, अनुसूचित जाति, अनुजनजाति, व अन्य पिछड़े वर्गों का ऐतिहासिक समरसता समागम  बाबा साहेब डाॅ. भीमराव अम्बेडकर की 125 वीं जयंती मनाने हेतु 13 अप्रेल 2016 को आयोजित हुआ जिसमें फूलसिंह महिला विश्वविद्यालय, हरियाणा की कुलपति प्रोफेसर सुश्री सुषमा यादव, प्रबुद्ध दलित चिंतक महाराष्ट्र के रमेश पतंगे ने समरसता स्थापित करने हेतु अपने विचार प्रस्तुत  किये। इसी क्रम में उतरप्रदेश के जांेनपुर में स्थित वीरबहादुरसिंह विश्वविद्यालय के सभागार में 10 अप्रेल 2017  को ‘‘सामाजिक समरसता में पूर्वाेचल का योगदान विषय ’’ पर राष्ट्रीय संगोष्ठी का आयोजन किया गया। इसमें विशिष्ट प्रवक्ता  रमेश कुमार पांडेय लाल बहादुर शास्त्री  संस्कृत विद्यापीठ, नई दिल्ली के कुलपति थे। इसी समय पूज्य बाबा साहेब के सपनों का भारत’’ पुस्तिका का विमोचन हुआ।  

इस शोधपत्र में अस्पृश्यता एवं जातिवाद के विकास एवं उत्पति का अध्ययन निम्नांकित रूप में किया गया है।

मुख्य पाठ

शोधार्थी द्वारा भारत में अस्पृष्यता एवं जातिगत  भेदभाव का डाॅ.  भीमराव  अम्बेडकर एवं महात्मा गांधी के दृष्टिकोण का परम्परागत एवं ऐतिहासिक अध्ययन वर्तमान सन्दर्भ को ध्यान में रखकर निम्नांकित बिंदुओं में करने  का प्रयास किया गया हैं  

समाज विज्ञानी जी. एस. घुर्ये ने  इन परिवर्तनों को  चार निम्नांकित कालखण्डों में विभाजित किया है। जो इस प्रकार हैं। वैदिकयुग, वैदिकोत्तरयुग, धर्मशास्त्रयुग, आधुनिक युग।

 वर्णव्यवस्था का मिथक और ऐतिहासिक विकास

() वैदिकयुग () वैदिकोत्तरयुग () धर्मशास्त्रयुग () आधुनिकयुग 

 . वैदिकयुग, . वैदिकोत्तरयुग-1 बौद्धकालःब्राहमण श्रेष्ठता को चुनौती, . धर्मेशास्त्रयुग-1. धर्मशास्त्र अर्थात् निषेधशास्त्र का प्रभाव, 2. अर्थशास्त्र का समाजशास्त्रीय अध्ययन, 3. बाहरी आक्रमण एवं आंतरिक संक्रमण का प्रभाव, 4. भक्तिधारा एवं सामाजिक विशमता का उद्भव, 5.चोखामेला एवं संतों के द्वारा अस्पृश्यता एवं जातिवाद पर कठोर प्रहार।

. आधुनिकयुग की जातिव्यवस्था का अध्ययन।

1 भारत में अंग्रेजी राज और समाज सुधार आन्दोलन  प्रभाव।

ज्योतिराव फुले सास्कृतिक  क्रान्ति के अग्रदूत के रूप में।

उत्तर भारत में धर्मसुधार आंदोलनों का प्रभाव एवं जातिवाद का उन्मूलन

राजनीतिक  एवं सामाजिक सुधारों के प्रयत्नों का प्रभाव।

5 राष्ट्रीय जागरण और साम्प्रायिक प्रतिनिधित्व का जातिवाद के उन्मूलन में योगदान।

. वैदिकयुगःवर्णव्यवस्था की उत्पति या विकास

प्राचीन भारतीय साहित्य में वणर्’’  और जाति’’ का विवेचन समान प्रसंग में हुआ है। प्रारम्भ में सिर्फ तीन ही वर्ण थे -ब्राहम्ण, क्षत्रिय, और वैश्य। कालांतर में  चैथा वर्ण शूद्र भी जुड़ गया। वर्णव्यवस्था को समाज-संगठन का स्थायी आधार बनाये रखने के लिये ऋग्वेद का पुरूष सूक्त उदधृत किया जाता है जिसमें वर्णव्यवस्था  का प्रथम  उल्लेख मिलता है। इस सुत्र के अनुसार  वर्णों की  उत्पति विराट  पुरूषसे हुई है उस पुरूष के मुख से ब्राहम्ण, भुजाओं से क्षत्रिय तथा ऊरू (जांघ) से वैश्य तथा पद (पैर) से शूद्र पैदा हुये वह विराट पुरूष अथवा सृष्टिकर्ता सहत्र सिर सहत्र  आँखों और सहत्र पैरोवाला था। और भूत और भविष्य दोनों था। और सृष्टि की उत्पति हुई। वर्ण जाति व्यवस्था के उदगम के सन्दर्भ में प्राचीन साहित्य में इस ‘‘पुरूष सूक्त’’  का बार-बार उल्लेख हुआ है। प्रारम्भ में वर्ण विभाजन जन्मजात नहीं था एक प्रकार का श्रम विभाजन ही था। फ्रांसीसी  संस्कृतज्ञ लूई रेनू के अनुसार ‘‘वर्ण जातियाँ नहीं थीं वर्ण लोगों के ढीले-ढाले गुट थे। इन गुटों में आन्तरिक संगठन और किसी प्रकार की ऊंच नीच नहीं था  इनमें धीरे-धीरे तथा आंशिक रूप से  ये जातिव्यवस्था  के परिचायक बन गये।

. वैदिकोत्तरयुग वर्णो का अनुवाद (अर्थ)

इस युग में वर्णव्यस्था  अब आर्यो की सामाजिक व्यवस्था का आधार बन गई थी। इस युग में दण्ड़ व्यवस्था में भी वर्ण तथा जाति के आधार पर भेदभाव किया जाता था। अपनी ही जाति की स्त्री के साथ व्याभिचार करने वाले पुरूष के लिए प्रायश्चित का दण्ड़ पर्याप्त  माना गया था। परन्तु अगर  वही  अपराधहीन जाति का पुरूष यदि उंच वर्ण की स्त्री के साथ अपराध करे तो उसे सख्त दण्ड़ देने का विधान था। पतंजलि के ग्रंथ में ब्राहम्णों का उल्लेख है कि ‘‘कर्तव्यहीन’  ब्राहम्ण कुब्राहम्ण होते     थे। 

पतंजलि के शूदों की सामाजिक स्थिति का वर्णन करते हुए लिखा है कि दो तरह के शूदों का उल्लेख किया है। एक कोटि तो उन ब्राहम्णों, क्षत्रियेां और वैश्यों की थी। जो शास्त्रविहित स्वकर्तव्यों का पालन कर शूद्रवत जीवन व्यतीत करते थे। दूसरी कोटि माता-पिता से उत्पन्न संतान की होती थी। इस प्रकार कर्मशूदऔर जन्मशून्द्र’-दो प्रकार के प्रमुख शूद्र थे। कर्म शूद्रों  को ब्राहाम्णोंचित अधिकार प्राप्त नहीं था। महाभाष्य  में शूद्रों का निरादार स्पट नहीं किया गया। ऐतरेय ब्राहम्णके रचियता आचार्य महिदास ऐतरेय के संबंध मे कहा जाता है कि ये अनिज्र्ञात आचार्य की पत्नी इतरा शूद्रा भार्या’  के पुत्र थे उन्होनें अपनी मां के नाम से हिी आपना नाम ‘‘ऐतरेत’’ रखा  और उनकी रचना ऐतरेय ब्राहम्ण के नाम से प्रसिद्ध हुई। [21],

. बौद्ध कालः ब्राहम्ण श्रेष्ठता को चुनौती 

वैदिकोत्तरकाल में वर्णव्यवस्था का विरोध महावीर एवं गौतमबुद्ध के द्वारा किया गया  ये दोनो ही क्षत्रिय  थे और दोनों ने यज्ञ एवं कर्मकाण्ड़ का विरोध किया दोनो ने संस्कृत भाषा की बजाय लोकभाषा प्राकृत को अपने उपदेशों  और संदेशों का माध्यम बनाया धर्मानन्द कोसंबी ने यह प्रतिपादित किया है कि बौद्ध श्रमण और उपनिषदों के ऋषिमुनी जाति भेद नहीं मानते थे इसके प्रभाव के रूप में उन्हेांने मातंगओैर जातकमें विवेचन किया है। 

-i. धर्मशास्त्र अर्थात् निषेधशास्त्र का प्रभाव 

धर्मशास्त्रों के युग में तीन प्रकार के सूत्रों की रचना हुई है-श्रोत्रसूत्र, गृहसूत्र, और धर्मसूत्र। जी. एस. घुर्ये के अनुसार यह युग ईसा. की तीसरी सदी से दसवीं सदी अथवा ग्यारहवीं सदी तक रहा। इसमें मनु, विष्णु, और याज्ञवलक्य  स्मृतियों की रचना हुई। इसमें स्मृतियों ने अपने समय के सामाजिक आदर्शों का प्रतिपादन किया। विभिन्न वर्णों के कर्तव्य और कार्य भी स्मृतियों में ही निर्धारित किये गये हैं। वर्णव्यवस्था अब आनुवांशिक हो गयी थी। गौतमबुद्ध के अनुसार ब्राहम्ण को किसी भी तरह का शारीरिक दण्ड़ देना वर्जित है। वह अबध्य, अबदय, अदंडप, अबहिष्कार्य, अपरिवादय और अपरिहार्य है[26] बौद्धायन के अनुसार शूद्र की हत्या करने वाले के लिये दण्ड़ उसी दण्ड़ की व्यवस्था थी, जो कौए, उल्लू, अथवा मेंढक को मारने वाले की होती थी। शूद्र शमशान की तरह अपवित्र माना जाता था। वह अगर किसी प्रकार का धन संग्रह करता तो उस पर भी उसके स्वामी का ही अधिकार होता था।[28]

-ii. अर्थशास्त्र का समाजशास्त्रीय अध्ययन 

कौटिल्य ने वर्णाश्रम, धर्म पर आधारित सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखने का समर्थन किया है और अपने शासक को आदेश दिया है कि वर्णाश्रम व्यवस्था राज्य-निर्मित नहीं है और ही राज्य के द्वारा उसमें संशोधन और परिवर्तित करना चाहिये राज्य का कार्य सिर्फ उसकी रक्षा करना है। कौटिल्य ने वार्ताको शूद्रांे का स्वधर्म माना है। सेनाओं में सभी वर्णों

को भर्ती करने का उल्लेख है। अर्थशास्त्र में शूद्रों को आर्य ही माना गया है। वे म्लेच्द्दों और अनार्यों से भिन्न थे कौटिल्य ने चाण्डाल के सामाजिक जीवन का वर्णन नहीं किया है। चीनी यात्री फाहियान के यात्राकाल(410-10) के अनुसार-‘‘जब कभी चाण्डाल बाजार में प्रवेश करता था तो वह लकडी बजाता हुआ चलता था। इससे लोग दूर हट जाते थे। हर्ष के दरबारी और कादम्बरी  के रचनाकार बाणभटट् ने इसे स्पर्श वर्जितकहा कलहण ने भी राजतरंगिणी में चाण्डाल की अधम स्थिति का चित्रण किया है’’[33] 

-iii. बाहरी आक्रमणः आंतरिक संक्रमण का उदय

बाहरी आक्रमण सभी मुस्लिम धर्म अनुयायी थे उनके  आक्रमण मूल लक्ष्य लूटपाट ही था। उन्होनें भारतीय सामाजिक व्यवस्था के साथ छेड़छाड नहीं की थी। 

भक्ति आन्देालन के पूर्व सामाजिक सुरक्षा का अभाव था जिससे अनेक कुप्रथायें प्रचलित हो गई थीं। बाहरी आडम्बर को धर्म समझ लिया गया था। जीवन निरर्थक कर्मकाण्डों से ग्रस्त था।[38] शास्त्र प्रतिपादित उच्च वर्ण के प्रभाव के कारण उत्कृष्टता और निष्कृष्टता के ऐसे दो ध्रुव  तैयार हो गये थे जो मिट नही पाये। जी.एस.घूर्ये के शब्दों में ‘‘यह  धार्मिक उथल-पुथल थी।‘‘[39]

(- iv) भक्तिधारा और सामाजिक विषमता का उदभव 

भारतीय इतिहास में पहली बार सम्पूर्ण देश में एक भक्ति धारा से आंदोलित हो उठा। भाषा विज्ञानी जाॅर्ज गियर्सन ने इस आन्देालन की तुलना अचानक हुई बिजली की चमक से की है। उसका प्रभाव बौद्ध धर्म के आन्दोलन से भी अधिक विशाल था। जिसका प्रभाव वर्तमान समय मे भी है। महाराष्ट्र के भागवत धर्म के आद्य प्रवर्तक ज्ञानेश्वर  थे वे उच्च कोटि के संत एवं विद्वान होने के साथ लोक संग्रही भी थे। निवृतिनाथ, विसोबाखेचर, जगमित्रनागा भी इसी परम्परा के संत थे। दूसरी तरफ नामदेव  तथा अन्य संत कवि थे उन्होनें अपनी वाणी एवं संगतों के माध्यम से सामाजिक भेदभाव को दूर करने के प्रयत्न किये। 

-v. चोखामेला एवं संतों के द्वारा अस्पृश्यता एवं जातिवाद पर कठोर प्रहार का काल।

चोखामेला ने जातिवाद एवं अस्पृश्यता  पर कठोर तर्क देते हुये कहा है कि उभा राहुनि महाद्वारी चोखामेला दण्ड़ करी’’[45]  - चोखामेला के अनुसार उस समय आर्थिक बदहाली, शिक्षा का अभाव और सामाजिक गुलामगिरी से शूद्रों का जीवन ग्रस्त दुखी और कष्टमय था। इसका उन्होंने विरोध किया। महाराष्ट्र के दलित आंदोलन के अध्येता एलीनर जेलियाॅट के अनुसार’‘ चोखामेला के अधिकतर अभंग अन्य भक्त कवियों के भजनों की तरह ही है।परन्तु  कुछ अभंगों में छूआछूत के विरोध का स्वर है।[46]  डॉ.अम्बेडकर कबीर, गौतमबुद्ध, ज्योतिरावफुले को अपना गुरू मानते थे[49] गुरूनानक, रामदास, अर्जुनदेव, आदि संतों ने जोर देकर कहा कि ‘‘ब्राहम्ण, क्षतित्र, वैश्य, शूद्र ये सभी एक ही नाभि या गर्भ से उत्पन्न हुये है’’ इस संन्दर्भ में वर्णव्यवस्था की जड़ता पर सीधा प्रहार करते हुये कहा कि-

एक बूंद एकै मल मूतर एक चाम एक गूदा।

एक जोति ते सब उत्पन्ना कौंन ब्राहम्न कौंन सूदा।।

कबीर ने प्राचीनकाल के ब्राहम्णों के पाखण्ड़ पर चोट करते हुये कहा कि-

कलि का ब्राहम्न मसकरा ताहि दीजै दान।

स्यों कुंटऊ नरकहि चलैसाथ चल्या जजमान।।

संतों ने वर्णविभाजन को आरोपित,निर्थक, अप्राकृतिक एवं अमानवीय बतलाया है उनकी दृष्टि में उच्च वंश में जन्म  लेने मात्र से कोई ऊंचा नहीं हो जाता अतः ऊंचा बनने के लिए कथनी-करनी ऊंची हेानी चाहिये। उसके बिना तो उच्च वर्ण के आदमी की स्थिति मदिरा से भरे स्वर्ण कलशके समान हो जाती है जनेऊ धारण करने से ही ब्राहम्ण नहीं बन जाने के विरोध में कबीर ने तर्क दिया है किः- 

घालि जनेऊ जो ब्राहम्न होना मेहरिया।

वो जनम की सूद्रिन परसेतुम पांडे क्यों खाया।।

प्रसिद्ध समाज विज्ञानी डॉ धूर्जटिप्रसाद मुखर्जी के शब्दों में कहा गया है कि -भक्ति सम्प्रदाओं का उदय मूर्तिपूजा,जाति तथा सम्प्रदायों के अत्याचारों और कर्मकाण्डों की यान्त्रिकता के विरूद्ध विद्रोह     था।‘‘[53]

भक्ति के माध्यम से संतों ने समाज सुधार का संदेश जन-जन तक पहुंचाया परंतु वे हिन्दू समाज व्यवस्था को बदल नहीं पाये।

. भारत में अंग्रेजीराज और समाजसुधार आन्दोलन का प्रभाव

अंग्रेजीराज की स्थापना निश्चय ही समाज सुधार आन्दोलन एक युगान्तर कारी घटना थी मैकाले ने कहा था कि ब्रिटिश भारत की सरकार का कर्तव्य है कि भारत में अ्रग्रेजी भाषाओं और उसके माध्यम से शिक्षा को बढ़ावा दे। समाजसुधारक राजाराममोहनराय (1774-1833) ने हिन्दू समाज की दुरव्यवस्था का जिक्र करते हुये लिखा था कि ‘‘मुझे बडे़ दुख के साथ लिखना पड़ रहा है कि हिन्दूओं कि वर्तमान धार्मिक प्रणाली उनके राजनीतिक हितों के अनुकूल नहीं है। जातिगत भेदों ने उनकेा अनगिनत विभागों एवं उपविभागों में विभाजित किया है। इसलिए वे देश भक्ति की भावना से वंचित हो गये हैं। अनेक प्रकार के धार्मिक कर्मकाण्डो़ं उत्सवों एवं रिति रिवाजों ने उनको अपने  कठिन कार्य करने के लिए असमर्थ बना दिया है। मेरे विचार में तो उनके राजनीतिक लाभ और सामाजिक सुविधा के लिए स्वयं उनके अपने ही धर्म में किसी किसी प्रकार का परिवर्तन आवश्यक हैं।‘‘[58]  

इसके लिए उन्हेानें ब्रह्मसभाऔर बाद में ब्रह्मसमाजकी स्थापना की। 

-II. ज्योतिरावफुले और सांस्कृतिक क्रान्ति के अग्रदूत

महामाँ गांधी और ज्योतिरावफुले (1827-1889) ने शूद्रों,दलितों और महिलाओं के साथ अमानुषिक व्यवहार से लड़खडाती हिन्दू समाज व्यवस्था में परिवर्तन लाने के अथक प्रयास किये।फुले ‘‘आधुनिक भारत में पिछडी और उत्पीडित जातियों में उभरे प्रथम बुद्धिजीवी थे’’[66] अपने विचारों का प्रचार-प्रसार करने के के लिये 1871 में दीनबंधूनामक पत्रिका प्रारम्भ की एवं समाज सुधार हेतु सार्वजनिक सत्यधर्मकी स्थापना की। 1879 इनके सहयोगी नारायण मेघाजी लोखण्ड़े (1848-1897) ने बम्बई में मिल मजदूरों को संगठित करके पहला मजदूर संगठन बनाया।

-III. उत्तर भारत में धर्मसुधार आन्दोलनों का प्रभाव एवं जातिवाद का उन्मूलन

इस आन्दोलन में दयानन्द सरस्वती (1824-83) की और आर्य समाज की अहम भूमिका रही ये सौराष्ट्र के टंकारा कस्बे में एक शैव ब्राहम्ण परिवार में जनमें मूल शंकर बाल्यावस्था से ही मूर्तिपूजा के विरोधी थे। उन्होनें प्राचीन विश्वासों बुराईयों केा दूर करने के लिए 1874 में सत्यार्थ प्रकाशकी रचना की। 1870 में स्वामीदयानन्द सरस्वती ने अपने धार्मिक विचारों को सुसंगत आधार एवं स्वरूप दिया। 1875 में बम्बई में आर्यसमाजकी स्थापना की जिसका स्पष्ट उद्देश्य था वैदिकज्ञान का संदेश घर-घर पहुँचाना और वैयक्तिक तथा सामाजिक जीवन को वैदिक आदर्शों के अनुरूप पुनर्गठन करना। उन्होनें अपने समय में प्रचलित जाति व्यवस्था और उसमें अन्तर्निहित सामाजिक अन्यायों का विरोध किया। परन्तु वे वर्णव्यवस्था के समर्थक नहीं थे यद्यपि वे इसे जन्ममूलक मानकर कर्ममूलक मानते थे। चाहे उन्होनें वेदों को सर्वोपरि माना हो फिर भीउन्होनें छूआछूत का विरोध किया है। 

-IV. राजनीतिक या सामाजिक सुधार (प्राथमिकता का प्रश्न)

कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन के अवसर पर समाजसुधार कांग्रेस आयोजित की गई थी। परन्तु खुलेआम विचार विमर्श नहीं हुआ दूसरा अधिवेशन कलकत्ता में हुआ इसके अध्यक्ष दादाभाई नौरोजी थे। उन्होनें प्रतिपादित किया कि ‘‘अपने वर्ग में किस तरह के सुधार आवश्यक है इनका निर्णय उसी वर्ग के व्यक्ति कर सकते हैं।’’[72] 

कांग्रेस के 1917 के अधिवेशन में समाजसुधार को लिये 1917 में कहा गया कि -अस्पृश्यों के साथ हो रहे  अन्यायों उन पर थेापी गई  निर्योग्यताओं को अविलम्ब समाप्त करने का प्रस्ताव इस अधिवेशन में पास हुआ। तथा 1886 में लिये गये उक्त निर्णय के बाद समाजसुधार कान्फ्रेंस होती रही न्यायमूर्ति रानाडे इसके प्रवक्ता थे। कॅान्फ्रेंस का फिर से नामकरण-राष्ट्रीय सामाजिक परिषदहुआ। अब यह सामाजिक सुधार परिषद अपने एजेंड़ों पर अधिक विचार-विमर्श करने अनेक सुझाव देने लगी। 

-V. राष्ट्रीय जागरण और साम्प्रदायिक प्रतिनिधित्व

बीसवीं शताब्दीं का पहला दशक ब्रिटिश साम्राज्यवाद  और भारतीय राष्ट्रवाद में निरन्तर विवाद,तनाव और संघर्ष का दशक रहा है। साम्प्रदायिक आधार पर बंगाल का विभाजन करके ब्रिटिश शासकों ने  एक प्रकार से बारूद में चिनगारी लगा दी। मार्ले मिण्टों की सिफारिशों पर आधारित इण्डियन कौसिंल एक्ट’1909 में पहली बार मुसलमानों का पृथक प्रतिनिधित्व दिया गया और 1911 में बंगाल का विभाजन रद्द कर दिया। और 1912 में भारत में ब्रिटिस साम्राज्य की राजधानी दिल्ली कर दी गई। कांग्रेस ने 1908 में अपने उद्देश्य  की घोषणा कर दी थी। भारत में क्रमिक रूप से स्वशासन स्थापित करने की सरकार की घोषणा से एकाएक अनेक  प्रश्न चर्चित हो उठे उनमें से एक-प्रश्न अछूतों के सामाजिक, राजनीतिक और नागरिक अधिकारों का भी था। अस्पृश्यों की समस्या अन्य अल्पसंख्यक समुदायों की समस्याओं से भिन्न थी दलित  भी यह मांग करने  लगे की अंग्रेजी सरकार भारत को स्वतंत्रतावाद देने से पहले उनके राजनीतिक अधिकारों की स्पष्ट और पक्की व्यवस्था करें इस समय दलित राजनीतिक आन्दोलन कुछ क्षेत्रों को छोड़कर पूरी तरह शुरू नहीं हुआ था। बंबई पे्रसीडेंसी में दलितों में अस्पृश्यता विरोधी मोर्चे पर उन दिनों सक्रिय लोगों में अंग्रणी थे। विट्ठल रामजी शिंदे तथा सर नारायण गणेश चंदावरकर। इन्होनें दलितों के सम्मेलन करके उनको अलग प्रतिनिधित्व देने की भी मांग की।’’

सामग्री और क्रियाविधि
शोधार्थी द्वारा इस शोधपत्र के अध्ययन में ऑकडो़ं के संकलन करने एवं सारगर्भित एवं सरल स्पष्ट बनाने हेतु निम्नांकित शोध में प्रमुख उपरकणों का प्रयोग में लिया गया है। 1. ऑनलाइन एवं ऑफ़लाइन कक्षाऐं, वेबीनार, सेमीनार, काॅन्फ्रेंस संगोष्ठी लाइव यूट्यूब, ऑनलाइन इन्टरनेट के माध्यम से खोज, वेबसाइट आदि। 2. शोधपत्र के शीर्षक एवं विषय का चयन विद्वानों एवं शोध छात्रों से विचार -विमर्श एवं राजकीय कन्या महाविद्यालय शिवगंज सिरोही राजस्थान के संकाय सदस्यों से परिचर्चा के माध्यम से किया गया । 3. राजकीय कन्या महाविद्यालय शिवगंज सिरोही राजस्थान के पुस्तकालय एवं पंचायत समिति शिवगंज सिरोही राजस्थान के सार्वजनिक पुस्तकालय की पुस्तकों का सहयोग लिया गया। 4. प्रमुख समाचार पत्रों का सहयोग लिया गया जिनमेें प्रमुख रूप से-राजस्थान पत्रिका ,दैनिक भास्कर, नवभारत टाइम्स, दैनिक नवज्योति व अन्य मासिक, वार्षिक ,एवं समसामयिक पत्र-पत्रिकायें। 5. पेंन, कम्प्यूटर, ऐतिहासिक, परम्परागत, वैज्ञानिक आदि अध्ययन पद्धतियों के मूल्यांकन, सुझाव, निष्कर्ष, विश्वकोष, आलेख राजनीतिक, सामाजिक, विकास विधियों से सामाजिक जातिवाद की जानकारी प्राप्त करना व इसके कारण, निदान, एवं सुझावों के माध्यम से शोधपत्र को लिखनें में उपरोक्त सभी का प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से उपकरणों को आवश्यकतानुसार उपयोग में लिया गया।
विश्लेषण

1. अयोग्य उम्मीदवारों के चयन को रोका जाये।
2. निर्वाचन के समय भृष्टाचार को रोका जाये, जिससे जातिवाद पर लगाम लग सके।
3. जातिवाद से सामाजिक संगानों को होने वाले नुकसान को रोका जाये।
4. जातिवाद राष्ट्र एवं राज्य की गतीशीलता  एवं विकास मे बाधक ।
5. जातिवाद देश की एकता एवं अखण्डता को खतरा पहुॅचता है।
6. बेरोजगारी को बढावा अथवा जातिवाद के कारण अयोग्य व्यक्ति का चुनाव हो जाता।

जाँच - परिणाम भारतीय समाज में जातिवाद के दुष्परिणाम अधिक विशाल,एवं संकटकालीन एवं दयनीय है,एक ऐसा जहर है जिसने भारतीय समाज को कमजोर एवं खोखला कर दिया है। अतः जाविवाद के दुष्परिणामों का विवेचन निम्न बिन्दुओं के अन्तर्गत किया गया है। 1. अयोग्य उम्मीदवारों के चयन को रोका जाये। 2. निर्वाचन के समय भृष्टाचार को रोका जाये, जिससे जातिवाद पर लगाम लग सके। 3. जातिवाद से सामाजिक संगानों को होने वाले नुकसान को रोका जाये। 4. जातिवाद राष्ट्र एवं राज्य की गतीशीलता एवं विकास मे बाधक । 5. जातिवाद देश की एकता एवं अखण्डता को खतरा पहुॅचता है। 6. बेरोजगारी को बढावा अथवा जातिवाद के कारण अयोग्य व्यक्ति काचुनाव हो जाता है। व्यक्तियों का नैतिक पतन -जातिवाद के कारण एक व्यक्ति अपनी जाति के सदस्यों को आगे बढानें के लिये अनेक अनुचित साधनोें प्रचार करना । 7. राष्ट्रीय विकास में बांधा उत्पन्न होती हैं। 8. जन धन की हानि एवं पारस्परिक जातीय हिंसा एवं संघर्ष की उत्पति की संभावना हमेशा बनी रहती है। 9. देश की अखण्डता एवं एकता को खतरा उत्पन्न होता है। 10. औद्योगिक कुशलता में बाधा उद्योगों में जातिगत आधार पर नियुक्तियों की जानें के कारण अकुशल चयनित हो जाते हैं और कुशल व्यक्ति चयन से रह जाते है। 11. जातिगत संस्थाओं की उत्पति के आधार पर अनेक संस्थाये चिकित्सालय ,महाविद्यालय आदि जाति के चलाये जा रहे हैं जिससे अन्य वर्गों के मध्य कटुता , वैमनस्यता की भावना बढती जा रही है। जो देशहित में नहीं है । 12. जातिवाद के कारण भारत की एकता एवं अखण्डता को खतरा व विघटन की समस्या बनी रहती है। 13. जातिवाद के कारण तनाव व संघर्ष कटुता उत्पन्न हो जाती है । 14. जातिवाद से यक्तिगत एवं सामाजिक राष्ट्रीय प्रगति में जातिवाद में बाधा उत्पन्न होती है।
निष्कर्ष निष्कर्ष रूप में कहा जा सकता हेै कि प्रत्येक समय में भेद-भाव पर आधारित जातिमूलक व्यवस्था का विरोध हुआ है। गोैतमबुद्ध, संत कबीरदास, गुरूनानकदेव ज्योतिराव फुले, महात्मा गांधी, डाॅ़ भीमराव अंबेडकर,आचार्य,चाार्वाक,नेहरू,राममनोहरलोहिया,दयानन्दसरस्वती, विवेकानन्द, कौटिल्य, रामदास, रविदास, रैदास, अर्जूनदेव, गोविन्द रानाडे, आदि महापुरूषों ने एवं राजनेताओं एवं संतों के द्वारा समाचार पत्रों पत्रिकाओं एवं उनके द्वारा रचित पुस्तकों में राष्ट्रीयता की भावना जाग्रत हुई हैं। 1. संवैधानिक कानून निर्मित करके व वयस्क मताधिकार पद्धति अपनाकर भारत में जातिवाद एवं अस्पृश्यता को समाप्त करने में उपरोक्त सभी ने अपनी अहम भूमिका प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से निभायी है। 2. ग्रामीण एवं शहरी नागरिकों ने सामाजिक शिक्षा के माध्यम से जातिवाद को कम करने में काफी योगदान किया हैं। 3. उच्च एवं निम्न जाति में परस्पर प्रेम,सोहाद्र ,सामंजस्य ,एवं समानता स्थापित करने का कार्य महापुरूषों एवं संतों के द्वारा किया गया हैं । 4. भारत सरकार ने समय-समय सभी नागरिकों को संवैधानिक कानून बनाकर अनिवार्य शिक्षा एवं मौलिक अधिकारों तथा विशेष रूप से समानता का अधिकार प्रदान करके तथा अन्र्तजातीय विवाहों एवं सामूहिक सहभोज को प्रोत्साहन देकर वर्तमान में जातिवाद एवं भारतीय संविधान के अनुच्छेद 17 के द्वारा 1976 में अस्पृश्यता निषेध कानून बनाकर छूआछूत एवं जातिवाद को बहुत अधिक सीमा तक समाप्त करने का प्रयास किया गया हेै ।
भविष्य के अध्ययन के लिए सुझाव शोधार्थी द्वारा इस शोधपत्र के माध्यम से शोधार्थियों के अध्ययन के भविष्य हेतु प्रमुख सुझाव दिये गये हैं। जिनके माध्यम से जाति व्यवस्था में निम्नलिखित रूप से परिवर्तन लाया जा सकता है या इसे समाप्त किया जा सकता है ।
1. उपरोक्त वर्णित जातिव्यवस्था के परम्परागत स्वरूप को परिवर्तित किया जा सकता है। भारत में नगरीकरण एवं औद्योगीकरण को बढावा दिया जाये, क्योंकि भारत में कारखानों के निर्माण होने से सभी
2. निम्न जातियां अपने पूर्व में स्थापित जाति प्रथा पर आधारित व्यवसाय को छोड़कर उद्योगों में अपना कार्य करना प्रारम्भ करेंगे। उच्च जातियों के नागरिकों के साथ कार्य करने से पारस्परिक सोहार्द , भाईचारा , एवं समानता स्थापित होगी ।
3. स्वतंत्रता एवं धार्मिक आन्दोलन -भारत की स्वतंत्रता से पूर्व भारतीय समाज सुधारकों के द्वारा सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन के माध्यम से जातिवाद के विरूद्ध आवाज उठाई गई उनके परिणाम स्वरूप ही अब सामूहिक भोजों ,सामूहिक अन्तर्रजातीय विवाहों की स्वतंत्रता को बढावा दिया जाये जिससे रक्त सम्बन्धों को बढावा मिलेगा एवं जातिवाद समाप्त होगा।
4. प्रजातंत्र की स्थापना स्वतंत्रता के पश्त भारतीय संविधान 1950 में अस्तित्व में आया उसके कानूनों को कठोरता से लागू किया जाये जिससे किसी के साथ रंग, लिंग, जाति किसी प्रकार से भेदभाव नहीं किया जायेगा ।
5. महिला शिक्षा को प्रोत्साहन -महिलाओं को पुरूषों के समान शिक्षा तथा समान शिक्षा की व्यवस्था की जाये जिससे की उनका सामाजिक आर्थिक राजनीतिक विकास हो सके और वे किसाी के शोषण का शिकार न बन सकंे । तथा सामाजिक कुप्रथाओं को दूर करने में सक्षम हो सके ।
6. संयुक्त परिवार के विघटना को रोका जाये एवं आर्थिक समानता विकसित की जाये जिससे गुण एवं कौशल को बढावा दिया जा सकें ।
7. संचार एवं यातायात के साधनों का विकास किया जाये जब सभी जातियों के लोग अनेक प्रान्तों,धर्मो,जातियों के लोग एक साथ बस एवं ट्रेन,हवाई जहाज में यात्रा करेंगे तो आपसी सहयोग ,सम्पर्क एवं समानता की भावना स्थापित हो सकेगी।
8. दण्ड़ की व्यवस्था का प्रावधान भारत में संवैधानिक कानूनेां ने जिनमें हिन्दू विवाह वैधकरण अधिनियम 1954, विशेष अधिनियम 1976, हिन्दू विवाह अधिनियम 1995, अस्पृश्यता अधिनियम 1955, एवं अनुच्छेद 15 तथा 1954 के अधिनियम द्वारा जमीदारी प्रथा को समाप्त किया गया। एवं जातिगत व्यवस्था के अलावा औद्योगीकरण व्यवसायों पर बल दिया गया । इसी प्रकार का कठोर कानून भारतीय संसद द्वारा एक और बनाया जाना चाहिए।
9. आर्थिक समानता के लिए सभी वर्ग के नागरिकों को रोजगार के समान अवसर प्रदान किये जायें ,जिससे कि निम्न जातियों लोग व्यवसायों में उच्च जाति के लोगों के आर्थिक शोषण का शिकार नहीं हो सकें।
10. विद्यालयों एवं महाविद्यालयों की स्थापना की जाये जिससे इनमें उच्च एवं निम्न जाति के छात्र-छात्रा शिक्षा ग्रहण कर सकें एवं निम्न जाति के व्यक्ति उच्च पदों को प्राप्त करेंगे तो नवयुवकों के मस्तिक में से प्रारम्भ से ही जातिवाद की भावना समाप्त हो जायेगी। एवं उनमें राष्ट्रीय भावना का विकास होागा ।
आभार शोधार्थी राजकीय कन्या महाविद्यालय शिवगंज सिरोही राजस्थान के प्राचार्य डाॅ़ रवि शर्मा एवं नोडल प्रभारी डॉ. नरपत सिंह देवड़ा एवं जिनमें संकाय सदस्य डाॅ़ संगीता रौतेला, डाॅ़ पंकज नागर ,डाॅ़ राजेन्द्र कुडी, अनामिका इन्दा ,डाॅ़ किशोर लाल मीणा एवं राजकीय पंचायत समिति शिवगंज के पुस्तकालय के अध्यक्ष श्री सोम प्रसाद एवं डाॅ़ पुरणमल बैरवा तथा श्रीमति गीता देवी ,जयवीर सिंह दौलिया,डाॅ़ सत्येन्द्र दौलिया,कोमल दौलिया, अनिता दौलिया तथा कम्प्यूटर ऑपरेटर तेजाराम उपरोक्त सभी का हृदय से आभार प्रकट किया गया है। जिन्होनें प्रत्यक्ष एवं अप्रत्यक्ष रूप से शोधार्थी के शोधपत्र को पूर्ण कराने में उन्होनें योगदान दिया ।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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