P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VII March  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
प्रयोगवाद के इतिहास में तारसप्तक की भूमिका
Role of Tarasaptak in The History of Experimentalism
Paper Id :  17310   Submission Date :  03/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  23/03/2023
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रेखा भट्ट
असिस्टेंट प्रोफेसर (शोध छात्रा)
हिन्दी विभाग
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
बागेश्वर,उत्तराखंड, भारत
सारांश यह सर्वविदित है कि साहित्य समाज का दर्पण है। साहित्य के माध्यम से न केवल तत्कालीन परिस्थितियों को जाना जा सकता है वरन तत्कालीन समय के मस्तिष्क को समझना संभव हो पाता है। साहित्य के अध्ययन उपरांत हम जनते की चित्रवृत्ति तथा समय की आवश्यकताओं को समझ पाने में सक्षम हो पाते हैं। संपूर्ण साहित्य परिवर्तन के शाश्वत नियम का अविरल, अनवरत प्रवाह है। जिसका वर्तमान, अतीत और भविष्य दोनों को अपने भीतर समाहित रखता है। हिंदी साहित्य का विकास क्रम इसी सत्यता की ओर इंगित करता है। ऐतिहासिक सत्य यह है कि प्रत्येक युग अपनी शक्ति को प्राप्त करने के लिए नवीन पथ का अन्वेषण करता है।वह पू र्व युग की परंपरा की बेड़ियों को तोड़कर अपने लिए एक नवीन धरातल की खोज करता है। प्रस्तुत शोधपत्र हिंदी साहित्य के विकास की निरंतरता के इसी क्रम में प्रयोगवाद तथा तारसप्तक जैसी अविस्मरणीय घटना पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालता है
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद It is well known that literature is the mirror of the society. Through literature, not only the conditions of that time can be known, but it is possible to understand the mind of that time. After studying literature, we are able to understand the picture of the people and the needs of the time. The whole of literature is an incessant, incessant flow of the eternal law of change. Whose present contains both the past and the future within itself. The development of Hindi literature indicates this continuity. The historical truth is that every era explores a new path to achieve its power. Breaking the shackles of the tradition of the old age, it searches for a new ground for itself. The presented research paper throws important light on the unforgettable events like experimentalism and Tarasaptak in the continuation of the development of Hindi literature.
मुख्य शब्द आधुनिकता, अन्वेषण, प्रयोगवाद, प्रयोगशीलता, तारसप्तक।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Modernity, Exploration, Experimentalism, Experimentalism, Tarsaptak.
प्रस्तावना
यह शाश्वत सत्य है कि काव्य और परिवर्तन अविच्छिन्न अंग है। जहाँ एक ओर साहित्य के माध्यम से परिवर्तन संभव होता है वही काव्य/ साहित्य भी परिवर्तन के थपेड़ों से विभिन्न आकार प्रकार ग्रहण करता है। आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास (1929ई) में कहा है" प्रत्येक देश का साहित्य वहां की जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब होता है तब यह निश्चित है कि जनता की चित्तवृत्ति के परिवर्तन के साथ-साथ साहित्य के स्वरूप में परिवर्तन होता चला जाता है।"[1] अर्थात समय के साथ-साथ साहित्य की दशा और दिशा परिवर्तित हो जाती है। समय और साहित्य की इसी अंतरसंबंध के कारण इतिहास में वर्णित कई सारे वाद, आंदोलन और युग अस्तित्व में आते रहे हैं जिसमें तत्कालीन समय विशेष की प्रवत्तियां और आवश्यकताएं दृष्टिगोचर होती हैं।प्रत्येक नवीन वाद या आंदोलन पुरातन वादया आंदोलन के प्रतिक्रिया स्वरूप जन्म लेता है। पुरातन वादों में जर्जर हो चुकी भाव भंगिमाए तथा रूढ़िग्रस्त हो चुके मूल्य बोध से त्रस्त होकर समय नवीन परिवर्तन की मांग करता है और उसे स्वीकार भी करता है। समय के साथ-साथ नवीन भाव तथा विषयों की अभिव्यक्ति के लिए नवीन उपमानो साधनों का प्रयोग आवश्यक होता है छायावादी काव्य की कोमलता के प्रतिक्रिया स्वरूप प्रगतिवाद की यथार्थवादी कठोरता तथा प्रगतिवाद की घोर सामाजिकता के परिणाम स्वरूप प्रयोगवाद की व्यक्तिवादिता एवं प्रयोगधर्मिता ने ग्रहण कर ली थी।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध विषय का उद्देश्य प्रयोगवाद की इतिहास में तार सप्तक की भूमिका का अध्ययन, विश्लेषण करते हुए इसके महत्व का प्रतिपादन करना है। तार सप्तक जो प्रयोगवाद का प्रस्थान बिंदु कहा जाता है, का प्रयोगवाद की पृष्ठभूमि में अध्ययन कर इसके योगदान का अंकन करना है।
साहित्यावलोकन

द्विवेदी युग की इतिवृत्तात्मकता से असंतुष्ट होकर जन रुचि ने कल्पनाओं की सूक्ष्मता और मृष्णता की मांग की और समय परिवर्तित हुआ। द्विवेदी युग की समाप्ति तथा छायावाद का प्रारंभ हमें दिखाई पड़ता है किंतु शीघ्र ही छायावाद की अति काल्पनिकता से जन रुचि अब ऊब गई और छायावादी काव्य की कोमलता के प्रतिक्रिया स्वरूप प्रगतिवाद, प्रगतिवाद की घोर सामाजिकता के परिणाम स्वरूप प्रयोगवाद की व्यक्तिवादिता ने स्थान ग्रहण किया था। प्रत्येक युग प्राचीन युग से कुछ नया प्रयोग लेकर आता है। इसी सत्यता की ओर इंगित करते हुए रामधारी सिंह दिनकर अपनी पुस्तक ‘काव्य की भूमिका’ में कहते हैं– “सारा साहित्य सत्यता का अविच्छिन्न प्रवाह है, जिसका वर्तमान अतीत को अपने साथ लिए रहता है। अतीत बराबर अपूर्ण होता है और जब नए मुहावरों में नई अनुभूतियां लिखी जाने लगती हैं।तब वह केवल वर्तमान में जीवित होने का ही प्रमाण नहीं होता, उससे यह भी प्रत्यक्ष होता है कि अतीत की प्रक्रिया पूर्ण हो रही है। छायावाद का उदय द्विवेदी युग की अपूर्णता में हुआ और छायावाद भी अपूर्ण निकला। जिसकी पूर्ति का प्रयास छायावादोत्तर काल ने किया और अब इस छायावादोत्तर काल की अपूर्णता और अतृप्ति भी युवकों को अनुभूत होने लगी है। हम जानते हैं कि इस अपूर्णता को भी पूर्ण करेंगे और फिर पोतों का युग आएगा जो अपने पिता की अपूर्णताओं को भी दूर करने की कोशिश करेगा। ऐतिहासिक सत्य यहहै कि हर युग नया जल लेकर आता है और हर युग जब जाने लगता है तब उसके लाए हुए जल से आगामी युग की प्यास नहीं बुझ पाती इसलिए प्रत्येक युग को अपना कुआं आप ही खोदना पड़ता है चाहे वह छिछला ही क्यों ना हो।”[2]

परिर्वतन के दौर में साहित्य प्रेमियों ने द्विवेदी युगीन इतिवृत्तात्मकता से ऊबकर काव्य को उसकी सिद्धि के उपयुक्त बनाने की मांग की थी।जिसकी प्रतिक्रिया में कल्पना तथा भावुकता से ओतप्रोत एक नवीन युग छायावाद का उदय होता है। “हिंदी के कार्य क्षेत्र में द्विवेदी युग की उपदेशात्मक एवं नैतिकता प्रधान इतिवृत्तात्मक कविता के विरुद्ध जो आंदोलन आरंभ हुआ उसमें रहस्यमयी भावनाओं, लाक्षणिक एवं प्रतीकात्मक प्रयोगों, चित्रमयी भाषा, मधुमयी दूरा रूढ़ कल्पना, ध्वन्यात्मकता, उपचार वक्रता, स्वानुभूति की संवेदनात्मक विवृत्ति, प्रकृति के रमणीय चित्रों की बहुलता आदि का प्रधान्य था।.... इस नूतन काव्यधारा को छायावाद के नाम से अभिहित किया गया।”[3] किंतु शीघ्र ही छायावादी कविता अपनी घोर काल्पनिकता के कारण यथार्थ की अभिव्यक्ति जो साहित्य की प्रमुख विशेषता है, से अत्यधिक दूर हो गई। छायावादी कविता अत्यंत काल्पनिक और सूक्ष्म हो गई जिस कारण समय की गति के साथ-साथ छायावाद की अभिव्यक्ति धूमिल होती गई।

द्विवेदी युग की काव्य अनुभूति से असंतुष्ट होकर छायावादी कवियों ने भाषा और शिल्प के स्तर पर जिस स्वर्ण काव्य लोक की रचना की थी, साहित्य और राजनीति की ऐतिहासिक आवश्यकता के तनाव में वह काव्य लोक अप्रासंगिक होता जा रहा था।”[4] समय के साथ समाज की दृष्टि आदर्शवाद से यथार्थ बोध की ओर संचरित होती है मनुष्य अपनी सामाजिक संरचना में क्रांतिकारी परिवर्तन चाहता है। कविता में छायावादी कोमलता गुम हो रही थी जिसका एक महत्वपूर्ण कारण तत्कालीन स्वाधीनता के संघर्ष का उग्रहोना भी था।

तत्कालीन परिस्थितियों में कवियों का ध्यान छायावाद की कोमल भावनाओं को छोड़कर यथार्थ में समाज की विसंगतियों एवं विद्रूपताओं पर जाने लगा था। सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’ भले ही छायावाद के प्रकाश स्तंभों में एक हैं परंतु उनकी काव्य की पृष्ठभूमि काल्पनिकता को त्याग कर यथार्थ तथा संघर्षपूर्ण है। छायावादी कवि होते हुए भी यह यथार्थ बोध की ओर उत्सुक दिखाई पड़ते हैं। काव्य की इस संक्रमण काल को इंगित करती वह तोड़ती पत्थर’‘भिक्षुक’ तथा ‘कुकुरमुत्ता’ जैसी इनकी यथार्थपरक महत्वपूर्ण कविताएं हैं। जहां से एक नवीन काव्यबोध का स्पष्ट उद्घोष सुनाई पड़ता है। जिसकी भूमि साम्यवाद है। इन परिस्थितियों में 1936 ईस्वी में प्रगतिशील लेखक संघ की स्थापना हुई जिसके प्रथम सम्मेलन (लखनऊ में आयोजित) की अध्यक्षता कथा सम्राट प्रेमचंद ने की और कहा–“वह (साहित्यकार) देशभक्ति और राजनीति के पीछे चलने वाली सच्चाई नहीं बल्कि उनके आगे मशाल दिखाती हुई सच्चाई है।”[5] साहित्य के क्षेत्र में मार्क्सवादी विचारधारा का प्रगतिवादी विचारधारा के रूप में उदय हुआ।

प्रगतिवादी आंदोलन का विद्रोह साम्राज्यवाद, शोषण और औपनिवेशिकता के विरुद्ध था किंतु कालांतर में यह वाद मार्क्सवादी दर्शन की विचारधारा का पर्याय मात्र बनकर रह गया। प्रगतिवादी साहित्य के मूल्यांकन के प्रतिमान के संदर्भ में जैसे मार्क्सवाद का प्रयोग किया जाना चाहिए था वैसा संभव न हो सका। डॉ नगेंद्रने लिखा “प्रगतिवाद छायावाद की भस्म से नहीं पैदा हुआ, वह उसके यौवन का गला घोट कर उठ खड़ा हुआ।”[6]

यह आंदोलन वेगवान अवश्य था, परंतु मार्क्सवादी सिद्धांतों की अधिकता से कविता की संपूर्ण रूपरेखा वर्गवादक्रांति, लाल सेना, शोषक–शोषण परंपरा, विद्रोह जैसे सैद्धांतिक विषयों के इर्द-गिर्द ही सिमटकर रह गई। मार्क्स कि इन नीरस और दुरूह विषयों में उलझ कर कवि हृदय में कोमल अनुभूतियों के लिए स्थान शेष न रहा। हिंदी साहित्य के इतिहास में वर्ष 1943 में एक अविस्मरणीय घटना घटी जिसने साहित्य के इतिहास को एक नया मोड़ प्रदान किया। 1943 ईस्वी में अज्ञेय के संपादन में तार सप्तक’ नामक काव्य संग्रह का प्रकाशन हुआ जिसके लोकप्रियता ने यह संकेत किया कि परिवर्तन अपनी सत्यता के अनुसार आकार ग्रहण करने को आतुर है।

तार सप्तक में सात कवियों की कविताएं संकलित थीं जो पूर्णतः नवीन भाव बोध की पृष्ठभूमि पर आधारित थीं। तार सप्तक की भूमिका में अज्ञेय लिखते हैं “संग्रहित कवि सभी कविता को प्रयोग का विषय जानते हैं जो यह दावा नहीं करते कि उन्होंने काव्य का सत्य पा लिया है केवल अन्वेषी ही अपने को पाते हैं।”[7] अज्ञेय के इन कथनों से साहित्य में प्रयोगशीलता जैसे शब्दों की चर्चा होने लगी थी तथा प्रयोगवाद अपना आकार ग्रहण करने लगा था।

भारतीय इतिहास में सन 1940–41 का समय भारतीय जनजीवन में उथल - पुथल का समय था। जब भारतीय जनमानस दमन, गतिरोध, भ्रष्टाचार, महंगाई, राष्ट्रीय संघर्ष आदि मुद्दों से त्रस्त था। भारत की मध्यमवर्गीय बुद्धिजीवी वर्ग के हृदय में तीव्र असंतोष की ज्वाला धधक रही थी। अत्यधिक असंवेदनशीलता के कारण मानस अत्यधिक बेचैन दिखाई देने लगा और विभिन्न आंदोलनों की असफलताओं ने उसे एक नवीन क्रांति की ओर उन्मुख किया।

संक्रांति काल की इन परिस्थितियों में एक ऐसी काव्यधारा का प्रारंभ हुआ जिसमें न तो छायावाद जैसी मधुर और सुकुमार कल्पना थी, जिसमें प्रगतिवाद की यथार्थ की शुष्कता तथा रूक्षता थी अपितु इस काव्य धारा में प्रयोगशीलता के प्रति आग्रहथा, छायावादी घोर काल्पनिकता से मुक्ति की भावना थी, यथार्थ के धरातल पर उतरकर जीवन को देखने की प्रवृत्ति थी, नई राहों के अन्वेषण की दृष्टि थी, व्यक्ति तथा समाज की व्यवस्था के बीच संबंध को शुभ बनाने की लालसा थी, सामाजिकता का आग्रह था और काव्य के सभी उपादानों को जीवंतता प्रदान करने का संकल्प था। हिंदी साहित्य के इतिहास में इसे प्रयोगवाद नाम से अभिहित किया गया। प्रयोगवाद का प्रारंभ ‘तार सप्तक’ से माना जाता है। इस काव्यसंग्रह का प्रकाशन अज्ञेय की देख–रेख हुआ।

प्रयोगवाद आधुनिक हिंदी साहित्य का एक आंदोलन विशेष है। प्रयोगवाद में लिखी गई कविता आधुनिकता बोध से संपन्न मानवतावादी कविता है।यह कविता आदर्श परिकल्पना से दूर यथार्थ की पृष्ठभूमि पर आधारित है। प्रयोगवाद का अभिप्राय स्पष्ट करते हुए आलोचकों ने कहा कि इस धाराके कवि नवीनता की प्रति आग्रहीहैं तथा काव्य के प्रत्येकक्षेत्र में भाषा, शिल्प, प्रतीक, छंद, बिंब आदि में नवीन प्रयोग ही उनका इष्ट है। इस युग के कवि सत्य का अन्वेषण करना चाहते हैं तथासत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया की प्रयोगशीलता की मांग करती है। जिसे ‘तार सप्तक’ के कवियों ने अपनी प्रयोगशील दृष्टि से पूर्ण किया। अपनी प्रयोगशीलता के कारण ही इस आंदोलन को हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रयोगवाद के नाम से जाना जाता है।

नगेंद्र के अनुसार “प्रयोग तो प्रत्येक युग में होते हैं किंतु प्रयोगवाद कविताओं के लिए रूढ़ हो गया है जो कुछ नई बोधों, संवेदनाओं तथा उन्हें प्रेषित करने वाले शिल्पगत चमत्कारों को लेकर शुरू शुरू में तार सप्तक के माध्यम से सन 1943 में प्रकाशन जगत में आई।”[8] स्पष्ट है कि ‘तार सप्तक’ को प्रयोगवाद का प्रस्थान बिंदु कहना अतिशयोक्ति नहीं है।

तार सप्तक पंरपरा

प्रयोगवाद का प्रारंभ आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में 1943 ईस्वी में अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक के प्रकाशन से माना जाता है। तार सप्तक हिंदी साहित्य में स्वर्णिम घटना है जिससे हिंदी साहित्य में एक नवीन युग का सूत्रपात होता है। साहित्य में आधुनिकता तथा प्रयोगशीलता का समावेश प्रयोगवाद से और प्रयोगवाद का विधिवत श्री गणेश अज्ञेय द्वारा संपादित तारसप्तक (1943 ईस्वी) से माना जाता है। तारसप्तक सात कवियों का समूह था। इसमें संकलित कवि प्रभाकर माचवे, गजानन माधव मुक्तिबोध, नेमिचंद्र जैन, भारत भूषण अग्रवाल, रामविलास शर्मा, गिरिजा कुमार माथुर और अज्ञेय हुए। इसी श्रृंखला में दूसरा सप्तक, तीसरा सप्तक तथा चौथा सप्तक भी संपादित हुआ। दूसरा सप्तक 1951 ईस्वी में भवानी प्रसाद मिश्र, शकुंतला माथुर, हरिनारायण व्यास, शमशेर बहादुर सिंह, नरेश मेहता, रघुवीर सहाय और धर्मवीर भारती की कविताएं संकलित हैं। तीसरा सप्तक वर्ष 1959 में प्रकाशित हुआ और इसमें संकलित कवि थे– प्रयाग नारायन त्रिपाठी, कीर्ति चौधरी, कुंवर नारायण, केदार नाथ सिंह, मदन वात्स्यायन, विजयदेव नारायण साही और सर्वेश्वर दयाल सक्सेना। वर्ष1979 में चौथा और अंतिम सप्तक प्रकाशित हुआ इसके कवियों में अवधेश कुमार, स्वदेश भारती, नंद किशोर आचार्य, सुमन राजेराजकुमार कुंभज, श्री राम वर्मा, तथा राजेंद्र किशोर नाम सम्मिलित हैं। तारसप्तक तथा सप्तक परंपरा के सभी सप्तक अज्ञेय के द्वारा संपादित तथा संवर्धित हुए। अज्ञेय ने ‘तार सप्तक’ तथा ‘प्रतीक’ पत्रिका के संपादन के माध्यम से आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रयोगशीलता का एक नवीन युग प्रारंभ किया इसलिए अज्ञेय को प्रयोगवाद का प्रवर्तक कहा जाता है।

प्रयोगवाद के इतिहास में तार सप्तक की भूमिका

प्रयोगवाद के साथ अज्ञेय द्वारा संपादित तार सप्तक की चर्चा अत्यंत स्वभाविक विषय है। एक के बिना जैसे दूसरे का अस्तित्व ही नहीं है।‘तार सप्तक’ के संपादकीय में अज्ञेय कहते हैं कि “इसमें संग्रहित कवि सभी ऐसे होंगे जो कविता को प्रयोग का विषय मानते हैं।इनके तो एकत्र होने का कारण ही यही है कि वे किसी एक स्कूल के नहीं है किसी मंजिल पर पहुंचे हुए नहीं है, अभी राही हैं– राही नहीं, राहों के अन्वेषी हैं।”[9]

परन्तु इससे यह अर्थ कदापि न था की तार सप्तक के कवि मात्र प्रयोग को ही आखिरी सत्य मानते हैं। प्रयोग के लिए प्रयोग कोअज्ञेयने स्वीकार नहीं किया।वरन सप्तककार प्रयोग को सत्यान्वेषण का माध्यम स्वीकार करते हैं। तार सप्तक में कवियों ने काव्य रचना की पुरातन रूढ़ियों को तोड़ने के साथ अर्थात शिल्प के साथ-साथ अंतर्वस्तु के भी नवीन प्रतिमान गढ़े थे। नए कवि काव्य की सीमित दायरों को तोड़कर युगीन सामाजिक यथार्थ को अभिव्यक्त करने के लिए एक नवीन दिशा में नवीन शिल्प, कथ्य, प्रतीक, उपमान तलाशने के लिए बेचैन थे। सप्तक चतुष्टय के संपादक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायनअज्ञेय अपनी कविता ‘कलगी बाजरे की’ में कहते हैं–

ये उपमान मैले हो गए हैं

देवता इन प्रतीकों के कर गए हैं कूच

कभी वासन अधिक घिसने से मुलम्मा छूट जाता है।”[10]

काव्य के प्रति अन्वेषण का दृष्टिकोण ही तार सप्तक के सभी कवियों को एक सूत्र के बंधन में बांधताहै परंतु इसका अभिप्राय यह नहीं है कि“प्रस्तुत संग्रह की सब रचनाएं प्रयोगशीलता के नमूने हैं या कि इन कवियों की रचनाएं रूढ़ी से अच्छी हैं या कि केवल यही कवि प्रयोगशील है बाकी सब घास छीलने वाले, वैसा दावा यहां कदापि नहीं।”[11] आगे  वह अपने वक्तव्य में स्पष्ट करते हैं की “प्रयोग सभी कालों के कवियों ने किए हैं.....। किंतु कवि क्रमशः अनुभव करता आया है कि जिन क्षेत्र में प्रयोग हुए हैं उनसे आगे बढ़कर अब उन क्षेत्रों का अन्वेषण करना चाहिए जिन्हें अभी नहीं छुआ गया था जिनको अभेद्य मान लिया गया है।”[12] इस अभेद्य को जानने की इच्छा में सप्तककार अनवरत प्रयासरत रहता है।

इस आंदोलन का नाम प्रयोगवाद प्रचलित हो जाने का एक बहुत महत्वपूर्ण कारण देते हुए प्रसिद्ध आलोचक नामवर सिंह अपनी पुस्तक ‘आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां’ में लिखते हैं “प्रयोगवाद नाम चलने का कारण तार सप्तक के संपादक  तथा कुछ अन्य वक्तव्य हैं........। उनमें प्रयोग और प्रयोगशीलता को साफ शब्दों में अपनी विशेषता बताया है। मालूम होता है पाठकों ने इस कविता के प्रयोग–प्रयोग के लटके को पकड़ लिया और उनकी कविताओं को प्रयोग नाम दे दिया।”[13] इसलिए प्रयोगवाद नाम रूढ़ हो गया।

अज्ञेय प्रयोगवाद नाम से सहमत नहीं थे। अज्ञेय प्रयोगवाद और प्रयोगशीलता में अंतर मानते थे। अज्ञेय ने दूसरा सप्तक की भूमिका में इसका खंडन करते हुए कहा “प्रयोग अपने आप में इष्ट नहीं है। वरन वह दोहरा साधन है एक तो वह उस सत्य को जानने का साधन है जिसे कवि प्रेषित करता है दूसरा वहउस प्रेषण प्रक्रिया को और उसके साधनों को जानने का साधन है।”[14] अज्ञेय तार सप्तक के संपादकीय तथा वक्तव्यों में प्रयोग, प्रयोगशील और प्रयोगशीलता का बहुधा इस्तेमाल किया है। अपने वक्तव्यों में भले ही अज्ञेय ने इन शब्दों का प्रयोग किसी पूर्व निश्चितमंशा से न किया हो परन्तु प्रथम दृष्टया यह किसी निश्चित आंदोलन या वाद को इंगित करता प्रतीत होता है। अज्ञेय मानते थे कि प्रयोग द्वाराकवि सत्य का अंवेषण करना चाहता है न कि प्रयोग को इष्ट बनाना चाहता है। इसके बावजूद प्रचलित हो जाने के कारण आधुनिक हिंदी साहित्य के इतिहास में प्रयोगशीलता के इस नवीन युग को आज भी प्रयोगवाद के नाम से ही जाना जाता है। जिसमें अज्ञेय द्वारा संपादित, संवर्धित, और विकसित सप्तकचतुष्टय की भूमिका निःसंदेह महत्त्वपूर्ण है।

निष्कर्ष हिंदी साहित्य की इतिहास में तारसप्तक एक स्वर्णिम घटना के रूप में अंकित है। सप्तक चतुष्टय न केवल प्रयोगवाद बल्कि हिंदी साहित्य के इतिहास को एक नवीन दिशा की ओर अग्रसर करता है। निष्कर्ष रूप में हम देखें तो लगता है हिंदी साहित्य का इतिहास में सबसे बड़ा योगदान वाद विशेष से मुक्ति है हालांकि आलोचकों ने वाद विशेष से मुक्ति को ही एक वाद का प्रतीक माना है। वस्तुतः तार सप्तक में मार्क्सवादी, समाजवादी, गांधीवादी, अस्तित्ववादी, क्षणवादी जैसे सभी विचारधाराओं के कवि शामिल हुए। तार सप्तक ने न केवल प्रयोगवाद वरन हिंदी साहित्य की दिशा और दशा में क्रांतिकारी परिवर्तन किए थे। फिर चाहे वस्तु स्तर पर क्षण का महत्व हो, लघु मानव की स्थापना हो, निजी व्यक्तित्व का चित्रण हो, शिल्प में मुक्त छंद का प्रयोग हो, सरल सहज भाषा का प्रयोग, काव्य की अलंकरण से मुक्ति आदि। तार सप्तक नई राहों का अन्वेषण था, अज्ञेय के अनुसार अभेद्य की ओर प्रसरण था और इन्हीं राहों से आगे बढ़कर प्रयोगवाद ने स्वरूप धारण किया था निश्चित रूप से यह कह सकते हैं कि तार सप्तक प्रयोगवाद का प्रस्थान बिंदु था।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. आचार्य रामचंद्र शुक्ल: हिंदी साहित्य का इतिहास, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली,संस्करण– 2020,पृ–15. 2. रामधारी सिंह दिनकर: काव्य की भूमिका, लोकभारती प्रकाशन इलाहाबाद, संस्करण–2013, पृ–68. 3. द्वारिका प्रसाद सक्सेना: हिंदी के आधुनिक प्रतिनिधि कवि, विनोद पुस्तक मंदिर आगरा,सप्तम संस्करण 1986–87,पृ–405. 4. अखिलेश कुमार मिश्रा:तार सप्तक: सिद्धांत और कविता, राधाकृष्ण प्रकाशन दरियागंज नई दिल्ली, पहला संस्करण–2016,पृ–17. 5. प्रेमचंद्र, प्रगतिशील लेखक संघ का अध्यक्षीय वक्तव्य, प्रेमचंद्र के श्रेष्ठ निबंध,पृ–95, संपादक–डॉ सत्यप्रकाश मिश्र, ज्योति प्रकाशन इलाहाबाद, 1998. 6. डॉ नगेंद्र: विचार और अनुभूति, गौतम बुक डिपो दिल्ली, दूसरा संस्करण–1991, पृ–70. 7. अज्ञेय: तार सप्तक की भूमिका भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन नई दिल्ली,तेरहवासंस्करण–2021,पृ– 10. 8. नगेंद्र: हिंदी साहित्य का इतिहास, नेशनल पब्लिशिंग हाउस दिल्ली, पृ–610. 9. अज्ञेय: तार सप्तक की भूमिका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन दिल्ली,तेरहवा संस्करण–2021, पृ– 9,10 10. अज्ञेय:कलगी बाजरे की(सर्जना केक्षण)भारतीयसाहित्यप्रकाशन मेरठ,संस्करण–1987,पृ– 55 11. अज्ञेय: तार सप्तक कीभूमिका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन नई दिल्ली,तेरहवांसंस्करण– 2021 पृ–11 12. अज्ञेय:तारसप्तक,(वक्तव्य) भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन नई दिल्ली,तेरहवांसंस्करण–2021, पृ–222 13. नामवर सिंह:आधुनिक साहित्य की प्रवृत्तियां, लोक भारती प्रकाशन इलाहाबाद,संस्करण–2016,पृ–93. 14. अज्ञेय: दूसरासप्तक की भूमिका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन नई दिल्ली, पांचवा संस्करण– 2020,पृ–6