ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मा की भक्तवत्सलता
The Devotion of God in Shrimad Bhagwadgita
Paper Id :  17326   Submission Date :  16/03/2023   Acceptance Date :  22/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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खुमाणा राम देवासी
शोधछात्र
संस्कृत विभाग
जयनारायणव्यास विश्वविद्यालय
जोधपुर,राजस्थान, भारत
सारांश श्रीमद्भगवद्गीता के सप्तम अध्याय का नाम ‘ज्ञानविज्ञानयोग’ है। इस अध्याय में भक्तियोग का विशद चित्रण है। परमात्मा के निराकार रूप को रहस्यपूर्वक जान लेना ही ज्ञान है और परमात्मा की सगुण लीलाओं का पूर्ण ज्ञान विज्ञान है। इस अध्याय में भगवत्स्वरूप भगवद्ज्ञाता अधिकारीगण तथा भगवान को जानने के साधनों का विस्तार एवं ज्ञानी भक्त की श्रेष्ठता का वर्णन किया है। ज्ञानी भक्त को सर्वश्रेष्ठ एवं अत्यन्त प्रिय बताते हुए श्रीमद्भगवद्गीता में कहा है - तेषांज्ञानीनित्ययुक्तएकभक्तिर्विशिष्यते। प्रियोहिज्ञानिनोऽत्यर्थमहंसचममप्रियः।।[1] अर्थात् इन चतुर्विधभक्तों में जो ज्ञानी व्यक्ति सदैव ब्रह्मनिष्ठ है और जिनकी भक्ति अनन्य होती है, वे सर्वश्रेष्ठ है। उन्हें परमात्मा प्रिय लगता है तथा ने भक्तजन परमात्मा को प्रिय लगते हैं। आर्तजिज्ञासु अर्थार्थी तथा ज्ञानी ये चार प्रकार के भक्त बतलाये हैं। आचार्य शङ्कर ने कहा है कि परमात्मा का पुण्यकर्म करने वाले चार प्रकार के भक्त परमात्मा का भजन-सेवन करते हैं। इन चार भक्तों में से ज्ञानी भक्त परमात्मा की आत्मा है लेकिन उसका मिलना सुदुर्लभ है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The name of the seventh chapter of Shrimadbhagwadgita is 'GyanVigyanYoga'. There is a vivid description of Bhakti Yoga in this chapter. Knowing the formless form of God in secret is knowledge and the complete knowledge of God's personal pastimes is science. In this chapter, the expansion of the Bhagavadgyata Adhikari Gana and the means of knowing God and the superiority of the knowledgeable devotee have been described in this chapter. Describing the knowledgeable devotee as the best and most dear, it has been said in Shrimad Bhagwadgita -
तेषांज्ञानीनित्ययुक्तएकभक्तिर्विशिष्यते।
प्रियोहिज्ञानिनोऽत्यर्थमहंसचममप्रियः।।[1]
That is, among these four-fold devotees, the wise person who is always devoted to Brahman and whose devotion is exclusive, is the best. God is dear to them and the devotees are dear to God. The four types of devotees have been described as Arthgyasu, Arthaarthi and Jnani. Acharya Shankar has said that there are four types of devotees who perform pious deeds of the Supreme Soul and worship the Supreme Soul. Out of these four devotees, the knowledgeable devotee is the soul of God but it is very rare to meet him.
मुख्य शब्द परमात्मा, भक्तवत्सलता, चेतनाचेतनात्मक, सात्त्विक, राजस, तामस, माया, पापाचारीलोग, अर्थार्थी, आर्त, ज्ञानी और सुदुर्लभ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Paramatma, Bhaktavatsalata, Consciousness, Sattvic, Rajas, Tamas, Maya, sinful people, Artharthi, Artha, Gnani and Sudurlabh.
प्रस्तावना
प्रकृति के त्रिविध गुण मनुष्यों को भ्रमजाल से आबद्ध कर देते हैं जिससे परम सत्यदर्शन (परमात्मदर्शन) उन्हें नहीं होता - त्रिभिर्गुणमयैर्भावैरेभिः सर्वमिदं जगत्। मोहितं नाभिजानाति मामेभ्यः परमव्ययम्।।[2] अर्थात् प्रकृति के सात्त्विक, राजस तथा तामस नामक तीनों के भ्रमजाल में विमोहित संसार अविनश्वर तथा सर्वश्रेष्ठ तत्त्व मेरे स्वरूप को नहीं जान पाता है। आचार्य शङ्कर ने कहा है कि सांसारिक लोग उस परमेश्वर को जानने में अशक्य रहता है जो स्वभावतः नित्य, शुद्ध, बुद्ध तथा मुक्त स्वरूप हैं, जो सभी प्राणियों की आत्मा है और सब गुणों से रहित है जिसे जान लेने पर संसार की सम्पूर्ण बुराइयों के कारणस्वरूप बीज नष्ट हो जाते हैं - त्रिभिः गुणमयैः गुणविकारैः रागद्वेषमोहादिप्रकारैः भावैः पदार्थैः एभिः यथोक्तैः सर्वम् इदं प्राणिजातं जगत् मोहितम् अविवेकताम् आपादितं सत् न अभिजानाति माम् एभ्यो यथोक्तेभ्यो गुणेभ्यः परं व्यतिरिक्तं विलक्षणं च अव्ययं व्ययरहितं जन्मादिसर्वभावविकारवर्जितम् इत्यर्थः।[3] श्रीरामानुजभाष्यकार कहते हैं कि जड़ चेतनात्मक यह सम्पूर्ण संसार परमात्मा से उत्पन्न होता है। परमात्मा में ही स्थित रहता है तथा अन्ततोगत्वा विलक्षण परमात्मा में लीन होता है। परमात्मा कार्यावस्था तथा कारणावस्था में सब शरीरों के रूप में सब प्रकार से स्थित रहता है। अनन्त कल्याणमय गुण गणों की प्रतियोगिता में भी परमात्मा श्रेष्ठतम है - तदेवं चेतनाचेतनात्मकं कृत्स्नं जगत् मदीयं काले काले मत्त एव उत्पद्यते मयि च प्रलीयते मयि एव अवस्थितं मच्छरीरभूतं मदात्मकं च, इति अहम् एव कार्यावस्थायां कारणावस्थायां च सर्वशरीरतया सर्वप्रकारः अवस्थितः। अतः कारणत्वेन शेषित्वेन च ज्ञानाधसङ्ख्येयकल्याणगुणगणैः च अहम् एव सर्वैः प्रकारैः परतरः। मत्तः अन्यत् केन अपि कल्याणगुणगणेन परतरं न विद्यते।[4] प्रकृत श्लोक के विषय में आनन्दगिरि लिखते हैं कि ‘त्रिभिः गुणमयैः’ पदों से द्योतित हैं वे भावात्मक पदार्थ जो तीनों गुणों के विभेद से तीन भागों में विभक्त हैं वे गुणों के ही विकार हैं - एभ्यः परमित्यप्रपञ्चकत्वमुच्यते, अव्ययमिति सर्वविक्रियाराहित्यम्।[5] नीलकण्ठव्याख्याकार कहते हैं कि सजीवप्राणी अभिमान आदि के द्वारा त्रिगुण से भ्रमित हो जाते हैं। अतः विषय विमोहित होकर व्यक्ति परमात्मा के अविनाशी स्वरूप को नहीं जान पाता है। अर्थात् परमात्मा के परम पुरुषोत्तम गुणातीत स्वरूप को नहीं देख पाता है - प्रकाशप्रवृत्ति नियमाद्यैर्गुणमयैः सत्वरजस्तमोगुणविकारैः इदं चराचरं प्राणिजातं जगच्छब्दवाच्यं मोहितं सत् एभ्यो गुणेभ्यः परं मां न जानाति।[6] मधुसूदनीव्याख्याकार प्रकृत श्लोक के विषय में लिखते हैं कि इन सात्त्विक, राजस और तामस तीनों प्रकार के गुणमय भावों से यह सम्पूर्ण जगत् भ्रम के कारण विवेकशून्य हो गया है। व्यक्ति भ्रमवश इनसे (त्रिगुणों से) श्रेष्ठ, अत्यन्त विलक्षण, अविनाशी, विकाररहित, अप्रपञ्च, आनन्दघन तथा स्वयं प्रकाशित परमात्मा को नहीं जान पाते हैं - एभिः प्रागुक्तैस्त्रिभिस्त्रिविधैर्गुणमयैः सतवरजस्तमोगुणविकारैर्भावैः सर्वैरपि भवन्धर्मभिः सर्वमिदं जगत्प्राणिजातं मोहितं विवेकायोग्यत्वमापादितं सत् एभ्यो गुणमयेभ्यो भावेभ्यः परं एषां कल्पनाधिष्ठानमत्यन्तविलक्षणमव्ययं सर्वविक्रियाशून्यमप्रपञ्चमानन्द-घनमात्मप्रकाशमव्यवहितमपि मां नाभिजानाति।[7] प्रकृत श्लोक के सन्दर्भ में भाष्योत्कर्षदीपिकाकार का कहना है कि यह सम्पूर्ण जगत् इन त्रिगुणात्मक भावों को ही नित्य और सुख का हेतु समझकर राग, द्वेष और मोह में लगा हुआ है - त्रिभिस्त्रिविधैः गुणमयैर्गुणविकारैः भावैः पदार्थैः रागद्वेषमोहादिभिः सर्वमिदं जगत् चराचरात्मकं मोहितं विवेकाच्छादकमोहं प्रापितं सन्मामेभ्यो गुणतद्विकारेभ्यः परमतिरिक्तमत एवाव्ययं व्ययरहितम्। जन्मादिसर्वभावविकार विवर्जितमित्यर्थः नाभिजानाति। स्वाभिन्नत्वेन न साक्षात्करोतीत्यर्थः।[8] श्रीधरीव्याख्या में लिखा है कि यह सम्पूर्ण जगत् त्रिगुणमय काम, लोभ आदि भावों से मोहित है। विवेकशून्य जगत् परमात्मा को नहीं जानता जो अविनाशी, अव्यय, श्रेष्ठतम निर्विकार है - त्रिभिस्त्रिविधैरेभि पूर्वोक्तैः गुणमयैः कामलोभादिभिर्गुणविकारैः भावैः स्वभावैमोहितमिदं जगत् अतो मां नाभिजानाति। कथंभूतम् एभ्यो भावेभ्यः परं एभिरसंस्पृष्ठम् एतेषां नियन्तारमत एवाव्ययम निर्विकारमित्यर्थः।[9] भगवान् श्रीकृष्ण ने इस सम्पूर्ण जगत् को त्रिगुणमय भावों से मोहित बतलाया है। जिज्ञासु अर्जुन इससे छूटने का उपाय भगवान् से पूछते हैं तो अन्तर्यामी दयामय भगवान् प्रत्युत्तर इस प्रकार देते हैं - दैवी ह्येषा गुणमयी मम माया दुरत्यया। मामेव मे प्रपद्यन्ते मायामेतां तरन्ति ते।।[10] अर्थात् मेरी गुणमयी दैवी माया का पार पाना या जीतना अत्यन्त कठिन है परन्तु जो साधक मेरी शरणागति सम्प्राप्त कर लेते हैं, वे इसे पार कर जाते हैं। शाङ्करभाष्य में प्रकृत श्लोक के विषय में कहा है कि मनुष्य सब धर्मों को छोड़कर अपने ही आत्मा मायापति परमेश्वर की ही सर्वात्मभाव से शरण ग्रहण कर लेते हैं, वे सब भूतों को मोहित करने वाली इस माया से पार हो जाते हैं अर्थात् संसार-बन्धन से मुक्त हो जाते हैं - मायाम् एतां सर्वभूतमोहिनीं तरन्ति अतिक्रान्ति, संसारबन्धनाद् मुच्यन्ते इत्यर्थः।[11] रामानुजभाष्य में स्पष्ट किया है कि यह परमात्मा की गुणमयी-सत्व, रज और तमोमयी माया देवी है- लीला के लिए प्रवृत्त परमात्मा द्वारा निर्मित है,[12] अतः इसको पार करना नितान्त ही कठिन है। कार्य ओर कारणरूपा अपरा प्रकृति का ही नाम माया है। आनन्दगिरिव्याख्याकार के मतानुसार परमात्मा इस देवी माया का स्वामी है। परमात्मा के शरण हुए बिना मनुष्य इस माया से सहज ही पार नहीं पा सकता। अतः यह अत्यन्त ही दुस्कर है। वह माया अनुभवसिद्ध है जिसे सहसा पार नहीं किया जा सकता है - अनुभवसिद्धा सा नाकस्मादपलापर्महतीत्याह एषेति। जगतस्तत्त्व प्रतिपत्तिबन्धभूता गुणाः सत्त्वादयः। ममेति प्रागुक्तमेव मायायाः संबन्धमनूद्य विधित्सितं दुरत्ययत्वं विभजते-दुःखेनेति।[13] नीलकण्ठव्याख्या में कहा गया है कि परम पिता परमेश्वर से सम्बन्ध रखने के कारण ये माया देवी है - देवस्य जीवरूपेण लीलया क्रीडतो मम सम्बन्धिनीयं दैवी।[14] मधुसूदनीव्याख्याकार ने लिखा है कि भगवत् शक्तियाँ अनन्त हैं। उनकी प्रत्येक शक्ति दैवी शक्ति है। संसार में विद्यमान समस्त जीवात्माएँ उनकी असीम शक्ति के अंश होने के कारण दैवी हैं परन्तु भौतिक शक्तियों के सम्पर्क में रहने से उनकी परा शक्ति भ्रम से आच्छादित रहती है परा तथा अपरा शक्ति भगवान् से समुद्भूत होने के कारण नित्य है - हि शब्दाद्भ्रमोपादानत्वादर्थापत्तिसिद्धा च गुणमयी सत्त्वरजस्तमोगुणत्रयात्मिका त्रिगुणरज्जरिवातिदृढत्वेन बन्धनहेतुः मम मायाविनः परमेश्वरस्य सर्वजगत्कारणस्य सर्वज्ञस्य सर्वशक्तेः स्वभूता स्वाधीनत्वेन जगत्सृष्ट्यादिनिर्वाहिका माया तत्त्वप्रतिभासप्रतिबन्धेनातत्त्व-प्रतिभासहेतुरावरणविक्षेपशक्तिद्वयवत्यविद्या सर्वप्रपञ्चप्रकृतिः।[15] परमात्मा की स्वभूता त्रिगुणमयी माया दो प्रकार की है - माया प्रकृति और अविद्या। तमोरजसत्त्वगुण स्वरूपा प्रकृति द्विधा मानी गई है - देवस्य ममेश्वरस्य स्वभूता त्रिगुणमयी त्रिगुणात्मिका माया प्रकृतिः ‘मायां तु प्रकृतिं विन्द्यान्मायिनं तु महेश्वरम्’। सा प्रकृतिर्मायाविद्यारूपेण द्विधा माया चाविद्या च स्वयमेव भवति इति श्रुतेः। तदुक्तं तमोरजः सत्त्वगुणा प्रकृतिद्विधा मता सत्वशुद्धविशुद्धिभ्यां मायाविद्ये च ते मते। मायाबिम्बो वशीकृत्य तां स्यात्सर्वज्ञ ईश्वरः।[16] ‘दैवी’ शब्द की व्याख्या करते हुए श्रीधरीव्याख्या में कहा है कि माया आधिदैविक होने के कारण लोक से विचित्र है, अद्भुत है - दैवी अलौकिकी अत्यदभूतेत्यर्थः। गुणमयी सत्वादिगुणविकारात्मिका मम परमेश्वरस्य शक्तिर्माया दुरत्यया दुस्तरा।[17] प्रकृत श्लोक में अपरा प्रकृति को दैवी प्रकृति कहा गया है। यह दैवी इच्छा से संचालित होने के कारण जीव पर आवरणात्मक तथा भ्रमात्मक भूमिका निर्वहन करती है। श्वेताश्वतरोपनिषद् में भी कहा है - मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम्। तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत्।।[18] प्रकृति को माया तथा महेश्वर (परमेश्वर) को मायावी जानना चाहिये। उसीके अवयव भूत कार्य-कारणसंघात से यह समस्त जगत् व्याप्त है। इस दैवी माया को सर्वाधिष्ठान स्वरूप सच्चिदानन्द परमेश्वर की शरणागति प्राप्त कर ही पार किया जा सकता है। आसुरी भावना से भाषित दुष्कृत्य करने वालों की स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा है- न मां दुष्कृतिनो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमाः। माययापहृतज्ञाना आसुरं भावमाश्रिताः।।[19] अर्थात् दुष्कृत्य करने वाले, जो मूर्ख है, जो मनुष्य होते हुए भी अधम है, जिनकी बुद्धि भ्रान्ति के कारण भ्रमग्रस्त है, बहक गई है ओर जो आसुरी स्वभाव के हैं, वे परमात्मा की शरण में नहीं जाते हैं। दुष्कृतीजन, विषयासक्त, प्रमादी, मूढजन, विवेकभ्रष्ट, निन्दित कर्मासक्त, नराधम, काम, क्रोध, लोभ, मोह आदि आसुरी भावों वाले लोग माया द्वारा जिनका ज्ञान छीन लिया गया है वे हिंसा, मिथ्याभाषण आदि आसुरी भावों के आश्रित हुए मनुष्य परमात्मा की शरण में नहीं जाते हैं - न मां परमेश्वरं दुष्कृतिनः पापकारिणो मूढाः प्रपद्यन्ते नराधमा नराणां मध्ये अधमा निकृष्टाः ते च मायया अपहृतज्ञानाः सम्मुषितज्ञाना आसुरं भावं हिंसानृतादिलक्षणम् आश्रिताः।[20] श्रीरामानुजभाष्यकार ने कहा है कि दुष्टकर्म करने वाले पापाचारी लोग शरण ग्रहण नहीं करते। जिस प्रकार छाया पदार्थ का अनुसरण करती है, उसी प्रकार यह मायात्मक शक्ति भी कार्य करती है। ऐसे व्यक्ति जिनका ज्ञान माया के प्रभाव से शून्य-सा हो गया है।[21] वे मायाशक्ति से भ्रान्त चित्त परमेश्वर की अवज्ञा करते हैं। ये क्रमशः परमेश्वर विरुद्धाचरण से पूर्णतः नास्तिक हो जाते हैं तथा आसुर सिद्धान्तों का अनुसरण करके भटक जाते हैं, जिससे प्रभुचरण-शरण से इनकी दूरी हो जाती है। पापकारिता एवं अविवेक के आधिक्य से हिंसा असत्य आदि के मार्ग पर अधम नास्तिक आरूढ होते हैं - पापकारित्वेनविवेकभूयस्तया हिंसानृतादिभूयस्त्वाद्भूयसां जन्तूनां न भगवन्निष्ठत्वसिद्धिः।[22] नीलकण्ठव्याख्या में कहा है कि मूर्ख आत्मा, अनात्मा तथा परमात्मचिन्तन ज्ञान से शून्य होते हैं - मूढाः आत्मानात्मविवेकहीनाः।[23] मधुसूदनीव्याख्याकार कहते हैं कि मूर्ख लोग अर्थ तथा अनर्थ के विषय में बुद्धिहीन हैं- यतो मूढा इदमर्थसाधनमिदमनर्थसाधनमिति विवेकशून्याः।[24]
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य श्रीमद्भगवद्गीता में परमात्मा की भक्तवत्सलता का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

प्रकृत शोध में श्रीमद्भगवद्गीता पर विरचित प्रमुख संस्कृत टीकाओं का अनुशीलन है। यहाँ पर प्रमुख सात टीकाओं का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है -

1. शाङ्करभाष्य- शाङ्करभाष्य के प्रणेता आचार्य शङ्कर है। आपने श्रीमद्भगवद्गीता के अष्टादश अध्यायों पर भाष्य लिखा है।

2. श्रीरामानुजभाष्य- प्रकृत शोधकार्य में गीताप्रेस, गोरखपुर से विक्रम संवत् 2071 में मुद्रित श्रीरामानुज भाष्य का उपयोग किया है।

3. आनन्दगिरिव्याख्या- परमहंस श्रीमद्आनन्दगिरि ने श्रीमद्भगवद्गीता पर गीताभाष्य विवेचन’ नाम्नीटीका लिखी जो आनन्दगिरिव्याख्या’ के नाम से प्रथित है। आनन्द गिरि के अनुसार गीताशास्त्र कर्मनिष्ठा तथा ज्ञाननिष्ठा के अधिकार में लिखा गया शास्त्र है।

4. नीलकण्ठव्याख्या- श्रीमद्भगवद्गीता पर चतुर्धरवंश के अलङ्कार श्रीगोविन्दसूरि के पुत्र नीलकण्ठ ने भगवद्गीताप्रकाश’ नाम्नीटीका लिखी है। इस टीका के दो अन्य नाम हैं - चतुर्धरी तथा नीलकण्ठ व्याख्या।

5. मधुसूदनीव्याख्या- श्रीमत्परमहंसपरिव्राजक आचार्य विश्वेश्वर सरस्वती पाठ के शिष्य मधुसूदनी’ ने श्रीमद्भगवद्गीता पर श्रीमद्भगवद्गीतागूढार्थदीपिका’ नाम्नीटीका रची है। यह टीका मधुसूदनीव्याख्या’ के नाम से प्रसिद्ध है। मधुसूदन सरस्वती की मान्यता है कि गीताका  परम प्रयोजन सांसारिक प्राणियों का परम कल्याण करना। गीता में उपासना का चित्रण है। उपासना हेतु कर्म तथा दोनों आवश्यक है।

6.भाष्योत्कर्षदीपिका- श्रीमद्भगवद्गीता पर श्रीपरमहंस परिव्राजक आचार्य बालस्वामी श्रीपाद के शिष्य दत्त वंश अलङ्कार रामकुमार के पुत्रधनपति द्वारा गीताभाष्योत्कर्षदीपिका’ नाम्नीटीका रची गई, जो भाष्योत्कर्ष दीपिका नाम से प्रथित।

7. श्रीधरीव्याख्या- श्रीमद्भगवद्गीता पर श्रीधरस्वामी ने सुबोधिनी’ नाम्नीटीका रची है जो श्रीधरीव्याख्या’ नाम से प्रथित है।

मुख्य पाठ

निन्दित - नीच कर्मों के कारण ही लोग संमोह को प्राप्त होते हैं -

दुष्कृतिनः पापकारिणोऽतएव विमूढाः संमोहं प्राप्ताः।[25]

अधम प्रकृति के मनुष्य परमात्मा का स्मरण नहीं करते क्योंकि वे विवेकशून्य हैं-

       नरेषु येऽधमास्ते मा न प्रपद्यन्ते न भजन्ति। अधमत्वे हेतुः। मूढा विवेकशून्याः।[26]

प्रकृत श्लोक के उपसंहार के रूप में देखा जाय तो मधुसूदनीव्याख्या, भाष्योत्कर्षदीपिका तथा श्रीधरीव्याख्या में एक भाव अभिव्यक्त होता है।

चतुर्विध भक्तों की कोटि का वर्णन करते हुए श्रीकृष्ण कहते हैं -

चतुर्विद्या भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन।

आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।।[27]

अर्थात् हे भरतकुल में श्रेष्ठ अर्जुन! जो धर्मात्मा परमात्मा की उपासना करते हैं वे आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी तथा ज्ञानी के रूप में चार प्रकार के हैं। तात्पर्य यह है कि एक तो वे हैं जो विपत्ति में फंसे हैं, दूसरे जिज्ञासु हैं, तीसरे धन प्राप्त करने के इच्छुक हैं तथा चौथे हैं- ज्ञानी।

आचार्य शङ्कर ने कहा है कि परमात्मा का पुण्यकर्म करने वाले चार प्रकार के भक्त परमात्मा का भजन-सेवन करते हैं।[28] भक्तों में एक पंक्ति आर्तजनों की है, जो पीड़ित हैं। धन प्राप्ति के इच्छुक, अपनी भौतिक स्थिति को सुधारना चाहते हैं, ये दूसरी पंक्ति के हैं। तृतीय पंक्ति के वे लोग हैं, जो सीधे, सरल, सत्यनिष्ठ जिज्ञासु हैं। चतुर्थ पंक्ति के वे लोग हैं, जिन्हें ज्ञान प्राप्त हो चुका है अर्थात् ज्ञानी हैं।

रामानुजभाष्य में ज्ञान का अर्थ केवल परमेश्वर के प्रति भक्ति किया है अर्थात् प्रकृति-संसर्ग से रहित आत्मस्वरूप को प्राप्त करने की इच्छा वाला जिज्ञासु। ज्ञान ही आत्मा का स्वरूप है अतः जानने की इच्छा वाले को जिज्ञासु कहा गया है -

       जिज्ञासुः प्रकृतिवियुक्तात्मस्वरूपावाप्तीच्छुः ज्ञानम् एव अस्य स्वरूपम् इति जिज्ञासुः इति उक्तम्।[29]

आत्मा के स्वभाव को जानने वाला तथा केवल प्रकृति-संसर्ग से  रहित आत्मा को ही परम प्राप्य न मानकर भगवान् को प्राप्त करने की इच्छा वाला और जो भगवान् को ही परम प्राप्य समझने वाला है, वह ज्ञानीहै -

       शब्दज्ञानवानात्मतत्त्वसाक्षात्कारमात्रार्थी मुमुक्षुः।[30]

परमात्मा को चार प्रकार के लोग भजते हैं। वे इस प्रकार हैं आर्त, अपने अज्ञान का नाश चाहने वाला जिज्ञासु, धन आदि का इच्छुक अर्थार्थी तथा ज्ञानी-

       आर्तः पीडितः पीडापरिहारार्थी। जिज्ञासुः स्वज्ञाननाशार्थी। अर्थार्थी धनाद्यर्थी। ज्ञानी चेति चतुर्विद्या मां भजन्ते।[31]

जन्म-जन्मान्तर से शुभ कर्म करते-करते जिनका स्वभाव सुधरकर शुभ कर्मशील बन गया है और पूर्वसंस्कारों के बल से अथवा महत्संग के प्रभाव से सुकृती लोग परमात्मा का ही भजन करते हैं अन्य का नहीं उसमें से प्रथम तीन तो सकामी हैं और चतुर्थ निष्कामी है -

       ये सुकृतिनः पूर्वजन्मकृतपुण्यसंचया जनाः सफलजन्मानस्त एव नान्ये ते मां भजन्ते सेवन्ते। हे अर्जुन! हे च त्रयः एकाम एकोऽकाम  इत्येवं चतुर्विधाः।[32]

मधुसूदनीव्याख्या में ज्ञानी के विषय में लिखा है कि जो परमात्मा को प्राप्त कर चुके हैं, जिनकी दृष्टि में एक परमात्मा ही रह गये हैं। परमात्मा को प्राप्त कर लेने के पश्चात् जिनकी समस्त कामनाएँ निःशेषरूप से समाप्त हो चुकी हैं वे ज्ञानी कहलाते हैं -

ज्ञानी च ज्ञानं भगवत्तत्त्वसाक्षात्कारस्तेन नित्ययुक्तो ज्ञानी तीर्णमायो निवृत्तसर्वकामः।[33]

       महाभारत में गीता के इसी भाव की पुष्टि यथावत् दृष्टि गोचर होती है -

       चतुर्विधा मम जना भक्ता एवं हि मे श्रुतम्।

       तेषामेकान्तिमः श्रेष्ठाः ये चैव नान्यदेवताः।।[34]

महाभारत में वर्णित चार भक्तों में तीन तो फलाभिलाषी भक्त हैं किन्तु चतुर्थ वे सर्वश्रेष्ठ भक्त हैं, जो अपने आपको परमात्मा को समर्पित कर देते हैं।

आचार्य शङ्कर ने कहा है कि संसार, शरीर और अपने आप को विस्मृत करके अनन्य भाव से नित्य निरन्तर परमात्मतत्व में नित्ययुक्त, अविरल प्रेमभक्ति (एक भक्ति) सम्पन्न ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी परमात्मा को अतिशय प्रिय है क्योंकि वह सर्वतोभावेन अन्यासक्तिभाव से सर्वदा सर्वथा दूर रहकर भगवत्तत्व में तल्लीन रहता है-

चतुर्णां मध्ये ज्ञानी तत्त्ववित्त्वान्नित्ययुक्तो भवत्येकभक्तिश्चान्यस्य भजनीयस्यादर्शनादतः स एकभक्तिर्विशिष्यते विशेषमाधिक्यमापद्यते अतिरिच्यत इत्यर्थः। प्रियो हि यस्मादहमात्मा ज्ञानिनोऽतस्तस्याहमत्यर्थं प्रियः।[35]

रामानुजभाष्य में अत्यर्थम्शब्द को अनिर्वचनीय भाव का द्योतक कहा है। अभिप्राय यह है कि प्रियत्व की कोई इयत्तानहीं होती। जैसे ज्ञानियों में अग्रगण्य प्रह्लाद को अग्रेसर कहा है-

       अत्र अत्यर्थशब्दो अभिधेयवचनः ज्ञानिनः अहं यथा प्रियः तथा मया सर्वज्ञेनसर्वशक्तिना अपि अभिधातुं न शक्यते इत्यर्थः, प्रियत्वस्य इयत्तारहितत्वात्। यथा ज्ञानिनाम् अग्रेसरस्य प्रह्लादस्य।[36]

वह प्रह्लाद श्रीकृष्ण परमात्मा में अनन्यभाव से तल्लीन हो कर ऐसा तन्मयहो गया था कि उसे महान् सर्पों के दशन का भान शारीरिकवेदना का ज्ञान भी नहीं हो रहा था। ऐसी अनन्य ज्ञानभक्ति सम्पन्न प्रह्लाद जैसे भगवान् के परम प्रिय हैं। ऐसी निष्काम ज्ञानभक्ति को परिभाषित करते हुए भक्तिरसामृत सिन्धुमें कहा है-

       अन्याभिलाषिताशून्यं ज्ञानकर्माद्यनावृतम्।

       आनुकूल्येन कृष्णानुशीलनं भक्तिरुत्तमा।।[37]

परमात्मा ज्ञानियों के निरुपाधिक प्रेम का आश्रय है। अनन्य पुरुषार्थ एवम् आत्मभाव होने के कारण ज्ञानीभक्त परमात्मा को अत्यन्त प्रिय हैं-

       अहं ज्ञानिनो निरुपाधिक प्रेमास्पदं परमपुरुषार्थत्वेनात्मत्वेन च गृहीतत्वादित्यर्थः।[38]

नीलकण्ठव्याख्या में ज्ञानी के प्रिय होने में नित्ययुक्तत्व एवम् एक भक्तित्व को हेतु बताया है-

तस्य नित्ययुक्तत्वे एकभक्तित्वे च हेतुः हि यतः ज्ञानिनोऽहमत्यर्थे प्रियः आत्मत्वादेव।[39]

मधुसूदनीव्याख्या में कहा है कि ज्ञानी तत्त्वज्ञान वाला तथा समस्त कामों से निवृत्त होने के कारण चार प्रकार के भक्तों में सर्वोत्कृष्ट माना गया है-

ज्ञानी तत्त्वज्ञानवान्निवृत्त सर्वकामः विशिष्यते सर्वतोऽतिरिच्यते सर्वोत्कृष्ट इत्यर्थः।[40]

ज्ञानी को विशिष्ट भक्त माना गया है क्योंकि ज्ञानीपुरुष देहादि अभिमान तथा चित्त विक्षेप इत्यादि से रहित होता है-

       तेषां मध्ये ज्ञानी विशिष्टः। तत्र हेतवः - नित्ययुक्तः सदा मन्निष्ठः एकस्मिन्मय्येव भक्तिर्यस्य सः। ज्ञानिनो देहाद्यभिमानाभावेन चित्तविक्षेपाभावान्नित्ययुक्तत्वमेकान्तभक्तित्वं च संभवति नान्यस्य।[41]

ज्ञानी साधक अद्वैतभाव का आश्रय लेकर एकात्मभाव से उस वासुदेव प्रियके साथ एकाकार हो जाता है जो चराचर प्राणी में विद्यमान है। अतः ज्ञानी भक्त भगवान् को अत्यन्त प्रिय है-

       उदाराः सर्व एवैते ज्ञानी त्वात्मैव मे मतम्।

       आस्थितः स हि युक्तात्मा मामेवानुत्तमां गतिम्।।[42]

अर्थात् ये सभी भक्त अच्छे हैं किन्तु ज्ञानी को तो परमात्मा, आत्मवत् मानता हूँ क्योंकि वह पूर्णतः स्वयं को योगनिष्ठ बनाकर मुझमें ही स्थित रहता है। वह सर्वोच्च गति (लक्ष्य) को सम्प्राप्त करता है।

आचार्य शङ्कर के मतानुसार आर्त, अर्थार्थी, जिज्ञासु तथा ज्ञानी भक्तगण की परम्परा बहुत अच्छी है क्योंकि परमेश्वर के प्रति प्रार्थनाभाव सभी में प्रतिष्ठित हैं। प्रार्थना परमात्मा तक पहुँचने का उत्कृष्ट प्रयत्न है किन्तु ज्ञानी तो परमात्मा की आत्मा ही है -

कश्चिन्मद्भक्तो मम वासुदेवस्याप्रियो भवतीति त्वत्यर्थं प्रियो भवतीति विशेषः। तत्कस्मादित्याह। ज्ञानी त्वात्मैव नान्यो मत इति मे मम मतं निश्चयः।[43]

आचार्य रामानुज ने अपने भाष्य में लिखा है कि ये सभी भक्त परमात्मा की उपासना करने के कारण उदार हैं। जो परमात्मा से कुछ लेते हैं और परमात्मा को सर्वस्व अर्पण कर देते हैं वे दानी हैं। ज्ञानी को तो परमात्मा अपना आत्मा ही समझता है -

सर्वे एव एते माम् एव उपासते इति उदाराः वदान्या ये मत्तो यत् किञ्चिद् अपि गृह्णन्ति, ते हि मम सर्वस्वदायिनः। ज्ञानी तु आत्मा एव मे मतं तदायत्तात्मधारणः अहम् इति मन्ये।[44]

मधुसूदनीव्याख्या में कहा है कि सकाम उपासना करने वाले भक्तत्रय को काम्यमान पदार्थ भी प्रिय है तथा परमात्मा भी प्रिय है। ज्ञानी की परमात्मा के विषय में निरतिशय प्रीति रहती है। अतः परमात्मा भी ज्ञानी भक्तजन से निरतिशय प्रेम करता है -

तत्र सकामानां त्रयाणां काम्यमानमपि प्रियमहमपि प्रियः। ज्ञानिनस्तु प्रियान्तरशून्यस्याहमेव निरतिशयप्रीतिविषयः। अत्र सोऽपि मम निरतिशयप्रीतिविषय इति विशेषः।[45]

ब्रह्मज्ञानी, ब्रह्मस्वरूप ही होता है। अतः ज्ञानी तो परमात्मा की आत्माही है। यह परमात्मा का अटल निश्चय है -

ज्ञानी तु ममात्मैव नान्यो यत इति मे मतं निश्चयः। ब्रह्मवेद ब्रह्मैव भवति इति श्रुतेः।[46]

ज्ञानीभक्त के प्रति निरतिशय परमेश्वर प्रेम का यह कारण है कि उसका पावन उद्देश्य, प्रेम एवं निष्ठा प्रतिफल परमेश्वर के प्रति समर्पित है। वह एक क्षण भी परमात्मसमर्पण भाव से पृथक् नहीं रहता। श्रीमद्भागवत में भी ऐसे भक्तों के सन्दर्भ में कहा है कि ऐसे साधु भक्तगण परमात्मा के हृदय में निवास करते हैं और परमात्मा उनके (भक्तगणों के) हृदय में निवास करता है। ज्ञानीभक्त आत्मसमर्पणभाव से दूर नहीं रहते। अत एव परमात्मा को अत्यन्त प्रिय है -

साधवो हृदयं मह्यं साधूनां हृदयं मम।

मदन्यत्ते न जानन्ति नाहं तेभ्यो मनागपि।।[47]

युक्तात्मा पुरुष का एकमात्र भगवान् को ही सर्वोत्तम और परम गति समझकर नित्य-निरन्तर उनमें एकीभाव से अचल स्थित हो जाना अर्थात् उनको प्राप्त हो जाना ही अति उत्तम गतिस्वरूप भगवान् में अच्छी तरह स्थित होना है-

ज्ञानी पुनरात्मैवेति मे मतं निश्चयः। हि यस्मात् स ज्ञानी युक्तात्मा मदेकचित्तः सन् न विद्यत उत्तमायस्यास्तामनुत्तमां सर्वोत्तमां गतिं मामेवास्थित आश्रितवान्।[48]

ज्ञानी भक्त की दुर्लभता के विषय में भगवान् कहते हैं -

बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते।

वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः।।[49]

अर्थात् बहुत से जन्मों के अन्त में ज्ञानी व्यक्ति जो यह समझता है कि जो कुछ भी है, वह सब वासुदेव (ईश्वर) ही है वह मुझे प्राप्त होता है। ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ है।

आचार्य शङ्कर ने इस सन्दर्भ को स्पष्ट करने के लिए कहा है कि अनेक जन्मों से उपार्जित भगवत् श्रद्धाप्रेम के संस्कार जब साधना में प्रबलता, एकनिष्ठा प्राप्त करते हैं[50], तब साधक ज्ञानवान्होता है, उसमें विज्ञान सहित ज्ञान की सम्प्रतिष्ठा हो जाती है। ऐसा परिपक्वज्ञानी सर्वात्मस्वरूप परमात्मा को सम्प्राप्त होता है।

सम्पूर्णजगत् वासुदेव का ही स्वरूप है - इस तत्त्वार्थ पर अटल निष्ठा रखने वाला हजारों में कोई विरला ही होता हैं ऐसा अनन्य निष्ठ ज्ञानी महात्मा दुर्लभ है। ऐसे महात्मा का संग दुर्लभ अगम्य तथा अमोघ है।

रामानुजभाष्यकार के मतानुसार बहुत से पुण्यमयजन्मों के अन्त में मनुष्य भगवान् वासुदेव की अधीनता ही जिसका एकमात्र स्वभाव है, वह आत्मा परमात्मा है और उस वासुदेव के आधार पर ही परमात्मा की स्वरूपस्थिति तथा प्रवृत्ति है। वह वासुदेव असंख्य कल्याणमय गुणों के कारण परम श्रेष्ठ है। ऐसे ज्ञान से सम्पन्न होकर अनन्यभाव से ज्ञानी शरण ग्रहण करता है कि वासुदेव ही परमात्मा का परम प्राप्य और प्रापक है तथा परमात्मा का समस्त मनोरथ भी वासुदेव ही है। संसार में ऐसा ज्ञानी महात्मा सुदुर्लभ है-

बहूनां जन्मनां पुण्यजन्मनाम् अन्ते अवसाने वासुदेवशेषतैकरसः अहं तदायत्तस्वरूपस्थितिंप्रवृत्तिः च स च असङ्ख्येयैः कल्याणगुणैः परतरः इति ज्ञानवान् भूत्वा वासुदेव एव मम परमप्राप्यं प्रापकं च अन्यदपि यन्मनोरथवर्ति स एव मम तत् सर्वम् इति मां यो प्रपद्यते माम् उपास्ते स महात्मा महामनाः सुदुर्लभतरः लोके।[51]

आनन्दगिरिव्याख्या में महात्मा के विषय में कहा है कि महात्मा आत्मशतिक्त वैभव वाला होता है-

महत्सर्वोत्कृष्टमात्मशब्दितं वैभवमस्येतिमहात्मा।[52]

ज्ञानी पुरुष अनेक जन्मों जन्मान्तरों पश्चात् परमात्मा को प्राप्त करता है। ब्रह्मभूत महात्मा अदृश्यरूप से सुदुर्लभ है -

ज्ञानवान् यो बहूनां जन्मनामन्ते चरम-जन्मनि मां प्रपद्यते सम्यग्दर्शनेनापरोक्षी करोति स महात्मा ब्रह्मभूतः सुदुर्लभ इति योजना।[53]

सत्यार्थ को जानना, समझना तथा सुदृढ़तया हृदयङ्गम करना अनेक जन्मसाध्य कार्य है। विविध जटिलताओं, बाधाओं तथा भ्रान्तियों को सत्यनिष्ठा से पार कर सत्यज्ञानाराधना सम्भाव्यहोती है। ज्ञानी कदापि दुःखों को प्राप्त नहीं होना क्योंकि वह अत्यधिक प्रीति विषय वाला होता है-

अतः स एव ज्ञानपूर्वकमद्भक्तिमान्महात्मात्यन्तशुद्धान्तः करणत्वाज्जीवन्मुक्तः सर्वोत्कृष्टो न तत्समोऽन्योऽस्ति अधिकस्तु नास्त्येव, अतः सुदुर्लभः मनुष्याणां सहस्रेषु दुःखेनापि लब्धुमशक्यः, अतः स निरतिशयमत्प्रीति विषय इति युक्तमेवेत्यर्थः।[54]

श्रीधरीव्याख्या में लिखा है कि ज्ञानी पुरुष पुण्य के बल पर अपने अन्तिम जन्म में समस्त चराचर जगत् को वासुदेव ही समझकर अपरिच्छिन्न दृष्टि वाला बन जाता है-
बहूनां जन्मनां किंचित्किंचित्पुण्योपचयेनान्ते चरमे जन्मनि ज्ञानवान्सन्सर्वमिदं चराचरं वासुदेव एवेति सर्वात्मदृष्ट्या मां प्रपद्यते भजति अतः स महात्माऽपरिच्छिन्नदृष्टिः सुदुर्लभः।[55]

निष्कर्ष गीता के उपदेश सर्वथा ग्राह्य हैं तथा संसार, शरीर और अपने आपको विस्मृत करके अनन्य भाव से नित्य निरन्तर परमात्म तत्त्व में नित्ययुक्त, अविरल प्रेमभक्ति (एकभक्ति) सम्पन्न, ब्रह्मनिष्ठ ज्ञानी परमात्मा को अतिशय प्रिय है क्योंकि वह सर्वतो भावेन अन्यासक्ति भाव से सर्वदा सर्वथा दूर रहकर भगवत्तत्त्व में तल्लीन रहता है। तैत्तिरीयोपनिषद्में भी कहा है कि अनन्य निष्ठावान यह ज्ञानीभक्त मानता है कि परमहंस, परमानन्द स्वरूप भगवत्सत्ता ही है जिसे प्राप्त कर सच्चे आनन्द की प्राप्ति सम्भव है- रसो वैसः। रसं ह्येवायं लब्ध्वानन्दी भवति।[56]
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.17 2. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.13 3. वही, शाङ्करभाष्य, 7.13 4. वही, रामानुजभाष्य, 7.13 5. वही,आनन्दगिरिव्याख्या, 7.13 6. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.13 7. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.13 8. वही, भाष्योत्कर्षदीपिका, 7.13 9. वही, श्रीधरीव्याख्या, 7.13 10. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.14 11. वही, शाङ्करभाष्य, 7.14 12. मम एषा गुणमयी सत्त्वरजस्तमो मयी माया यस्माद् दैवी देवेन क्रीडाप्रवृत्तेन मया एव निर्मिता तस्मात्सर्वैः दुरत्यया दुरतिक्रमा। - श्रीमद्भगवद्गीता, रामानुजभाष्य, 7.14 13. वही, आनन्दगिरिव्याख्या, 7.14 14. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.14 15. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.14 16. वही, भाष्योत्कर्षदीपिका, 7.14 17. वही, श्रीधरीव्याख्या, 7.14 18. श्वेताश्वतरोपनिषद्, 4.10 19. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.15 20. वही, शाङ्करभाष्य, 7.15 21. मायया अपहृतज्ञानाः तु मद्विषयं मदैश्वर्यविषयं च ज्ञानं प्रस्तुतं येषां तदसम्भावनापादिनीभिः कूटयुक्तिभिः अपहृतं ते तथोक्ताः। आसुरं भावम् आश्रिताः तु मद्विषयं मदैश्वर्यविषयं च ज्ञानं सुदृढम् उपपन्नं येषां द्वेषाय एव भवति ते आसुरं भावम् आश्रिताः। उत्तरोत्तराः पापष्ठितमाः। - श्रीमद्भगवद्गीता, रामानुजभाष्य, 7.15 22. वही, आनन्दगिरिव्याख्या, 7.15 23. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.15 24. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.15 25. श्रीमद्भगवद्गीता, भाष्योत्कर्षदीपिका, 7.15 26. वही, श्रीधरीव्याख्या, 7.15 27. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.16 28. अर्थार्थी धनकामो ज्ञानी विष्णोः तत्त्ववित् च हे भरतर्षभ। - श्रीमद्भगवद्गीता, शाङ्करभाष्य,7.16 29. वही, रामानुजभाष्य, 7.16 30. वही, आनन्दगिरिव्याख्या, 7.16 31. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.16 32. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.16 33. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.16 34. महाभारत, शान्तिपर्व, 341.33 35. श्रीमद्भगवद्गीता, शाङ्करभाष्य, 7.17 36. वही, रामानुजभाष्य, 7.17 37. स्वामीप्रभुपाद, भक्तिरसामृतसिन्धु, 1.11.11 38. श्रीमद्भगवद्गीता, आनन्दगिरिव्याख्या, 7.17 39. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.17 40. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.17 41. वही, श्रीधरीव्याख्या, 7.17 42. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.18 43. वही, शाङ्करभाष्य, 7.18 44. वही, रामानुजभाष्य, 7.18 45. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.18 46. वही, भाष्योत्कर्षदीपिका, 7.18 47. श्रीमद्भागवत, 9.4.68 48. श्रीमद्भगवद्गीता, श्रीधरीव्याख्या, 7.18 49. श्रीमद्भगवद्गीता, 7.19 50. बहूनां जन्मनां ज्ञानार्थसंस्कारार्जनाश्रयाणामन्ते समाप्तौ ज्ञानवान् प्राप्तपरिपाकज्ञानो मां वासुदेवं प्रत्यगात्मानं प्रत्यक्षतः प्रतिपद्यते। कथं, वासुदेवः सर्वमिति। य एवं सर्वात्मानं मां प्रतिपद्यते स महात्मा तत्समोऽन्योऽस्त्यधिको वा अतः सुदुर्लभो मनुष्याणां सहस्रेष्वित्युक्तम्। - श्रीमद्भगवद्गीता, शाङ्करभाष्य, 7.19 51. वही, रामानुजभाष्य, 7.19 52. वही, आनन्दगिरिव्याख्या, 7.19 53. वही, नीलकण्ठव्याख्या, 7.19 54. वही, मधुसूदनीव्याख्या, 7.19 55. वही, श्रीधरीव्याख्या, 7.19 56. तैत्तिरीयोपनिषद्, 2.7