ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योग
Major Handicraft Industries of India
Paper Id :  17328   Submission Date :  02/03/2023   Acceptance Date :  11/03/2023   Publication Date :  15/03/2023
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खुदैजा परवीन अंसारी
सहायक प्राध्यापक
अर्थशास्त्र
शासकीय महाविद्यालय, पथरिया
दमोह,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश भारत में हस्तशिल्प उद्योगों की समृद्ध परंपरा रही है| हस्तशिल्प उद्योग लाखों लोगों को रोजगार प्रदान करने में सक्षम है क्योंकि यह मुख्य रूप से श्रम प्रधान उद्योग हैं भारत के कोने कोने में यह उद्योग प्राचीन काल से ही विद्यमान है| देश की अर्थव्यवस्था में इन उद्योगों का बहुत अधिक महत्व है इन उद्योगों का आर्थिक महत्व तो है ही साथ ही साथ सामाजिक तथा सांस्कृतिक महत्व भी है| इस लेख में भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योगों का वर्णन किया गया है|
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद India has a rich tradition of handicraft industries. Handicraft industry is able to provide employment to lakhs of people because it is mainly labor intensive industry. This industry is present in every corner of India since ancient times. These industries have a lot of importance in the country's economy. These industries have economic importance as well as social and cultural importance. In this article the major handicraft industries of India have been described.
मुख्य शब्द हस्तशिल्प, श्रमप्रधान, रोजगारपरक, जीविका उपार्जन, पूंजी निवेश, रोजगार सृजन, दस्तकार |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Handicraft, Labor Intensive, Employment Oriented, Livelihood Earning, Capital Investment, Employment Generation, Handicrafts.
प्रस्तावना
भारत का हस्तशिल्प उद्योग शताब्दियों से गां,ए कस्बों के साथ-साथ शहरों तक की अर्थव्यवस्था का प्रमुख अंग रहा है। यह एक श्रमप्रधान उद्योग है, जिसमें नाममात्र के पूंजी निवेश से बड़ी मात्रा में रोजगार सृजित होता है। इस प्रकार हस्तशिल्प क्षेत्र रोजगार प्रदान करने की दृष्टि से भी बहुत महत्वपूर्ण क्षेत्र है। इस क्षेत्र द्वारा वर्तमान में 80 लाख कारीगरों को प्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्रदान किया जा रहा है।देश के विभिन्न भागों में बसे दस्तकारों द्वारा स्थानीय स्तर पर उपलब्ध कच्चे माल, लकड़ी, पत्थर, धातु, वनस्पतियों आदि से ही घरों में काम आने वाली अनेक वस्तुओं जैसे बर्तन, पलंग, चैखट, दरवाजे, फर्नीचर, मूर्तियां, खिलौने, सजावट की वस्तुओं का निर्माण किया जाता रहा है। सूत, रेशम, ऊन से बने वस्त्रों को आकर्षक रूप प्रदान करने में दस्तकारों की ही भूमिका अति महत्वपूर्ण रही है। जीविकोपार्जन के एक साधन रूप में प्रारंभ हुआए हस्तशिल्प उद्योग कब धनाढ्य एवं कुलीन वर्ग की पसन्द बन गया। इसका लेखा-जोखा तो उपलब्ध नहीं है, लेकिन विदेशी आक्रांताओं की कुटिल नीतियों के झंझावातों को झेलते हुए इसने अपनी पहचान बनाए रखी हैए तो वह निःसंदेह इससे जुड़े दस्तकारों की वर्षो की मेहनत एवं पीढ़ी-दर-पीढ़ी इस कला को सहेज कर रखने की दृढ़ इच्छाशक्ति का ही परिणाम है। तभी आज भी बनारसी साड़ियां, चंदेरी साड़ियां, कांजीवरम् सिल्क, कश्मीरी शाॅल, सांगानेरी प्रिंट्स, फर्रुखाबादी रजाइयां, जोधपुरी जूतियां, जयपुरी रजाइयां, फिरोजाबादी चूड़ियां, जलेसरी घुंघरू, मुरादाबादी बर्तन, जोधपुरी फर्नीचर, अलीगढ़ के ताले, हैदराबादी फर्नीचर आदि ऐसे अनेक ब्रांड नाम हैंए जो शताब्दियों में भारतीय जनमानस में अपनी पहचान बनाए हुए हैं।
अध्ययन का उद्देश्य 1. भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योगों की वर्तमान स्थिति का अध्ययन करना। 2. भारतीय हस्तशिल्प उद्योगों के महत्व का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

अग्रवाल, डॉ. उमेशचंद्र (2011) ने ग्रामीण रोजगार संवर्धन पुस्तक में अपने लेख ग्रामीण रोजगार में हस्तशिल्प उद्योगों का योगदानमै भारत के ग्रामीण क्षेत्र में हस्तशिल्प उद्योगों से प्राप्त रोजगार पर व्यापक प्रकाश डालते हुए भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योगों के महत्व को बताया है।

शर्मा, राकेश निशित (2013) ने उद्योग व्यापार पत्रिका में प्रकाशित अपने लेख तैयार कयर उद्योग में अग्रणी भारतमें भारत के विभिन्न क्षेत्रों में कयर के उत्पादन तथा इसके निर्यात के द्वारा प्राप्त आय पर विस्तृत अध्ययन किया है

कुमार, डॉ. कृष्ण (1993) ने अपनी पुस्तक प्राचीन भारत का सांस्कृतिक इतिहासमें हस्तशिल्प उद्योगों के सांस्कृतिक महत्व पर प्रकाश डाला तथा प्राचीन भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योग का भी विस्तार से अध्ययन किया है।

मुख्य पाठ

भारत के प्रमुख हस्तशिल्प उद्योग निम्नानुसार हैं.

पाषाण शिल्प उद्योग- पाषाण और मनुष्य का संबंध मानव के उदय के साथ हुआ है या यदि कहें कि मनुष्य के पृथ्वी पर अवतरण के साथ ही हुआ है तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। आज हस्तशिल्प के क्षेत्र में पत्थरों पर नक्काशी की कला उतनी प्रचलित नहीं हैए जितनी राजे रजवाड़े के समय थी आज भी यह शिल्प भारत के अनेक स्थानों पर समृद्ध अवस्था में है। जैसे- मध्यप्रदेश के भेड़ाघाट के खूबसूरत संगमरमर और वहां का शिल्प आज भी विश्व में अपना जादू बिखेर रहा है और अनेक व्यक्तियों की जीविका का साधन है। उत्तरप्रदेश के टेहरी गढ़वाल में एक विशेष प्रकार का धब्बे वाला सफेद पत्थर मिलता है इससे बनायी गयी वस्तुऐं आश्चर्य में डालती है। पूर्वी उत्तरप्रदेश के हमीरपुर जिले का गौरहारी गांव में सुन्दर साॅफ्ट स्टोन का बहुत बड़ा भण्डार हैए आगरा में संगमरमर तथा सोप स्टोन की अनेक वस्तुऐं बनायी जाती है और आगरा अपनी पच्चकारी के लिए बहुत प्रसिद्ध है। वृन्दावन में पाये जाने वाले विशेष रंगों यथा हराए काला तथा गुलाबी रंग के संगमरमर से अनेक वस्तुओं का निर्माण किया जाता है। पीले रंगों के छीटों के साथ गहरे भूरे रंग का विशेष पत्थर झांसी तथा आसपास के क्षेत्रों में पाया जाता है। बिहार के गया जिले के अंतर्गत पाथरकुट्टी गांव में मिलने वाले काले और नीले पत्थर से अनेक उपयोगी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है।

तमिलनाडु के सालेम जिलें के अंतर्गत गोपचित्य पालयम तथा सत्यामंगलन तथा तिरुयकामलाई तथा वेलोर के समीप ग्राम मादापुर में भी पाषाण शिल्प की समृद्ध परम्परा हैं। राजस्थान को संगमरमर का गढ़ कहा जाता है। यहां अनेक रंग व प्रकार के पत्थर प्राप्त होते है। नागौर जिले में मकराना संगमरमर प्राप्ति का मुख्य केन्द्र है। हरे रंग के धब्बों से युक्त तांबिया रंग का एक विशेष प्रकार का पत्थर राजस्थान के सवाई माधोपुर में मिलता है, डूंगरपुर में भी विशेष प्रकार का हल्के रंग का पत्थर मिलता है।[1] छोटी काशी के नाम से प्रसिद्ध जनजातीय बहुलता के जिले बांसवाड़ा में संगमरमरए काले पत्थरए परेवा पत्थर को तराशकर सुन्दर मूर्तियों का निर्माण बड़े पैमाने पर किया जाता है। पाषाण शिल्प के लिए उड़ीसा का पुरी एक मुख्य केन्द्र है। केरल में ग्रेनाइट की बहुलता है। हिमाचल के कांगडा जिले में पत्थर को काटकर भव्य मंदिर बनाये जाते हैं।[2]

यह हजारों शिल्पियों की जीविका का मुख्य साधन भी है।

मृद्शिल्प उद्योग- मानव सभ्यता के साथ-साथ मृद्शिल्प का भी क्रमिक विकास हुआ है।सिन्धुघाटी सभ्यता में हड़प्पा और मोहनजोदड़ों से मिली मिट्टी की वस्तुओं से ही भारत में इसका आरंभ माना जा सकता है।[3] इस प्रकार मृत्तिका पात्र के प्रयोग का उदाहरण हमें मिस्र के पिरापिडों से लेकर हड़प्पा व मोहनजोदड़ों की सभ्यता से प्राप्त होते है। आज मृत्तिका पात्र उद्योग विश्वव्यापी है। चीन, जापान, फ्रांस, इंग्लैण्ड, कोरिया आदि के सुन्दर मृत्तिका पात्र से सभी परिचित हैं।[4]

कुम्भकारी तथा कुलाल विज्ञान को अंग्रेजी भाषा में सिरेमिक्स कहा जाता है।[5] भारत में लगभग प्रत्येक राज्य के प्रत्येक भाग में मृद्शिल्प उद्योग मौजूद है। पश्चिम बंगाल का बांकुड़ा जिला टेराकोटा मंदिरों के लिए प्रसिद्ध है। राजस्थान ब्लूपाटरी तथा टेराकोटा के लिए विश्वभर में प्रसिद्ध है। उत्तरप्रदेश के गोरखपुर में कुंभकार चाक पर किसी आकृति के अलग-अलग टुकड़े तैयार करे है तथा बाद मेें उन्हें जोड़ देते है। मथुरा मूर्तिशिल्प के लिए प्रसिद्ध है साथ ही साथ ब्रज हस्तशिल्प कलाओं का गढ़ कहा जा सकता है। तमिलनाडु आयनार देवता की टेराकोटा आकृतियों के लिए मशहूर है। गुजरात में सवार के घोड़े बनाने की कला प्रसिद्ध है। इस प्रकार भारत में टेराकोटा के कार्य में हजारों शिल्पी कार्यरत है।

टेराकोटा के अतिरिक्त भारत में कुम्भकारी की कई स्थानीय शैलियां है जिनमें चमक रहित कुुम्भकारी सर्वोत्तम मानी जाती है, जो हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा और एन्द्रेटा, राजस्थान में पोखरन, उत्तरप्रदेश में मेरठ, कानपुर और हापुर, गुजरात में कच्छ, पश्चिम बंगाल में वीरभूमि और मणिपुर इसके लिए जाने जाते है। काली कुंभकारी भी चमक रहित कुंभकारी का ही एक बहुत प्रसिद्ध रूप है। हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा तथा राजस्थान में पोखरन तथा उत्तरप्रदेश में निजामाबाद में विशेष प्रकार की काली पाॅटरी की जाती है।

चमक युक्त कुंभकारी दिल्ली, जयपुर, अमृतसर, उत्तरप्रदेश और खुरजा, चुनार और रामपुर तथा तमिलनाडु में की जाती है। उपर्युक्त के अतिरिक्त भारत के गांवों में नीली कुंभकारी भी प्रसिद्ध है इसे सर्वप्रथम मंगोल शासकों ने विकसित किया। काले और लाल रंग की कुंभकारी का प्रयोग बंगाल में ईसा पूर्व 1500 से शुरू हुआ। इनके अलावा फाइल्डपॉटरी टेकनीक के नाम से लोकप्रिय मणिपुर की काली कुंभकारी का अपना विशेष महत्व है। छत्तीसगढ़ मेंसरगुजा तथा बस्तर में भी मृद्शिल्प बहुप्रचलित है।[6] इस प्रकार टेराकोटा के उत्पादों के लिए फर्रुखाबाद, जयपुर, जोधपुर, बनारस, चेन्नई, बस्तर, सूरत, बरेली, आगरा, अमृतसर, बाड़मेर, मुर्शिदाबाद, तंजौर, हैदराबाद केन्द्र प्रसिद्ध हैं। यहां के उत्पादों को खाड़ी के देशों के अतिरिक्त इटली, इंग्लैण्ड तथा जापान को भी बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता है।[7]

बांस एवं बेंत शिल्प उद्योग- वनों के एक उत्पाद बांस से कलात्मक वस्तुएं बनायी जाती है जो जीवनोपयोगी भी होती है। बांस शिल्प और चटाई बुनाई एक पारंपरिक कला है। बांसए घास और पत्ता मनुष्य के जीवन से आदिकाल से संबंधित है। भारत में त्रिपुरा राज्य अपने बांस शिल्प के लिए बहुत प्रसिद्ध है। यहां बांस से पार्टीशन स्क्रीन और अन्य उपयोगी वस्तुऐं बनायी जाती है। बांस शिल्प तथा बांस से बनायी जाने वाली चटाईयों के लिए असम में कामरूप, सिबसागर, नौगांव, चाचर, जिले बांस की प्रसिद्ध चटाई जिन्हें शीतल पट्टी कहा जाता है, के लिए प्रसिद्ध है। बंगाल में बढ़िया खूबसूरत टोकनियां बनायी जाती है। कश्मीर में चीड़ की लकड़ी से बनायी जाने वाली टोकनियों के शिल्प जिसे विलो बासकेट कहते हैए प्रसिद्ध है।

मणिपुर में एक असामान्य किस्म की टोकनी बनायी जाती है इसे चेन बोंग कहते हैं। केरल में काले सफेद रंग किये बांस से भव्य आकार की वर्गाकार बास्केट बनायी जाती है। उत्तरप्रदेश के इलाहाबाद, बरेली तथा वाराणसी में बांस, बेंत तथा मंजू से अनेक उपयोगी कलात्मक वस्तुएं बनायी जाती है।[8]

धातु शिल्प उद्योग- धातु ढालने की कला भारतीयों ने बहुत प्राचीन काल में सीख ली थी। धातु से अनेक प्रकार की मूर्तियां बनायी जाती है ये मूर्तियां पीतल, कांसे, चांदी तथा लोहे की होती है। धातु से आभूषणों का निर्माण किया जाता है। इनसे अनेक प्रकार की कलात्मक वस्तुएं जैसे- पूजा सामग्री, जग, प्लेट, हांडी, फूलदान, पशु, पक्षी, खिलौने रसोई के अन्य सामान बनाए जाते हैं।[9] छत्तीसगढ़ का डोकरा शिल्प विश्वभर में प्रसिद्ध है।[10] मध्यप्रदेश के टीकमगढ़, शिवपुरी एवं दतिया जिलों में प्राचीन पीतल शिल्प (दोखरा शिल्प) का उत्पादन किया जाता है। धातु शिल्प के प्रमुख केन्द्र मुरादाबाद, संभल, अलीगढ़, जोधपुर, जयपुर, जैसलमेर, दिल्ली, रेवाड़ी, तेजीपुर, चेन्नई, मडेप, जगाधरी आदि है। जिन्हें मध्यपूर्व के देशों जर्मनी, फ्रांस तथा अमेरिका को निर्यात किया जाता है।[11]

मूर्ति शिल्प उद्योग- मूर्तिशिल्प भारत के प्रत्येक कोने में विद्यमान है। मथुरा तथा तालवाड़ा, का मूर्तिशिल्प अपनी पहचान बनाए है। बागड़ शिल्प की भी मूर्तिशिल्प का एक प्रकार है। इसके अतिरिक्त राजस्थान में मकराना में भी बहुत सुंदर मूर्तियाँ का निर्माण किया जाता है। डूंगरपुर से हरा, काला, तालवाड़ा, छिद्ंद, अवलापुरा धमोतर से सफेद गुलाबी, जोधपुर से बादामी पत्थरों से बनी मूर्तियां पूरे देश में पहुंचती है।[12]

चित्रशिल्प उद्योग- भारत में ग्रामीण लोकचित्रकारी के डिजाइन बहुत ही कलात्मक एवं सुन्दर है। इनमें बिहार की मधुबनी चित्रकारी, उड़ीसा की पत्ताचित्र से जुड़ी कला, आन्ध्रप्रदेश की निर्मल चित्रकारी, राजस्थानी लघु चित्रकारी, केरल की कालमेजुथु चित्रकारी महाराष्ट्र की वार्ली लोक चित्रकलाए भारत की सर्वाधिक प्रसिद्ध लोक चित्रकलाएं है। यह कला केवल चित्रकला तक ही सीमित नही है, मिट्टी के बर्तन, गृहसज्जा, आभूषण परिधान डिजाइन आदि सभी अपनी विशिष्ट पहचान और परम्परागत सौंदर्य के कारण देश-विदेश में बहुत ही लोकप्रिय है।[13]

काष्ठ शिल्प उद्योग- भारत में दस्तकारी की परम्परा इतनी पुरानी है जितना कि देश का इतिहास। साहरनपुर की लकड़ी की बारीक और सुंदर नक्काशी का काम बहुत पसंद किया जाता है।[14] "नगीना जनपद का काष्ठकला उद्योग भी एक लघु एवं स्वरोजगार प्रदान करने वाला उद्योग है तथा यहां के शिल्पी अपनी शिल्प कला के लिए सम्पूर्ण विश्व में प्रसिद्ध        है"।[15] राजस्थान के डुंगरपुर, बांसवाड़ा, प्रतापगढ़, भीलवाड़ा तथा उदयपुरा मे लकड़ी के खिलौने के साथ ही मकानों की छतों में भी लकड़ी के काम दिखाई पड़ता है। इसके अतिरिक्त उदयपुरा एवं सवाई माधोपुर में बनने वाले लकड़ी के खिलौने बहुत प्रसिद्ध है।[16] छत्तीसगढ़ में बस्तर का काष्ठ शिल्प किसी सिरे से कम शानदार नहीं है।

बस्तर में बना काष्ठशिल्प देश-विदेश के हस्तशिल्प मेंलो में आय दिन जाता रहता है।[17]

मध्यप्रदेश के श्योपुर जिले में लकड़ी के भगवान के झूले, लेम्प, कार्नर टेबल, शीशो का स्टैंड, बैंगल स्टैंड, फ्लावर स्टैंड, लालटेन, तोप जैसे डेकोरेशन पीस बनाते है। शिमला के प्रसिद्ध लक्कड़ बाजार में भी लकड़ी के सुप्रसिद्ध बाजार में लकड़ी की कलात्मक वस्तुएँ का ऐसा ही नजारा देखने को मिलता है। कश्मीर में अखरोट तथा देवदार की लकड़ी से जालीदार श्रृंगारदान, पालकी, रथ, पिरामिडीय मंदिर नौकाओं तथा जहाजों के निर्माण में भी शिल्पकारिता की उच्च गुणवत्ता को बनाए रखा गया है। कर्नाटक के केनरा क्षेत्र में नक्काशी की असाधारण लोकशैली देखने को मिलती है।[18]

इस प्रकार इस शिल्प के मुख्य केन्द्र सहारपुर, नगीना, जयपुर, जोधपुर, बाड़मेर, होशियारपरु, श्रीनगर, अमृतसर, जबलपुर, बंगलौर, मैसूर, चेनपट्ठन, चेन्नई, मंडप बहरामपुर, अहमदाबाद, राजकोट आदि उच्चकोटि के फर्नीचर, खिलौने तथा सजावट सामग्री के उत्पादों के लिए अपना स्थान रखते है।[19]

चर्मशिल्प उद्योग- सदियों से व्यक्ति चमड़े को अपने प्रयोग में ला रहा है। लगभग 6000 ई. पू. से चीन, भारत, मिस्र और ग्रीक के निवासी इसका उपयोग करते आ रहे है। भारत चमड़े से जूते-चप्पल, पर्स, कोट, जैकेट, बेल्ट, दस्ताने, लेदर गारमेंट्स, लैदर बैग, व्रीफकेस सोफा कवर, कार सीट कवर, फुटवियर, लैदर पैन्ट्स, लगेज बैंग, लेडीज हैण्ड बैंग, लेटर गिफ्ट, लेपटॉप बैग्स आदि बनाई जा रही है। जूते, चमड़े के वस्त्र, चमड़ा उत्पाद, चमड़े के समान आदि बनाने वाली इकाईयों में लगभग 30-40 प्रतिशत महिलाएं कार्यरत हैं।[20]

राजस्थान पशुधन के मामले में सबसे समृद्ध राज्य है, इसी कारण यहां चर्मशिल्प बहुत विकसित है। जयपुर और जोधपुर में यह कार्य अधिक होता है। "कश्मीर में बनाये जाने वाले चर्मशिल्प अपने आप में बहतरीन तथा कुछ अनोखा ही है। इस प्रकार लैदर शिल्प के लिए कोल्हापुर, इंदौर, बाड़मेर, जोधपुर, जयपुर, विशेष रूप से जाने जाते है। जहां निर्मित उत्पादों को आसियान तथा खाड़ी के देशों के अतिरिक्त इंग्लैड और जर्मनी को निर्यात किया जाता     है।[21]

पेपरमेशी उद्योग- पेपरमेशी भारत का अत्यन्त प्राचीन उद्योग है। फ्रेंच भाषा में पेपरमेशी शब्द से अभिप्राय आवश्यकता के अनुसार कागज को चबाकर बनाए गए किसी उत्पाद से है। भारत के संदर्भ में पेपरमेशी से अभिप्राय लकड़ी, धातु या धातु के तारों से निर्मित, किसी मूर्ति, मुखौटे या वस्तु को गलाए गए कागज, वस्त्र, गोद आदि से अच्छांदित कर देना है। इसकी राजस्थान प्रणाली दिल्ली, बिहार, उत्तरप्रदेश, उत्तराखण्ड और महाराष्ट्र में प्रचलित है। कश्मीरी और यूरोपीय पद्धति की भारत के साथ-साथ विदेशों में भारी मांग है। इनके व्यापार को बढ़ाने में हाट-बाजारों, हस्तशिल्प प्रदर्शनियों और राज्य के एम्पोरियमों की भूमिका महत्वपूर्ण है यह उद्योग असीम संभावनाओं से भरा पड़ा है।[22] कश्मीर पेपर मेशी विश्व विश्वप्रसिद्ध   है।

हाथ कागज उद्योग- कागज बनाने की कला का अविष्कार सबसे पहले चीन में हुआ। अंग्रेजी में कागज का पेपर कहते है। कई उद्यमियों ने राष्ट्रीय एवं अन्तर्राष्ट्रीय बाजार हेतु अपने स्वयं के ब्राण्ड जैसे-खादी पेपर, शाईवनर पेपर, अमोल पेपर, हेरिटेज पेपर, सलीमस् पेपर, अल पेपर, कागजी पेपर आदि विकसित किये है। जो हाथ कागज एवं रेशा उद्योग की सफलता को बयां करते है। यह भारत में ग्रामीण कारीगरों को रोजगार प्रदान करने का परम्परागत माध्यम है।[23]

रत्नआभूषण उद्योग- रत्नआभूषण का जितना महत्व भारत में है, उतना सम्भवतः विश्व के किसी अन्य देश में नही है। आभूषण में सोने, चाँदी के अतिरिक्त आर्टिफिशल ज्वैलरी का चलन दिन प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। इनमें-हार, कर्णफूल, कड़े, पायल, विछियें, अंगूठी, वाले, आदि मुख्य वस्तुएं है। कुछ वर्षो में विभिन्न प्रकार के रत्नजड़ित आभूषण भी आकर्षण का केन्द्र बने हुए है।[24] रत्न आभूषण शिल्प के प्रमुख केन्द्रों मे दिल्ली, जयपुर, सूरत, जलेसर, अहमदाबाद, राजकोट, मुरादाबाद, सम्भल, कोहिया, कटक, कालाहांटी, करीमनगर, तिरूपति राजमुंदरी का देश भर में विशिष्ट स्थान है। यहां निर्मित सोने चांदी हीरे तथा रत्न जड़ित आभूषणों के अतिरिक्त आर्टिफिशल ज्वैलरी की भी खाड़ी व यूरोपीय देशों में विशाल मांग है। इनसे बड़ी मात्रा में विदेशी मुद्रा भी प्राप्त होती है।

कांच शिल्प- इसके अन्तर्गत फिरोजाबाद, जयपुर, बाड़मेंर, जोधपुर आदि नगरों में उच्च कोटि की चूड़ियां, कंगन, कांच के बर्तन तथा कांच की कलात्मक वस्तुओं का उत्पादन किया जाता   है।[25]

हाथीदांत व लाख की वस्तुएं- हाथीदांत की वस्तुएं प्राचीन काल से ही भारत के विभिन्न भागों में बनाई जाती है। मुख्य रूप से हाथीदांत की चूड़ियाँ राजस्थान के उदयपुर व पाली में बनायी जाती है जो विश्व प्रसिद्ध है। जयपुर एवं जोधपुर में लाख का काम किया जाता है, यहां की लाख की चूड़ियाँ बहुत पसंद की जाती है। इसके अतिरिक्त लाख से खिलौने, हिंडोले, पशु-पक्षी, पेंसिल आदि भी बनाये जाते है। राजस्थान में इस उद्योग में अनेक शिल्पी कार्यरत है।

जूट शिल्प- जूट शिल्प भारत की अर्थव्यवस्था में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। यह पूर्वी क्षेत्र विशेषकर पश्चिम बंगाल में बड़े पैमाने पर उत्पादित किया जाता है इसे स्वर्ण रेशा कहा जाता है। सम्पूर्ण भारत वर्ष में इससे अनेक सामग्री जैसे- मैग्जीन होल्डर, झूले, मिरर होल्डर, लेस, बैग, चप्पल, तथा अनेक प्रकार के सजावटी वस्तुओं का निर्माण किया जाता है इस शिल्प में मुख्य रूप से स्त्रियां कार्यरत है। इन सामग्री कों विभिन्न शिल्प मेलों, प्रदर्शनियों, हाटों में सहज रूप से देखा जा सकता है।[26]

कॅयर शिल्प उद्योग- भारत विश्व का सर्वाधिक कॅयर उत्पादन करने वाला देश है। यहां विश्व में उत्पन्न होने वाले कुल कॅयर रेशों का 80 प्रतिशत से अधिक उत्पादन होता है। यह सुन्दर हस्तनिर्मित वस्तुओं, हस्तशिल्प एवं नारियल के छिल्के से उपयोगी उत्पादों को बनाने का उत्कृष्ट उदाहरण है, जो अन्यथा एक अवशिष्ट है। ऐतिहासिक रूप से कॅयर उद्योग केरल में प्रारंभ हुआ एवं फला-फूला। कॅयर बोर्ड के प्रयासों से तमिलनाडु, कर्नाटक, आंध्रप्रदेश, ओड़िशा, पश्चिम बंगाल, असम, त्रिपुरा, पुडुचेरी, संघक्षेत्र लक्ष्यदीप, अण्डमान तथा निकाबार द्वीप समूह इत्यादि राज्यों में भी कॅयर उद्योग आरंभ हो गए है। कॅयर उद्योग 6.50 लाख से अधिक व्यक्तियों को रोजगार प्रदान करता है। रेशानिकालने संबंधी कार्य एवं कताई क्षेत्र के कॅयर कार्यकर्ताओ में करीब 80 प्रतिशत महिलाएं शामिल है।[27]

कालीन शिल्प- भारतीय बुनाई में कालीन का प्रमुख स्थान है। भारत में वातावरणीय कारण से फर्श को ढकने की प्राचीन परंपरा है। देशों में भदोही कालीन उत्पाद का प्रमुख केन्द्र है। भारत में होने वाले कालीन निर्यात का 80 प्रतिशत इसी इलाके से जाता है। भदोही का कालीन उद्योग जहां विश्व प्रसिद्ध है, वहीं इस इलाके के पढ़े-लिखे नौजवानों एवं अनपढ़ गरीबो को स्वावलंबी बना रहा है। सबसे अधिक लाभ महिलाओं को मिल रहा है। इसके अतिरिक्त बनारस, आगरा, हाथरस, कश्मीर, अमृतसर, ग्वालियर आदि प्रमुख रूप से विश्व प्रसिद्ध उत्पादक केन्द्र है जहां से निर्मित कालीनों की अमेरिका सहित यूरोपीय और खाड़ी के देशो में विशााल मांग है जहां इन कालीनों का बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता है।

हाथकरघा उद्योग- भारतीय हाथकरघा क्षेत्र हाथकरघों पर विभिन्न तकनीकों से सूतए, रेशम, जूट और ऊनी धागों से अनेक प्रकार के कपड़े तैयार करता है। साड़ियो में कांचीपुर और तंजोर मंदिर शैली की रेशमी साड़ियों के लिए विख्यात है। उड़ीसा, आंध्रप्रदेश और गुजरात बहुरंगी रेशमी पटोला साड़ियाँ तैयार की जाती है। महाराष्ट्र की प्रसिद्ध पैठणी साडियाँ, जरी के तानेवाने पर बुनी जाती है। असम की मुंगा, मध्यप्रदेश की तसर, गुजरात, राजस्थान की बांधनी गज्जी सेटिन और मशर साड़ियां प्रसिद्ध है। मध्यप्रदेश की चन्देरी एवं महेश्वरी साड़ियाँए रेशम एवं सूत को मिलाकर तैयार की जाती है। पश्चिम बंगाल की सूती साड़ियाँ तंगेल, आंध्रप्रदेश, उड़ीसा, तमिलनाडु, पूर्वी उत्तरप्रदेश में विभिन्न रंगो और डिजाइनों की सूती साड़ियों का बड़े पैमाने पर उत्पादन होता है। हाथकरधा के लिए बनारस, कांजीवरम् चन्देरी, सघना, मऊनाथ, भंजन, रानीपुर, जम्मू, शोलापुर आदि केन्द्र अपना महत्वपूर्ण स्थान रखते है।

वस्त्रशिल्प उद्योग- वस्त्र शिल्प जिसमें हाथ से छपे वस्त्रए साड़ियों रजाई के लिहाफए चादरेए मेजपोशए पर्दे आदि बनाए जाते हैए इसके लिए जयपुर, बाड़मेर, मथुरा, फर्रुखाबाद, बांरु, सांगानेर, जोधपुर, भुज, फरीदाबाद, अमरोहा, पिलकुआ, सरघना आदि प्रमुख उत्पादन केन्द्रों ने प्रसिद्ध पाई है। मध्यप्रदेश की वाघ प्रिटिंग इसमें महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संयुक्त राज्य अमेरिकाए जर्मनीए रूस तथा खाड़ी के देशो में इन उत्पादों की बड़ी मांग है जहां इन्हें निर्यात किया जाता है।[28]

जरी, जरदोजी, कढ़ाई एवं कासीदाकारी- कसीदाकारी एवं कढ़ाई भी भारत की एक प्रमुख हस्तशिल्प है, कश्मीर की कसीदाकारी प्रमुख रूप से विश्वभर में प्रसिद्ध है। पंजाब की फूलकारी की भी एक चमत्कारिक कढ़ाई है। गुजरात में कढ़ाई की कला बहुत प्रचलित है, जिसमें विशेष रूप से कच्छ की कशीदाकारी विश्वप्रसिद्ध है। बंगाल की काथा-कसीदाकारी भी विशेष है। लखनऊ की चिकनकारी इतनी उत्कृष्ट है कि विदेशों में इनकी मांग निरंतर बढ़ती जा रही है। मणिपुर कसीदाकारी भी कला की दुनिया में अपनी मिसाल है। भोपाल में भी कढ़ाई का काम बड़े पैमाने पर होता है। जरी शिल्प के उत्पादों के लिए फर्रूखाबाद, जयपुर, जोधपुर, बनारस, चेन्नई, बस्तर, सूरत, बरेली, आगरा, अमृतसर, बाड़मेर, मूर्शिदाबाद, तंजौर, हैदराबाद, केन्द्र प्रसिद्ध है। यहां के उत्पादों को खाड़ी देशों के अतिरिक्त इटली, इंग्लैड तथा जापान को भी बड़ी मात्रा में निर्यात किया जाता है।[29]

इन उद्योगों के अतिरिक्त देश के अनेक हस्तशिल्प उद्योग जैसेए पच्चकारीए मीनाकारीए मणियों का कामए हड्डी एवं सींग पर नक्काशीए क्रोशिया का कामए कठपुतली कलाए फूलपत्ता शिल्पए घास शिल्पए सनए सूथली एवं रस्सी शिल्पए शोफ्ट् ट्वाइस, शोपीस आदि में लाखों व्यक्तियों को रोजगार प्राप्त है।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवरण के आधार पर कहा जा सकता है कि भारतीय हस्तशिल्प उद्योग आज भी विश्व पटल पर महती भूमिका निभा रहे हैं। बात कलात्मकता की हो, सांस्कृतिक विरासत को सहेजने की हो, निर्यात की हो या फिर रोजगार प्रदान करने की इन उद्योगों ने अपनी महती भूमिका अदा की है।ये उद्योग औद्योगिक विकेंद्रीकरण का सर्वोत्तम उदाहरण है क्योंकि यह देश के विभिन्न कोनों में फैले हुए हैं साथ ही इन उद्योगों के लिए किसी भी प्रकार के कोई भी आयात की आवश्यकता नहीं होती है और अगर निर्यात देखें तो यह निर्यात में महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं। श्रम प्रधान होने के कारण रोजगार में इनके महत्व को अपेक्षित नहीं किया जा सकता। वर्तमान समय में उद्योगों के समक्ष अनेक चुनौतियां भी हैं जिनका समाधान सरकार के साथ-साथ स्वयंसेवी संस्थाओं एवं स्वयं शिल्पियों को करना होगा क्योंकि इन समस्याओं के समाधान के बिना क्षेत्र का विकास क्षेत्र का विकास अवरुद्ध हो जाएगा जिससे लाखों शिल्पियों का भविष्य जुड़ा हुआ है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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