ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- IX December  - 2022
Anthology The Research
भारत-चीन सम्बन्ध: तनाव के मुद्दे
India-China Relations: Issues of Tension
Paper Id :  17132   Submission Date :  13/12/2022   Acceptance Date :  22/12/2022   Publication Date :  25/12/2022
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रामकल्याण मीना
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
झालावाड़,राजस्थान, भारत
सारांश भारत और चीन विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ है। चीन को भारत ने सितम्बर 1949 में नये राज्य के रूप में अपनी मान्यता प्रदान कर दी। चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही मित्रतापूर्ण रहा है। लेकिन भारत और चीन में मैत्रीपूर्ण एवं घनिष्ठ संबंधों में कुछ कठिनाइयां भी है। भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतंत्र है जबकि साम्यवादी चीन, आक्रामक, साम्राज्यवादी और विस्तारवादी है। भारत का शक्ति के रूप में उभरना, उसका आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होना और राजनीतिक सुदृढ़ता प्राप्त करना चीन के लिए ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य का कारण है। वर्तमान में भारत और चीन के मध्य तनाव के अनेक मुद्दे है जैसे तिब्बत, समस्या, भारत-चीन सीमा विवाद, कश्मीर समस्या, सीमा पर बढ़ती तनाव की घटनाएँ, सीपीईसी परियोजना, स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स, आतंकवाद, हिन्द महासागर, दक्षिण चीन सागर आदि।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India and China are the oldest civilizations of the world. India gave its recognition to China as a new state in September 1949. India's approach towards China has been friendly from the beginning. But there are some difficulties in the friendly and close relations between India and China. India is the world's largest democracy while communist China is aggressive, imperialist and expansionist. India's emergence as a power, its economic prosperity and gaining political strength is a reason for jealousy, malice and animosity for China. At present, there are many issues of tension between India and China such as Tibet problem, India-China border dispute, Kashmir problem, incidents of increasing tension on the border, CPEC project, String of Pullers, terrorism, Indian Ocean, South China Sea etc.
मुख्य शब्द मित्रता, शान्तिपूर्ण सह अस्तित्व, पंचशील, बफर स्टेट, शरणार्थी, मैकमोहन रेखा, सम्प्रभुता, अक्चाई चीन।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Friendship, Peaceful Coexistence, Panchsheel, Buffer State, Refugees, McMahon Line, Sovereignty, Akchai Chine.
प्रस्तावना
वर्तमान में भारत उभरती हुई महाशक्ति है। भारत का यह परिवर्तन चीन का आक्रामक, विस्तारवादी नीतियों की छाया में हो रहा है। चीन का प्रभाव निश्चित रूप से बढ़ता जा रहा है और एशिया के भू-राजनीतिक संतुलन को पहले ही अस्थिर कर चुका है। दोनों देशों के मध्य विवाद के अनेक मुद्दे है। चीन भारत के लिए प्रत्यक्ष रूप से सैन्य खतरा है। भारत तथा चीन के बीच अनसुलझे क्षेत्रीय विवाद हुए है जिसकी वजह से 1962 में युद्ध हुआ था तथा भारत में छुटपुट सैन्य संघर्ष भी हुए हैं चीन का बढ़ता दबदबा आर्थिक क्षमता और अपने उद्योग के लिए संसाधनों की बढ़ती भूख के चलते चीन हमारे पड़ौसी देशों से राजनयिक संबंध कायम कर रहा है। उन्हें लोन दे रहा है उनके यहां बन्दरगाह बनवा रहा है। हथियारों की सप्लाई कर रहा है भारत को चारों ओर से घेरने की कोशिश कर रहा है। चीन ने श्रीलंका व पाकिस्तान को अपने कर्ज जाल में फंसा लिया है। चीन कश्मीर और आतंकवाद के मुद्दों पर पाकिस्तान के साथ खड़ा रहता है। अतः भारत और चीन के मध्य तनाव के अनेक मुद्दे है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. भारत-चीन के मध्य विवाद के मुख्य बिन्दुओं का अध्ययन करना। 2. दोनों देशों के ईष्या, द्वेष और वैमनस्य के कारणों का अध्ययन करना। 3. भारत व चीन के मध्य ऐतिहासिक, सांस्कृतिक संबंधों का अध्ययन करना। 4. चीनी साम्यवादी प्रणाली का अध्ययन करना। 5. विवादों का अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में पड़ने वाले प्रभाव का अध्ययन करना। 6. दक्षिण एशिया में चीन की आक्रामक विदेश नीति का अध्ययन करना। 7. सीमा पर चीनी सैनिको की घुसपैठ का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

चडढा पी.के. ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक आदर्श प्रकाशन चौड़ा रास्ता जयपुर, 1987

प्रस्तुत पुस्तक में सत्रह अध्यायों को समाहित किया गया है जिनमें संयुक्त राष्ट्र संघ, शीतयुद्ध, गुटनिरपेक्षता, भारत, संयुक्त राज्य अमेरिका, सोवियत संघ, चीन की विदेश नीतियों को सम्मिलित किया गया है। साथ ही पड़ौसी देशों के साथ भारत के संबंधों का विस्तृत उल्लेख किया गया है। पुस्तक में नवीन घटनाओं को जोड़ा गया है तथा नवीन तथ्यों के प्रकाश में आने से प्राचीन घटनाओं का नवीन विश्लेषण भी किया गया है।

फड़िया डॉ. बी. एल. कुलदीप ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक साहित्य भवन आगरा 2018

प्रस्तुत पुस्तक में अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन के मुख्य उद्देश्य, राष्ट्रों के आपसी व्यवहार तथा आचरण के मूल कारणों का ज्ञान कराना है। पुस्तक में भारत, चीन, रूस, संयुक्त राज्य अमेरिका की विदेश नीतियों का उल्लेख है तथा भारत के अन्य देशों से संबंधों के बारे में बताया गया है।

मिश्रा राजेश ’’भूमण्डलीकरण के दौर में भारतीय विदेश नीति’’ सरस्वती IAS 2015

प्रस्तुत पुस्तक में विश्लेषणात्मक एवं व्यावहारिक दृष्टिकोण पर अत्यधिक बल दिया गया है। पुस्तक में भारत के अन्य देशों से संबंधों का उल्लेख है तथा भारतीय विदेश नीति के मुद्दों का उल्लेख सहज एवं सरल रूप में प्रस्तुत किया गया है।

बिस्वाल तपन ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक ओरियन्ट ब्लैकस्वान हैदराबाद, 2022

प्रस्तुत पुस्तक में समसामयिक, अन्तर्राष्ट्रीय संबंधों के केन्द्रीय मुद्दों, संकल्पनाओं एवं आयामों को स्पष्ट किया गया है।

दीक्षित जे.एन. ’’भारतीय विदेश नीति ’’प्रभात पैपर बैक्स नई दिल्ली 2018

प्रस्तुत पुस्तक की विषय वस्तु को तीन व्यापक खण्डों में बाँटा है। पुस्तक में भारतीय विदेश नीति तथा इसके प्रमुख आधारो के विकास का वर्णनात्मक, कालक्रमानुसार विश्लेषण प्रस्तुत किया है। पिछले 50 वर्षों के दौरान महत्वपूर्ण घटनाओं या मुद्दों के प्रति अपनाया गया रवैया इस चर्चा का केन्द्र बिन्दु है।

पंत पुष्पेश ’’21 वी शताब्दी में अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक McGraw hill education India new Delhi, संस्करण 2014

प्रस्तुत पुस्तक को आठ भागों में विभक्त किया गया है। जिसमें मुख्य रूप से भारतीय विदेश नीति की भूमिका, विदेश नीति के सिद्धान्त, विदेश नीति के प्रमुख मुद्दे, गुटनिरपेक्षता, के बारे में बताया गया है। साथ ही एशिया के संघर्ष, भारत के महाशक्तियों से संबंधों का अध्ययन किया गया है।



शौरी अरुण, ’’भारत-चीन संबंध’’ प्रकाशक प्रभात प्रकाशन 4/19 आसफ अली रोड़, नई दिल्ली, 2009

प्रस्तुत पुस्तक में 13 अध्याय है जिसमें बताया गया है कि भारत-चीन संबंधों में आरोहो-अवरोधों का एक लम्बा इतिहास रहा है। हिन्दी-चीनी भाई-भाईका नारा लगाते हुए भी सन् 1962 में चीन ने भारत पर आक्रमण किया। इनके बाद भी चीन भारत के अनेक क्षेत्रों में लगातार अतिक्रमण करता रहा है। चीन के प्रति आत्मसमर्पण की स्थिति हमारी नीतियों के कारण ही है। यह पुस्तक उन भ्रान्तियों की रूपरेखा प्रस्तुत करती है जिसने पंडित नेहरू को भी भ्रमित कर दिया और जिसके फलस्वरूप देश को भारी क्षति उठानी पड़ी।

माधव राम, ’’असहज पड़ौसी युद्ध के 50 वर्षो बाद भारत और चीन- प्रकाशक प्रभात पेपर बैक्स 4/19 आसफ अली रोड़, नई दिल्ली, 2015

प्रस्तुत पुस्तक 21 अध्यायों में विभक्त है। पुस्तक में मुख्य रूप से तिब्बत का इतिहास, नेहरू का साम्यवाद प्रेम, चीन के निरंतर बढ़ते दावों, युद्ध और उसके बाद, युद्ध की कला, सामरिक घेराबंदी आदि बिन्दुओं को समाहित किया है। पुस्तक में तीन प्रमुख समसामयिक चुनौतियों जैसे पहली चुनौती-सीमा पर बुनियादी ढाचा दूसरी चुनौती नदियों का पानी तीसरी चुनौती अनसुलझे सीमा विवाद पर प्रकाश डाला है।

मुख्य पाठ

भारत और चीन दोनों विश्व की प्राचीन सभ्यताएँ है साम्यवादी क्रांति के बाद 1 अक्टूबर 1949 को चीन साम्यवादी गणराज्य की स्थापना की घोषणा की गई तथा भारत ने 30 सितम्बर 1949 को नये राज्य को अपनी मान्यता प्रदान कर दी। अमेरिका की नाराजगी की कीमत पर भी भारत ने कोरियाई युद्ध में चीन का समर्थन किया। यू.एन.ओ. में भारत ने उस प्रस्ताव का विरोध किया जिसमें चीन को आक्रान्ता घोषित किया गया था। भारत ने अमेरिका की उन नीतियों की सर्वदा आलोचना की जो चीन को अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलनों या संस्थाओं में उचित स्थान दिलाने में बाधा प्रस्तुत करती थी। लेकिन चीन भारतीय मित्रता का हृदय से कभी इच्छुक नहीं रहा दूसरी ओर चीन के प्रति भारत का दृष्टिकोण प्रारम्भ से ही मित्रतापूर्ण रहा   है। भारत उसकी मित्रता का हृदय से इच्छुक था और आज भी है। विण्सेण्ट शीयन के शब्दों में ’’चीनियों के साथ मित्रता प्राप्त करने में जितना प्रयास नेहरू ने किया है उतना इस पृथ्वी पर किसी ने नहीं किया।’’[1]

वस्तुतः भारत और चीन में मैत्रीपूर्ण एवं घनिष्ठ संबंधों के मार्ग में मुख्यतः निम्न कठिनाइयाँ है।[2]

प्रथम, भारत की राजनीतिक, आर्थिक एवं सामाजिक व्यवस्थाएँ तथा संस्थाएँ चीनी साम्यवादी प्रणाली और उसकी संस्थाओं से भिन्न है द्वितीय भारत की विदेश नीति शांतिपूर्ण सहअस्तित्व एवं पंचशील के सिद्धान्तों पर आधारित है। दूसरी ओर, साम्यवादी चीन के इरादे आक्रमक, साम्राज्यवादी और विस्तारवादी है इसकी इच्छाएँ एशियाँ में एकाधिकार की है और उसके साधन तोड़ फोड़, आतंक, क्रांति, कपट और हिंसा है। माओं नीति शक्ति को ’’बन्दूक की नली’’ से प्राप्त करती है। तृतीय, एशिया में भारत जनसंख्या, शक्ति और प्राकृतिक साधनों में चीन का प्रतिद्वन्दी बनने की क्षमता रखता है। चीन को यह पसन्द नहीं है कि भारत उसका प्रतिद्वन्दी बने। वह विश्व को यह बताना चाहता है कि भारत एशिया का एक कमजोर देश है और उसकी स्थिति दूसरे दर्जे की है। भारत का शक्ति के रूप में उभरना, उसका आर्थिक दृष्टि से सम्पन्न होना और राजनीतिक सुदृढ़ता प्राप्त करना चीन के लिए ईर्ष्या, द्वेष और वैमनस्य का कारण है।

भारत और चीन के मध्य तनाव के मुद्दे निम्न हैः-

तिब्बत:- भारत के उत्तर में स्थित है एवं भारत के अतिरिक्त उसकी दक्षिणी सीमा पर नेपाल और म्यांमार (बर्मा) तथा उत्तरी सीमा पर चीन का सिक्यांग प्रान्त स्थित है। तिब्बत के धार्मिक नेता दलाई लामा वहाँ के राज्याध्यक्ष भी हुआ करते थे। तिब्बत की सामाजिक व्यवस्था प्राचीन और सामन्तवादी परम्पराओं पर आधारित थी। ब्रिटिश सरकार ने वर्ष 1906 में चीन के साथ हस्ताक्षरित एक अन्य संधि के द्वारा तिब्बत को चीन की प्रभुता के अधीन स्वीकार कर लिया। इस संधि को ब्रिटिश सरकार के द्वारा चीन पर आरोपित संधि की संज्ञा दी गई। इसके अनुसार यह व्यवस्था की गई कि ल्हासा में एक ब्रिटिश प्रतिनिधि नियुक्त किया जाएगा तथा ग्यांगट्सी तक भारत, तिब्बत के लिए डाक-व्यवस्था स्थापित करेगा तथा व्यापार मार्गों की सुरक्षा के लिए भारत को तिब्बत में अपने सैनिक तैनात करने का अधिकार भी    मिला।[3]

1912 में चीन के साथ सैन्य संघर्ष के पश्चात् 13 वे दलाई लामा ने तिब्बत को एक स्वतंत्र गणराज्य घोषित कर दिया था। इसके पश्चात् 1913-14 में ब्रिटेन, चीन और तिब्बत के प्रतिनिधियों की शिमला में बैठक हुई जिसे ’’शिमला समझौता’’ के नाम से भी जाना जाता है। ’’शिमला सम्मेलन’’ में भारत का प्रतिनिधित्व ब्रिटिश प्रतिनिधिमंडल के एक सदस्य आर्थर हेनरी मैकमोहन ने किया था। इसमें ’’मैकमोहन रेखा का भी निर्माण किया गया। इस रेखा पर चीन, तिब्बत और ब्रिटिश भारत के प्रतिनिधियों ने हस्ताक्षर किये थे। इससे पूर्व एक बैठक में तिब्बत को बाहृय तथा आन्तरिक दो भागों में विभाजित किया गया था। बाहृय तिब्बत की स्वतंत्रता स्वीकार कर ली गई और चीन ने उसके आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करने का वचन दिया तथा यह भी वचन दिया कि चीन के सैनिक बाहृय तिब्बत में तैनात नहीं किये जायेंगे। इस प्रकार बाहृय तिब्बत और भारत का सीमा-विभाजन ऊँची पर्वतमाला के मध्य किया गया। इसी निर्धारित रेखा को ’’मैकमोहन रेखा’’ कहा जाता है। अतः तिब्बत, भारत और चीन के मध्य ’’बफर स्टेट’’ की भाँति कार्य करता था। चीन की किसी भी सरकार ने 1912 से लेकर 1949 तक ’’तिब्बत स्वायत्त क्षेत्र’’ पर नियंत्रण नहीं किया। परन्तु 1950 में नवगठित साम्यवादी सरकार ने यह घोषणा की कि तिब्बत को स्वतंत्र कराना चीन को सेना का प्रमुख कार्य है। चीन की ’’पिपुल्स लिबरेशन आर्मी’’ ने तिब्बत पर हमला कर दिया और चीन के द्वारा तिब्बत पर नियंत्रण कर लिया गया तथा चीन सेनाएँ तिब्बत में तैनात हो गई।[4]

भारत के विरोध पर चीन ने कड़ा रूख अपनाते हुए यह उत्तर दिया कि ’’पश्चिमी की साम्राज्यवादी नीति से प्रभावित भारत चीन के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप करने का साहस न करे।’’[5]

तिब्बत पर चीन के नियंत्रण के बाद तिब्बतियों में चीन के विरूद्ध आक्रोश उत्पन्न हो गया, जिसके परिणामस्वरूप तिब्बत में संघर्ष उत्पन्न हुए। तिब्बतियों का चीन के द्वारा कठोर दमन किया गया, जिसके परिणामस्वरूप मार्च 1959 के मध्य में तिब्बत की राजधानी ल्हासा में आकस्मिक विद्रोह शुरू हो गया, इसके परिणामस्वरूप चीनी और तिब्बती लोगों में हिंसात्मक संघर्ष आरंभ हो गया। चीन ने विद्रोह का इतना भीषण दमन किया कि दलाई लामा को अपनी सत्ता छोड़कर गोपनीय मार्ग से भारत के लिए पलायन करना पड़ा तथा उनके साथ हजारों तिब्बतवासी भी भारत आ गए। भारत ने उन्हें राजनीतिक शरण अवश्य प्रदान की परन्तु इस शर्त पर कि वे भारत की भूमि से चीन के विरूद्ध कोई आन्दोलन नहीं चलाऐंगे। लेकिन चीन ने इसे ’’शत्रुतापूर्ण कार्य’’ बतलाया और भारत पर विस्तारवादी होने का आरोप भी लगाया। चीन ने भारत को चुनौती भी दी की ’’पंचशील’’ की शर्तों को अब वह अपनी सुविधा के अनुसार निभायेगा। अगस्त 1959 में चीन ने नेफा में लोगजू नाम की चौकी को हस्तगत कर लिया। नेहरूजी ने इसे ’’आक्रमण’’ की संज्ञा दी और भारतीय अखण्डता और सीमाओं की रक्षा करने के निश्चय को दोहराया। चाऊ-एन-लाई ने 1959 में भारत पर यह आरोप लगाया की वह तिब्बत में सशस्त्र विद्रोहियों को संरक्षण दे रहा है। दलाई लामा जब तिब्बत छोड़कर भारत आए थे तो वे यह मानकर चल रहे थे कि वे भारत और अमेरिका के सहयोग से तिब्बत को आजाद करा लेंगे। किन्तु 1972 में अमेरिकी राष्ट्रपति ’’निक्सन’’ की चीन यात्रा से दलाई लामा का यह सपना धूमिल होने लगा और वे 1974 से ही तिब्बत को चीन से अलग नहीं बल्कि अधिक स्वायत्तता की मांग और तिब्बती नागरिकों के अधिकारों की रक्षा की बात करने लगे। हालिया ताजा विवाद नए दलाई लामा की नियुक्ति को लेकर उत्पन्न हो गया। तिब्बती धर्मगुरू हाल ही में कह चुके है कि उनका उत्तराधिकारी सम्भवतः भारत से ही हो सकता है जबकि पड़ौसी देश ने दावा किया है कि दलाई लामा के उत्तराधिकारी को चुनने का अधिकार सिर्फ उसे ही है, दलाई लामा को नहीं। चीनी राजाओं तथा विधाओं के अनुरूप ही दलाई लामा के उत्तराधिकारी की नियुक्ति करने का अधिकार उसके पास है। दलाई लामा की इस प्रक्रिया से चीन बेहद नाराज है और बीजिंग का कहना है कि उत्तराधिकार को लेकर उसकी बात मानी जानी चाहिये।[6]

भविष्य में तिब्बत का मुद्दा भारत के लिए अत्यधिक निर्णायक महत्त्व का है जिसके निम्न कारक है-[7]

1. चीन का प्रयास है कि दलाई लामा के साथ समझौता करके भारतीय क्षेत्रों का अपना दावा और शक्तिशाली रूप में प्रस्तुत किया जाये।

2. अरूणाचल प्रदेश के तवांग और सिक्किम जैसे क्षेत्रों में बौद्ध धर्मावलम्बियों की संख्या अधिक है तथा अधिकांश बौद्ध मठों पर तिब्बतियों का प्रभाव है जिन पर दलाई लामा का प्रभाव है।

3. दलाई लामा ने कभी-कभी विवादास्पद दृष्टिकोण या बयान भी दिया है जिससे भारतीय विदेश नीति के लिए सतर्क रहने की आवश्यकता है।

4. दलाई लामा पर भारतीय प्रभाव के कारण भारत, चीन पर दबाव बनाने में सफल होता है क्योंकि दलाई लामा भारत को गुरूदेश का दर्जा देते है। दलाई लामा के अनुयायी पूरी दुनिया में है।

5. भारत में बड़ी संख्या में तिब्बती निवास कर रहे है यदि ये लोग आक्रामक आन्दोलन करते है तो भारतीय सुरक्षा भी प्रभावित होगी। भारत में 120,000 तिब्बती शरणार्थी तथा नेपाल में 20,000 हजार तिब्बती शरणार्थी निवास कर रहे है।

सीमा विवाद:- भारत-चीन संबंधों में कटुता पैदा करने वाली मूल समस्या सीमा विवाद है। सीमा विवाद दो मुद्दों पर है उत्तर पूर्व में मैकमोहन रेखा और उत्तर पश्चिम में लद्दाख-जहाँ उत्तर पूर्व की सीमा के संबंध में अपै्रल 1914 में शिमला सम्मेलन का उल्लेख मिलता है वहाँ उत्तर पश्चिम की सीमा के संबंध में किसी सम्मेलन या अभिलेख का उल्लेख नहीं मिलता दूसरे शब्दों में जहाँ उत्तर-पूर्वी सीमा मैकमोहन रेखा का परिणाम है, वहां उत्तर-पश्चिमी सीमा परम्परागत सीमा पर आधारित है। शिमला सम्मेलन में ब्रिटिश, तिब्बती और चीनी प्रतिनिधियों ने बाहृय तिब्बत और भारत के बीच की ऊँची पर्वत श्रेणियों को सीमा मानकर एक नक्शे में लाल पैन्सिल से निशान कर दिया। यही सीमा रेखा मैकमोहन रेखा के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1959 तक चीन को मैकमोहन रेखा के संबंध में कोई आपत्ति नहीं थी। परन्तु  इस वर्ष चीन ये यह दावा किया की दोनों देशों के बीच सीमाओं का विधिपूर्वक निर्धारण कभी नहीं हुआ। अतः वह मैकमोहन रेखा को पूर्णतः अस्वीकार करता है। वस्तुतः 1956 में ही ’’चाइना पिक्टोरियल’’ में भारत और भूटान के अनेक प्रदेश चीन की सीमा के अन्तर्गत दिखाये गये थे। जब नेहरूजी ने चीन का ध्यान इन नक्शों की ओर दिलाया तो चीन ने इसे यह कहकर टाल दिया कि ’’ये नक्शे पुराने नक्शे के आधार पर छपे है।’’ अतः इस संबंध में भारत को परेशान होने की आवश्यकता नहीं। परनतु 1960 की रंगून वार्ता के बाद जो प्रतिवेदन प्रकाशित किया गया उसमें 50 हजार वर्गमील के भारतीय प्रदेश पर चीन ने अपना दावा प्रस्तुत किया। अनाधिकृत रूप से 12 हजार वर्गमील के इलाके पर उसने अपना अधिकार भी स्थापित कर लिया है।[8]

जबकि अपै्रल 1954 में भारत और चीन ने तिब्बत के संबंध में एक आठ वर्षीय समझौते पर हस्ताक्षर किये। जिसने पंचशील के रूप में उनके संबंधों की नींव रखी। इस प्रकार 1950 के दशक में चीन के साथ भारत की कूटनीति का प्रमुख नारा ’’हिन्दी-चीन भाई-भाई था।’’ 1959 तक भारतीय और चीनी मानचित्रों के बीच सीमा विवाद के बावजूद चीनी नेताओं ने मैत्रीपूर्ण ढंग से भारत को यही आश्वासन दिलाया कि सीमा पर कोई प्रादेशिक विवाद नहीं है। 20 अक्टूबर 1962 को चीनी सेनाओं ने भारत पर आक्रमण कर दिया। भारतीय सेनाएँ इस अकस्मात हमले के लिए तैयार नहीं थी। चीनी सेनाएँ सीमा पार कर भारत के क्षेत्र में घुस गई तथा उन्होंने हजारों वर्गमील भू-भाग पर कब्जा कर लिया। इसके बाद वे उत्तर-पूर्वी सीमान्त प्रदेश की और बढ़ने लगी। अचानक 21 नवम्बर 1962 को चीन ने एकपक्षीय युद्ध विराम की घोषणा कर दी और अपनी नई नियंत्रण सीमा के पीछे बीस किमी. तक का स्थान खाली कर दिया। चीन की ओर से यह अनपेक्षित युद्ध भारत के लिए एक कड़वा अनुभव था जिसका दोनों देशों के संबंधों पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा।[9]

चीन और भारत के संबंधों के सुधार में सबसे बड़ी बाधा सीमा विवाद है चीन की मान्यता है कि हुआंग हुआ के शब्दों में ’’सीमा विवाद को बिना हल किये संबंधों को सुधारा जा सकता    है।’’ जबकि भारत की मान्यता है कि इस विवाद को हल किये बिना संबंधों में सुधार की गुंजाइश नहीं।[10] 

चीन भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया पर अपनी ’’चौधराहट’’ जमाना चाहता है जबकि भारत एशिया को सभी बड़ी शक्तियों से स्वतंत्र रखना चाहता है। 1981 में चीन के तत्कालीन प्रधानमंत्री चाओ च्यांग ने जून 1981 की नेपाल यात्रा के दौरान लेन-देन (पैकेज डील) के आधार पर भारत-चीन सीमा विवाद निपटाये जाने की संभावना का उल्लेख किया था। चीन का कहना है कि ’’विवाद का हल नियंत्रण की वर्तमान रेखा को आधार मानकर ढूंढा जा सकता है। उसके अनुसार पूर्वी क्षेत्र में चीन मैकमोहन रेखा को स्वीकार कर सकता है बशर्ते की भारत पश्चिमी क्षेत्र में यथास्थिति स्वीकार कर ले। यथास्थिति को स्वीकार करने का मतलब लद्दाख और अक्साई चिन के उस हिस्से को चीनी हिस्सा मान लेना है जो चीन के गैर कानूनी कब्जे में है। वह हिस्सा भारत का अभिन्न अंग है। भारत चीन के इस प्रकार के सुझाव को स्वीकार नहीं कर सकता। भारत हर क्षेत्र में अलग-अलग बात करना चाहता है और कोई हल निकालना, चाहता है। नियंत्रण की वास्तविक रेखा के आधार पर मैकमोहन रेखा को स्वीकार करने का मतलब यह होगा कि भारत ने उस नयी सीमा को एक प्रामाणिक अन्तर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के रूप में औपचारिक स्वीकृति दे दी है। ऐसा करके भारत उन क्षेत्रों पर से अपना सार्वभौमिक अधिकार खो देगा जो आजादी मिलने के वक्त उसे भारतीय भूमि के रूप में मिले थे। भारतीय तर्क के अनुसार पश्चिमी क्षेत्र में क्वेन लुंग पर्वत शृंखला सीमा होगी और अक्साई चिन उसका क्षेत्र होगा न की चीन का। इसी तरह पूर्वी क्षेत्र मैकमोहन रेखा में थोड़े बहुत परिवर्तन के साथ थागला क्षेत्र में भारत-चीन-भूटान के मिलन बिन्दु वाली जगह सीमा होगी।[11]

भारत के राष्ट्रपति के.आर. नारायण ने मई-जून 2000 में चीन की राजकीय यात्रा की थी। जिसमें दोनों ने उलझे हुए सीमा विवाद के तर्कसंगत हल पर सहमति व्यक्त की थी। दोनों देशों के बीच चालीस वर्ष पुराने सीमा विवाद को इतिहास की देन बताते हुए चीनी राष्ट्रपति जियांग झेमिन ने इसके समाधान के लिए तीन नारे दिए- पारस्परिक समायोजन, पारस्परिक सद्भाव और पारस्परिक निपटारा।[12]

कश्मीर समस्या:- वर्ष 1962 के भारत चीन युद्ध के पश्चात् चीन ने कश्मीर को एक विवादास्पद क्षेत्र माना। कश्मीर में पाकिस्तान के जनमत संग्रह की मांग का समर्थन किया। कश्मीर के निवासियों के लिए स्टेपल वीजा प्रदान कर रहा है और कश्मीर में तैनात सैनिक अधिकारयों के चीन यात्रा पर भी प्रतिबन्ध लगा दिया। चीन के शक्तिशाली उभार के कारण उसकी विदेश नीति भारत के प्रति लगातार आक्रामक हो रही है।[13]

सीमा पर तनावपूर्ण घटनाएँ:- वर्तमान में चीन ने पूर्वी लद्दाख में नियंत्रण रेखा पर पोगोंक सो, पीपी 17 ।ए हॉट स्प्रिंग, गलवा घाटी तथा डेपसांग पठार क्षेत्रों में भारी संख्या में पिपुल्स लिब्रेशन आर्मी के हजारों सैनिक तैनात कर दिए। इन सभी क्षेत्रों में भारी मात्रा में सैन्य सामग्री जमा की तथा कई स्थानों पर स्थायी निर्माण भी किया। उदण्डता की पराकाष्ठा उस समय हो गई जब 15 जून 2020 को चीनी सैनिकों ने लोहे के डण्डों कटीले तार लगे डण्डों से लेस होकर भारतीय सैनिकों पर हमला करके एक सैन्य अधिकारी सहित 20 सैनिकों को मार डाला। अमेरिकी मीडिया के अनुसार इस झड़प में चीन के 43 जवानों को जान गवानी पड़ी। जून 2017 में चीनी सेना ने भारत के मित्र राष्ट्र भूटान के दोकलाम के दक्षिण की ओर अनाधिकृत रूप से सड़क का निर्माण प्रारम्भ कर दिया। भारत के तीव्र विरोध के चलते चीनी सैनिकों को अन्ततः पीछे हटना पड़ा।[14]

चीन अपने नापाक मसूबों से बाज़ नहीं आ रहा है कहीं पर निगाहे और कही पर निशाना रखने वाला चीन एक बार फिर उसी साजिश के तहत खड़ा दिखाई दे रहा है। लद्दाख तो बहाना है। दरअसल कब्जा तवांग पर पाना है। तवांग भारत और चीन के बीच विवाद की अहम वजह है। जब-जब देश का कोई बड़े नेता या विदेशी ब्यूरोक्रेट अरूणाचल प्रदेश का दौरा करता है तो चीन को इससे आपत्ती होती है फिर चाहे प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का अरूणाचल प्रदेश का दौरा हो या 2016 में उस उक्त के अमेरिकी राजदूत रिचर्ड वर्मा का दौरा हो या खुद दलाई लामा का अरूणाचल का दौरा हो। चीन अरूणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत बताता है। चीन चाहता है कि तवांग उसका हिस्सा रहे जो कि तिब्बती बौद्धों के लिए काफी अहम है। चीन लगातार दलाई लामा विरोध करता रहा है 84 साल के दलाई लामा साल 2017 में असम की राजधानी गुवाहाटी पहुंचे थे वहां से तेजपुर, बोंडिला, दिरांग होते हुए तवांग और अरूणाचल के कंमाग के जिले तक गए थे। चीन हमेशा से दलाई लामा को अलगाववादी नेता मानता है और कहता है क वह साल 1959 में असफल सैन्य विद्रोह के बाद तिब्बत से भागकर भारत आए थे। वह सबसे पहले तवांग ही पहुंचे थे। भारत की जमीन पर कदम रखने के साथ ही दलाई लामा ने निर्वासित तिब्बती सरकार की सभी संस्थाओं को फिर से खड़ा करने की कोशिश शुरू की थी। उन्हीं के संरक्षण में भारत में निर्वासित तिब्बती सरकार का अस्तित्व बरकरार है। ऐसे में चीन को यह बात बार-बार खटकती रहती है कि भारत ने दलाई लामा को भारत में रहने की इजाजत दी है।[15]

सीपीईसी परियोजना:- (चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर) भारत के लिए सबसे बड़ी चुनौती चीन-पाकिस्तान आर्थिक कॉरिडोर भी है। सीपीईसी परियोजना का संबंध चीन के झिजियांग प्रान्त में कशगर को पाकिस्तान में ग्वादर की रणनीतिक बंदरगाह को जोड़ने से है। भारत के लिए हमेशा से ग्वादर पोर्ट पर चीन पाकिस्तान का संबंध चिंता का विषय रहा है। भारत के एक अभिन्न अंग, पाकिस्तान के अधिकृत कश्मीर में सीपीईसी परियोजना रणनीतिक गिलगिट-बालिस्तान क्षेत्र के माध्यम से चलाया जाता है। इससे साफ जाहिर होता है कि भविष्य में कश्मीर विवाद में ’’चीन प्रत्यक्ष पार्टी’’ के रूप में उभर सकता है। 15 मई 2017 को द फर्स्ट वन बेल्ट, वन रोड़ (ओबोर) शिखर सम्मेलन बीजिंग (चीन) में सम्पन्न हुआ था शिखर सम्मेलन में 57 देशों के प्रतिनिधियों के लिए वन बेल्ट, वन रोड़ पहल के तहत व्यापार मार्गों के नेटवर्क का निर्माण करने की चीन की योजनाओं का प्रदर्शन किया गया। भारत ने सम्प्रभुता, प्रक्रियाओं और नेतृत्व से संबंधित कुछ मुद्दों को लेकर इस सम्मेलन का बहिष्कार किया था।[16]

चीन की ’’मोतियों की माला’’ रणनीति:- (स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स) सीआईडीएस, एयर मार्शल पीपी रेड्डी ने 5 जनवरी 2015 को नई दिल्ली के रक्षा क्षेत्र में आत्मनिर्भरता नाम के एक सम्मेलन में स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स के बारे में बताया था। अपने पॉवर प्वॉइंटभाषण में एक-एक कर रेड्डी ने बताया कि सामरिक और भौगोलिक नक्शे पर भारत की स्थिति क्या है। उन्होंने बताया कि हमारे देश के ’’उत्तर में चीन है और पश्चिम में पाकिस्तान है। दोनों ही देश परमाणु हथियारों से लैस है।’’ ऐसे में अगर दोनों देशों से एक साथ युद्ध की नौबत आ गई तो हम क्या करेंगे। यानि ’’दो-दो मोर्चो पर एक साथ परमाणु युद्ध के लिए भारत को तैयार रहना होगा।’’ रेड्डी ने कहा कि चीन का बढ़ता (क्षेत्रीय) दबदबा, आर्थिक क्षमता और अपने उद्योग के लिए संसाधनों की बढ़ती भूख के चलते चीन हमारे पड़ौसी देशों से राजनयिक संबंध कायम कर रहा है। उन्हें लोन दे रहा है उनके यहां बन्दरगाह बनवा रहा है, हथियारों की सप्लाई कर रहा है चीन हमारे चारों तरफ स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स बनाना चाहता है।[17]

आतंकवाद:- भारत पिछले तीन दशकों से सीमा पार आतंकवाद का मुकाबला कर रहा है। चीन-पाकिस्तान को आतंकवाद प्रायोजित करने वाला राष्ट्र नहीं मानता है। समरकंद में शंधाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के एक दिन बाद ही चीन का भारत विरोधी रवैया देखने को मिला है। उसने साजिद मीर को ग्लोबल टेररिस्ट की सूची में शामिल करने के मुद्दे पर वीटों कर दिया और प्रस्ताव को रोक दिया। साजिद मीर मुम्बई पर हुए 26/11 हमले का हैंडलर है। अमेरिका ने मीर को काली सूची में डालने के लिए संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में प्रस्ताव रखा था और भारत ने इसका समर्थन किया था। इससे पहले भी चीन ने जैश-ए-मोहम्मद के प्रमुख मसूद अजहर के भाई और पाकिस्तान स्थित आतंकी संगठन के सरगना अब्दुल रऊफ अजहर को ब्लैक लिस्ट करने के लिए अमेरिका समर्थित प्रस्ताव पर रोक लगा दी थी। वह मसूद अजहर को वैश्विक आतंकी घोषित करने के प्रस्ताव में भी बाधित बना था।[18]  

कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटने से चीन नाराज:- भारत सरकार द्वारा कश्मीर में अनुच्छेद 370 हटाने के कदम का चीन ने विरोध किया है। चीन का विरोध विशेषतौर पर लद्दाख क्षेत्र को जम्मू कश्मीर से हटाकर केन्द्र शासित प्रदेश बनाने का है। लद्दाख से सटे अक्साई चीन क्षेत्र को लेकर विवाद जारी है। चीनी विदेश मंत्रालय की प्रवक्ता हुअ चुनइंग कहती है ’’चीन अपनी पश्चिमी सीमा पर चीनी क्षेत्र को भारत के अपनी सीमा में दिखाए जाने का हमेशा विरोध करता है।’’ उन्होंने आगे कहा ’’हाल ही में भारत ने अपने घरेलू कानून में बदलाव करके चीन की सम्प्रभुता पर सवाल खड़ा किया है, भारत का यह कदम अस्वीकार्य है और इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ेगा।’’[19]

क्षेत्रफल के हिसाब से आज कश्मीर के केवल 45 प्रतिशत हिस्से पर ही भारत का वास्तविक नियंत्रण है जबकि पाकिस्तान का लगभग 35 प्रतिशत कश्मीर पर नियंत्रण है बाकि 20 प्रतिशत हिस्सा चीन के नियंत्रण में है। चीन ने अक्साई चीन के करीब 38 हजार वर्ग किमी. इलाके को अपने अधिकार में कर लिया था। ये इलाके लद्दाख से जुड़े है। चीन ने यहाँ नेशनल हाइवे 219 बनाया जो पूर्वी प्रान्त को शिन्जियांग से जोड़ता है।[20] 

परमाणु मुद्दा:- वर्ष 1964 में चीन ने परमाणु परीक्षण किया था परिणामस्वरूप भारत ने भी वर्ष 1974 में शांतिपूर्ण परमाणु परीक्षण किया। जिसे चीन ने परमाणु ब्लैकमेल की संज्ञा दी। 11 और 13 मई 1998 को भारत द्वारा किए गए परमाणु परीक्षणों तथा परमाणु सम्पन्न राष्ट्र के रूप में की गई घोषणा से दक्षिण एशियाई देशों के साथ चीन के संबंधों में गुणात्मक दृष्टि से परिवर्तन आने लगा। भारत के रक्षा मंत्री जार्ज फर्नाडीज ने अपने वक्तव्यों में परमाणु परीक्षण से पूर्व चीन को ’’प्रमुख चुनौती माना है तथा प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने परमाणु-सम्पन्न देशों के अध्यक्षों को पत्र में यह लिखा है कि चीन के खतरे के कारण भारत परमाणु अस्त्रीकरण के लिए बाध्य हो गया है। इससे दक्षिण एशियाई देशों में व्याप्त शांति के माहौल में बदलाव आने लगा है।[21]

भारत द्वारा परमाणु परीक्षण के बाद भारत और चीन के संबंध अत्यधिक कटु हो गए तथा चीन ने सुरक्षा परिषद् में 1172 नामक प्रस्ताव लाते हुए भारत पर कड़े प्रतिबंध की मांग की। वर्ष 2005 के भारत-अमेरिका सिविल परमाणु समझौते का विरोध करने वाला चीन मुख्य राष्ट्र था।[22]

भारत-अमेरिकी संबंधों में बढ़ती साझेदारियाँ:- वर्तमान में भारत और अमेरिका के बीच निकट व्यापारिक और प्रगाढ़ सामरिक संबंधों का विकास हो रहा है और अमेरिका भारत का सबसे बड़ा सामरिक साझेदार बन चुका है। भारत-अमेरिका के बढ़ते सामरिक संबंधों के परिणामस्वरूप चीन के द्वारा भारत के साथ सीमा विवाद के मुद्दे पर सख्त दृष्टिकोण अपनाया जा रहा है और चीन भारत पर दबाव बनाना चाहता है।

बह्मपुत्र नदी पर बाँध का मुद्दा:- चीन द्वारा तिब्बत में ब्रह्मपुत्र नदी पर बांधों की एक शृंखला बनाने की सूचना नम्बर 2010 में प्राप्त हुई। चीन द्वारा तिब्बत में जांगमू जल विद्युत परियोजना का निर्माण आरम्भ कर चुका है। नया विवाद वर्ष 2013 में उत्पन्न हुआ। जब चीन ने तिब्बत में 3 नए बांधों के निर्माण की घोषणा की। भारत के अनुसार ब्रह्मपुत्र नदी उत्तरी-पूर्वी राज्यों की जीवन रेखा है और पानी के विस्थापन से इस क्षेत्र पर न केवल आर्थिक प्रभाव पड़ेगा, बल्कि पारिस्थितिकी असंतुलन भी पैदा होगा।[23]

हिन्द महासागर:- दक्षिण एशियाई समुद्री क्षेत्र में चीन का बढ़ता प्रभाव भारत के लिए एक समस्या बना हुआ है। कोलबो (श्रीलंका) ने चीनी ऋण से अनेक परियोजनाओं को शुरू किया जो सफेद हाथी सिद्ध हुई है। इस दबाव में उसने हंबनटोटा बंदरगाह भी चीन को 99 साल की लीज पर दे दिया है। चीन के पास आज दुनिया की सबसे बड़ी नौसेना है। वह तेजी से सैन्य जहाजों का उत्पादन कर रहा है। चीन अब युद्ध पोतों का उपयोग करके ग्रे जोन समुद्री रणनीति की एक विस्तृत शृंखला तैनात कर सकता है। हाल में उसने ताइवान जलण्डमरूमध्य में ऐसा कर दिखाया है। 2019 में एक और चीनी पोत ने वियतनामी अपतटीय ब्लॉक में तेल और गैस उत्पादन में बाधा डालने का प्रयत्न किया था। इस क्षेत्र में ओएनजीसी भी है। यह सब देखते हुए भारत के लिए हिन्द महासागर क्षेत्र में अपने रणनीतिक हितों की रक्षा करना आसान नहीं होगा।[24]

दक्षिण चीन सागर विवाद:- इंडोनेशिया और वियतनाम के बीच पड़ने वाला समंदर का ये हिस्सा करीब 35 लाख वर्ग किमी. में फैला हुआ है। इस पर चीन, फिलीपींस, वियतनाम, मलेशिया, ताईवान और ब्रुनेई अपना दावा करते रहे है। कुदरती खजाने से लबरेज इस समुद्री इलाके में जीवों की सैकड़ों प्रजातियां पाई जाती है। चीन ने दक्षिणी चीन सागर में एक आर्टिफिशियल द्वीप तैयार कर के उस पर सैनिक अड्डा बना लिया। चीन ने इस छोटे से सागर पर मालिकाना हक के एक अन्तर्राष्ट्रीय पंचाट के फैसले को मानने से इन्कार कर     दिया। भारत दक्षिणी चीन सागर को एक न्यूट्रल जगह मानता रहता है। भारत मानता है कि ये न्यूट्रेलटी कायम रहनी चाहिए और ये किसी भी देश का समुद्र नहीं है। पिछले कुछ समय में चीन से बिगड़ते रिश्तों के कारण भारत-अमेरिका के करीब आया है। जयदेव रानाडे के मुताबिक ’’अमेरिका भारत को एक ताकत की तरह देखता है उसे भारत से उम्मीद रहेगी की अपने स्टैड पर कायम रहे, ये भी एक तरह का सपोर्ट है क्योंक चीन ऐसा नहीं चाहता’’ साल 2015 में जब अमेरिकी राष्ट्रपति ओबामा भारत आए थे तब एक साझा बयान में भारत ने कहा था कि वो दक्षिणी चीन सागर में स्थिरता बनाए रखने के लिए प्रतिबद्ध है।[25]

भारत की बढ़ती ताकत से आशंकित:- चीन इस बात से अनजान नहीं कि आज भले ही उसकी अर्थव्यवस्था भारत से कई गुणा बढ़ी है और भारत की यह क्षमता है कि वह 21 वी सदी के मध्य तक उसे पार कर ले। अमेरिका हो या रूस, चीन को सामरिक, राजनयिक दृष्टि से संतुलित करने के लिए भारत की तरफ देखते है। भारत स्वयं सीमा पर चीन के कभी भी बदल सकने वाले तेवरों के विरूद्ध रक्षात्मक कवच के रूप में इस तरह की पेशकश को सिरे से नहीं नकारता। इसलिए भी चीन उसके प्रति आशंकित रहता है। यह सोचना भोलापन होगा कि दो बड़ी ऐशियाई ताकतों के बीच प्रतिस्पर्धा समाप्त हो जायेगी और इनके बीच घनिष्ठ या आत्मीय मैत्री के आधार पर व्यापक सहकार सहज होगा।[26]

तवांग क्षेत्र में अतिक्रमण का प्रयास

अरूणाचल प्रदेश में तवांग क्षेत्र में वास्तविक नियंत्रण रेखा के अतिक्रमण का प्रयास चीनी सैनिको ने 9 दिसम्बर 2022 को किया। तवांग क्षेत्र में 9 दिसम्बर को चीनी सैनिको के साथ भारतीय सैनिको की झड़प उस समय हुई जब कंटीली लाठियो व डंडों के साथ लगभग तीन सौ चीनी सैनिक इस क्षेत्र में यांगत्से में भारतीय पोस्ट को हटाने के लिए वहाँ पहुंचे जिसके प्रत्युत्तर में भारतीय सैनिको ने तुरन्त मोर्चा संभाल लिया। भारतीय सैनिको ने चीनी सैनिको को दौड़ा-दौड़ा कर खदेड़ा। भारतीय जवानों को भारी पड़ते देख चीनी सैनिक पीछे हट गए। चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने कहा कि सीमा से जुड़े मुद्दों पर दोनों पक्ष कूटनीतिक एवं मिलिट्री चैनलों के जरिए वार्ता करते आ रहे है। मीडिया रिपोर्टों के अनुसार इस झड़प के बाद भारतीय कमांडरों ने शांति बहाल करने के लिए चीनी कमांडरों के साथ फ्लैग मीटिंग की। जिसके बाद मामला सुलझा लिया गया।[27]

व्यापार और आर्थिक सम्बन्ध

पिछले दशक की शुरूआत से दोनों देशों के बीच द्विपक्षीय व्यापार में घातीय वृद्धि दर्ज की    गई। 2015 से 2022 तक भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार में 90.14 प्रतिशत की वृद्धि हुई, 12.87 प्रतिशत की औसत वार्षिक वृद्धि। 2022 में चीन के साथ कुल व्यापार साल दर साल 8.47 प्रतिशत बढ़कर 136.26 बिलियन अमरीकी डॉलर तक पहुंच गया, जो लगातार दूसरी बार 100 बिलियन अमेरिकी डॉलर के आंकड़े को पार कर गया। व्यापार घाटा 101.28 बिलियन अमेरिकी डॉलर पर आ गया क्योंकि चीन से भारत का आयात 118.77 प्रतिशत बढ़कर 118.77 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया। इस बीच चीन को भारत का निर्यात साधना आधार पर 37.59 प्रतिशत घटकर 17.49 बिलियन अमेरिकी डॉलर तक पहुंच गया जो पिछले साल के शुद्ध निर्यात से कम है।[28]

भारत-चीन द्विपक्षीय व्यापार

(USD BN में आकड़े)

वर्ष

चीन को भारत का निर्यात

प्रतिशत परिवर्तन

भारत का चीन से आयात

प्रतिशत परिवर्तन

व्यापार घाटा

कुल व्यापार

प्रतिशत परिवर्तन

2015

13.4

-18.39

15.28

7.42

44.86

71.66

1.42

2016

11.75

-12.29

59.43

2.01

87.68

71.18

-0.67

2017

16.34

39.11

68.1

14.59

51.76

84.44

18.63

2018

18.83

15.21

76.87

12.89

58.04

95.7

13.34

2019

17.97

-4.55

74.92

-2.54

56.95

92.9

-2.93

2020

20.87

16.15

66.78

-10.87

45.91

87.65

-5.64

2021

28.03

34.28

97.59

46.14

69.56

125.62

43.32

2022

17.49

-37.59

118.77

21.70

101.28

136.26

8.47

निष्कर्ष भारत-चीन संबंधों में कटुता पैदा करने वाली मूल समस्या सीमा विवाद है। भारत की मान्यता है कि सीमा विवाद को हल किये बिना संबंधों में सुधार की गुंजाइश नहीं है। दोनों देशों के मध्य तनाव के अन्य मुद्दे भी है जैसे तिब्बत मुद्दा, पाकिस्तान, चीन आर्थिक गलियारा, चीन की स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स नीति, हिन्दमहासागर में चीन की बढ़ती गतिविधियां दोनों देशों के मध्य विवाद के अन्य प्रमुख कारण है। चीन भारतीय उपमहाद्वीप, दक्षिण एशिया और दक्षिण-पूर्वी एशिया पर अपनी ’’चौधराहट’’ जमाना चाहता है। हाल के वर्षों में दोनों देशों के मध्य सीमा पर काफी तनाव बना हुआ विशेषकर डोकलाम व ग्लवान घटना के बाद। साम्यवादी चीन के इरादे आक्रामक, साम्राज्यवादी और विस्तारवादी है। उसकी इच्छाये एशिया महाद्वीप में एकाधिकार की है। माओ नीति शक्ति ’’बन्दूक की नली’’ से प्राप्त करती है। भारत लोकतांत्रिक देश है और आपसी विवादों को राजनीतिक, कूटनीतिक वार्ताओं के माध्यम से शांतिपूर्ण तरीकों से हल करने का प्रयास जारी रखना चाहिए साथ ही भारत को अमेरिका, ब्रिटेन, फ्रांस इजराइल जैसे देशों से अपने सैन्य संबंध भी मजबूत करने चाहिए।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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