P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VII March  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
हिन्द महासागर में बढ़ती महाशक्तियों की प्रतिस्पर्द्धा
Growing Superpower Competition in The Indian Ocean
Paper Id :  17309   Submission Date :  14/03/2023   Acceptance Date :  20/03/2023   Publication Date :  21/03/2023
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रामकल्याण मीना
सह आचार्य
राजनीति विज्ञान
राजकीय स्नातकोत्तर महाविद्यालय
झालावाड़,राजस्थान, भारत
सारांश हिन्द महासागर विश्व का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है हिन्द महासागर में अनेक द्वीप है। जैसे सकोतरा, मालदीव, लक्षदीप, मारिशस मेडागास्कर, दियागोगर्सिया आदि मुख्य है। हिन्द महासागर के तटवर्ती देशों में मुख्यतः रबड़, चाय, खजूर, काजू, ऊन, कपास, कॉफी, चावल, गेहूँ, नारियल, तिलहन आदि का उत्पादन होता है। यह महासागर विश्व के अनेक भागों के मध्य महत्त्वपूर्ण समुद्री मार्ग उपलब्ध कराता है। इसलिए इसे ’’वाणिज्य का महासागर’’ भी कहा जाता है। हिन्द महासागर तथा उसके तटवर्ती क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से सदैव महत्त्वपूर्ण रहे हैं। अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता का यह एक विवादगस्त क्षेत्र बन गया है तथा शांति भंग होने का डर अत्यधिक बढ़ता जा रहा है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The Indian Ocean is the third largest ocean in the world. There are many islands in the Indian Ocean. For example, Sakotra, Maldives, Lakshadweep, Mauritius, Madagascar, Diagogarsia etc. are the main ones. Rubber, tea, dates, cashew, wool, cotton, coffee, rice, wheat, coconut, oilseeds, etc. are mainly produced in the coastal countries of the Indian Ocean. This ocean provides important sea routes between many parts of the world. That's why it is also called "Ocean of Commerce". The Indian Ocean and its coastal areas have always been important from the geopolitical point of view. It has become a contentious area of international economic and political commitment and the fear of disturbing the peace is increasing.
मुख्य शब्द भू-राजनीति, एशिया, दियोगोगार्सिया, सामरिक, घुसपैठ, शान्तिमय।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Geopolitics, Asia, Diogogarcia, Strategic, Infiltration, Peaceful.
प्रस्तावना
हिन्द महासागर विश्व का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है। विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास हिन्द महासागर के निकट हुआ है। इस महासागर के महाद्वीपीय निमग्न तट से निष्कर्षित सबसे बहुमूल्य खनिज तेल तथा प्राकृतिक गैस है। इसके अतिरिक्त सोना, टिन, तांबा, लोह खनिज, मैगनीज, बॉक्साइड आदि खनिजों के पर्याप्त भंडार इस क्षेत्र में पाये जाते है। यह महासागर मध्य पूर्व, अफ्रीका तथा पूर्वी एशिया को यूरोप और अमेरीका से जोड़ने के लिए समुद्री मार्ग प्रदान करता है। इस महासागर में समुद्री यातायात अधिक है। महाशक्तियों की इस क्षेत्र में उपस्थिति, घुसपैठ और हस्तक्षेप का यही कारण है। हिन्द महासागर में अमेरीका की उपस्थिति का अन्दाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि इसमें उसके न केवल स्थायी सैनिक अड्डे हैं बल्कि अनेक देशों की हवाई पट्टियों और बन्दरगाह के प्रयोग की ’सुविधाये’ भी उसे उपलब्ध है।
अध्ययन का उद्देश्य 1. हिन्द महासागर का भू-राजनीतिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, आर्थिक महत्त्व का अध्ययन करना। 2. हिन्द महासागर तथा भारत की भू-राजनीति का अध्ययन करना। 3. हिन्द महासागर में महाशक्तियों की उपस्थिति का अध्ययन करना। 4. हिन्द महासागर में महाशक्तियों की घुसपैठ के प्रभाव का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

1. हुसैन माजिद, सिंह रमेश ’’भारत का भूगोल’’ प्रकाशक Mc Grow hill Education (India) Pvt. Ltd. New Delhi, 2015

प्रस्तुत पुस्तक सत्रह अध्यायो में विभक्त है जिनमें मुख्यतः भारत की संरचना, भू आकृति विज्ञान, अपवाह, जलवायु, संसाधन, ऊर्जा संसाधन, कृषि, उद्योग, परिवहन, संचार, व्यापार, समसामयिक मुद्दे तथा राजनैतिक परिप्रेक्ष्य आदि बिन्दुओं को समाहित किया है। पुस्तक के राजनैतिक परिप्रेक्ष्य अध्याय में भारत तथा हिन्द महासागर की भू-राजनीति, आर्थिक महत्त्व के बारे में बताया गया है।

2. चड्ढा पी.के. ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ आदर्श प्रकाशन चौड़ा रास्ता जयपुर, 1987

प्रस्तुत पुस्तक सत्रह अध्यायों में विभक्त है इन अध्यायों में मुख्यतः शीतयुद्ध, संयुक्त राज्य अमेरीका, सोवियत संघ, साम्यवादी चीन तथा भारत की विदेश नीति के बारे में बताया गया    है। पुस्तक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति की समकालीन प्रवृत्तियाँ एवं मुद्दे जैसे- हिन्द महासागर एवं महाशक्तियाँ, निरस्त्रीकरण, वियतनाम युद्ध, तेल संकट आदि का विवेचन किया है।

3. शर्मा डॉ. प्रभुदत्त ’’अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’ प्रकाशक कॉलेज बुक डिपो त्रिपोलिया बाजार जयपुर, 1986

प्रस्तुत पुस्तक छब्बीस अध्यायों में विभक्त है जो भारत और उसके पड़ोसी, वर्तमान विश्व की उभरती हुई प्रवृतियाँ, राष्ट्रीय शक्ति की सीमाएँ, राष्ट्रीय शक्ति के तत्व अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति शक्ति संघर्ष के रूप में आदि से संबंधित है। साथ ही पुस्तक में अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति और उसके बदलते घटना चक्रों को भी समाहित किया है। जैसे हिन्द महासागर में आणविक युद्ध का खतरा, दियागो गार्सिया आदि।

4. मिश्रा राजेश ’’राजनीति विज्ञान एक समग्र अध्ययन’’ ओरियन्ट ब्लेकस्वान प्राइवेट लि. हैदराबाद, 2019

प्रस्तुत पुस्तक छः भागों में विभक्त है जिसके मुख्यत भाग छः अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति से संबंधित है। इस भाग में सत्ताईस अध्यायों को समाहित किया गया है। जिनमें भारत तथा हिन्दमहासागर, भारत-दक्षेस, मानवीय हस्तक्षेप, आसियान, परिचय एशिया, भारत एवं क्षेत्रीय सहयोग, वैश्वीकरण शक्ति संतुलन, शांति एवं सुरक्षा से संबंधित है।

मुख्य पाठ

इतिहास

विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं का विकास हिन्द महासागर के निकट हुआ जैसे मेसोपोटामिया, मिश्र तथा सिन्धु, जिनका विकास क्रमशः टिगरीस यूफरेट्स, नील तथा सिन्धु नदियों की घाटियों के नजदीक हुआ। इसके तुरंत बाद फारसी (एल्म के साथ) शुरूआत तथा बाद मे दक्षिण-पूर्व एशिया (फुनान के साथ शुरूआत) सभ्यताओं का उद्भव हुआ। प्रथम अथवा द्वितीय ई.पू. में हिन्द महासागर को पार करने वाला पहला यूनानी व्यक्ति यूडोक्सस था। कहा जाता है कि इस समय तक हिपेलस ने अरब से भारत तक का सीधा मार्ग खोज निकाला था। पहली तथा दूसरी सदी में मिश्र के रोमन शासकों तथा दक्षिण भारत में चेर, चोल, पाड्या शासकों के तमिल राज्यों के व्यापार संबंध स्थापित हुआ। इन्डोनेशियाई लोगों की तरह ही पश्चिम के नाविकों ने भी महासागर को पार करने के लिए मानसून का सहारा लिया।

1405 से 1433 के बीच एडमिरल जेंग ने मिंग वंश के वृहत् बेडो का उपयोग पश्चिमी महासागर (हिन्द महासागर का चीनी नाम) के कई समुद्र यात्राओं के लिये किया तथा वे पूर्व अफ्रीका के तटीय देश तक जा पहुँचे। 1498 में वास्को-डि-गामा उत्माशा अंतरीप (Cape of Good Hope) से गुजरते हुए यूरोप से भारत पहुँचने वाले पहले नाविक बने। तोप से भरे यूरोप के बेडो ने शीघ्र ही व्यापार पर अपना प्रभुत्व कायम कर लया। पुर्तगालियों ने अपनी श्रेष्ठता साबित करने के लिए कुछ मुख्य जलसंधियों एवं बंदरगाहों के निकट किलों का निर्माण किया। ईस्ट इंडिया कम्पनी (1602-1798) ने हिन्द महासागर के पार पूर्व से व्यापार को नियंत्रित करने की कोशिश की। अन्ततः ब्रिटेन सबसे प्रमुख शक्ति बनकर उभरा तथा 1815 तक इस क्षेत्र पर अपना प्रभुत्व कायम कर लिया। 1869 में स्वेज नहर खुलने के बाद यूरोपीय देशों ने पूर्व में अपना हित देखा। ब्रिटेश द्वारा इस क्षेत्र में एक प्रभावशाली शक्ति बनने के कारण हिन्दमहासागर ’’ब्रिटिश झील’’ कहा जाने लगा इस तरह के एम पणिक्कर की भू-राजनीतिक स्वयंसिद्धि कि ’’जिसने समुद्र पर शासन किया वही निकटवर्ती भूमि पर भी शासन करेगा सही साबित हुई।’’[1] भारत की भू-राजनीति उसे विश्व में अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करती है। नेपेलियन का तो कहना था कि ’’किसी देश की विदेश नीति उसके भूगोल द्वारा ही निर्धारित होती है।’’[2]

भारत कभी भी हिन्दमहासागर तथा अपनी समुद्री सीमा की उपेक्षा नहीं कर सकता। अमरीकी नौसेना विशेषज्ञ अल्फ्रेड़ महान ने कहा था ’’जो भी देश हिन्द महासागर को नियंत्रित करता है वह एशिया पर वर्चस्व स्थापित करेगा। यह महासागर सात समुद्रों की कुंजी है। 21 वी शताब्दी में विश्व का भाग्य निर्धारण इसकी समुद्री सतहों पर होगा।’’[3]

उपर्युक्त कथन अक्षरशः सही है क्योंकि वर्तमान समय में हिन्दमहासागर ही विश्व का एक मात्र ऐसा क्षेत्र है जो ’’अस्थिर और अशान्त’’ है। राजनीतिक हल, मुक्ति युद्ध, बदलती मेत्रियाँ और महाशक्तियों की प्रतिद्वंदिता इस क्षेत्र की मूल विशेषताएँ है। जब से नौसेनिक शक्ति के महत्व को समझा गया है विशेषकर द्वितीय महायुद्ध के बाद से तब से यह क्षेत्र संघर्ष तनाव और टकराव का केन्द्र बन गया है। किसी भी देश को महान शक्ति बनने के लिए अपनी नौसेनिक शक्ति को बढ़ाना होगा। अपना नौसेनिक वर्चस्व स्थापित करने के लिए विश्व की महाशक्तियाँ विशेषकर अमेरिका, सोवियत संघ, साम्यवादी चीन हिन्दमहासागर में अपनी उपस्थिति बढ़ाती जा रही है।

भौगोलिक स्थिति

हिन्द महासागर विश्व का तीसरा सबसे बड़ा महासागर है यह महासागर 7,35,56000 वर्ग किमी. के क्षेत्र में फैला हुआ है। यह पृथ्वी के जल सतह का 20 प्रतिशत हिस्सा है। इसके उत्तर में एशिया महाद्वीप है इसके पश्चिम में अफ्रीका, पूर्व में इंडोनेशिया, सुंडा द्वीप तथा आस्ट्रेलिया है तथा दक्षिण में दक्षिणी महासागर है। 200 पूर्व देशान्तर हिन्द महासागर को अटलांटिक महासागर से अलग करता है तथा 1470 पूर्व देशान्तर इसे प्रशान्त महासागर से अलग करता है। अफ्रीका तथा आस्ट्रेलिया के दक्षिणी छोर (सिरे) पर यह महासागर लगभग 10,000 किमी. चौड़ा है।[4]

इस महासागर को 47 वेलांचली देश, 7 द्वीप-देश (मेडागास्कर, कोमोरोव, सेशेल्स, मालद्वीप मॉरिशस, सिंगापुर तथा श्रीलंका) तथा 13 स्थल रूद्ध देश (अफगानिस्तान, भूटान, बुरूदी, इथोपिया, लॉओस, लिसोथो, मालावी, नेपाल, रवांडा, स्वाजीलैंड, युगांडा, जाम्बिया तथा जिम्बाब्वे) घेरे हुए है। सभी देशों का हिन्द महासागर से परम्परागत एवं आर्थिक संबंध है। विश्व की लगभग एक तिहाई जनसंख्या इन्हीं देशों में निवास करती है।

हिन्द महासागर में उपान्तीय सागर जैसे अंडमान सागर, अरब सागर, अरापुरा सागर, लक्षद्वीप सागर, मालागास्सी सागर, लाल सागर, सावु सागर तथा तिमोर सागर शामिल है। हिन्द महासागर की मुख्य खाड़ी, कारपेन्ट्रिया की खाड़ी, ओमान की खाड़ी, मर्तमान की खाड़ी, फारस की खाड़ी तथा स्पेशर की खाड़ी। इस महासागर के महत्त्वपूर्ण जल संधियाँ है- बास जलसंधि, मलक्का जलसंधि, मोजाम्बिक जलसंधि, पाक जलसंधि, सिंगापुर जलसंधि सेलात-सुंडा जलसंधि तथा टॉर जलसंधि। अन्य महासागरों की तुलना में यहाँ सबसे अधिक उपान्तीय सागर है। हिन्द महासागर के महासागरीय कटक है- सोकोतरा कटक, केगोरू कटक, गाव्सबर्क कटक, मेडागास्कर कटक, सेसेल्स कटक, सेंट पॉल कटक, 900 कटक, कर्ग्यूलेन पठार, प्रिंस एडवर्ड द्वीप (कटक) तथा सेसेल्स-मॉरिशस कटक।[5]

हिन्द महासागर को भौगोलिक दृष्टि से दो प्रमुख क्षेत्रों में बाँटा जा सकता है- पश्चिमी क्षेत्र तथा पूर्वी क्षेत्र जिनका सीमा विभाजन मध्य हिन्द महासागर जलमग्न श्रेणी के आधार पर किया जा सकता है। यह जलमग्न श्रेणी उत्तर से लक्षद्वीव, मालदीव से आरम्भ होकर सुदूर दक्षिण में 77 और 80 पूर्वी देशान्तरों के मध्य में जाती हुई समाप्त होती है। पश्चिमी क्षेत्र में ओमन बेसिन तथा सिन्धु जलमग्न शंकु क्षेत्र प्राकृतिक भंडार के प्रमुख क्षेत्र है। पूर्वी क्षेत्र में गंगा जलमग्न शंकु क्षेत्र इस दृष्टि से उल्लेखनीय है। पूर्व में अंडमान निकोबार जलमग्न क्षेत्र विशेष है।

जलमग्न श्रेणियों की स्थिति और फैलाव के कारण हिन्द महासागर में अनेक द्वीप है जो कि राजनीतिक एवं नौसेनिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण है। ये द्वीप इतिहास में विशेष रूप से 17 वीं शताब्दी से प्रमुख रहे है। इन्हीं के आधार पर यूरोप के विभिन्न राष्ट्रों ने अफ्रीका तथा एशिया के देशों पर निगरानी रखी थी। हिन्द महासागर के प्रमुख द्वीपों में सकोतरा, मालदीव, लक्षदीव, मारिशस, मेडागास्कर, ब्रितानी हिन्द महासागर क्षेत्र के द्वीप, अलदाब्रा, देक्रोचस, फार्कुहार, दियागोगार्सिया तथा रियूनियन आदि द्वीप पश्चिमी क्षेत्र में और पूर्वी क्षेत्र में अंडमान निकोबार, कोकोस, तथा क्रिसमस द्वीप मुख्य है। इन्हीं द्वीपों के आधार पर तथा ब्रितानी साम्राज्य के विस्तार के आधार पर हिन्द महासागर को ब्रिटेन की झील कहा जाता था। हिन्द महासागर की मध्य स्थिति होने के कारण एवं तीन महाद्वीपों-एशिया, अफ्रीका और आस्ट्रेलिया से घिरा होने के कारण ये हमेशा जलमार्गों के लिए महत्वपूर्ण जलक्षेत्र है। प्रधान जलमार्गों में प्रमुख है- केपकोलम्बो सिंगापुर मार्ग, कोलम्बो-पर्थ मार्ग, केप अफ्रीका का तटीय जलमार्ग, केप-बम्बई तथा कराची मार्ग और स्वेज-अरन-कोलम्बो-सिंगापुर मार्ग सुदूरपूर्व और पश्चिमी उत्तरी अमेरिका को हिन्दमहासागर से जोड़ता है। ये हिन्द महासागरीय जलमार्ग एशिया के प्रमुख प्राकृतिक साधन भंडारों के क्षेत्रों को यूरोप तथा अमेरिका के आद्योगिक वितरण के क्षेत्रों से जोड़ते है और व्यापारिक दृष्टि से प्राथमिक समझे जा सकते है। औद्योगिक उत्पादन के लिये ये जलमार्ग प्रमुख आयातकर्ता देशों से यूरोप तथा अमेरिका के क्षेत्रों को संबंधित करते है। अतः यह आवश्यक है कि ये जलमार्ग सुरक्षित रहे और इनका व्यापारिक महत्व कम न हो।[6] 

आर्थिक महत्व

हिन्द महासागर के आर्थिक महत्व को निम्न बिन्दुओं के आधार पर स्पष्ट किया जा सकता    है।[7]

प्रथम

हिन्द महासागर के वेलांचली देश कुछ मुख्य अनाज तथा नकदी फसल के बड़े उत्पादक है। हिन्द महासागर के देशों में विश्व का 77 प्रतिशत रबर, 76 प्रतिशत चाय, 60 प्रतिशत खजूर, 55 प्रतिशत काजू, 45 प्रतिशत ऊन, 27 प्रतिशत कपास तथा 20 प्रतिशत कॉफी उत्पादित होता है। इन नकदी फसलों माँग यूरोप, अमेरिका तथा जापान में अधिक है। इसके अलावा हिन्द महासागर के वेलांचली देशों में कुछ अन्य मुख्य फसलों, जैसे चावल, गेहूँ, मकई, ज्वार, दलहन, खजूर, नारियल, सुपारी, तिलहन तथा गन्ने का उत्पादन होता है। इंडोनेशिया, मलेशिया, म्यांमार तथा थाइलैण्ड भारी लकड़ी के मुख्य निर्यातक है।

दूसरा

हिन्द महासागर का महाद्वीपीय निमग्नतट समुद्री खाद्य पदार्थ, मछलियाँ, खासकर झींगी तथा टूना मछली जिनकी प्रादेशिक व अन्तर्राष्ट्रीय माँग अधिक है, के मामले में धनी है।

तीसरा

हिन्द महासागर के महाद्वीपीय निमग्नतट से निष्कर्षित सबसे बहुमूल्य खनिज तेल तथा प्राकृतिक गैस है। विश्व का 40 प्रतिशत अपतटीय तेल उत्पादन हिन्द महासागर में होता है यह उत्पादन फारस की खाड़ी, इंडोनेशिया, मलेशिया, आस्ट्रेलिया, भारत तथा म्यांमार के महाद्वीपीय निमग्नतट से होता है। फारस की खाड़ी में सऊदी अरब, कुवैत, बहरीन, संयुक्त अरब अमीरात, ओमान, ईरान तथा इराक के तट के निकट तथा बॉम्बेहाई, इंडोनेशिया, मलेशिया और आस्ट्रेलिया के वृहत गैस के भण्डार पाए गए है। समुद्र तट का बालू जो खनिजों के मामले में धनी होता है। तथा अपतटीय प्लेसर निक्षेप का उपयोग सीमावर्ती राज्यो, खासकर, भारत, दक्षिण अफ्रीका, इंडोनेशिया तथा थाईलैण्ड द्वारा किया जा रहा है। इसके अतिरिक्त हिन्द महासागर के वेलाचली देशों में विश्व का 81 प्रतिशत सोना, 60 प्रतिशत टिन, 40 प्रतिशत ऐन्टिमोनी (ओजन) 35 प्रतिशत तांबा, 30 प्रतिशत लौह खनिज, 30 प्रतिशत मैगनीज, 25 प्रतिशत निकल, 22 प्रतिशत अभ्रक, 20 प्रतिशत बॉक्साइड, 18 प्रतिशत सीसा उत्पादित होता है। हिन्द महासागर के तट पर पाया जाने वाला बालू भारी खनिजों तथा अपतटीय प्लेसर निक्षेप के मामले में धनी है जिसका उपयोग सीमावर्ती देश जैसे भारत, इंडोनेशिया, मलेशिया, दक्षिण अफ्रीका श्रीलंका तथा थाइलैण्ड द्वारा किया जाता है। इन खनिजों के अलावा प्लेसर बहुधात्वीय पिण्ड, मैगनीजपिण्ड तथा धातुमय पिण्ड के भी बड़े भंडार है। हिन्द महासागर के विभिन्न भागों में गैर-परम्परागत ऊर्जा के स्रोत की अच्छी गुँजाइश है।

चौथा

मध्य पूर्व, अफ्रीका तथा पूर्वी एशिया के यूरोप और अमेरिका से जोड़ने के लिए हिन्द महासागर समुद्री मार्ग प्रदान करता है इस महासागर में समुद्री यातायात अधिक है। खासकर फारस की खाड़ी तथा इंडोनेशिया के तेल क्षेत्रों से पेट्रोलियम तथा पेट्रोलियम उत्पादों का भारी यातायात।

पाँचवा

हिन्द महासागर के समुद्री तट यूरोपीय, अमेरिकी, आस्ट्रेलियाई तथा जापानी पर्यटकों के लिए आकर्षण का केन्द्र है।


छठा

हिन्द महासागर विश्व के अनेक भागों के मध्य महत्वपूर्ण समुद्री मार्ग उपलब्ध कराता है। इस लिए इसे ’’वाणिज्य का महासागर’’ भी कहा जाता है।

हिन्द महासागर तथा उसके तटवर्ती क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से सदैव से महत्वपूर्ण रहे है। परन्तु पिछले वर्षो में इसका महत्व विशेष उल्लेखनीय हो गया है। अन्तर्राष्ट्रीय आर्थिक और राजनीतिक प्रतिबद्धता का यह एक विवादग्रस्त क्षेत्र बन गया है तथा शांति भंग होने का डर अत्यधिक बढ़ता जा रहा है। हिन्द महासागर के लए राजनीतिक होड़ और भी तेज हो गई है। क्योंकि अमेरिका, रूस, चीन इस पर प्रभुत्व स्थापित करने की चेष्टा में है। दूसरी ओर हिन्द महासागरीय देशों की यह इच्छा है कि यह एक शांतिमय क्षेत्र बना रहे और इस पर वास्तविक अधिकार अफ्रीका तथा एशिया के तटवर्ती देशों का होना चाहिए, क्योंकि सुरक्षा व्यवस्था में हिन्द महासागर अपना विशेष स्थान रखता है।[8]

भारत के लिए हिन्द महासागर का महत्व

भारत के लिए हिन्द महासागर का महत्व निम्न बिन्दुओं में स्पष्ट किया जा सकता है।

1. हिन्द महासागर भारत की केन्द्रीय स्थिति है।

2. भारत का प्राकृतिक प्रहरी है।

3. के.एम. पणिक्कर ने हिन्द महासागर के महत्व को रेखांकित करते हुए कहा था कि ’’भारत ने जब तक अपनी स्वायत्तता नहीं खोई, जब तक उसका नियंत्रण हिन्द महासागर       था।’’[9]

4. हिन्द महासागर का नाम भारत के नाम पर रखा गया है इसका कारण यह था कि प्राचीन तथा मध्य काल में इस क्षेत्र में भारत एक प्रभावशाली देश था।

5. इस दौरान भारतीय संस्कृति दक्षिण-पूर्व एशिया के द्विपीय देशों तथा अफ्रीका के देशों में फैल गई।

6. मॉरिशस, चैगोस तथा सेशिल्स द्वीपों में भारतीय मूल के लोग अधिक है।

7. मुंबई हाई, खम्मात की खाड़ी तथा गोदावरी-कृष्णा डेल्टा का महाद्वीपीय निमग्नतट पेट्रोलियम, प्राकृतिक गैस, मछलियों तथा जैव-विविधता की दृष्टि से धनी है।

8. भारतीय तटों के निकट प्रवाल भित्तियों का पारिस्थितिकी एवं आर्थिक महत्त्व है।

9. भारत का लगभग 98 प्रतिशत अन्तर्राष्ट्रीय व्यापार हिन्द महासागर के मार्ग से सम्पन्न होता है।

10. भारत की पेट्रोलियम आवश्यकताओं का लगभग 50 प्रतिशत हिन्द महासागर के मार्ग से आयात किया जाता है। इसके अतिरिक्त भारत में नमक का ज्यादातर उत्पादन हिन्द महासागर से ही होता है।

11. भारत के तटीय क्षेत्रों में ज्वारीय ऊर्जा उत्पादन की संभावना है विशेषकर खम्मात की खाड़ी के निकट।

12. हिन्द महासागर के मध्य वृत्तांश में भारत की एक महत्वपूर्ण भौगोलिक स्थिति है।

13. हिन्द महासागर के वेलांचली राज्यों के साथ भारत महत्वपूर्ण आर्थिक व तकनीकी सहयोग कर रहा है। हिन्द महासागर के देशों को भारत तकनीकी प्रशिक्षण तथा परामर्श सेवाएँ उपलब्ध कराता है।

14. हिन्द महासागर का भारत के लिए अत्यधिक सामरिक महत्त्व है। स्थल रूद्ध होने के कारण इस महासागर ने भारत को एक प्रभावशाली स्थान प्रदान किया है। इस महासागर का सामरिक महत्व इसलिए भी है क्योंकि यह पश्चिम तथा पूर्व से सकीर्ण जलसंधियों द्वारा अभिगम्य है। लाल सागर पश्चिम में संकीर्ण जल निकास है तथा पूर्व में मल्लका जलसंधि, तिमोर व अरोफुरा सागर संकीर्ण निकास है। स्वेज नजर द्वारा हिन्द महासागर, भूमध्य सागर तथा यूरोप से जुड़ा हुआ है। स्वेज नहर खुलने (1869) से पहले भारत, अमेरिका तथा यूरोप से दक्षिण अफ्रीका के उत्तमाशा अंतरीप (Cape o Good Hope) द्वारा जुड़ा हुआ था। इन निकासो को नियंत्रित करके हिन्द महासागर को रूद्ध किया जा सकता है। इसे रूद्ध करने के मुख्य स्थान है- बाब-अल-मनदेब, होर्मुज-जलसंधि, मल्लका-जलसंधि, स्वेज नहर का दक्षिणी छोर तथा लोमबोक जलसंधि।[10]

महाशक्तियों की घुसपैठ

हिन्द महासागर में महाशक्तियों की घुसपैठ 19 वीं शताब्दी में शुरू हो गयी थी। परन्तु 19 वी और 20 वी शताब्दी के अधिकांश काल तक इसे ’’ब्रिटिश झील’’ समझा जाता रहा। द्वितीय महायुद्ध के बाद जब नौसेनिक शक्ति को अत्यधिक महत्त्व दिया जाने लगा, ब्रिटिश साम्राज्य झरझर होकर टूटने लगा और उसने इस क्षेत्र से अपनी उपस्थिति की वापसी की घोषणा कर दी तो ’’रिक्तता’’ की आड़ में महाशक्तियाँ इसमें कूद पड़ी।

संयुक्त राज्य अमेरीका की उपस्थिति

हिन्द महासागर में अमेरीका ने अपनी उपस्थिति को 1940 में ही महसूस करा दिया था जब उसने साम्यवाद को रोकने की नीति अपना ली थी। अमेरीका ने अपनी उपस्थिति का विस्तार उस समय करना शुरू किया। जब 1966 में उसने ब्रिटेन के साथ एक समझौता करके दियागों गर्सिया द्वीप को प्राप्त किया। तब से अब तक अमेरीका हिन्द महासागर में अपनी उपस्थिति और शक्ति का विस्तार करता आया है और वर्तमान समय में यह क्रम जारी है। हिन्द महासागर में अमेरिका के न केवल स्थायी सैनिक अड्डे है बल्कि अनेक देशों की हवाई पट्यिों और बन्दरगाहों के प्रयोग की ’’सुविधाये’’ भी उसे उपलब्ध है। अमेरीका का ’’निमितज’’ नामक विमान वाहक जहाज भी यहा विद्यमान है। दियागोगार्सिया उसका एकमात्र बन्दरगाह बन गया है। यह बन्दरगाह अमेरीका के लिए सामरिक महत्त्व का है। यहाँ पर वह अपनी सैनिक शक्ति को सुदृढ़ करके एशिया और अफ्रीका के महाद्वीपों पर अपने प्रभाव का विस्तार कर सकता है और सोवियत संघ के नौसेनिक रास्ते पर नजर रख सकता है तथा प्रशांत महासागर में सोवियत सैनिक अड्डे ब्लादीवोस्तक और उसके काले सागर स्थित नौसेनिक अड्डो के बीच निरन्तर आवागमन पर भी अंकुश रख सकता है। साथ ही हिन्द महासागर में स्थायी अड्डा बनाकर वह प्रशांत महासागर की अपनी भूमिका को दोहराने का प्रयास कर सकता है।[11]

दियोगो गार्सिया हिन्द महासागर में चागोस द्वीपसमूह का एक छोटा द्वीप है इसका क्षेत्रफल लगभग 27 वर्ग किमी. है। यह भारत की दक्षिणी सीमा से 1600 किमी. दूर हैं। यहाँ से भारत पर सरलता से आक्रमण किया जा सकता है। हिन्द महासागर में बसे अनेक द्वीप तथा आय क्षेत्र इसकी गहरी पकड़ में है। दियोगो गार्सिया पर मारिशस का अधिकार है परन्तु उसने इसे ब्रिटेन को इस शर्त पर दिया था कि वहा नौसेनिक संचार केन्द्र स्थापित करेगा तथा मारिशस की सहायता के लिए उसे 70 लाख डॉलर देगा। परन्तु ब्रिटेन ने उसे अमेरीका को सैनिक अड्डो के निर्माण हेतु हस्तान्तरित कर दिया। अमेरीका ने करोड़ों डॉलर व्यय करके इस द्वीप को अपने नौसेनिक अड्डे के रूप में विकसित किया है। दूसरी और मारिशस ब्रिटेन से इस द्वीप को वापस लेने की मांग कर रहा है। ओ.ए.यू. और गुटनिरपेक्ष आन्दोलन इसकी इस मांग का समर्थन करते है। मारिशस का तर्क है कि दियागो गार्सिया में आधुनिकतम सैनिक अड्डे के विकसित होने से इस क्षेत्र की शांति को खतरा उत्पन्न हो गया है।[12] दियोगोगार्सिया के अलावा संयुक्त राज्य अमेरीका ने सामरिक महत्त्व के अड्डे असमारा (एरिटिया) वूमेरा तथा हास्लैण्ड ई.होल्ट (ऑस्ट्रेलिया) बहरीन (संयुक्त अरब अमीरात) दोहा (कतर) दम्मान, जुबेल (सऊदी अरब) तथा मोह (सिसेल्स) में स्थापित किए।[13]

सोवियत संघ की उपस्थिति

हिन्द महासागर में सोवियत संघ की उपस्थिति 1968 में शुरू हुई। जब ब्रिटेन ने दियोगोगार्सिया द्वीप को अमेरीका को हस्तान्तरित कर दिया गया और अमेरीका ने इसका एक विस्तृत सैनिक अड्डे के रूप में विकास करना शुरू कर दिया तो सोवियत संघ बौखला उठा और उसने नौसेनिक शक्ति में अमेरीका की बराबरी करने का प्रयास करना शुरू कर दिया। इसके परिणामस्वरूप सोवियत संघ की पनडुब्बिया और लड़ाकू जहाज हिन्द महासागर में तैरने लगे। हिन्द महासागर में दोनों महाशक्तियों की लड़ाकू शक्ति की उपस्थिति ही इस क्षेत्र को तनाव षड़यंत्र और युद्ध का क्षेत्र बनाती है।[14]

हिन्द महासागर में अमेरीकी नोसेना की मौजूदगी को नियंत्रित करने के लिए रूस ने इस क्षेत्र में 35 युद्ध पोतो को रखा है। रूस ने इस क्षेत्र के कई देशों के साथ द्विपक्षीय समझौता, भी किया है जैसे- मारिशस, सोमालिया, सिसेल्स, श्रीलंका, भारत, बांग्लादेश तथा मिश्र। रूस के सैन्य अड्डे बरबेरा (सोमालिया) मसीराह (ओमान) उमाकास तथा दाहालक द्वीप (लाल सागर) में है।[15]

चीन की उपस्थिति

चीन हिन्द महासागर का देश नहीं है परन्तु वह ’’स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स की नीति’’ के तहत हिन्द महासागर क्षेत्र में अपना प्रभाव बढ़ाने के लिए किया जा रहा है। इस नीति का अभिप्राय है, हांगकांग से लेकर सूडान के पतन तक समुद्री संचार पर चीन का नियंत्रण बना रहे, जिसमें मल्लका जलसंधि, हरमुंज जलसंधि तक चीन अपना प्रभाव बनाए रखना चाहता है। इसके अन्तर्गत चीन, पाकिस्तान (ग्वाद पतन) बांग्लादेश (चटगांव) मालदीप, हम्बनटोटा द्वीप, कोकोद्वीप और सोमालिया तक अपने-अपने नौसेनिक हितों को बनाये रखना है। क्रिस्टोफर प्रियर्सन ने इसको व्याख्यापित करते हुए कहा कि ’’स्ट्रिंग ऑफ पर्ल्स’’ चीन के उभरते भू-राजनीतिक प्रभाव का परिणाम है जिसके द्वारा चीन पत्तन (बन्दरगाह) और वायुसेना अड्डों पर अपनी पहुँच बेहतर करना चाहता है तथा विभिन्न राज्यों के साथ बेहतर कूटनयिक संबंध बनाना, चीनी सेना का आधुनिकी करण करके दक्षिणी चीन सागर, मल्लका की संधि, हिन्द महासागर और पर्शिया की खाड़ी तक अपने प्रभाव का विस्तार करना है।[16]

हिन्द महासागर में महाशक्तियो की घुसपैठ का प्रभाव:- हिन्द महासागर में महाशक्तियों की घुसपैठ के प्रभाव निम्न है।[17]

पहला

महाशक्तियाँ इस बात का दावा करती है कि हिन्द महासागर में उनकी नौसेनिक उपस्थित किसी तरह इस क्षेत्र को अशांत नहीं बनाती बल्कि पारस्परिक भय उत्पन्न कर क्षेत्र को शांत रखने में सहायक है। वे इस बात का दावा करती है कि उनकी उपस्थिति का उद्देश्य किसी तटवर्ती राज्य को डराना, धमकाना या उसके आन्तरिक क्षेत्र में हस्तक्षेप करना नही। लेकिन महाशक्तियों के ये दावे निराधार है क्योंकि ’’तोपवाली नाव कूटनीति’’ स्वयं में शांति के लिए खतरा है। यह संघर्ष को प्रेरित करती है बाहय मित्रों की खोज को जन्म देती है। ये तत्त्व अपनी बारी में शस्त्रों की होड़, सैनिक अड्डों, सैनिक संगठनों और अन्ततः स्थानीय युद्धों को जन्म देते है। जैसे, भारत-पाकिस्तान युद्धों के लिए कुछ हद तक वे अस्त्र उत्तरदायी रहे है जो पाकिस्तान को साम्यवाद को रोकने की आड़ में अमेरीका, से मिलते रहे है। 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में अमेरीका के अणुशक्ति सम्पन्न जहाज ’’एण्टरप्राइज’’ ने बांग्लादेश की ओर आकर भारतीय सेना को आतंकित करने का असफल प्रयास भी किया था।

दूसरा

महाशक्तियाँ क्षेत्र के देशों को निरन्तर युद्ध की स्थिति में रखकर अपने हथियारों के लिए बाजार तैयार करती है और आतंकित, अशांति बनाये रखकर इनके विकास की गति को अवरूद्ध कर देती है।

तीसरा

तटवर्ती देश अपनी सीमाओं की सुरक्षा के प्रति कभी आश्वस्त नहीं रह पाते और अशांति के कारण उन्हे विदेशी हस्तक्षेप की सदैव आशंका बनी रहती है।

चौथा

तटवर्ती देशों के समुद्री क्षेत्र में तेल के प्रचुर भंडार उपलब्ध होने की संभावनायें है परन्तु असुरक्षा और अशांति के वातावरण में इनका बड़े पैमाने पर विकास करने हेतु लम्बी योजनाये नहीं बना सकते।

पाँचवा

महाशक्तियाँ एशिया-अफ्रीका देशों की एकता को तोड़ने का प्रयास करती है। इससे जहाँ क्षेत्र के मुक्ति आन्दोलनों को क्षति पहुँचती है वहाँ स्थानीय स्तर पर राष्ट्रों में पारस्परिक सहयोग की भावनायें विकसित नहीं हो सकती।

निष्कर्ष हिन्द महासागर तथा उसके तटवर्ती क्षेत्र भू-राजनीतिक दृष्टि से सदैव से महत्त्वपूर्ण रहे है श्रीलंका हिन्द महासागर का एक विशेष महत्त्व का द्वीप रहा है और उसमें त्रिकोमाली का प्राकृतिक बन्दरगाह अद्वितीय है तथा हिन्द महासागर की सुरक्षा व्यवस्था और निगरानी के लिए इसको संसार की महाशक्तियाँ प्रमुखता देती है। इसके अतिरिक्त हिन्द महासागर का महत्त्व उसके जलमार्गों और उसके क्षेत्र में उपलब्ध कच्चे माल के कारण भी है। महाशक्तियों की इस क्षेत्र में उपस्थिति, घुसपैठ और हस्तक्षेप का यही सबसे बड़ा कारण है। इसके जलमार्ग पश्चिम और जापान के लिए जीवन रेखाये है जिनके बन्द होने या जिन पर विरोधी का प्रभुत्व स्थापित होने से उनके लिए जीवन-मरण का प्रश्न पैदा हो जाता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हुसैन माजिद, सिंह रमेश ’’भारत का भूगोल’’ प्रकाशक Mc Grow Hill Education (India) Pvt. Ltd. New Delhi, 2015, पृ. (16.31) 2. जोशी डॉ. आर.पी., अग्रवाल डॉ. अमिता, ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक शील संस, जयपुर, 2000-2001, पृ. 271 3. चड्ढा पी.के., ’’अन्तर्राष्ट्रीय संबंध’’ प्रकाशक, आदर्श प्रकाशन, जयपुर, 1987, पृ. 667 4. हुसैन माजिद, उपरोक्त पृ. 16.26 5. हुसैन माजिद, उपरोक्त, पृ. 16.27 6. शर्मा डॉ. प्रभुदत्त, ’’अन्तर्राष्ट्रीय राजनीति’’ प्रकाशक कॉलेज बुक डिपो, जयपुर, 1986, पृ. 785 7. हुसैन माजिद, उपरोक्त, पृ. 16.30 8. शर्मा डॉ. प्रभुदत्त उपरोक्त, पृ. 784 9. मिश्रा राजेश ’’राजनीति विज्ञान एक समग्र अध्ययन’’ प्रकाशक ओरियन्ट ब्लैकस्वान प्राईवेट, लि. हैदराबाद (भारत) 2019, पृ. 620 10. हुसैन माजिद उपरोक्त, पृ. 16.31 11. चड्ढा पी.के. उपरोक्त, पृ. 669 12. चड्ढा पी.के. उपरोक्त, पृ. 669 13. हुसैन माजिद, उपरोक्त, पृ. 16.35 14. चड्ढा पी.के. उपरोक्त, पृ. 670 15. हुसैन माजिद, उपरोक्त, पृ. 16.35 16. मिश्रा राजेश ’’भूमण्डलीकरण के दौर में भारतीय विदेश नीति’’ प्रकाशक सरस्वती IAS मुखर्जी नगर दिल्ली, 2015, पृ. 129 17. चड्ढा पी.के. उपरोक्त, पृ. 671