P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VII March  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
पंचायती राज में महिलाओं की सहभागिता
Participation of Women in Panchayati Raj
Paper Id :  17351   Submission Date :  17/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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सरिता नेमा
सहायक प्राध्यापक
राजनिति विज्ञान
शासकीय महाविद्यालय, पथरिया
दमोह,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश भारतीय संविधान में महिलाओं और पुरुषों को समान अवसर प्रदान किए गए हैं इसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए पंचायती राज व्यवस्था में महिलाएं अपनी सक्रिय भूमिका अदा कर रही हैं। ग्रामीण महिलाएं एवं पंचायत प्रतिनिधि निरंतर समस्याओं से जूझते हुए भी अपनी भूमिका का कुशलता पूर्वक निर्वहन में सतत रूप से प्रयासरत हैं। उनकी यह राह कठिन है, फिर भी वे पंचायती राज व्यवस्था के माध्यम से पंचायतों में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया है,वे जागरूकता की ओर बढ़ रही हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Equal opportunities have been provided to women and men in the Indian constitution, for this purpose, women are playing their active role in the Panchayati Raj system. Rural women and panchayat representatives are continuously trying to discharge their role efficiently despite facing constant problems. This path is difficult for them, yet they have made their important place in Panchayats through Panchayati Raj system, they are moving towards awareness.
मुख्य शब्द पंचायती राज व्यवस्था, सहभागिता, जागरूकता, आरक्षण, सशक्त।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Panchayati Raj System, Participation, Awareness, Reservation, Strong.
प्रस्तावना
पंडित जवाहरलाल नेहरू ने पंचायती राज को प्रजातंत्र की प्रथम पाठशाला बताया। इसी तरह महात्मा गाँधी ने भी कहा था कि "जब तक गाँवों का विकास नहीं होगा, हमारे देश का विकास संभव नहीं है । गांवों में राम राज आए इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण होना जरूरी है । गांवों में पंचायतीराज इसी दिशा में उठाया गया कदम है। लोकतंत्र का आधार शासन मे जन सहभागिता के साथ ही शासन का निम्नतम स्तर तक विकेन्द्रीकरण है। विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देश भारत के धरातल पर लोकतंत्र ऐसी राजनीतिक संरचना है जिसमें लोकतंत्र केवल राष्ट्रीय या राज्य स्तरों तक ही सीमित नहीं है, अपितु उसका विस्तार स्थानीय स्तरों तक है। किसी भी राष्ट्र के निर्माण में महिलाओं का महत्वपूर्ण योगदान होता है, क्योंकि यदि महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक तथा राजनीतिक विकास में सक्रिय भूमिका निभाने के उचित अवसर प्रदान किए जाते हैं तो सर्वागींण विकास के उद्देश्यों को सरलता से प्राप्त किया जा सकता है। नेहरु जी के शब्दों में यदि जनता में जागृति पैदा करनी है तो पहले महिलाओं को जागृत करो। एक बार वो आगे बढ़ती हैं तो एक परिवार आगे बढ़ता है, गाॉँव और शहर आगे बढ़ते हैं, सारा देश आगे बढ़ता है।महिलाएं समाज के लगभग आधे भाग का प्रतिनिधित्व करती हैं लेकिन उनकी राजनीतिक सहभागिता लगभग नगण्य रही है वर्तमान पंचायती राज सामाजिक समता, न्याय, आर्थिक विकास और व्यवित्त की प्रतिष्ठा पर आधारित ग्रामीण जीवन को नया रूप देने का एक सामाजिक प्रयास है। महिलाओं की दयनीय स्थिति को देखते हुए स्वतन्त्र भारत के संविधान निर्माताओं ने सामाजिक न्याय के अन्तर्गत विकास की सभी प्रतिक्रियाओं में महिलाओं की व्यापक भागीदारी को आवश्यक माना ताकि सामाजिक, आर्थिक व राजनैतिक दृष्टि से सशक्त भारत का निर्माण किया जा सके। इसी क्रम में पंचायती राज में महिलाओं के लिए आरक्षण की व्यवस्था की गई है। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम की सबसे बड़ी उपलब्धि यह है कि इसके अन्तर्गत पंचायती राज संस्थाओं में महिलाओं के लिए एक तिहाई ( 1/3 ) आरक्षण की व्यवस्था की गई है जिसमें अनुसूचित जाति, जनजाति एवं पिछड़ा वर्ग की महिलाएं भी शामिल हैं।
अध्ययन का उद्देश्य 1. पंचायती राज संस्थाएं लोकतंत्र को मजबूती प्रदान करती हैं। 2. लोकतांत्रिक विकेंद्रीकरण की प्रणाली को विकसित करना 3. महिलाओं की पंचायतों में भागीदारी को बढ़ावा देना
साहित्यावलोकन

·     डॉ नीता (2019) ने अपने शोध पत्र पंचायती राज :" महिलाओं की राजनीतिक सहभागिता"पर इस बात पर पर प्रकाश डाला है कि पंचायतों में इतनी बड़ी संख्या में महिलाओं के आने से जमीनी स्तर पर काफी बदलाव हुए हैं महिलाओं की भागीदारी ने स्थानीय स्तर एवं समुदाय जीवन और उसकी चेतना तथा संस्कृति में भी परिवर्तन लाया है निर्वाचित महिला प्रतिनिधियों के दलितआदिवासीपिछड़ी जाति तथा मुस्लिम महिलाओं की हैं इन महिलाओं ने सत्ता के समीकरण को भी बदल दिया है।

डॉ गीता तिवारी हेमचंद्र (2019) "पंचायती राज में महिलाओं की राजनीतिक प्रशासनिक भूमिका"अवलोकन प्रस्तुत अध्ययन में उत्तराखंड राज्य की त्रिस्तरीय पंचायती राज व्यवस्था में ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं की राजनीतिक व प्रशासनिक भूमिका राजनीतिक सहभागिता एवं सक्रियता का अध्ययन करना है अतः विषय वस्तु की पृष्ठभूमि को समझने के लिए पंचायती राज व्यवस्था एवं उस में महिलाओं की भूमिका से संबंधित लेखों पुस्तकों शोध ग्रंथ एवं शोध पत्रों का अध्ययन किया गया है। न

डॉ अंशुका सक्सेना (2018) "पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की सहभागिता स्थिति एवं उनका वास्तविक मूल्यांकन एटा जनपद के पंचायत चुनाव सन 2000 के विशेष संदर्भ में"लेखक ने अध्ययन कर यह बताया की ग्रामीण समाज मेंराजनीति के क्षेत्र में महिलाओं की क्या स्थिति है उनकी पंचायती व्यवस्था में कितनी सहभागिता है उनकी इस भूमिका का वास्तविक मूल्यांकन किया गया है।

सोनू लाल शोधार्थी (2014) व्याख्याता शासकीय महाविद्यालय गंगापुर सिटी अपने शोध पंचायती राज्य में महिला नेतृत्व: सवाई माधोपुर एवं करौली जिला के विशेष संदर्भ में एक अध्ययन"शोधार्थी ने प्रस्तुत अध्ययन में पंचायती राज के परिचय पर प्रकाश डाला गया है प्रस्तुत समीक्षा में देखने का यह प्रयास किया गया है कि तीव्र गति से परिवर्तित हो रही ग्रामीण राजनीतिक संरचना की वर्तमान स्थिति एवं महिलाओं की ग्राम सहभागिता में जनसंख्या की दृष्टि से लगभग आधा हिस्सा महिलाओं का है परिवार के साथ आर्थिक विकास एवं सामाजिक परिवर्तन में महिलाओं का योगदान एवं भूमिका मुख्य रेशम उद्योग में महिलाओं का योगदान बहुत अधिक है।

अश्वनी (2016) महिला नेतृत्व और पंचायती राज के उद्देश्य अध्ययन क्षेत्र आंकड़ों एवं प्रयुक्त उपकरण अध्ययन से प्राप्त परिणाम एवं अध्ययन से प्राप्त सुझाव पर प्रकाश डाला है पंचायती राज संस्थाओं के माध्यम से लोकतांत्रिक मूल्यों पर बल दिया है।

संतोष कुमार (2019) उन्होंने पंचायती राज महिला सशक्तिकरण ने महिलाओं की सहभागिता एवं समस्याएं सुझाव पंचवर्षीय योजनाओं में प्रकाश डाला है।

परविंदरजीत सिंह(2019) पंचायती राज व्यवस्था को सशक्त करने एवं महिलाओं के रचनात्मक सकारात्मक सहयोग तथा उनके राजनीतिक सामाजिक आर्थिक जीवन क्षेत्र को सशक्त बनाने हेतु सुझाव दिए गए हैं।

मुख्य पाठ

भारत में पंचायती राज व्यवस्था का एक दीर्घकालीन इतिहास रहा है। अत पंचायती राज व्यवस्था में महिला नेतृत्व का विश्लेषण करने हेतु अतीत से लेकर वर्तमान तक की पंचायती राज व्यवस्था की विकास यात्रा व इसमें महिलाओं की भमिका और वैदिक कालीन पंचायतों में महिलाओं की स्थिति का विश्लेषण अनिवार्य है । पंचायती राज व्यवस्था के विकास एवं स्वरूप का वर्णन अग्रलिखित है-

वैदिक काल के इतिहास का अध्ययन करने पर पंचायती राज का अस्तित्व साफ दिखाई देता है। इस समय तक ग्राम सभाओं तथा ग्राम-पंचायतों का गठन हो चुका था। वैदिक काल में ग्राम प्रशासन की सबसे लघु इकाई थे जिनका मुखिया ग्रामीणी कहलाता था।

महाकाव्य काल (रामायण व महाभारत) में भी सभा का उल्लेख मिलता है, जो ग्रामीण सुरक्षा का प्रबन्ध करती थी। परन्तु इस सभा का स्वरूप वर्तमान पंचायतों के अनुरूप नही था। महाकाव्य काल में शासन की न्यूनतम इकाई 'ग्राम ही मानी जाती थी जिसका मुखिया ग्रामीक ग्रामीण शासन के लिए उत्तरदायी होता था। वह कर एकत्रित करने, ग्राम में शान्ति एवं व्यवस्था बनाए रखने का कार्य करता था। मौर्य काल में प्रचलित ग्रामीण स्वशासन में, प्रत्येक ग्राम का शासन पृथक-पृथक होता था। ग्राम के शासक को ग्रामीक कहते थे। दस ग्रामों के मध्य संग्रहण तथा 200 गांवों के मध्य स्थानीय नाम की संस्थाओं की स्थापना की जाती थी।

गुप्त काल में मौर्यकाल की भाँति ही स्थानीय स्वशासन व्यवस्था प्रचलित थी। जिसकी सबसे लघु इकाई ग्राम थी, जिसका मुखिया ग्रामीक होता था । गुप्तकालीन ग्राम सभा को ग्राम जनपद या पंचमण्डली कहा जाता था, जो महत्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती थी। दक्षिण भारत में सात-वाहन-शासकों के काल में नगरों तथा ग्रामों में स्थानीय शासन संस्थाएं विधमान थी। दक्षिणी भारत के चोल प्रशासन में भी ग्राम स्वायतत्ता (ग्राम परिषदें) पायी जाती थी। अतीत में भारत में पंचायतें थीं, इसके अनेक प्रमाण मिलते हैं। लेकिन इनमें महिलाओं की भागीदारी भी थी- इसके प्रमाण नहीं मिलते हैं । तत्कालीन पंचायतों के सदस्यों के लिए जो योग्यताएं निर्धारित की गई थी, महिलाएँ उनकी परिधि में नहीं आती थी। वही व्यक्ति पंचायत में चुना जा सकता था जिसके पास कर देने योग्य भुमि हो, उसके पास अपना मकान हो, वह संस्कृत जानता हो तथा उसका. ज्ञान बताने व सुनाने योग्य परिपक्व हो। वह व्यवसाय करना जानता हो और अपना धन ईमानदारी से कमाया हो। इन योग्यताओं के आधार पर महिलाएँ चुनाव के योग्य हो ही नहीं सकती थी। उत्तर वैदिक काल के बाद न उनके स्वामित्व में भुमि थी, न उनको शिक्षा ग्रहण करने का अधिकार था, और न ही आर्थिक गतिविधियों में संलग्न होने का अधिकार था।

जॉन मथाई ने अपनी पुस्तक-विलेज गवर्नमेंट इन ब्रिटिश इंडिया' में बताया है कि विभिन्न ग्रामीण समितियों के गठन में महिलाओं को सदस्य बनने की मनाही नहीं थी। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी अपनी पुस्तक भारत की खोज में इस तरह का ईशारा करते हुए लिखा है कि ग्रामीण समितियाँ एक वर्ष के लिए गठित होती थी और महिलाएं भी ऐसी समितियों की सदस्य हो सकती थी। इन सन्दर्भो से यह ज्ञात होता है कि महिलाएं भी ग्रामीण समितियों की सदस्य बन सकती थी, लेकिन ऐसा प्रावधान वास्तविकता के धरातल पर प्रचलन में नहीं था। महिलाओं की जीवन-शैली इस तरह से नियंत्रित होती थी कि वे चाहकर भी किसी समिति का सदस्य नहीं बन सकती थी। इन समितियों को अनेक सार्वजनिक सामाजिक उत्तरदायित्वों का पालन करना पड़ता था, इसलिए महिलाएं इनसे संबद्ध नहीं हो पाती थी। 

राजपूत काल में ग्राम पंचायतों का महत्व कम हो गया क्योंकि इन संस्थाओं पर सामंतों का एकाधिकार हो गया। सामंती राजव्यवस्था ने पचायती राज संस्थाओं को समाप्त कर दिया तथा केन्द्रीय व्यवस्था की स्थापना का प्रयास किया जिसमे महिलाओं के लिए कोई स्थान नहीं था। मध्यकालीन भारत के दो प्रमुख कालों- सल्तनत काल (1200-1526) व मुगल काल (1527-1707) में स्थानीय स्वशासन संस्थाओं का विशेष महत्व था। दिल्ली सल्तनत काल में राज्य की सबसे लघु इकाई ग्राम को प्रबन्ध के मामले में पर्याप्त स्वायतता प्राप्त थी। ग्राम का प्रबन्ध नम्बरदारों, पटवारियों तथा चौकीदारों द्वारा किया जाता था। मुगलकालीन भारत में भी ग्रामीण स्थानीय स्वशासन की इकाई अपने प्राचीन रूप में ही संचालित रही। इस काल में भी शासन की सबसे छोटी इकाई ‘ग्राम' ही थी, जिसके शासन का प्रबन्ध ग्राम स्तर पर तीन महत्वपर्ण अधिकारियों-मुक्कदम, पटवारी व चौधरी द्वारा किया जाता था। शासन में पंचायत के महत्व को तो स्वीकारा जाता था लेकिन मुगलों के शासन काल में महिलाओं की स्थिति वैदिक काल की अपेक्षा और अधिक पिछड़ी तथा उनकी भूमिका और अधिक सिकुड़ गई थी। सामाजिक, राजनीतिक व आर्थिक गतिविधियों में भाग लेने की बजाय उन्हें घूंघट (पर्दा प्रथा) में बन्द करके घर की चार दीवारी तक ही सीमित कर दिया गया था।

18वीं शताब्दी में मुगल काल के पतन के पश्चात ग्रामीण स्थानीय स्वशासन संस्थाओं की लोकप्रियता धीरे-धीरे समाप्त होने लगी। इसके मुख्य कारण कम्पनी की प्रशासनिक नीतियाँ तथा शासकों द्वारा पंचायतों का विरोध करना थे। परन्तु इसके बावजूद भी ईस्ट इण्डिया कम्पनी का इन संस्थाओं के बारे में नजरिया व्यावहारिक था। ब्रिटिश काल में पंचायतों ने अपनी सत्ता खो दी, क्योंकि ब्रिटिश सरकार ने सारी सत्ता की बागडोर अपने हाथ में ले ली। ब्रिटिश शासकों ने ग्रामीण स्वशासन के स्थान पर अधिकारी तन्त्र को प्रोत्साहित किया ताकि भारतीय जनता का अधिकाधिक शोषण किया जा सके।

स्वाधीन भारत में महिला विकास को एक नई गति मिली। स्वतन्त्रता के बाद महिलाओं के राष्ट्रीय आन्दोलन में योगदान को स्वीकारते हुए तथा उदारवादी और समाजवादी विचारधाराओं के प्रभाव के कारण पं. जवाहर लाल नेहरू जैसे नेताओं ने महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक स्थिति सुधारने की प्रक्रिया शुरू की। नेहरू ने देश के सामाजिक-आर्थिक विकास की समूची अवधारणा के मूल आधार के बारे में बात करते हुए स्त्रियों को आगे बढ़ाने की वकालत की। इसलिए भारतीय संविधान में जहाँ एक और महिलाओं को पुरूषो के समान वयस्क मताधिकार प्रदान किया गया वहीं दूसरी और मौलिक अधिकारों में उन्हें पुरुषों के समान सामाजिक और राजनीतिक स्थिति प्रदान करने की व्यवस्था की गई। इसका अतिरिक्त राज्य के नीति-निर्दशक तत्वों में भी महिलाओं की स्थिति सुधारने का वचन दिया गया। संविधान के मौलिक अधिकारों के तहत अनु० 15 में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि लिंग के आधार पर महिलाओं के साथ किसी भी प्रकार से भेदभाव नहीं किया जा सकता है। अनु० 15(3) में भी स्पष्ट रूप से महिलाओं और बच्चों के लिए विशेष प्रावधान करने की अनमुति दी गई है। अनु० 16(1) "राज्य के अधीन किसी पद पर नियोजन या नियुक्ति से सम्बन्धित विषयों में सभी नागरिकों के लिए अवसर की समानता की गारन्टी करता है। तथा अनु० 16(2) के अनुसार राज्य के अधीन किसी पद या नियोजन के सम्बन्ध में केवल धर्म, जाति, मूल वंश, लिंग, उद्भव, जन्म स्थान, निवास या इनमें से किसी के आधार पर कोई भेदभाव नहीं किया जा सकता।

संविधान के भाग चार में राज्य के निर्देशक तत्व भी परोक्ष रूप से महिलाओं से सम्बन्धित हैं जिनमें महिलाओं की स्थिति सुधारने का वचन दिया गया है। जैसे अनु० 39(क) प्रावधान करता है कि पुरुष और स्त्री दोनों को समान रूप से जीविका के साधन प्राप्त करने का अधिकार है। अनु० 39(ख) में पुरुष व स्त्री दोनों को समान कार्य के लिए समान वेतन दिए जाने का प्रावधान है। इसी प्रकार मूल कर्तव्यों में भी महिलाओं के लिए अनु० 51(ड) प्रत्येक नागरिक पर ऐसी प्रथाएं त्याग ने का कर्त्तव्य डालता है,जो स्त्रियों के सम्मान के विरूद्ध हों। संविधान की इसी भावना के अन्तर्गत कालान्तर में पंचायती राज अधिनियम पारित कर पचायती राज व्यवस्था का शुभारम्भ, भारत के सभी राज्यों द्वारा अपने-अपने क्षेत्र में किया गया है। 73वें संविधान संशोधन अधिनियम की महत्वपूर्ण विशेषता यह भी है। कि पंचायती राज संस्थाओं के सभी स्तरों पर महिलाओं के लिए स्थानों का आरक्षण किया गया है। अधिनियम में प्रावधान किया गया है कि प्रत्येक पंचायत में प्रत्यक्ष निर्वाचन द्वारा भरे जाने वाले स्थानों (अध्यक्ष पद के लिए आरक्षण सहित) की कुल संख्या के कम से कम एक तिहाई स्थान (जिसमें अनुसूचित जातियों एवं जनजातियों की महिलाओं के लिए आरक्षित स्थानों की संख्या भी सम्मिलित है। महिलाओं के लिए आरक्षित होंगे।

गांधीजी ने ग्रामसभा के गठन में पुरुष और महिलाओं के निर्वाचन का तरीका अपनाया। उनका मानना था कि ग्रामसभा का मुख्य कार्य ग्रामों को आत्मनिर्भर बनाना और सामाजिक न्याय प्राप्त करने के लिए अपने कार्य के प्रति निष्ठावान होना ज़रूरी है। इस कार्य हेतु महिलाओं को सबसे आगे रखा गया, क्योकि महिलाएं परिवार की ज़रूरतों को पुरुषों की अपेक्षा ज़्यादा समझती हैं। हालांकि प्रारंभ में महिलाएं ग्रामसभा का सक्रिय अंग बनने में झिझकती थीं। उनकी यह हीनभावना उनके क़दमों को पुनः घर की ओर मोड़ देती थी।

73वें और 74वें संशोधन का मुख्य लक्ष्य ग्रामीण महिलाएं थीं ग्रामसभाओं में उनका सहभागी होना उनके आत्मसम्मान का पहला चरण है। महिलाओं में यह जागृति लानी होगी कि ग्रामसभा के विकास कार्यों को बढ़ाने में वह सक्षम है व निरक्षरता रूपी बाधा को दूर किया जा सकता है। अपनी शोधयात्रा के दौरान मैंने पाया कि ग्रामसभा के लिए चुनी गई महिलाएं एक तरफ अपनी व्यक्तिगत समस्याओं को सुलझाती हैं, वहीं दूसरी ओर ग्रामसभा में सौहार्दपूर्ण माहौल बनाए रखने का काम करती हैं। ग्रामसभा महिलाओं के सफलताओं को निम्न बिंदुओं में देखा गया है:

1. विकास कार्यों को नियोजित तरीके से पूर्ण करना।

2. विकास कार्यो में प्रत्येक वर्ग की भागीदारी को अनिवार्य और सुनिश्चित बनाना।

3. कृषि विकास के साथ-साथ सामाजिक विकास और शिक्षा को प्रोत्साहित करना।

4. वृक्षारोपण।

5. सरकार द्वारा चलाए जा रहे विकास कार्यक्रम एवं नीतियों का लाभ तथा कार्यक्रमों की जानकारी महिलाओं को उपलब्ध कराना।

6. सरकार को इस बात के लिए मजबूर करना कि टाल-मटोल की बजाय दृढनिश्चय, आत्मविश्वास एवं ईमानदारी के साथ विकास के लिए कार्य करना।

7. सम्पर्क मार्ग का निर्माण।

73वें संशोधन विधेयक को प्रस्तुत करते हुए ग्रामीण विकास राज्यमंत्री ने कहा था कि "हमने प्रत्येक स्तर पर कम से कम एक-तिहाई आरक्षण का प्रावधान रखा है, लेकिन इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि महिलाएं हमारी आबादी का आधा हिस्सा है, इस आरक्षण को भी अपर्याप्त ही कहा जाएगा। जहां तक स्त्रियों की स्थिति और उनकी चेतना का सवाल है, तो 1990 का दशक इस दृष्टि से बेहद महत्वपूर्ण है, क्योंकि पिछले 20 वर्षों में स्त्रियों की स्थिति और चेतना में व्यापक बदलाव व विकास इसी का परिणाम है कि आज स्त्रियां अपनी पारंपरिक घरेलू भूमिका से अलग एक नयी भूमिका गढ़ते हुए नज़र आ रही हैं। अधिकांश स्त्रियां अब घर की दहलीज लांघकर अनेक क्षेत्रों में मजबूती के साथ अपने क़दम बढ़ा रही हैं। अतः आत्मविश्वास, आत्मनिर्णय व आत्मशक्ति के बिना सशक्तीकरण स्थापित नहीं किया जा सकता। नजमा हेपतुल्ला के अनुसार- आरक्षण से महिला की व्यवस्था और सत्ता में भागीदारी बढ़ेगी और वह घर से संसद तक के प्रति जागरूक होंगी। यद्यपि यह सही है कि मात्र ग्राम संस्थाओं में महिलाओं को आरक्षण देने से उनकी स्थिति में सुधार नहीं आएगा बल्कि पुरुष प्रधान समाज को महिलाओं के प्रति अपना नजरिया बदलना होगा। महिलाओं को राजनीतिक रूप सशक्त करने के लिए व पुरुषों की वर्तमान भागीदारी के स्तर को हासिल करने के लिए महिलाओं को आगे आना होगा व स्वयं रास्ता तलाशना होगा। इस हेतु आवश्यकता पुरुष की संकुचित मनोवृत्ति में परिर्वन की। जब से महिलाओं ने ग्रामसभाओं की बागडोर अपने हाथों में ली है हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि राष्ट्रवादी आदोलन के गांधीवादी दौर में महिलाएं बड़ी संख्या में घर की चारदीवारी से बाहर निकली थीं और स्वतंत्रता की लड़ाई में उन्होंने अहम् एवं सक्रिय भूमिका निभाई थीं। आज महिलाएं हर क्षेत्र में पुरुष के साथ क़दम से क़दम मिलाकर अपनी अंतर्निहित क्षमता के बल पर आत्मविश्वास और साहस के साथ पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व का अहसास करवाने का सफल प्रयास कर रही हैं। पंचायती राज संस्था, जो ज़मीनी लोकतांत्रिक ढांचे का निर्माण करती है। महिलाओं की भागीदारी ने ग्रामीण संरचना को सकारात्मक दिशा की ओर बढ़ाया है। महिलाओं की पंचायत के माध्यम से विकास प्रक्रियाओं एवं निर्णय लेने की प्रक्रिया में सहभागिता से एक ओर सामाजिक, राजनीतिक न्याय तथा समानता के मध्य संबंधों को अभिव्यक्त करती हैं तथा दूसरी ओर लोकतांत्रिक जड़ों को मज़बूत करती हैं साथ ही महिलाएं वित्तीय संसाधनों का उचित प्रयोग करती हैं।

चुनौतियाँ

1. पंचायतों के पास वित्त प्राप्ति का कोई मजबूत आधार नहीं है उन्हें वित्त के लिए राज्य सरकारों पर निर्भर रहना  पड़ता है।

2. कई राज्यों में पंचायतों का निर्वाचन समय पर नहीं हो पाता

3. कई पंचायतें ऐसी है जहां महिला प्रमुख हैं वहां के कार्य उनके पुरुष रिश्तेदारों के आदेश पर होता है महिलाएं केवल नाममात्र की प्रमुख होती हैं इससे महिला पंचायतों में महिला आरक्षण का नकारात्मक प्रभाव देखने को मिलता है।

4. क्षेत्रीय राजनीतिक संगठन पंचायतों के काम में हस्तक्षेप करते हैं जिससे कार्य एवं निर्णय प्रभावित होते हैं।

5. इस व्यवस्था में पंचायतों के के निर्वाचित सदस्यों एवं राज्य द्वारा नियुक्त पदाधिकारियों के बीच सामंजस्य नहीं हो पाता है जिससे पंचायतों का विकास प्रभावित होता है।

समाधान

1. पंचायतीराज संस्थाओं को कर लगाने के व्यापक अधिकार दिए जाने चाहिए एवं जिससे वे स्वयं वित्तीय साधनों में वृद्धि कर सकें एवं वित्त आयोग द्वारा वित्त आफ्टन में बढ़ोतरी की जाए।

2.  पंचायती राज को अधिक कार्यपालिकीय अधिकार एवं समय-समय पर लेखा परीक्षण भी कराया जाना चाहिए। इस दिशा में सरकार की ओर से  ग्राम स्वराज पोर्टल का शुभारंभ एक सराहनीय प्रयास है।

3.  महिलाओं को मानसिक एवं सामाजिक रूप से अधिक से अधिक सशक्त बनाना चाहिए जिससे निर्णय लेने में आत्मनिर्भर बन सकें।

4. पंचायत चुनाव समय एवं क्षेत्रीय संगठनों के बिना होना चाहिए।

पंचायतों का प्रदर्शन के आधार पर रेकिंग का  आवंटन करना चाहिए शीर्ष स्थान पाने वाली पंचायत को पुरस्कृत किया जाना चाहिए।

निष्कर्ष निष्कर्ष स्वरूप हम कह सकते हैं,कि आरक्षण के माध्यम से पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं को सशक्त करने की दिशा में जो कदम उठाया है उसे महिलाओं ने अपनी सक्रिय सहभागिता के माध्यम से आरक्षण के वास्तविक अर्थ को साकार कर दिखाया है पंचायती राज व्यवस्था में महिलाओं की सहभागिता ने ग्रामीण महिलाओं के विकास प्रक्रियाओं, निर्णय लेने की प्रक्रिया में अपनी सहभागिता दी है यही सामाजिक, राजनीतिक ,न्याय,समानता की अभिव्यक्ति है तथा वे लोकतंत्र की जड़ों को मजबूत कर रही हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. संपादकीय,कुरुक्षेत्र ,ग्रामीण विकास मंत्रालय ,नई दिल्ली,मई 2013 2. सिंहजनक ,भारतिए लोक प्रशासन संस्थान ,नई दिल्ली की अर्धवार्षिक शोध पत्रिका 3. सुराणा राजकुमारी ,भारत में लोकतांत्रिक विकेन्द्रीकरण और नव पंचायती राज पब्लिशिंग हाउस जयपुर ,2000 4. सिंह आर.पी महिलाओं के आरक्षण ,पंचायती राज व ग्राम विकास ,अदित्य पुब्लिशर्स बीना ,2000 5. योजना ,अगस्त 2013