ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XI February  - 2023
Anthology The Research
राष्ट्र निर्माण मे संस्कृत की भूमिका
Role of Culture in Nation Building
Paper Id :  17334   Submission Date :  17/02/2023   Acceptance Date :  21/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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महेता प्रतिक घनश्यामभाई
सहायक प्राध्यापक
डिपार्टमेंट ओफ संस्कृत,पाली और प्राकृत
महाराजा सयाजिराव युनिवर्सिटी
वडोदरा,गुजरात, भारत
सारांश “संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्”।...एवं “द्यौर्मे पिता जनिता नाभिरत्र बन्धुर्मे माता पृथिवी महीयं” तथा “सर्वे भद्राणि पश्यन्तु सर्वे सन्तु निरामयाः” इत्यादि की भावना को वर्तमान परिस्थिति में हमारा राष्ट्र को समुन्नत करने हेतु, उत्तम प्रशासन हेतु, रक्षण हेतु, सौमनस्य हेतु, आरोग्य हेतु, न्याय व्यवस्था तथा सदाचार से युक्त होने के लिये वेद में वर्णित मार्ग का अनुसरण ही सभी समस्या के समाधान रूप है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद “Sangachchhadhwam sanvadadhwam san vo manansi jantaam”…and “Dyorme pita janita nabhirra bandhurme mata prithivi mahiyam” and “Sarve Bhadrani Pashyantu Sarve Santu Niramayaah” etc. to improve our nation in the present situation, for better administration, For protection, for harmony, for health, for justice system and for being connected with morality, following the path described in Vedas is the solution to all the problems.
मुख्य शब्द राष्ट्र, राष्ट्रोन्नति
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद nation, national promotion
प्रस्तावना
किसी भी राष्ट्र की उन्नति का आधार उसके साहित्य और भाषाओँ का बहुत बडा योगदान रहताहै। भारत देश के निर्माण में संस्कृत साहित्य का अहम योगदान रहा है। उसी का यह परिणाम था की अपना देश एक सोने की चिड़िया कहलाता था । इस देश में वैदिक काल से ही देश भक्ति का भाव कई ग्रंथों में बतलाया है । ऋगवेद से लेकर आजतक के संस्कृत साहित्य राष्ट्र निर्माण की बातें देखने को मिलता है ।
अध्ययन का उद्देश्य वेदों में कहा गया है कि प्रजा का सुख चाहने वाले दैवी सुख को ऋषियों ने तप के द्वारा प्राप्त किया। उसके बाद राष्ट्र भावना, राष्ट्रीय शक्ति और ओज प्रकट हुए। अतः यह जरुरत है कि इन भावना, शक्ति तथा ओज की अभिवृद्धि हेतु राष्ट्र के नेता, देवतागण परस्पर मिलकर राष्ट्रार्चन हेतु एक दूसरे को सम्मान दें तथा श्रद्धापूर्वक राष्ट्र को प्रणाम करें। वेद में राष्ट्र की कल्पना भूमि को माता के रूप मे की गई है । इस प्रकार अनेक मन्त्रों के द्वारा राष्ट्रोन्नति के उपायों का वर्णन किया गया है
साहित्यावलोकन

वेदिक सम्पत्ति, यजुर्वेद संहिता

मुख्य पाठ

राष्ट्र की कल्पना-

प्रथम रूप से राष्ट्र शब्द का वर्णन वेदो मे प्राप्त होता है। जैसे कि ऋग्वेद मे वयं राष्ट्रे जागृयाम पुरोहिताः यानि हम सभी राष्ट्र जन राष्ट्र की रक्षा के लिए जागरुक रहे। व्यक्ति से परिवार, परिवार से ग्राम, ग्राम से प्रदेश, प्रदेश से राष्ट्र की ही कल्पना होता है।  हर एक व्यक्ति राष्ट्र का मूलस्तम्भ होता है। वह व्यक्ति समाज से जुड़ा रहता है। समाज के बिना मानवजीवन की पूर्णता का कल्पना नहीँ कर सकते है इसलिये समाज व्यवस्था के आधार से राष्ट्र का निर्माण सम्भव होता है। उसके लिये वेदों में वर्णाश्रमव्यवस्था को प्राधान्य दिया गया है। समाजरूप शरीर के चार प्रमुख अङ्ग होते है। जैसे कि-

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीद् बाहू राजन्य: कृत:इत्यादि वर्णव्यवस्था कर्मों के प्राधान्य से हुआ करता था। इसलिये वेद मे वर्णन किया है कि-

य आर्जीकेषु कृत्वसु ये मध्ये पस्त्यानाम् । ये वा जनेषु पञ्चसु। (सामवेद: - ११६४) अर्थात् हे परमेश्वर। जो प्राणी सरलस्वभाव, गृहस्थ अथवा चारों वर्ण तथा निषाद पञ्चमवर्ण के है, वह सब हमारे लिये कल्याणकारी हो। ऐसे ही ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों का कर्तव्य परायणता राष्ट्र की व्यवस्था हेतु सुदृढ़ करता है ऐसे कह सकते है।

राष्ट्र में गांवशहर, नगर सभी राज्य मिलकर एक राष्ट्र बनता है। राष्ट्र में पहला स्तर माना जाये तो वह भाषा ही है। भाषा के बगैर लोग अपनी बात को आदान-प्रदान किये बिना कैसे राष्ट्र चलायेगें या बनायेगें? इसलिए प्रथम स्तर पर भाषा का होना बहुत जरुरी है, दूसरा स्थान दिया जाये तो यह देश की भाषा का साहित्य स्वरुप मिलना भी आवश्यक है, क्योंकि भाषा की परिभाषा कई विद्वानों ने दी है जैसे की; भाषा वह है जो अपनी लिपिबद्ध होनी चाहिए। जिस भाषा को लिपिबद्ध किया गया वहीँ बातो-बातों में राष्ट्र का निर्माण या वतन प्रेम अंकित किया देखने को मिलता है; ऋग्वेद में राष्ट्र के बारें में बतलाते हुए कहा है

तेअज्येष्ठाअकनिष्ठासउद्भिदोऽमध्यमासोमहसाविवाव्र्धुः
सुजातासोजनुषापर्श्निमातरोदिवोमर्याआनोअछाजिगातन ||

अर्थात राष्ट्र भक्तों में किसी प्रकार की ज्येष्ठता एवं कनिष्ठता की भावना नहीं होने चाहिए| सभी को अपने द्प्रयत्नों से राष्ट्र की उन्नति के लिए प्रयत्नशील होना चाहिए | सामूहिक हित की भावना से ही सबकी उन्नति संभव है और सभी की उन्नति से ही राष्ट्र की दृढ़ता बढ़ती है | उसकी एकता और अखंडता और मजबूत होती है ।

वैदिकराष्ट्रवाद-

 यज्ञ यागादि के माध्यम से सभी जाति वर्ण के व्यक्तियों के एकसूत्र में लाने का उत्तम प्रयास वेदों मे सर्वत्र देखा जाता है। यज्ञेन यज्ञमयजन्त देवाः इत्यादि मन्त्रों में यज्ञ यागादि के द्वारा परस्पर आदान प्रदान, मेलन, शंकाओं का निवारण, उत्तम रीतिरिवाजों का प्रदर्शन होता था। इससे जीविका उत्पन्न करने के लिए कृषि, वाणिज्य और पशुरक्षा का सहारा लेना पड़ता है। कृषि पशुपालन और व्यापार पृथ्वी की उपज से ही सम्बन्ध रखते हैं।

श्रीर्वैराष्ट्रं, राष्ट्रं वै अश्वमेधः, तस्माद्राष्ट्री अश्वमेधेन यजेत्। ऐश्वर्य ही राष्ट्र है, राष्ट्र ही अश्वमेध है, इसलिए राजा अश्वमेध यज्ञ करे। यहाँ पर यज्ञ को राष्ट्रनिर्माण का माध्यम बताया है।

राष्ट्र एकता के सन्देश-

वेदों मे धर्मदर्शन से राष्ट्र एकता के सन्देश की मनुष्यजीवन का चरम लक्ष्य धर्मार्जन करना है। उसी को कहते है- “प्र भूर्जयन्तं महां विपोधां मूरैरमूरं पुरां दर्माणम् । नयन्तं गीर्भिर्वना धियं धा हरिश्मश्रुं न वर्मणा धनर्चिम्।।(सामवेद.७४)

इस प्रकार से वैदिकवाङ्मय मे राष्ट्र एकता का सन्देश देते हुए सदाचार से राष्ट्रनिर्माण कहा गया है

राष्ट्रनिर्माण

वेदविहित मार्ग से मनुष्य दैनन्दिन आचरण करने पर पवित्र होता है। समस्त प्रपञ्च में ईश्वर ही सत्यरूप है, इसलिये सत् आचरण ही जीवन का ध्येय व्रत होना चाहिए। इसलिये कहते है-

मा चिदन्यद्वि शँसत सखायो मा रिषण्यत । इन्द्रमित्स्तोता वृषणँ सचा सुते मुहुरुक्था च शँसत।। (सामवेद.२४२)

 “धर्मं चर, सत्यं वद, मातृदेवो भव, पितृदेवो भव, आचार्य देवो भव। इस वाक्य से ज्ञान होता है कि सत्य के विपरीत नहीं बोलना चाहिए, किसी को दुःख नहीं देना है, हमारे से ज्येष्ठ व्यक्तियों को गौरव देना चाहिए इत्यादि। इसी प्रकार शिक्षा के कारण मनुष्य सदाचारयुक्त सुसंस्कृत होकर आदर्श राष्ट्र का निर्माण कर सकता है।

कहते है कि -"अत्यायातमश्विना तिरो विश्वा अहँ सना । दस्रा हिरण्यवर्तनी सुषुम्णा सिन्धुवाहसा माध्वी मम श्रुतँ हवम्।। (सामवेद.१७४४)

 अर्थात् हे विद्यादाता । मैने सारी विद्या की तुमसे शिक्षा प्राप्त की, सदा सर्वदा हमारा दुःख दूर करना, हिरण्य आदि का प्रयोग कराना, परमेश्वर के पास हमें पहुँचाने हेतु प्रयत्न करना, मधुविद्या का ज्ञान कराना, आप मेरे आवाहन को सुनो और मुझे इस संसार सागर से तरण कराओ। अथर्व वेद सहिंता में कहा है;

अभीवर्तेनमणिनायेनेन्द्रोअभिवावृधे।

तेनास्मानब्रह्मणस्पेऽभिराष्ट्रायवर्धय॥

अर्थात्हेब्रह्मणस्पते ! जिस समृद्धि दायक मणि से इन्द्रदेव की उन्नति हुई, उसी मणि से हमें राष्ट्र के लिए विकसित करें। संस्कृत का जो योगदान है वह शाश्वत है, अमर है, केवल भारत मे ही नहीं बल्कि विदेशों मे भी मानव जहाँ है वहाँ तक संस्कृत है क्योंकि संस्कृत ग्रंथो मे जिस तरह के संस्कारों का वर्णन है जन्म से मृत्यु पर्यन्त, सब कुछ हमें जैसे ग्रंथो में बताया गया है वैसे ही जीते है

वैदिक राष्ट्रगान (संस्कृत:राष्ट्राभिवर्द्धन मन्त्र) शुक्ल यजुर्वेद के २२वें अध्याय में मन्त्र संख्या २२ में वर्णित एक प्रार्थना है जिसे वैदिक कालीन राष्ट्रगान कहा जाता है। यह प्रार्थना यज्ञों में स्वस्ति मंगल के रूप में गाई जाती है। इसमें राष्ट्र के विभिन्न घटकों के सुख-समृद्धि की कामना की गयी है। वेदों में राष्ट्र के कल्याण सम्बन्धी अनेक प्रार्थनायें हैं। वैदिक राष्ट्र चिन्तन का यह एक उदाहरण मात्र है। यह प्रार्थना राष्ट्र के लिये आज भी उतनी ही प्रासंगिक है जितनी उस समय थी।

वैदिकराष्ट्रगानकामन्त्रद्रष्टव्यहै:-

आ ब्रह्यन्‌ ब्राह्मणो बह्मवर्चसी जायताम्‌

आ राष्ट्रे राजन्यः शूर इषव्यः अति

व्याधी महारथो जायताम्‌

दोग्ध्री धेनुर्वोढानड्वानाशुः सप्तिः

पुरंध्रिर्योषा जिष्णू रथेष्ठाः सभेयो

युवाअस्य यजमानस्य वीरो जायतां

निकामे निकामे नः पर्जन्यो वर्षतु

फलवत्यो न ओषधयः पच्यन्ताम्‌

योगक्षेमो नः कल्पताम्

--शुक्ल यजुर्वेद ; अध्याय २२, मन्त्र २२

निष्कर्ष वैदिक और पौराणिक काल के सभी राजा समेत आज तक के आधुनिक राष्ट्र नेताओं ने भी राष्ट्र के कल्याण और उन्नति के बारे मे सोचा है और किया भी है और उनके मार्गदर्शन के लिए हंमेशा संस्कृत भाषा और संस्कृत साहित्य तत्पर रहा है । राजाओं के शीलालेख हों या विद्वानों की लिखी गई नीतियाँ हो किसी न किसी रूप में हमें संस्कृत ने उपकारित किया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. Rigveda Samhita, SripadDamodarSatawalekar, Paradi, Gujarat, 1990 2. Samaveda Samhita, SripadDamodarSatawalekar, Paradi, Gujarat, 1996 3. Yajurveda Samhita, SripadDamodarSatawalekar, Paradi, Gujarat. 1987 4. Atharveda Samhita, SripadDamodarSatawalekar, Paradi, Gujarat, 1989 5. Vedic Sampatti, Autor-RaghunananSarma, Swadhyay Mandal, Paradi, Vikramsamvat 1987 6. Trayiparichayah, SatyavrataSmashrami, Kolkatta, 1815 7. SamavedaBhashyam, Swmi Sri Bhagavadacharya, Ahamadabad, 1974