ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
बढ़ते बच्चों में रूचि पर प्रेरणा के प्रभाव का अध्ययन
Study of The Effect of Motivation on Interest in Growing Children
Paper Id :  17149   Submission Date :  2023-01-04   Acceptance Date :  2023-01-19   Publication Date :  2023-01-25
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अनुराधा
शोध छात्रा
गृहविज्ञान
श्री गणेश राय पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज
डोभी, जौनपुर,उत्तर प्रदेश, भारत
सरोज सिंह
विभागाध्यक्ष
गृहविज्ञान
श्री गणेश राय पोस्ट ग्रेजुएट कॉलेज
डोभी, जौनपुर, उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश
जब एक व्यक्ति अपनी पंसद के आधार पर कोई कार्य करने को अथवा कोई क्रिया करने को स्वतंत्र होता है तो वह व्यक्तिइन क्रियाओं को अपनी सूचि के आधार पर चुनता गौर करता है बाल्यवस्था में बालको के अधिगम के लिए कचियाँ शक्तिशाली अभिप्रेरक का कार्य करती है। यह देखा गया है किबच्चे जिन कार्यो और खेलों में अधिक रूचि रखते है वे उनको करने और सीखने के लिए अधिक प्रयास करतेहै। वास्तविक रूचियाँ बालकके जीवन में अधिक स्थायी होती है। बालको के जीवन में इनका इस लिएअधिक है क्यों कि में अधिगम के लिए अभिप्रेरणावेजपक (Sawice fo Strong Motivation To Learn)- है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद When a person is free to do any work or perform any activity on the basis of his choice, then he chooses these activities on the basis of his list and notices that in childhood, toys act as a powerful motivator for children's learning. It has been observed that the activities and games in which children are more interested, they make more efforts to do and learn them. Genuine interests are more permanent in a child's life. They are more important in the life of children because they are a tool for strong motivation to learn.
मुख्य शब्द बढ़ते बच्चों में रूचि, प्रेरणा, बाल्यावस्था।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Interests, Motivation, Childhood in Growing Children.
प्रस्तावना
गिल्फोर्ड (1964) के अनुसार, ’’रूचि वह प्रवृप्ति है जिससे हम किसी व्यक्ति, वस्तु या क्रिया की ओर ध्यान देते हैं उसमे आकर्षित होते हैं या सन्तुष्टि प्राप्त करते है।’’ आइजनेक-आइजोक और उनके साथियो (1972) के अनुसार ‘‘रुचि व्यवहार की वह प्रवृति है जो कुछ वस्तुओं, क्रियाओं या अनुभवों के प्रति कार्य कर सकने में समर्थ होती है। तीव्रता (और सामान्यीकरण) में यह प्रवृत्ति व्यक्ति से व्यक्ति में परिवर्तित होती रहती है।’’ श्रीवास्तव-(डी0एन0 श्रीवास्तव, 2005) के अनुसार ’’रूचि व्यवहार की वह प्रवृत्ति है जिसके द्वारा हम किसी वस्तु, क्रिया घटना आदि की ओर ध्यान देते है आकर्षित होते हैं या पसंद करते हैं। हम रूचि से सम्बन्धित व्यवहार करके सुख और संतुष्टि का अनुभव करते हैं।’’ जिसमें हमारी रूचि होती है। हम उसको बहुत पसंद करते है। जब हम रूचि से सम्बन्धित व्यवहार करते हैं तब हमें केवल सुख का ही अनुभव नहीं होता है बल्कि हमें सन्तोष भी प्राप्त होता है। इसी प्रकार जब व्यक्ति में किसी वस्तु, व्यक्ति क्रिया या घटना के सम्बन्ध में रूचि का अभाव होता है तो वह उस ओर ध्यान नहीं देता है, आकर्षण की अपेक्षा विकर्षण का व्यवहार दिखाई देता है।
अध्ययन का उद्देश्य
प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में रूचियों का महत्वपूर्ण कार्य है क्योंकि व्यक्ति क्या और कैसे करेगा, यह बहुत कुछ उसकी रूचियों द्वारा निर्धारित होता है। रूचियां एक प्रकारर की सीखी हुई अभिप्रेरणाएँ है। वास्तव में रूचियाँ व्यक्ति के जीवन में अधिक स्थायी होती है। रूचियों का हमारे जीवन में बहुत अधिक महत्व इसलिए भी है कि वे अधिगम के लिये अभ्रिपेरणा स्रोत (Source or Strong Motivation to Learn) भी है।
साहित्यावलोकन

अध्ययनों में देखा गया है कि यदि कोई व्यक्ति बाल्यावस्था में कुछ रूचियों को सीखने से वंचित रह जाता है तो इसके लिये उसे जीवन भर कष्ट उठाना पड़ सकता है। इसका अर्थ यह नहीं है कि रूचियों का विकास केवल बाल्यावस्था में ही होता है। रूचियाँ तो जीवनपर्यन्त कभी भी सीखी जा सकती है। यह बात और है कि बच्चों के पास समय और अवसर की अधिकता होने से नई रूचियों को सीखना आसान होता है।

रूचि और भाव में अन्तर है। भाव में सुख-दुख अथवा इन दोनों की मिश्रित अनुभूति होती है। जब कि रूचि में व्यक्ति को केवल सुख की ही अनुभूति होती है। रूचि और अभिवृत्ति (Attitude) में भी सम्बन्ध है। रूचि वस्तु, व्यक्ति और अनुभव आदि के प्रति धनात्मक ही होती है। जब कि अभिवृत्ति धनात्मक भी हो सकती है और ऋणात्मक भी हो सकती है। रूचि और सनक (Whim) में भी अन्तर है। सनक एक स्थायी रूचि है परन्तु जब यह अधिक दिनों तक बनी रहती है तो यह रूचि से भी अधिक शक्तिशाली बन जाती है। सनक अस्थायी संतुष्टि प्रदान करती है। अतः इसकी तीव्रता भी जल्दी-जल्दी परिवर्तित होती रहती है। रूचियाँ योग्यता से भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्ध्तिा है जब किसी बालक में योग्यता के साथ रूचियाँ पाई जाती हैं तो उस व्यक्ति के उन्नति करने की सम्भावना अधिक रहती है। रूचियाँ बालक की पसंदों और नापसन्दों से भी घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है। रूचियाँ बालक को आनन्द प्रदान करती है। उदाहरण के लिए यदि कोई व्यक्ति पढ़ने में रूचि रखता है तो उसे पढ़ने में आनन्द आता है, दूसरी ओर यदि एक बालक पढ़ने में रूचि नहीं रखता है और फिर भी उसे पढ़ना पड़ता है तो पढ़ना उसे एक बोझ के समान लगता है।

मुख्य पाठ

रूचियों का उद्गम और विकास

रूचियों का विकास अधिकतर अनुभवों के आधार पर होता है। कितनी मात्रा में और किस प्रकार की रूचियों का विकास होगा यह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि बालक का अधिगम किस प्रकार का है। इस दिशा में तीन प्रकार की व्याख्याएँ प्रस्तुत की गई हैं-

1. बच्चे प्रयत्न और भूल (Trial and Error) अधिगम द्वारा ही रूचियों को सीखते है। इस प्रकार सीखी गई रूचियाँ अपेक्षाकृत अधिक स्थायी होती है। ये रूचियाँ कई बार सनक (Whim) में भी परिवर्तित हो जाती है। बहुधा देखा गया है कि इस प्रकार की रूचियों के सीखेने में अधिक बालक को निर्देशन (Guidance) दिया जाये तो बालक को रूचियाँ सीखने के बनेक अवसर प्राप्त होते हे।

2. बच्चे तादात्मीकरण (Identification) द्वारा भी अनेक रूचियों का अधिगम करते है। बहुधा देखा गया है कि बच्चे उन व्यक्तियों से तादात्मीकरण स्थापित करते है जो बच्चों को प्यार करते है या उनकी प्रशंसा करते है। प्रशंसा और प्यार करने वाले व्यक्तियों के व्यवहार को बालक तो सीखता ही है साथ ही साथ वह रूचियों के अधिगम के लिए आवश्यक है कि बालक में उसी प्रकार की योग्यताएँ और कुशलताएँ हो, जैसी कि उस व्यक्ति में जिसकी रूचियों का बालक अनुकरण कर रहा है।

3. बालक में रूचियों का विकास निर्देशन (Guidance) द्वारा भी किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि निर्देशन उसी व्यक्ति द्वारा दिया जाये जो बालक की योग्यताओं का मूल्यांकन कर सके ओर निर्देशन दे सके। इसके लिए आवश्यक है कि निर्देशनकर्ती अनुभवी और प्रशिक्षित (Trained) हो।

मानव व्यवहार कुछ प्रेरकों द्वारा ही निर्मित, पथ प्रदर्शित एवं रुपान्तरित होता है। जब भी कोई व्यक्ति भूखा है और खाने की तलाश कर रहा है सा जब कोई रहा है, या विषम लिंगीय केसाथमिल रहा है या नई कलाओं को सीख रहा है तब हम प्रत्येक दशा में कुछ ऐसे तत्वों को ढूंढ निकाल सकते है, जो इसकी क्रियाओं को प्रारम्भ करते है औरबराबर उसके कार्यों कापथ प्रदर्शन करते है एवं उसकी सफलताओं और असफलताओं के प्रकाश में उसके व्यवहार को मोड़ते है। हम इन तत्वों को अभिप्रेरक कहते है।

व्यक्ति खाने की तलाश करता है क्योंकि भूख एक प्रेरक है, और यह प्रेरक उसका खानातलाश करने की क्रिया के लिए आवश्यक स्फूर्ति प्रदान करता है इस प्रकार प्रेरकों को मानव प्रकृति का कच्चा पदार्थ कहते है। बहुत से सामाजिक कार्य शारीरिक अभिप्रेरणा पर निर्भर रहते है। शारीरिक या जैविक अभिप्रेरक सामाजिक वातावरण के प्रभाव के कारण सामाजिक अभिप्रेरकों के रूप में विस्तृत एवं विकसित हो जाते हैं। प्रेरक वृत्ति (motive)भूख चालक समाप्त हो जाता है। फलस्वरूप (Hinger driver) से उत्पन्न होता है और जब पेट से भोजन सामाग्री आ जाती है। तो भूख चालक समाप्त हो जाता है। फल स्वरूप खाने के प्रेरक का अन्त हो जाता है। इस प्रकार अभियोजनात्मक अभियोजनात्मक प्रतिक्रिया (Adustement Responce) चालक की दृष्टि द्वारा प्रेरक, (motive) प्रवृत्ति का अन्ता कर देती हैं। उपरोक्त शब्दों का  निष्कर्ष यह है कि प्राणी की आन्तरिक स्थिति है, जिसकी प्रेरणा से वह समस्त कार्य करता है। प्रेरक की परिभाषा प्रस्तुतत करते हुए वुडवर्थ ने लिखा है। प्रेरक वृत्ति व्यक्ति व्यवहार को करने के लिए एवं किन्हीं उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए निर्देशित करती है इसी प्रकार अन्य मनोवैज्ञानिकों की अवधारणा है कि अभिप्रेरणा व्यक्ति का एक आन्तरिक शक्ति परिवर्तन है जहो भावात्मक जागृति तथा पूर्वानुमान उद्देश्य प्रतिक्रियाओं के द्वारा वर्णित होता है। इस परिभाषा में तीन तत्व सम्मिलित है-

1. अभिप्रेरणा- व्यक्ति के अन्दर शक्ति परिवर्तन से प्रारम्भ होती हैै। मानव के स्नायविक शारीरिक संस्थान में शक्ति परिवर्तन के कारण ही अभिप्रेरण में परिवर्तन होता है।

2. अभिप्रेरणा भावात्मक- जागृति द्वारा वर्णित होती है अभिप्रेरणा का यह भावात्मक पक्ष अनेक शब्दों में वर्णित किया जाता है। इसे हम मनोवैज्ञानिक तनाव की स्थिति कह सकते है। व्यक्तिगत रूप से इस भावात्मक दशा का वर्णन संवेग द्वारा करते है।

3. अभिप्रेरण- पूर्वानुमान उद्देश्य द्वारा वर्णित होती है। अभिप्रेरित व्यक्ति कुछ प्रतिक्रियाओं द्वारा व्यक्ति में सम्बन्धित तनाव कम हो जाता है जो शक्ति परिवर्तन के कारण उत्पन्नर होता है दूसरे शब्दों में अभिप्रेरण उद्देश्य प्राप्त करने वाली प्रतिक्रियाओं की ओर ले जाती है।

अभिप्रेरण की परिभाषा प्रस्तुत करते हुए अन्य मनोवैज्ञानिक ने लिखा है कि यह क्रिया करनेकी वह प्रवृत्ति है जो एक उदाहरण द्वारा प्रारम्भ होती है तथा अनुकूलन द्वारा समाप्त होती है। दूसरे का एक कार्य करने के लिए उत्तेजित करती है। वह व्यक्तिहार की दिशा की दिशाओं को एक काम करने के लिए उत्तेजित करती है। वह व्यक्ति के व्यवहार की दिशाओ को निर्धारित करते है। तो वह एक तनाव एवं असंतुलन महसूस करता है। वह श्रमहीन हो जाता है। तब उसको कुछ क्रियायें करनी पड़ती है। व्यक्ति को किसी एक दिशा में कार्य करने की उत्तेजना मिल जाती है।

व्यक्ति की लगभग सम्पूर्ण क्रियायें अभिप्रेरकों से ही प्रेरित होती है। व्यक्ति को एक गतिशील धक्का लगता है जब उसे एक अभिप्रेरण मिलता है। वह कार्य करने लगता है और उसकी क्रियाएं उस समय तक चलती रहती है। जब तक कि वह एक उद्देश्य नहीं प्रापत कर लेता है। अभिप्रेरक तीन कार्य करते है-

1. वह कार्य का प्रारम्भ करते है।

2. क्रियाओं को गतिशीलता देते हैं और

3. जब तक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं होती क्रियाओं का एक निश्चित दिशा की ओर प्रेरित किये रहते है।

अभिप्रेरक में एक आन्तरिक और एक बाह्य संघटक होता है। आन्तरिक संघटक व्यक्ति के अन्तर परिवर्तन है यह असंतोष की दशा है। बाह्य संघटक वह है जो व्यक्ति चाहता है।

यह वह उद्देश्य है जिसकी ओर व्यक्ति का व्यवहार लक्ष्ति होता है। यदि हम किसी व्यक्ति के जीवन वृत्त का अध्ययन करे तो देखेंगे कि उसकी विभिन्न प्रक्रियाओं का वृप्त एक ही होता   है। अर्थात वे एक ही प्रकार से अभिप्रेरित होती है कभी-कभी यह अभिप्रेरणा प्रतिष्ठा की इच्छा के रूच्प में होती है और कभी केवल आत्मनिर्भर बनने की इच्छा के रूप में तथाकथित अधिकार की इच्छा को बहुधा इन सबको एक सूत्र में बाँधने वाला माना गया है। यद्यपि परिवार निजी वृप्त भिन्न-भिन्न होते है तथापि उनमें अधिकतर से यहीं संकेत मिलता है कि बचपन में ही कोई प्रबल अभिप्रेरणा स्थापित हो जाती है। ऐसी बहुत बड़ीर सीमा तक सामाजिक सम्पन्नता के प्रभाव से होता है। जैसे-जैसे व्यक्ति बड़ा हो जाता है। एक के बाद तक दूसरी प्रक्रिया आरम्भ करता जाता है तथा उसकी जिनसे अब उसको प्रमुख अभिप्रेरणा की संतुष्टि होना बन्द हो गई होती है या जो नई प्रक्रिया की अपेक्षा अभिप्रेरणा की संतुष्टि होना बन्द हो गई होती है, छोड़ देता है। ऐसा अक्सर होता है कि बचपन की कुंठाओं से प्रतिष्ठा प्राप्त करने की आधिपत्य या स्वागृह की प्रबल इच्छा जागृत हो जाती है। हिटलर जैसे व्यक्तियों की अक्रामता का कारण बचपन की कुंठाये हममें से अधिकतर में अधिकार की इच्छा उत्पन्न कर देती है यह स्पष्ट है कि यदि किसी व्यक्ति की कोई प्रबल अभिप्रेरणा होती है जैसे प्रतिष्ठा की इच्छा तो वहीं विभिन्न प्रक्रियाओं के मूल में समान रूप से दिखाई देती है।

प्रेरक के प्रकार-

सामान्यतः प्रेरक को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-

1. जन्मजात या शरीर जनित प्रेरक वृत्तियाँ-जन्मजात प्रेरक वृत्तियों से है जो प्राणी या व्यक्ति में जनम से पायी जाती है। जनमजात प्रेरक वृत्तियों के अंतरर्गत निम्नर प्रेरक आते   है। जैसे- भूख, प्यास, नींद काम प्रवृत्ति, शीत आनन्द औरन कष्ट, मलमूत्र विसर्जन आदि की आवश्यकता।

2. अर्जित या समाज जनित प्रेरक वृत्तियाँ-अर्जित प्रेरक वे प्रेरक है-व्यक्ति.......शिक्षा एवं वातावरण के सम्पर्क में आकर प्राप्त कर लेता है। इस दृष्टि से ये प्रेरक जन्मजात Inbornu होकर सीखे हुए होते है। अर्जित या समाज जनित प्रेरक दो प्रकार के होते है।

3. व्यक्तिगत प्रेरक जैसे-आकांक्षा का स्वर जीवन लक्ष्य, मद व्यसन आदत की विवशता रूचि, अचेतन प्रेरणा आदि।

4. सामान्य सामाजिक संप्रेरक वृत्तियाँ जैसे-आत्मगौर (aregariousness) अजनात्मक (Selfassertion) युयुत्सा अथवा कलह (Pugnality) एवं उपलब्धि (Achivement)

अन्य जटिल अभिप्रेरकों के समान उपलब्धि प्रेरक की शक्ति भी प्रत्येक व्यक्ति में भिन्न होती है कुछ लोगों में सफल होने की बहुत तीव्र और शक्तिशाली अभिप्रेरणा जागृत होती है। उनकी आकांक्षा बहुत ऊँची होती है। जब कि दूसरों में यह अपेक्षाकृत दुर्बल होती है। सामान्यतः अमेरिकन युवकों और व्यस्कों में यह व्यापक अभिप्रेरक है।

अभिप्रेरक कितना शक्तिशाली है, कुछ अंशों में यह इस पर निर्भर करता है कि व्यक्ति कितना सफल रहा। प्रयत्न पथ में असफल होने पर साधारणतः एक व्यक्ति पहलवान विद्वान या संगीतवत होने की आकांक्षा नहीं कर सकता। यदि उसे साधारण सफलता मिले तो वह अपने लक्ष्य का स्तर उससे नीचा ही निर्धारित करेगा, जो वह अधिक महत्वपूर्ण सफलता पाने पर करता है। साधारणतः लोग अपने लक्ष्य का स्तर जितना वे उपलब्ध कर सकते है। उससे थोड़ा ऊँचा ही रखते है यह स्वस्थ दृष्टिकोण है। कुछ लोगों में आकांक्षा और कर्म करने के स्तर में बहुत अधिक अंतर भी होता है। संभवतः वे अपने माता-पिता और साथियों के कथनानुससार अपने लक्ष्य निर्धारित करते है। यह अन्तर इस लिये होता है कि ऐसे व्यक्ति असफलता से भयभीत रहते है। अप्राप्ति या विफलता के भय से वे अपने लक्ष्य को ऊँचा निर्धारित नहीं      करते।

उपलब्धि अभिप्रेरणा से उदोलित व्यक्ति चुने हुए क्षेत्र में सफलता प्राप्त करना चाहता है। अपने उपलब्धि स्तर को उत्कृष्ट करने का प्रयत्न करता है। प्रतियोगिता में सर्वोच्च सीन पाने की लालसा करता है तथा अपने जीवन को सदैव प्रगतिशील बनाने के लिए संघर्ष करता है। ऐसा व्यक्ति अपनी सफलता पर गर्व का अनुभव करता है। तथा प्रसन्नहोता है वह कार्य क्षेत्र में होने वाली सफलता तथा विफलता के लिए अपने को उत्तरदायी मानता है। एटकिन्सन और फेदर (1996) ने उपलब्धि अभिप्रेरणा को परिभाषित करते हुए कहा है कि वह ’’सफलता प्राप्त करने तथा उपलब्धि के लिए व्यक्ति की अपेक्षाकृत रूप से स्थायी वृत्ति है।’’ मेरे (1948) ताकि उसके सहयोगियों ने बताया कि प्रेरणाओं में व्यक्तिगत भेद पाये जाते है। उन्होंने इसे एक मनोजन्य आवश्यकता के रूप में प्रतिपादित किया। मैक्लिलैण्ड (1953) एट किन्सन (1964) तथा उसके अन्य सहयोगियों ने उपलब्धि अभिप्रेरणा का क्रमबद्ध एवं व्यापक अध्ययन किया। सामान्य रूप से यह अभिप्रेरणा व्यक्ति को जीवन के किसी भी क्षेत्र में प्रकर्मता स्तर प्राप्त करने के लिए आवश्यक है।

निष्कर्ष
उपलब्धि प्रेरणा के प्रभा को जानने हेतु उच्चतर माध्यमिक शालाओं के विद्यार्थियों का उपलब्धि प्रेरणा परीक्षण (Achivement motivation test) लिया गया है। इस परीक्षण का प्रकाशन डॉ0 बी0पी0 भार्गव मनोवज्ञिान विभागाध्यक्ष, आर0बी0एस0 कॉलेज आगरा द्वारा सन् 1984 में कियाग या है। यह परीक्षण वाक्यपूर्ति विधि पर आधारित है। इस परीक्षण में 50 अपूर्ण वाक्य है तथा प्रत्येक के 3 सम्भावित प्रत्युत्तर है जिनमें से विषयी को एक ही चुनकर उसके सामाने वाले खाने में सही का चिन्ह ()अंकित करना होता है फिर भी मूल्यांकन सूची से सही प्रत्युत्तरों को 1 प्राप्तांक दिया जाता है तथा इस प्रकार योग उपलब्धि अभिप्रेरण अंक ज्ञात किया जाता है। सन् 1986 की नवीन शिक्षा पद्धति के अनुसार व्यासायोन्मुख शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य माना गया है। स्कूल एवं कॉलेज के मध्य में एक ऐसा सम्पूर्क पाठ्यक्रम रखा गया है जो बालक की व्यावसायिक रूचि के अनुसार उसे उसमें निपुणता प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करता है। इसके साथ ही व्यवसायिक रूचि के निर्माण के साथ ही बुद्धि स्तर के साथ तथा आन्तरिक प्रेरणा के अनुसार किसी एक व्यवसाय का चयन कर 2 वर्षों के पाठ्यक्रम के माध्यम में दक्ष होता है। प्रमुख चर जिसका अध्ययन करना है। बुद्धि एवं प्रेरणा है इन दोनेां चरों का स्वतंत्र रूप से व्यवसायिक रूचि पर क्या प्रभाव पड़ता है। इसे देखने के लिए व्यवसायिक रूचि (आश्रित) चर का उपयोग किया गया है।
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