P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VI February  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
थार मरुस्थल के बीकानेर जिले में कृषि भूमि अवकर्षण एवं इसके स्वास्थ्य पर दुष्प्रभाव
Degradation of Agricultural Land in Bikaner District of Thar Desert and Its Effects on Health
Paper Id :  17198   Submission Date :  13/02/2023   Acceptance Date :  22/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/shinkhlala.php#8
राम निवास बिश्नोई
सहायक आचार्य
भूगोल विभाग
राजकीय महाविद्यालय, हदां, कोलायत
बीकानेर,राजस्थान, भारत
विनोद सिंह
सह-आचार्य
भूगोल
राजकीय डूंगर महाविद्यालय
बीकानेर, राजस्थान, भारत
सारांश थार मरुस्थल के बीकानेर जिले में कृषि रसायनों के मृदा पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में देखा गया कि कृषि रसायनों का प्रयोग केवल सिंचित ग्रामों में ही सर्वाधिक है। सिंचित ग्रामों के 43 प्रतिशत परिवारों में कीटनाशक एवं रसायनों के प्रयोग से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की कमी देखी गई है जबकि 22.7 प्रतिशत परिवारों के अनुसार मृदा में कृषि प्रदूषकों के कारण नमी की मात्रा कम हो जाती है। इसके प्रभावस्वरूप मृदा में वायु तथा जल की अवशोषण क्षमता घटने लगती है। जहरीले रसायनों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से तात्कालिक प्रत्यक्ष लाभ तो जरूर मिलता है, परंतु इसके दूरगामी परिणाम भी मृदा प्रदूषण, कृषि उत्पादकता हृास, कैंसर आदि के रूप में स्वास्थ्य पर प्रतिकूल प्रभाव जैसी समस्याओं के रूप में उभर कर सामने आने लगे हैं। क्षेत्रीय अध्ययन में मृदा प्रदूषण के निवारण हेतु जैविक कृषि को अपनाना नितांत आवश्यक है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In Bikaner district of Thar Desert, an attempt was made during the survey to know the perception of the rural people regarding the effects of agricultural chemicals on the soil. It was observed that agricultural chemicals are used only in irrigated villages. About 43 percent of the households in irrigated villages believed that the use of such chemicals depletes the soil of organic matter, according to 22.7 percent of the households, it reduces the amount of moisture in the soil. According to about 13 percent of the families, accumulation of toxic residues in the soil starts increasing due to this. Another 11 percent believed that as a result of this, the absorption capacity of air and water in the soil starts decreasing. This may happen because the soil becomes hard due to the use of chemical fertilizers, due to which its absorption capacity starts decreasing. The use of toxic chemicals and pesticides definitely gives immediate direct benefits, but its far-reaching consequences have also started emerging in the form of problems like soil pollution, agricultural productivity loss, adverse health effects in the form of cancer etc.
मुख्य शब्द थार मरुस्थल, बीकानेर जिला, कृषि भूमि, अवकर्षण, रसायन, स्वास्थ्य दुष्प्रभाव।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Thar Desert, Bikaner District, agricultural land, extraction, chemicals, health effects.
प्रस्तावना
अध्ययन क्षेत्र के जैव-अजैव घटक रसायन व कीटनाशकों से प्रभावित हो रहे हैं। सिंचित क्षेत्रों में इनका प्रयोग ज्यादा देखने को मिला जबकि बारानी (असिंचित) क्षेत्रों में लगभग नगण्य रहा। इनके कारण भूमि उर्वरता नष्ट हो रही है। पांच वर्ष बाद खेतों में फसलों का उत्पादन आधा रह जाता है। भूमि में क्षारीयता व लवणता की मात्रा बढ़ रही है। मनुष्य व पशु इन कीटनाशक रसायनों के प्रयोग से बीमार हो रहे हैं। सर्वेक्षित क्षेत्रों के कई सिंचित परिवारों में देखा गया कि युवा पशु-पक्षी, पालतू जानवरों सहित मानव जात को भी यह धीमा जहर अंदर ही अंदर मार रहा है। सर्वेक्षित परिवारों के अनुसार दो-तिहाई किसान गोबर के अलावा जैविक कृषि के अन्य तरीकों से कोसों दूर हैं जो भविष्य सहित वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गंभीर चिंता का विषय है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. अध्ययन क्षेत्र की नोखा एवं पूगल तहसीलों के सिंचित एवं असिंचित गांवों में कृषि भूमि अवकर्षण व प्रदूषण के कारकों का अध्ययन करना। 2. उपर्युक्त क्षेत्रों में कृषि भूमि अवकर्षण एवं प्रदूषण के स्वास्थ्य संबंधी दुष्प्रभावों की जानकारी प्राप्त करना।
साहित्यावलोकन

Naorem et al.k (2023) के अनुसार जलवायु के अधिकाधिक शुष्क होते जाने से भविष्य में शुष्क मृदाओं का विस्तार बढ़ेगा। शुष्क क्षेत्रों में पाए जाने वाले कृषि संबंधी अवरोध मुख्यतः जलाभाव से जुड़े होते हैं। जैसे शुष्क मृदा में वनस्पति विरल, कार्बन की मात्रा न्यून, मृदा की संरचना घटिया, मिट्टी में जैवविविधता घटी हुई, पवनों के कारण मृदा अपरदन की दर उच्च एवं पौधों को पोषक तत्वों की उपलब्धता कम हो जाती है। उपर्युक्त लेख में मृदा की समस्याओं को दूर करने तथा उत्पादकता बढ़ाने के लिए उपलब्ध विभिन्न तकनीकों का अन्वेषण किया गया है।

Feççadeh et al. (2023) ने इस बात की ओर ध्यान दिलाया है कि जलवायु परिवर्तन से अधिकाधिक झीलें शुष्क होने लगी हैं। उन्होंने अत्यधिक लवणीय झीलों के सूखने से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले नकारात्मक प्रभावों का अध्ययन ईरान की शाबेस्तर काउंटी की उर्मिया झील के संबंध में किया। उनके परिणाम दर्शाते हैं कि झील के सूखने से अधिक मात्रा में मुक्त हो रहे लवणों के कारण स्थानीय मरीजों में उच्च रक्तचाप के मामलों में सार्थक वृद्धि देखी गई है।

Bierkamp et al.k(2021) ने मध्यवर्ती विएतनामी उच्चभूमि से जुड़े अपने अध्ययन में पाया कि परिसंपत्तियों की दृष्टि से निर्धन (Asset-poor) परिवारों के प्रवासी सदस्यों द्वारा भेजे गए धन के कारण प्राकृतिक संसाधनों का दोहन अपेक्षाकृत कम होता है। इसके विपरीत परिसंपत्तियों की दृष्टि से संपन्न (Asset-rich) परिवारों के प्रवासी व्यक्तियों द्वारा भेजे गए धन के कारण अपेक्षाकृत अधिक प्राकृतिक संसाधन दोहन होता है। उसका कारण यह पाया गया कि परिसंपत्तियों की दृष्टि से निर्धन परिवार अपेक्षाकृत श्रम-सघन दोहन की विधियों पर आधारित रहते हैं, जबकि इन परिवारों के सदस्यों के प्रवसन के कारण श्रम की उपलब्धता कम हो जाती है।  Carausu et al. (2017) ने रोमानिया की इयासी काउंटी के ग्रामीण वृद्ध पुरुषों के स्वास्थ्य का विश्लेषण करते हुए तीन प्रमुख स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं को उजागर किया। इनमें हृदय से संबंधित, पाचन से संबंधित तथा डायबिटीज शामिल थे। महिलाओं में हृदय से संबंधित समस्याओं के बाद डायबिटीज तथा अस्थि-शिरा समस्याएं प्रमुख थीं। Rai (2019) ने पर्यावरण चिंतन के संबंध में अपना शोध कार्य किया । उन्होंने विशेष तौर पर यह जानने का प्रयास किया कि ग्रामीण क्षेत्रों में वनोन्मूलन के लिए ग्रामीण निर्धन लोगों को कारक मानने वाली नैरेटिव क्यों इतने प्रचलित रहे हैं। Dorward (2018) ने राजस्थान राज्य में कृषि की प्रमुख समस्या, जल की कमी, के संदर्भ में किये अनुसंधान में यह देखने का प्रयास किया कि किस प्रकार व्यक्तिगत तथा सामूहिक यादें, तथा भूतकाल की चरम घटनाओं का अनुभव जलवायु के खतरों के वर्तमान अर्थ एवं भविष्य की आशाओं को निर्धारित करते हैं। सामाजिक असुरक्षा (Vulnerability) की भावना को समझने में उन्होंने जल की कमी सम्बन्धी स्थानीय अवबोधों (एवं परिवारों के अंदर तथा परिवारों के बीच उनकी परिवर्तनशीलता) की भूमिका के महत्व को भी प्रतिपादित किया।

Israel - Wynberg (2018) ने ग्रामीण दक्षिण अफ्रीका में निर्वाहमूलक कृषि एवं मिश्रित आजीविका में संलग्न समुदाय, तथा व्यापारिक वानिकी में संलग्न दूसरे समुदाय के मध्य अंतरसंबंधों का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि इस प्रकार के भू-उपयोग के लिए आवश्यक संसाधनों को लेकर द्वंद्व तथा सहअस्तित्व पाया जाता है। इस संदर्भ में उन्होंने विभिन्न सुझाव भी प्रस्तुत किए। Convery et al.(2012) के संपादित कार्य में बतलाया कि ग्रामीण स्थल तथा भूमि के मध्य मूलभूत लंबा संबंध पाया जाता है जबकि नगरीय क्षेत्रों में भूमि से प्रत्यक्ष जुड़ाव नहीं होता है। ग्रामीण लोग भूमि पर रहते, कार्य करते, उसका पालन पोषण करते एवं भूमि को भली प्रकार समझते हैं।

Sutton- Anderson (2010) ने सांस्कृतिक पारिस्थितिक ;ब्नसजनतंस मबवसवहलद्ध के अपने अध्ययन में इस विषय को मानव पारिस्थितिकी एक शाखा के रूप मानते हुए इस रूप में परिभाषित किया है कि पृथ्वी के विभिन्न पर्यावरणों मंे मानव किस प्रकार रह रहा है उन्होंने विश्व के विभिन्न भागों में विभिन्न प्रकार की प्रकृति आधारित अर्थव्यवस्थाओं का विस्तृत वर्णन भी अपने अध्ययन में प्रस्तुत किया है। Burke - Pomeraæ (2009) की संकलित रचना में औपनिवेशिक काल में भारत में भूदृश्य तथा पारिस्थितिकी के  इतिहास का विश्लेषण प्रस्तुत किया गया है। Adelson et al.(2008) ने पर्यावरणीय अध्ययन की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुए यह प्रश्न किया कि हम पृथ्वी का किस प्रकार उपयोग करे ताकि उसका उचित दोहन भविष्य में भी जारी रहे। उनके अनुसार इसका जवाब पर्यावरणीय साक्षरता में है क्योंकि पर्यावरणीय शिक्षा प्रत्येक बच्चे की जागृति के स्तर को एक निश्चित रूप दे सकती है तथा प्रत्येक प्रौढ़ के कार्यों को निर्दिष्ट कर सकती है। उन्होंने पर्यावरणीय के विभिन्न तत्वों की वर्तमान स्थिति का भी विवेचन किया है। जनसंख्या वृद्धि के साथ आधिकाधिक सीमांत मृदाएं कृषित हो रही है जिससे ऐसी मृदाएं अवकृषण तथा अपरदन संभावित हो जाती है। Bhattacharya - Innes (2008) ने दक्षिणी, मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत में जिलास्तरीय आंकड़ों का प्रयोग करके जनसंख्या वृद्धि एवं पर्यावरणीय परिवर्तन का अध्ययन, उपग्रह आधारित वनस्पति सूचकांक के उपयोग के माध्यम से किया है उनका निष्कर्ष है कि पर्यावरणीय अवकर्षण के कारण ग्रामीण जनसंख्या वृद्धि होती है तथा गांवों की ओर प्रवास होता है दूसरी ओर पर्यावरणीय सुधार से नगरीय जनसंख्या वृद्धि तथा नगरों की ओर आप्रवास होता है।

Summer (2005) आर्थिक वैश्वीकरण तथा बहुराष्ट्रीय कंपनियों के बढ़ते प्रभाव को ग्रामीण समुदायों पर प्रभाव का विश्लेषण किया है। इसके प्रभाव में उन्होंने आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक, पर्यावरणीय, लिंग संबंधित तथा सांस्कृतिक प्रभावों को लेते हुए इसके नकारात्मक पहलुओं को उजागर किया।  Belshaw (2001) ने इस बार पर गौर किया है कि पर्यावरण एवं पर्यावरणीय मुद्दे किसे कहा जाए तथा पर्यावरणवादी कौन होता है। उन्होंने पर्यावरणीय समस्याओं के कारकों तथा गहरी पारिस्थितिकी (Deep Ecology) की अवधारणा को भी स्पष्ट किया। Deep Ecology को मानने वाला संसार को बदलने का उद्देश्य रखता है। EEu (1999) ने अपनी रिपोर्ट में कर्नाटक में प्राकृतिक संसाधन पर्यावरण अर्थात् वन आवरण, चारागाह, भू-उपयोग, मृदाक्षरण जलग्रहण क्षेत्र विकास, पशु संसाधन एवं मत्स्ययन, खनिज, औद्योगिक प्रदूषण व नगरीय पर्यावरण की दशाओं का आंकलन प्रस्तुत किया है। उनके अनुसार सरकारी निष्क्रियता के कारण प्राकृतिक संसाधनों तथा स्वास्थ्य संबंधी मुद्दों पर जन-आंदोलन उत्पन्न हुए। Clout 1991 के अनुसार पिछले दशकों में ग्रामीण यूरोप में सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन की दीर्घकालीन प्रवृतियां उलट गई है। कई क्षेत्रों में जनसंख्या कम होने की बजाय बढ़ रही है तथा कृषि उत्पादन कम करने के प्रयास किए जा रहे हैं। ग्रामीण क्षेत्र की भूूमि हेतु संरक्षण, पर्यावरणवादी प्रक्रियाओं का संघर्ष भूमि विकास की प्रक्रियाओं का संघर्ष भूमि विकास की प्रक्रियाओं से हो रहा है।



मुख्य पाठ

अध्ययन क्षेत्र की भौगोलिक अवस्थिति:

भारतीय उपमहाद्वीप के मरूस्थल को थार रेगिस्तान के नाम से जाना जाता है जो कि भारत के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में स्थित है। इसी मरूस्थल के अन्तर्गत राजस्थान के उत्तरी-पश्चिमी क्षेत्र में बीकानेर जिला विस्तृत है। जिसका विस्तार 27011’ से 29003’ उत्तरी अक्षांश व 71051’ से 74012’ पूर्वी देशान्तर तक है।

चित्र-1: अध्ययन क्षेत्र की अवस्थिति

बीकानेर की स्थापना 1488 ई. में राव बीकाजी ने की थी। बीकानेर जिले का कुल भौगोलिक क्षेत्रफल 27,244 वर्ग किमी. तथा जनसंख्या 23,63,937 (2011) है। पूगल तहसील का क्षेत्रफल 3,276.64 वर्ग किमी. एवं जनसंख्या 67,123 तथा नोखा तहसील का क्षेत्रफल 3,802.97 वर्ग किमी. एवं जनसंख्या 4,36,876 सम्पूर्ण जिले के क्षेत्रफल का 99.45% भाग ग्रामीण क्षेत्र तथा 0.55% भाग नगरीय क्षेत्र के अन्तर्गत आता है।

परिकल्पना 1. अध्ययन क्षेत्र के सिंचित एवं बारानी गांवों में भूमि अवकर्षण के कारक भिन्न-भिन्न हैं।
2. कैंसर जैसी घातक बीमारी सिंचित गांवों में अधिक प्रचलित है।
सामग्री और क्रियाविधि
इसके अंतर्गत अध्ययन क्षेत्र के ग्रामीण क्षेत्रों में कृषि भूमि अवकर्षण व प्रदूषण के कारकों के प्रतिरूपों की जानकारी जुटाई गई। कृषि भूमि अवकर्षण व प्रदूषकों की स्थिति को जानने के लिए खासतौर पर प्राथमिक आंकड़ों एवं सूचनाओं का प्रयोग करते हुए अवकर्षण व प्रदूषकों के संदर्भ में अर्द्धशुष्क नोखा तहसील तथा शुष्क पूगल तहसील के चार-चार यादृच्छिक रूप से चयनित कुल आठ गांवों में अनुसूची आधारित प्राथमिक क्षेत्र का अध्ययन किया। इन आठ ग्रामों में से चार गांव सिंचित तथा चार ग्राम वर्षा आधारित थे। यह आनुभविक अध्ययन वर्णनात्मक, व्याख्यात्मक एवं तुलनात्मक प्रकार का है।
परिणाम

मृदा प्रदूषण के कारकों में कृषि में रसायनों का प्रयोग भी शामिल है। जबकि मृदा अवकर्षण के कई अन्य कारक भी हो सकते हैं। अध्ययन क्षेत्र के सिंचित भागों में कृषि रसायनों का प्रयोग पिछले दशकों में बढ़ा है। मृदा प्रदूषण व अवकर्षण के कारकों में 22.8 प्रतिशत परिवार रासायनिक उर्वरकों को, 12.3 प्रतिशत कीटनाशकों को, 9.5 प्रतिशत दीमक के उत्पीड़न को, 3 प्रतिशत औद्योगिक प्रदूषकों को जिम्मेदार मानते हैं। सिंचित गांवों में उर्वरक (46 प्रतिशत) व कीटनाशक (एक-चौथाई परिवार) के नाम लिए गए, जबकि असिंचित गांवों में ये कारक अनुपस्थित थे। दीमक व औद्योगिक प्रदूषण नोखा नगर के सीमांत पर स्थित रोड़ा असिंचित गांव में देखे गए (सारणी 1 व आरेख 1)



आरेख 1: मृदा प्रदूषण एवं अवकर्षण के स्रोत

कृषि रसायनों के मृदा पर पड़ने वाले प्रभावों के संबंध में ग्रामीण लोगों के अवबोध को जानने का प्रयास सर्वेक्षण के दौरान किया गया। यह देखा गया कि कृषि रसायनों का प्रयोग केवल सिंचित ग्रामों में ही किया जाता है। सिंचित ग्रामों के करीब 43 प्रतिशत परिवारों ने माना कि ऐसे रसायनों के प्रयोग से मृदा में कार्बनिक पदार्थों की कमी होती है, 22.7 प्रतिशत परिवारों के अनुसार इनसे मृदा में नमी की मात्रा कम हो जाती है। लगभग 13 प्रतिशत परिवारों के अनुसार मृदा में विषाक्त अवशेषों का संचयन इसके कारण बढ़ने लगता है। अन्य करीब 11 प्रतिशत का मानना था कि इसके प्रभावस्वरूप मृदा में वायु तथा जल की अवशोषण क्षमता घटने लगती है। ऐसा इसलिए हो सकता है क्योंकि रासायनिक उर्वरकों के प्रयोग से मृदा कठोर होने लगती है, जिसके कारण उसकी अवशोषण क्षमता घटने लगती है। चार प्रतिशत परिवार मानते हैं कि कृषि रसायनों के प्रयोग से भूमि में क्षारीय एवं लवणीय तत्वों में वृद्धि हो जाती है। नोखा के सिंचित गांव जसरासर के लोगों ने ही कृषि रसायनों के मृदा पर प्रभाव की रिपोर्टिंग की। पूगल तहसील के मात्र 9 प्रतिशत परिवारों की तुलना में नोखा के 20 प्रतिशत परिवारों का मानना था कि कृषि रसायनों के प्रयोग से मृदा में विषैले तत्वों का संचयन बढ़ता है। नोखा के 16  प्रतिशत परिवारों की अपेक्षा पूगल तहसील के एक-चौथाई से अधिक 26 प्रतिशत परिवार मानते हैं कि मृदा में नमी की मात्रा कृषि रसायनों के प्रयोग के फलस्वरुप कम होने लगती है। वस्तुतः लवणों तथा रासायनिक तत्वों के संचित होने से मृदा कठोर हो जाती है, जिससे उसमें जल का प्रवेश करना मुश्किल हो जाता है (सारणी 2 व आरेख 2)।



सिंचित क्षेत्रों में 95 प्रतिशत तक ग्रामीण उर्वरकों का प्रयोग करते हैं। कुछ समुदाय धार्मिक, आर्थिक तथा स्वास्थ्य कारणों से जैविक खाद का प्रयोग करते हैं। उसमें भी गोबर का व मिंगनियों का प्रचलन ज्यादा है। कृषि फसलों को बचाने के लिए प्रयुक्त कीट व खरपतवार नाशक विषैले रसायन होते हैं। कीटनाशक छिड़काव में सुरक्षा की बात कि जाए तो अध्ययन क्षेत्र में कुल 55.33 प्रतिशत किसान कभी-कभी सावधानी (दस्ताने, मुखौटे, दवाइयों के रूप में घरेलू नुस्खे) तथा 43.33 प्रतिशत किसान पूरी सावधानी रखते हैं। जबकि 1.33 प्रतिशत का जवाब नहीं में आया (वे केवल हवा का ध्यान रख कर छिड़काव करते हैं)। पूगल के कृषक इस दृष्टि से कुछ अधिक सावधान दिखाई दिए (सारणी संख्या 3)।


पर्यावरण प्रदूषण एवं हृास अध्ययन क्षेत्र में भी अपने पैर पसार रहे हैं। बढ़ती जनसंख्या, कुछ नगरों में केंद्रित औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति, ग्रामीण स्तर पर खेतों में रसायनों एवं कीटनाशकों का प्रयोग, शिक्षा के अभाव से ग्रामीण पर्यावरणीय व्यवस्था सुचारू रूप से नहीं चल पा रही है। इसके फलस्वरूप मानव विभिन्न मानसिक एवं शारीरिक बीमारियों से ग्रसित होता जा रहा है। पर्यावरण प्रदूषण वर्तमान परिप्रेक्ष्य में गंभीर समस्या नहीं है, अपितु भविष्य में इसका प्रभाव विस्फोटक होगा। सर्वेक्षित परिवारों से रूबरू होने से ज्ञात हुआ कि प्रदूषण का जहर कहीं सूक्ष्म एवं अप्रत्यक्ष और कहीं प्रत्यक्षतः चारों तरफ फैलता जा रहा है। जल प्रदूषण यहां भी देखने को मिलता है। सिंचित क्षेत्रों में रसायनों तथा कीटनाशकों का प्रयोग इसे दूषित कर रहा है।

अध्ययन क्षेत्र के सर्वेक्षित परिवारों में से 174 परिवारों (43.50 प्रतिशत) ने किसी-न-किसी प्रकार की बीमारी का होना बताया। सिंचित क्षेत्र के परिवारों में से ऐसे परिवारों का अनुपात 36 प्रतिशत, तथा बारानी क्षेत्र के परिवारों में से 51 प्रतिशत रहा। जिले के सकल सर्वेक्षित परिवारों में से 77.6 प्रतिशत परिवारों में श्वास रोगों से पीड़ित व्यक्ति पाए गए, जिसमें 60.9 प्रतिशत खांसी, 12.1 प्रतिशत टी.बी. से पीड़ित थे। सिंचित भागों में श्वसन-रोग पीड़ित परिवार 70.8 प्रतिशत थे (19.4 प्रतिशत टी.बी. पीड़ित), जबकि 9.7 प्रतिशत परिवारों में घातक कैंसर पीड़ित पाए गए। श्वसन रोगों को धूम्रपान व चूल्हे के धुएं, तथा कैंसर के मामलों को कृषि प्रदूषण व कीटनाशकों से जोड़ा जा सकता है। असिंचित भागों के बीमारयुक्त परिवारों में से 82.4 प्रतिशत में श्वसन-संबंधी रोगी ही पाए गए।

नोखा तहसील के नलकूप-सिंचित गांवों में बीमारी युक्त परिवारों में से तीन-चौथाई परिवारों (76.3 प्रतिशत) में श्वसन तंत्र के रोग पाए गए। इनमें 18.4 प्रतिशत टी.बी. के रोगी वाले परिवार शामिल हैं। नोखा के इन गांवों में 13.2 प्रतिशत ऐसे परिवार थे जिनमें कैंसर के रोगी पाए गए। नहर सिंचित पूगल तहसील के बिमारियों वाले परिवारों में से दो-तिहाई (64.7 प्रतिशत) में श्वसन तंत्र की दिक्कत वाले सदस्य रिपोर्ट किए गए, जबकि 5.9 प्रतिशत परिवारों में कैंसर के केस पाए गए।

असिंचित नोखा में बिमारी बतलाने वाले परिवारों के 79 प्रतिशत में श्वसन-तंत्र के रोगी देखे गए, जिसमें 23.3 प्रतिशत टी.बी. वाले परिवार भी शामिल हैं। बारानी पूगल के गांवों के बिमारी युक्त परिवारों में सभी खांसी जैसी छोटी-मोटी दिक्कत बताने वाले ही पाए गए (सारणी 4 व आरेख 3)।



मनुष्य और उसके क्रियाकलापों द्वारा जल लगातार प्रदूषित हो रहा है। नहरों में आने वाले प्रदूषित जल का प्रबंधन न हो पाना भी प्रमुख कारण है। जैसे घरेलू गंदगी का बहाव, वाहित मल, छोटे-मोटे उद्योगों का कचरा, कृषि में प्रयोग के बाद बचे रासायनिक कीटनाशक डिब्बों आदि को जल में विसर्जित कर देना आदि। जल प्रदूषण से नहरी क्षेत्र में पेट एवं आंतों की बीमारियां तथा हैजा, टाइफाइड, डायरिया, पेचिस, पीलिया आदि कुछ घरों में देखने को मिले जबकि वायु प्रदूषण द्वारा खांसी, टी.बी., अस्थमा आदि बीमारियां देखी गई जिनमें अधिकांश धूम्रपान तथा दूषित वायु कारण रहा। अध्ययन क्षेत्र में कैंसर के आंकड़े बढ़ने के कारणों में दो-तिहाई प्रतिभागी कीटनाशकों के अधिक प्रयोग को, 28 प्रतिशत अधिक रासायनिक उर्वरकों जबकि सात प्रतिशत मादक पदार्थ को शामिल करते हैं (सारणी संख्या 5)।

निष्कर्ष अध्ययन क्षेत्र के सिंचित भागों में रसायनों एवं कीटनाशकों के प्रयोग से कृषि पर मृदा प्रदूषण का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। अध्ययन क्षेत्र के समुदायों में स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं देखने को मिली जिनमें मुख्यतः कैंसर व टी.बी. शामिल है। कीटनाशक छिड़काव के दौरान पी.पी.ई. का अनिवार्य तौर पर इस्तेमाल न किया जाना और खाद्य फसलों में इनका अनुचित मात्रा में प्रयोग करना कैंसर जैसी बीमारियों का प्रमुख कारण है। अतः जैविक कृषि को प्राथमिकता से अपनाया जाना आवश्यक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. Bensch, Gunther, Peters, Jorg & Sievert, Maximiliane (2017). The Lighting Transition in Rural Africa- From Kerosene to Battery-powered LED and the Emerging Disposal Problem. Energy for Sustainable Development, Volume 39, August, pp. 13-20. 2. Bierkamp, Sina et al.(2021). Environmental Income and Remittances: Evidence from Rural Central Highlands of Vietnam. Ecological Economics, January, Volume 179. https://doi.org/10.1016/j.ecolecon.2020.106830 3. Carausu, Elena Mihaela et al.(2017). The General and Oral Health Status in Older Adults from Rural Environment of Iasi County, Romania. Revista de Cercetare si Interventie Sociala. Issue No 59, pp. 187-208. 4. Fei, Li et al. (2017). Livestock Wastes and Circular Economy Modes in Rural China. Conference on Environment and Sustainable Development of the Mongol Plateau and Adjacent Territories, Ulan-Ude, 03-04 August 2017. 5. Feizizadeh, Bakhtiar et al. (2023). Health Effects of Shrinking Hyper-Saline Lakes: Spatiotemporal Modeling of the Lake Urmia Drought on the Local Population, Case Study of the Shabester County. Scientific Reports, Volume 13, Number 1, p. 1622. 6. Israel, Adina & Wynberg, Rachel (2018). Multifunctional Landscapes in a Rural, Developing Country Context: Conflicts and Synergies in Tshidzivhe, South Africa. Landscape Research, 44 (4): 404-417. 7. Khatri, Nitasha, Tyagi, Sanjiv, Rawtani, Deepak (2017). Rural Environment Study for Water from Different Sources in Cluster of Villages in Mehsana District of Gujarat. Environmental Monitoring and Assessment, Volume 190, Number 10. DOI: https://doi.org/10.1007/s10661-017-6382-8 8. Naorem, Anandkumar et al. (2023). Soil Constraints in an Arid Environment -Challenges, Prospects and Implications. Agronomy, Volume 13, Number 1, p. 220. 9. Nwokoro, Chioma & Chima, Felix O. (2017). Impact of Environmental Degradation on Agricultural Production and Poverty in Rural Nigeria. American International Journal of Contemporary Research, June, 7(2): 6-14. 10. Skrbic, Iva et al. (2018). Pro-Poor Tourism for the Purpose of Rural Environment Development. Economics of Agriculture, Volume 65, Number 1, January, pp. 373-389. 11. Suarez, Andres et al.( 2018). Environmental Sustainability in Post-Conflict Countries: Insights for Rural Colombia. Environment, Development and Sustainability, 20, 997–1015. https://doi.org/10.1007/10668-017-9925-9 12. Wang, Aiqin et al.(2017). Rural Solid Waste Management in China: Status, Problems and Challenges. Sustainability, 9(4), 506. https://doi.org/10.3390/su9040506 13. Zhou, Yang et al. (2020). The Nexus between Regional Eco-Environmental Degradation and Rural Impoverishment in China. Habitat International, February, Volume 96. https://doi.org/10.1016/j.habitatint.2019.102086