P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VII , ISSUE- XI February  - 2023
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
मैत्रेयी पुष्पा की कहानियों में रूढि एवं परम्पराएं एक विश्लेषणात्मक अध्ययन
An Analytical Study of Custom and Traditions in the Stories of Maitreyi Pushpa
Paper Id :  17221   Submission Date :  01/02/2023   Acceptance Date :  22/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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गोविन्द शरण शर्मा
सहायक आचार्य
हिंदी विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय
टोडाभीम (करौली),राजस्थान, भारत
सारांश समाज में प्रारंभ से चली आ रही प्रथाएँ, रूढियाँ एवं परम्पराएं हमारे समाज की मूल संस्कृति है। इनका पालन करना प्रत्येक मनुष्य का कर्तव्य माना जाता है। ये रुढिया ग्रामीण संस्कृति में अधिक प्रचलित है। और उन रीतियों, प्रथाओं, रीति-रिवाजों ‘नियमों को ज्यों का त्यों मानना भारतीय संस्कृति का एक अनिवार्य अंग माना गया है। ग्रामीण क्षेत्रों का कोई भी नागरिक उसे तोड़ने का साहस नहीं कर सकता। क्योंकि उसके बदले में उसे दंड दिया जाता है। सामाजिक रुढियो या परंपराओं की स्थापना लोक प्रचलित विश्वासों के आधार पर की जाती है। शहरों की अपेक्षा गांवों में रूढि़यों का पालन अधिक किया जाता है।मैत्रेयीपुष्पा ने अपनी कहानियों में रुढ़ियों और परंपराओं का वर्णन भी किया, साथ ही उनमें सुधार करने का,या विरोध का स्वर भी सुनाई देता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The practices, customs or traditions that have been going on in the society since the beginning are the basic culture of our society. It is considered the duty of every human being to follow them. This tradition is more prevalent in rural culture. And following those customs, practices and rules as they are has been considered an essential part of Indian culture. No citizen of rural areas can dare to break it. Because in return he is punished. Social customs or traditions are established on the basis of popular beliefs of the people. Rituals are followed more in the villages than in the cities. Maitreyi Pushpa also describes the customs and traditions in his stories, as well as improving them, or the voice of protest is also heard.
मुख्य शब्द रूढि, परंपरा, प्रथा, रीति-रिवाज, संस्कृति, समाज, मान्यताएँ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Custom, Tradition, Custom, Custom, Culture, Society, Beliefs.
प्रस्तावना
सामाजिक रूढियों की स्थापना लोक मान्यताओं या विश्वासों के आधार पर की जाती है। इन लोक मान्यताओं का कोई दृढ़ आधार नहीं होता है। फिर भी दैनिक जीवन में लोगों को मान्यताएँ या विश्वास रुढिया ,परंपराएं अर्थात रूढ सत्य एक आवश्यक भूमिका निभाते है। मैत्रेयी पुष्पा के साहित्य में रूढियाँ व्यवहार की प्रतिमान है। समय के साथ- साथ या शिक्षा के कारण समाज में फैली जड़ मान्यताओं के प्रति अविश्वास होने लगता है। बदलती मान्यताओं के कारण -दो वर्ग बन जाते हैं। एक मान्यताओं परंपराओं रूढ़ियों अंधविश्वासों को मानने वाला एवं दूसरा वर्ग शिक्षित होने या शिक्षा के प्रभाव के कारण इनको नहीं मानने वालों का बन जाता है। नयी जीवन दृष्टि के कारण पुरानी मान्यताओं जड़ विश्वास को मानने में संकोच का अनुभव करते हैं। जिससे समाज में आशा बलवती दिखाई देती है। आधुनिक समाज का निर्माण इन्हीं आशा, आकांक्षाओं के आधार पर होता है।
अध्ययन का उद्देश्य मैत्रेयी पुष्पा की कहानियों में समाज में प्रचलित विभिन्न रूढियों, परंपराओं प्रथाओं, और रीति- रिवाजों का वर्णन हुआ है। कहने को तो ये हमारी संस्कृति के अंग है, किंतु सभ्य समाज में क्या? इनका पालन करना चाहिए। यह किन- किन परंपराओं, रीति-रिवाजों, मान्यताओं, रूढियों या प्रथाओं को मानना चाहिए। जो समाज में भेद-भाव को जन्म दे, समाज को तोड़ने का कार्य करें। समाज में विभेध करें या समाज में वैमनश्स फैलाये ऐसे नियमों, परंपराओं, मान्यताओं रूढियों, प्रथाओं या रीति- रिवाजों का त्याग करना चाहिए। ऐसा अध्ययन का उद्देश्य है।
साहित्यावलोकन
रूढि एवं परंपराओं पर विपुल शोध कार्य हुआ है। रूढि, परंपरा, नियम, रीति-रिवाज मान्यताएँ आदि पर प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक अनेक शोध -पत्र लिखे गए हैं। मैत्रेयी पुष्पा की कहानियों में रूढि एवं परंपरा एक विश्लेषणात्मक अध्ययन लेख लिखने से पहले विभिन्न शोध-पत्र एवं पुस्तकों का अध्ययन किया गया है। इनके अध्ययन से अपने शोध- पत्र का कार्य आगे बढ़ाने में सहायता मिली है। इनमें प्रवीण कुमार की आधुनिक नारी (2022) का शोध -पत्र, कविता यादव का भारतीय नारी तब और अब (2020) का शोध पत्रडॉ श्रद्धा सिंह का साहित्य का नारीवादी पाठ (2019), सुजाता का आलोचना कास्त्री पक्ष (2021) एवं डॉ कृष्ण चंद्र गोस्वामी की पुस्तक स्त्री- विमर्श आधुनिक युग का नया क्षितिज (2018) पुस्तक का अध्ययन किया गया है। जिससे अध्ययन के लिए विपुल एवं विस्तृत जानकारी प्राप्त हो गई है।
मुख्य पाठ

'मैत्रेयी पुष्पा की कहानियों में रूढि एवं परम्पराओं के प्रति विद्रोह का भाव या उनको समाप्त करने का भाव निहित है या यों कहें कि समस्या का समाधान करके का विचारा आता है। मैत्रेयीपुष्पा ने समाज में व्याप्त विभिन्न समस्याओं जैसे- नारी शिक्षा के विषय में समाज के विचारविवाह के प्रति रूढ़िवादी या परंपरावादी विचार, दहेज को लेकर समाज में परंपरा या रुढ़ि, पर्दा-प्रथा को लेकर विचारविधवा के लिए नियम या मान्यताएँ या परंपरा या रुढ़ि एवं जाति-प्रथा के विषय में समाज की मान्यताएँ रुढ़ि या परम्पराएं इनके विषय में लेखिका के क्या विचार हैं उनको हम निम्न बिंदुओं के माध्यम से स्पष्ट करेंगे-

1. नारी शिक्षा के विषय में समाज की रूढि एवं परम्पराएं

समाज में यह मान्यता है कि नारी को अधिक शिक्षित नहीं करना चाहिए या अधिक शिक्षा नहीं दिलानी चाहिए। क्योंकि इसके बाद मनुष्य विभिन्न समस्याओं से ग्रसित हो जाता है। समाज की मान्यता है कि- यदि नारी घर से बाहर निकलेंगी तो समाज में विभिन्न विकृतियां पैदा होंगी। मैत्रेयी पुष्पा ने सहचरी कहानी में इस बात को बताती है कि- छबीली नृत्य कला मेँ निपुण हैं किंतु उनके पिता पुत्री को शहर भेजने के लिए तैयार नहीं है। वे रूढ़िवादीपरंपरा का पालन करते हुए कहते हैं-

‘वहाँ लोगों ने मुझसे कहा कि इस लड़की को नृत्य की शिक्षा के लिए शहर में रखोगांव में बड़ी उम्र तक नाच सीखने का रिवाज नहीं है, नाचते रहने की परंपरा नहीं है।‘[1]

वहीं 'बेटी' कहानी में भी लेखिका कहती है-

“अरी बिटिया क्या कहती हो, वह लड़की जातकहां जाएगी और क्या करेगी पढ़ लिख कर।[2]

यही नहीं 'बेटी' कहानी में मां पांचों पुत्रों को पढ़ाती हैं किंतु अपनी अकेली पुत्री को नहीं पढ़ाती हैं। पांचों पुत्रबुढ़ापे में मां की सेवा नहीं करते हैं। माँ को अलग खाना पकाना पड़ता है। ऐसे में वही पुत्री अपनी छोटी सी बेटी को अपनी माँ की सेवा में छोड़ देती है।

प्राचीन समय में नारी को पढ़ाने के लिए मना करते थे। इस बात का लेखिका विरोध करती है-

‘अम्मा तुम मेरे साथ जो कर रही हो, वह कुछ अच्छा नहीं कर रही। तुम पांच पांच लड़कों को पढ़ा सकती हो लेकिन मेरे लिए तुम्हारे घर अकाल है- मेरी किताब कॉपी के पैसे तो तुम्हें भारी है अम्मा।[3]

पर माँ की तबियत खराब होने पर वही अनपढ लड़की काम आती है--–-

‘अम्मा की चिट्ठी पहुंची तो अपने को रोक नहीं पाई। साथ अपनी बेटी को भी ले आई हूँ। वह यहीं रहेंगी अम्मा को रोटियां बना दिया करेगी। अम्मा को दिखाई नहीं देता है न।[4]

लेखिका का मानना है कि- नारी के विषय में जो प्राचीन दकियानूसी विचार है, उनको छोड़ देना चाहिए। शिक्षा देने के विषय में लिंग के आधार पर भेद-भाव नहीं करना चाहिए। क्योंकि लेखिका यहाँ बताना चाहती है कि- जिन लड़कों को बड़े लाड़ प्यार से पढ़ाया वही लड़के वृद्धावस्था में काम आने पर या आवश्यकता पड़ने पर माँ से मुँह फेर लेते हैं। जबकि जिस लड़की के साथ परंपरा या रूढि के नाम पर भेदभाव किया, वही लड़की वक्त पड़ने पर काम आती है और बुढ़ापे में अम्मा की सेवा करती है।

2. विवाह के प्रति रूढ़िवादी या परंपरावादी विचारों का विरोध

मैत्रेयी पुष्पा विवाह संबंधी जो दृष्टिकोण समाज में प्रचलित है। उससे लेखिका सहमत नहीं है। लेखिका का मानना है कि- यदि पुरुष विवाह नहीं करता है तो वह संत महात्मा का सम्मान प्राप्त करता है। किंतु वहीं नारी विवाह नहीं करें तो वे संत महात्मा का जीवन यापन नहीं कर सकती। अपितु उसका तरह-तरह से शोषण किया जाता है या उसको प्रताड़ित किया जाता है।

'सुनो मालिक सुनो' कहानी में मैत्रेयी पुष्पा कहती हैं-

‘वह अनब्याहा रहकर तिरस्कार नहीं आदर पाता है। ब्रह्मचारी कहलाता है। पूज्य हो जाता है। कुंवारे रहने के उसके आत्मविश्वास को लोग श्रद्धा से देखते हैं। वह सांसारिकता से निकलकर सार्थकता खोजने का निमित्त माना जाता है। लोग गर्व से देखते हुए उस पुरुष की ओर इशारा करते हैं- उसने विवाह नहीं किया। जब की एक अविवाहित स्त्री की ओर देखते ही दया की धारा खोल देते हैं। चच्च्च बेचारी का विवाह नहीं हो पाया। एक ही स्थिति में खड़े दो स्त्री -पुरुष अलग अलग व्यवहार पाते हैं।‘[5]

3. विवाह के अवसर पर दिया जाने वाला दहेज- प्रथा,रुढियां, परंपरा

भारतीय समाज में विवाह के अवसर पर दिए जाने वाला दहेज- प्रथा एक रूढ़ि है। दहेज का अर्थ वह धन या सामान जो- विवाह के समय कन्या पक्ष की ओर से वर पक्ष को दिया जाता है।[6]

मैत्रेयी पुष्पा ने सहचर कहानी में इस बात को बताने का प्रयास किया है-

क्या दे दिया ऐसा? ऐसे ही लखपति थे तो देख लेते दूसरी जगह। हमें तो गरज नहीं थी।[7]

मैत्रेयी पुष्पा सहचर कहानी में एक जगह और कहती है- हम अपने मोडा का दूसरा ब्याह लो कॉल कर लें। टोटे है क्या?[8]

मध्यम वर्गीय परिवार में दहेज को लेकर सबसे अधिक आकर्षण होता है। ये वर्ग दहेज लेना अपनी सामाजिक प्रतिष्ठा से जोड़ता है। 'बारहवीं रात' कहानी में लेखिका ने इस बात की ओर संकेत किया है-

‘किरोड़ीमल समधी से इतेक  नहीं बनी कि अठन्नी भर झुमकी पहनाके विदा कर देता आग लगै---। तो हमारी जग हंसाई तो नहीं होती। लों हमें तो बड़ी बेइज्जती लगी।[9]

समाज में बेटे वाले अपनी आकांक्षाओं की पूर्ति करने के लिए बेटी वालों से विभिन्न प्रकार की दहेज की मांग करते हैं। इसलिए यह परंपरा समाज में प्रचलित है। दहेज के प्रति लोभ को लेखिका ने इस प्रकार बताया है-

‘चलो न सही सगाई। एक बेर होगया धूम धड़ाके से ब्याह। गुप्त रूप से दे दे, हमें मंजूर    है।[10]

लेखिका प्रेम भाई एंड पार्टी कहानी के माध्यम से कहती है-

‘और लड़के वाले साले हाथ नहीं धरने देते। हमने यही गुनाह किया न कि लड़की को चार अक्षर पढ़ा दिये। विकट समस्या यही बन गयी कि अब न उसे किसी कुबडड  के गले बांध सके और न पढ़े लिखे वर के लिये प्रचलित दहेज जुटा सके।[11]

लेखिका ने 'सांप सीढी' कहानी में दहेज के विकराल या विकृत रूप को उजागर करने का प्रयास किया है-

‘एकलाख के बिना भांवर नहीं पड़ेगी और पचास हजार बिना विदा नहीं होगी।

समाज में जो अनमेल-विवाह, बहुविवाह तथा वृद्ध विवाह के पीछे मूल कारण दहेज प्रथा यह परंपरा है-

‘अनमेल विवाह दहेज का कारण बनता है। अभी तक हम अनमल विवाह का अर्थ वर और कन्या की आयु के अंतर से लेते रहे हैं। जो कि नितांत अधूरा अर्थ है। अनमेल तो वे सारे विवाह है, जो आयु में, शिक्षा और योग्यता में, रहन- सहन में, बुद्धि- विवेक में तथा पेशे- रोजगार में एक दूसरे से बहुत ऊँचाई बहुत नीचाई को देखते हुए भी होते हैं। ऐसे विवाहों में कन्यापक्ष की कमज़ोरी को पाटने का पुल बनता है- दहेज।[12]

लेखिका दहेज -प्रथा को समाप्त करना चाहती है। वे कहती हैं-

‘लड़कियां बिना दहेज के विवाह का संकल्प लें।[13]

लेखिका का मानना  है कि-लड़कियां  दहेज के लेन-देन पर अपनी अस्वीकृति का फैसला शादी से पहले ही दे दे, क्योंकि जहरीली धारा को उद्गम पर आसानी से रोका जा सकता है, नहीं तो वह तेज बहाव का विकराल रूप धारण कर लेती है।[14]

कहने का तात्पर्य है कि इस सामाजिक बुराई को लेखिका समय रहते ही नियंत्रण में या समाप्त करना चाहती है, ताकि दहेज -प्रथा के कारण नारी का शोषण या उसको प्रताड़ित नहीं किया जा सके।

4. पर्दा प्रथा रूढि या परंपरा और उन रूढियों का निराकरण

पर्दा-प्रथा एक परंपरा है। इसके मूल में स्त्री-पुरुष के बीच मर्यादित दूरी रखने का भाव निहित था। आज आधुनिक या सभ्य समाज में इसका प्रयोग बहुत कम किया जाता है। आज गांव के निम्न वर्गीय या मध्यमवर्गीय परिवारों में इसका प्रचलन है। 'खुली खिड़कियां' कहानी में लेखिका इस पर विचार विमर्श करती हुई कहती हैं कि-

‘मूंह ढको, वदन मत उखाड़ो। पलकों को ऊंची मत करो। अब बताओ मर्द इस अंधी दुनिया में कितने दिन रह सकता है। बोलो मत, हंसो मत, किसी से बात मत करोगूगां संसार कब तक चल सकता है। यहाँ मत जाओ, वहाँ मत जाओपंगु लड़की दुनिया के वाशिदे हम किस बात की आजादी मांगे।[15]

लेखिका के कथा साहित्य के विषय में वीरेन्द्र यादव लिखते हैं कि-

‘मैत्रेयी पुष्पा की कथा नायिकाएं तिल तिल कर समाप्त होतीसुबकती, शरद चंद्री भावुकता में सरोबोरदम तोड़ती नायिकाएं न होकर हाड-मांस की ऐसी स्त्रियां हैंजो पारंपरिक समाज की कैद में रहते हुए भी अपना अलग रास्ता तलाशती हैं।[16]

सैंध कहानी में लेखिका पर्दा- प्रदा को लेकर कहती हैं कि-

‘वे गंगा सिंह के समक्ष नहीं, अपने पति के मित्र और रिश्ते की जेठ के सामने खड़ी हैआढ-पर्दा की मर्यादा में बंधी हुई।[17]

कहने का तात्पर्य है कि लेखिका वर्तमान समय में जब नारी-पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही है। ऐसे समय में जब वह शिक्षित हैं, पढ़ी लिखी है, तब इस प्रकार की रूढ़ी या परंपरा को मानने की कोई आवश्यकता नहीं है। लेखिका का मानना है कि बेटी और बहु में कोई अंतर नहीं है अपितु दोनों के साथ समान व्यवहार होना चाहिए। जब बेटी को पर्दा-प्रथा से मुक्त रखा जाता है तो बहु को भी समान अधिकार देते हुए पर्दा-प्रथा से मुक्त कर देना    चाहिए।

5. विधवा  के विषय  में गलत मान्यताएं और उनका निराकरण

लेखिका का मानना है कि जब स्त्री के मरजाने पर पुरुष को किसी भी प्रकार का दंड या प्रताड़ना या बंधन नहीं लगाए जाते हैं, तो फिर पुरुष के मरजाने पर स्त्री के ऊपर तरह-तरह की पाबंदियां क्यों लगाई जाती है। क्यों उसे प्रताड़ित किया जाता है। सुनो मलिक सोनो में लेखिका कहती है कि- परंपराएं जब रिवाज बन जाती है, तब समय के अंतराल में भी रूढि बनकर उभरती है। बदलाव ही रूढि को तोड़ता हैं।[18]

लेखिका का मानना है कि समाज में रीति- रिवाजों को लकीरों की तरह न पीटा जाए, व्यवहार की तरह बरते जाए।[19]

इस परंपरा के विषय में डॉ सुरेशचंद्र शर्मा का मानना है कि- किसी समाज का रूढियों से चिपका रहना उसकी दासता काचिन्ह है। रूढि़यों का पालन अंधी आंखो से किया जाता है। उसमें ज्ञान और तर्कलिए कोई स्थान नहीं रहताहै। जहाँ समाज अपने ज्ञान और विवेक से काम नहीं लेता वहाँ उन्नति और प्रगति के लिए कोई स्थान नहीं होता।[20]

विधवा होना या न होना स्त्री के हाथ में नहीं है। फिर भी समाज उसे अशुभया अमंगल सूचक मानता हैउसे मांगलिक कार्यों से दूर रखता है। पगला गयी है भागवती कहानी में इसका वर्णन किया गया है-

‘वह विधवा हो गई, तब से उसका तन, उसका मन, संपूर्ण अस्तित्व विधवा है। हौंस, उमंग, पहनना, ओढ़ना, सजना- संवरना उसके लिए वर्जित है। औरतें उसे सगुन-सात मंगल कार्यों से बचाती है।[21]

आक्षेप कहानी में लेखिका कहती हैं कि विधवा भई तो भाई की रोटी बनाउनइहाँ चली आयी, फिर आज तक सासरेई नहीं गई। उनके भतीजन ने सब जमीन अपने नांव करा लई, बाबूजी। जब तक जमीन नाव नहीं करी हती सो अपने संग रखतहते। जायदाद लेवे पीछे को पूछत बुढ़ापे में अब कोऊ रोटी नहिं दै सकत उन्हें।[22]

लेखिका का मानना है जब माँ को लोग प्रताड़ित करते हैं तब किसकों बकसेंगे, समाज के    लोग। वे विधवा विवाह के पक्ष में दिखाई देती है-

बदलाव नहीं आता है तो व्यवस्थाएँ सड जाती है।[23]

वहीं ऊंची जातियों में विधवा विवाह प्रारंभ होना चाहिए। इस बात पर बल देते हुए कहती हैं कि-

‘विधवा जीवन समाज की विकराल समस्या है, क्योंकि उंची जातियों में विधवा विवाह का रिवाज नहीं।[24]

कहने का मतलब है कि लेखिका- विधवा के शोषण के खिलाफ़ है। वे मानती हैं कि ये सब ईश्वर के अधीन है अतः सुखी जीवन जीने के लिए जिस प्रकार पुरुष पत्नी के मरजाने पर पुनः दूसरा विवाह कर लेता है, उसी प्रकार पति के मरजाने पर पत्नी को भी अकेले विधवा के रूप में नहीं जीना चाहिए अपितु विधवा विवाह करके समाज में सम्मान पूर्वक जीना चाहिए।

6. जाति -प्रथा के विषय  में मान्यताएं या परंपरा और उनका निराकरण

लेखिका का मानना है कि जाति कब बनीं, किसने बनाई, इस पर चर्चा न करके, इस बात पर चर्चा की जानी चाहिए कि- जाति के आधार पर किसी का अपमान, निरादर या शोषण नहीं होना चाहिए। वे जाति- प्रथा को समाज के लिए अभिशाप मानती है। वे केतकी कहानी में अपने विचार रखते हुए कहती हैं कि

‘जातियों की रुढिया में जकड़ा हमारा समाज हरिजन युवक चंदन से विवाह की अनुमति केतकी को कभी नहीं दे सकता था।[25]

लेखिका शतरंज के खिलाड़ी कहानी में विचार रखते हुए कहती हैं कि-

‘बड़ी और छोटी जाति में तो सदा से ही एक अनकही अदावत सी चली आ रही है।[26] कहने का तात्पर्य है कि लेखिका समाज में फैली हुई जाति बिरादरी की रूढि़यों या परंपराओं को समाप्त करना चाहती है। हमें जाति के आधार पर किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करना चाहिए। ये सब शिक्षा के प्रचार-प्रसार से संभव है। हमें संकुचित मानसिकता से बचना चाहिएऐसा लेखिका का मानना है।

निष्कर्ष अंत में हम कह सकते हैं कि मैत्रेयीपुष्पा की कहानियों में रुढ़ियों, परंपराओं,जड़ मान्यताओं के प्रति आक्रोश का स्वर है। भारतीय समाज में प्रचलित रुढियां- जैसे दहेज -प्रथा, पर्दा-प्रथा, जाति- प्रथा, विधवा के लिए नियम कानून, नारी शिक्षा जैसी अनेक रूढ़ियों का खुलकर विरोध किया है। लेखिका का मानना है कि रूढियो या परंपराओं की गुलामी विदेशियों की गुलामी से भी भयंकर दुखदायी होती है। रुढ़ियों के पालन से समाज की चिंतन दृष्टि समाप्त हो जाती है। गलत परंपराओं का पालन करना ज्ञानशून्य कर्म होता है। इससे समाज की प्रगति या गति रुक जाती है। अतः हमें उन नियमों ,परंपराओं, बंधनों रूढियोंको त्याग देना चाहिए। जिनसे समाज की उन्नति या प्रगति में बाधा पहुंचती है। कहने का तात्पर्य है कि लेखिका ने आधुनिक विचारों से ओतप्रोत होकर समाज में फैली विभिन्न बुराइयों को उजागर किया है और उनका समाधान करने का भी प्रयास किया है। जिससे समाज में एकता स्थापित हो सके। यह तभी हो सकता है जब समाज में किसी का भी नियमों के कारण, परम्पराओं, बंधनों या रूढ़ियों के कारण शोषण नहीं किया जाएगा।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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