P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- VII March  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
जल सरंक्षण की परम्परागत तथा आधुनिक विधियां (दांतारामगढ़ तहसील जिला सीकर के संदर्भ में)
Traditional and Modern Methods of Water Conservation (With Reference To Dantaramgarh Tehsil District Sikar)
Paper Id :  17370   Submission Date :  15/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  22/03/2023
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खेमाराम यादव
शोधार्थी
भूगोल शास्त्र विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत ,
महावीर सिंह चौपड़ा
उप प्राचार्य शिक्षा विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान,भारत
भागचन्द यादव
उप प्राचार्य
शिक्षा विभाग
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान,भारत
सारांश प्रकृति में संपूर्ण जीव जगत तथा वनस्पति जगत के लिए जल सबसे महत्वपूर्ण संसाधन है। जल के बिना पृथ्वी पर जीवन की कल्पना असंभव है। मानव सभ्यता के उद्भव से लेकर वर्तमान तक मानव जीवन में जल का महत्व सर्वोपरि रहा है। लेकिन जैसे-जैसे जनसंख्या वृद्धि हुई है उसके परिणाम स्वरूप जल का घरेलू उपयोग, कृषि कार्य, औद्योगिक कार्य तथा अन्य क्षेत्रों में उपयोग बढ़ा है। जल एक सीमित संसाधन होने के कारण सतत पोषणीय विकास की अवधारणा को ध्यान में रखते हुए इसका विवेकपूर्ण उपयोग तथा संरक्षण आवश्यक है। जल संसाधन संरक्षण प्राचीन काल से किया जा रहा है इन परम्परागत विधियों में नाड़ी, बावड़ी, जोहड़, झालरा, टांका, टोबा, एनिकट आदि प्रमुख हैं। वहीं आधुनिक विधियों में ड्रीप सिंचाई पद्धति, स्प्रिंकलर सिंचाई, रेन वाटर हार्वेस्टिंग, वर्षा छत जल संग्रहण आदि प्रमुख है। प्रस्तुत शोध पत्र का प्रमुख उद्देश्य दांतारामगढ़ तहसील (जिला सीकर) के संदर्भ में जल संरक्षण की परम्परागत तथा आधुनिक विधियों का विश्लेषण करना है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In nature, water is the most important resource for the entire fauna and flora. It is impossible to imagine life on earth without water. From the origin of human civilization till the present, the importance of water in human life has been paramount. But as the population has increased, as a result, the use of water has increased in domestic use, agricultural work, industrial work and other areas. Water being a limited resource, its judicious use and conservation is necessary keeping in mind the concept of sustainable development. Water resource conservation is being done since ancient times, Nadi, Bawdi, Johad, Jhalra, Tanka, Toba, Anicut etc. are prominent in these traditional methods. On the other hand, drip irrigation method, sprinkler irrigation, rain water harvesting, rain roof water harvesting etc. are prominent in modern methods. The main objective of the presented research paper is to analyze the traditional and modern methods of water conservation in the context of Dantaramgarh tehsil (District Sikar).
मुख्य शब्द जल संरक्षण, भूमिगत जल, बावड़ी, झालरा, नाड़ी, टांका, एनिकट, रेन वाटर हार्वेस्टिंग।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Water conservation, underground water, Bawdi, Jhalra, Nadi, Tanka, Anicut, Rain water harvesting.
प्रस्तावना
जल संसाधन की उपलब्धता किसी भी क्षेत्र के लिए एक प्रमुख आवश्यकता होती है लेकिन जल संसाधन सीमित होने के कारण जल संरक्षण आवश्यक होता है। भूमिगत जल संरक्षण के लिए जल का सतह पर रुकना आवश्यक है। भूमिगत जल संरक्षण प्राकृतिक रूप से होता है जिसमें जल धीरे-धीरे रिसकर भूमि में नीचे पहुंच कर एकत्र होता है। जल के दोहन तथा पुनर्भरण के बीच संतुलन की स्थिति जल संरक्षण से ही संभव है। अतः जल का संरक्षण आवश्यक है। सीकर जिले की दांतारामगढ़ तहसील में सतही जल की कमी के कारण जल उपलब्धता कम होने से जल का पुनर्भरण पर्याप्त मात्रा में नहीं हो पाता है। अतः इसके लिए परम्परागत जल संरक्षण की विधियां प्राचीन काल से ही अस्तित्व में रही हैं जिनमें बावड़ी, टांका, तालाब, जोहड़, कुई या बेरी, झालरा नाड़ी, कुण्ड आदि प्रमुख हैं। वहीं आधुनिक विधियों में क्यार विधि, एनिकट, वाटर हार्वेस्टिंग, मिट्टी की नमी धारण क्षमता का संरक्षण, ड्रीप सिंचाई आदि को प्रमुखता से प्रयोग में लाया जाता है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र के उद्देश्य इस प्रकार हैं- 1. अध्ययन क्षेत्र में जल संसाधनों की उपलब्धता का मूल्यांकन करना। 2. अध्ययन क्षेत्र में जल संरक्षण की परम्परागत तथा आधुनिक विधियों का अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

1. दिलबाग (2021) ने अपने शोध प्रबन्ध “सीकर जिले में जल संसाधन की उपलब्धताउपयोग एवं प्रबन्धनः एक भौगोलिक अध्ययन” में सीकर जिले के जल संसाधनों का समग्र मूल्यांकन कर जल संसाधनों के उचित प्रबन्धन तथा वर्षा जल संग्रहण हेतु वाटर हार्वेस्टिंग पद्धति पर विशेष रूप से प्रकाश डाला है।

2. शर्मासुमन (2019) ने अपने शोध लेख “सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन” में सीकर जिले की परम्परागत जल संरक्षण विधियों में झालरावाबड़ीझीलतालाब तथा आधुनिक विधियों में एनिकटरिसाव तालाबआर्दृता संरक्षण आदि का विश्लेषण करते हुए निष्कर्ष निकाला की जल संसाधनों का विवेकपूर्ण उपयोग किया जाना चाहिए।

3. दुबेराकेश कुमार (2018) ने अपने लेख “राजस्थान में जल संचय के परम्परागत स्रोतः वर्तमान में प्रासंगिकता” में बताया कि वर्तमान समय में परम्परागत जल स्रोतों के संरक्षण एवं उपयोग पर बल दिया है।

4. जाटवी.सी. तथा कुमार अजय (2017) ने अपनी पुस्तक “जल प्रबन्धन भूगोल” में जल संसाधनों के समग्र प्रबन्धनजल गुणवत्तावर्षा जल संग्रहण सहित जलग्रहण प्रबन्ध पर विस्तारपूर्वक समझाया है।

5. जैनशरद कुमार (2018) ने अपने लेख “भारत में जल संसाधन प्रबन्धन” में भारत के विभिन्न नदी बेसिनों का विश्लेषण करते हुए जल संभर प्रबन्धन की आवश्यकता पर प्रकाश डाला है। 

मुख्य पाठ

अध्ययन क्षेत्रः-

किसी भी भू-भाग की अवस्थिति का प्रभाव उसकी जलवायुमृदावनस्पतिजीव-जन्तुजनसंख्या तथा संसाधनों पर पड़ता है। अध्ययन क्षेत्र दांतारामगढ़ तहसील राजस्थान के सीकर जिले में स्थित है। सीकर जिला 27021‘ से 28012‘ उत्तरी अक्षांश तथा 74044‘ से 75025‘ पूर्वी देशान्तरों के मध्य स्थित है। सीकर जिले में स्थित 6 तहसीलों में दांतारागढ़ तहसील 27025‘ उत्तरी अक्षांश तथा 75018‘ पूर्वी देशान्तर पर स्थित है। दांतारामगबढ़ का क्षेत्रफल 1114 वर्ग किमी है तथा 2011 जनगणना अनुसार 423314 लोग दांतारामगढ़ तहसील में निवास करते हैं। दांतारामगढ़ तहसील का जनसंख्या घनत्व 309 व्यक्ति प्रति वर्ग कि.मी. है।

अवस्थिति की दृष्टि से दांतारामगढ़ तहसील सीकर जिले के दक्षिणी भाग में स्थित है। इसके उत्तर-पश्चिम तथा उत्तर में सीकर तहसीलपूर्व दिशा में श्रीमाधोपुर तहसील तथा दक्षिण दिशा में नागौर जिला व द.पू. दिशा में जयपुर जिले की सीमाएं स्पर्श करती है। 




आंकड़ों के स्त्रोत तथा विधि तंत्रः-

प्रस्तुत शोध पत्र में शोध उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए प्राथमिक तथा द्वितियक दोनों प्रकार के आंकड़ों का प्रयोग किया गया है।

1. प्राथमिक आंकड़ेः- इसमें अनुसूचीप्रश्नावली तथा व्यक्तिगत परिचर्चा विधियों द्वारा जानकारी प्राप्त की गयी।

2. द्वितियक आंकड़ेः- इसके लिए विभिन्न प्रकाशित तथा अप्रकाशित पत्र-पत्रिकाओंपुस्तकों तथा शोध लेखों से सूचनाएं प्राप्त की गयी है।

सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत विधियां

1. झालरा

सीकर जिले में जल संरक्षण की यह प्राचीनतम तकनीकों में से एक है। झालराअपने से ऊंचे तालाबों और झीलों के रिसाव से पानी प्राप्त करते हैं। इनका अपना कोई आगोर (पायतान) नहीं होता है। झालराओं का पानी पीने हेतु प्रयुक्त नहीं किया जाता अपितु धार्मिक रीति-रिवाजोंसामूहिक स्नान आदि कार्यों के उपयोग में आता था। इनका आकार आयताकार एवं कभी-कभी वर्गाकार होता है। इनके तीन ओर सीढ़ियां बनी होती हैं। वर्तमान में अधिकांश झालराओं का प्रयोग बन्द हो गया है। जल संरक्षण की दृष्टि से इनका विशेष महत्व रहा है।

2. बावड़ी

अध्ययन क्षेत्र में शहरी क्षेत्रों एवं अधिक जनसंख्या वाले ग्रामीण क्षेत्रों में जल संरक्षण के लिए बावड़ी एक महत्वपूर्ण साधन रहा है। क्षेत्र में बावड़ी निर्माण की परम्परा प्राचीन है। सामान्यतः बावड़ियां एक विशेष वास्तुशास्त्र से बनाई जाती हैं। अधिकांश बावड़ियां मन्दिरोंकिलों एवं मठों के नजदीक बनाई जाती थी। बावड़ियां पीने के पानीसिचांई एवं स्नान के लिए महत्वपूर्ण जल स्रोत रही हैं। अध्ययन क्षेत्र की बावड़ियां वर्षा जल संचय के काम आती है। कहीं कहीं इनमें आवासीय व्यवस्था भी रहती थी। बावड़ियों की दशा ठीक नहीं है इनका जीर्णोद्धार किया जाना आवश्यक है।

3. झील

अध्ययन क्षेत्र में प्राचीन काल में परम्परागत जल संरक्षण सर्वाधिक झीलों से होता था। यहां के राजासेठों व बन्जारों और जनता ने झीलों का निर्माण करवाया। मुख्य रूप से झीलों का सिचांई में प्रयोग होता है और कहीं-कहीं पेयजल स्रोत के रूप में भी प्रयोग होता है। अध्ययन क्षेत्र में कृत्रिम व प्राकृतिक दोनों प्रकार की झीलें पाई जाती हैं जिनमें प्रीतमपुरी झीलकोछोर झील एवं रेवासा झील प्रमुख हैं।

4. तालाब

तालाब में मुख्यतः वर्षा के पानी को एकत्रित किया जाता है। प्राचीन काल से ही तालाबों का अस्तित्व रहा है जिनके समीपवर्ती क्षेत्र में कुआं भी होता था। इनकी देख-रेख की जिम्मेदारी व्यक्ति विशेष या समाज की होती है। अध्ययन क्षेत्र में धार्मिक तालाबों की सुरक्षा व संरक्षण अच्छा हुआ है। वर्तमान समय में तालाबों की स्थिति अच्छी नहीं रही है। हमें क्षेत्र के तालाबों का ध्यान रखना आवश्यक है क्योंकि इनसे अनेक कुओं एवं बावडियों को पानी मिलता है। सीकर जिले में माधव सागर तालाबबड़ा तालाबछोटा तालाबनेछवा तालाबनेहरू पार्क तालाब आदि हैं।

5. नाडी

यह एक प्रकार का तालाब ही होता है जिसमें वर्षा का जल एकत्रित किया जाता है। नाडी में जल निकासी की व्यवस्था भी होती है। जलोढ़ मृदा (मिट्टी) वाले क्षेत्रों की नाडी आकार में बड़ी होती है तथा इनमें पानी वर्षभर एकत्रित रह सकता है। नाडी वस्तुतः भूसतह पर बना एक गड्डा होता है जिसमें वर्षा जल आकर एकत्रित होता रहता है। समय समय पर इसकी खुदाई एवं सफाई भी की जाती हैक्योंकि पानी के साथ गाद भी आ जाती है।

6. टांका

अध्ययन क्षेत्र में वर्षा जल को संग्रहित करने की यह भी एक महत्वपूर्ण परम्परागत तकनीक हैजिसे कुण्ड भी कहा है। इनका जल विशेष तौर से पेयजल के रूप में प्रयुक्त होता है। यह सूक्ष्म भूमिगत सरोवर होता है। जिसको ऊपर से ढक दिया जाता है। इसका निर्माण मिट्टी और सीमेंट से होता है। वर्षा के निर्मल जल को टांके इकट्ठा कर पीने के काम में लिया जाता है। टांका किलों मेंतलहटी मेंघर की छत परआंगन में और खेत आदि द्वारासरकार द्वारा तथा निजी निर्माण सार्वजनिक रूप से लोगों द्वारासरकार द्वारा तथा निजी निर्माण स्वयं व्यक्ति द्वारा करवाया जाता है। टांके के मुहाने पर सुराख होता है जिसके ऊपर जाली लगी रहती हैताकि कचरा अन्दर नहीं जा सके। सामान्यतः टांका 30-40 फिट तक गहरा होता है। पानी निकालने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग किया जाता है।

7. टोबा

टोबा भी एक महत्वपूर्ण पारम्परिक जल संरक्षण विधि हैयह नाडी के जैसी ही आकृति वाला होता है। इनकी गहराई नाडी से अधिक होती है। सघन संरचना वाली भूमिजिसमें पानी का रिसाव कम होता हैटोबा निर्माण के लिए यह उपयुक्त स्थान मानी जाती है। इसका ढलान नीचे की ओर होता है साथ ही टोबा के आस-पास नमी होने के कारण प्राकृतिक घार उग आती है। टोबा में वर्ष के 12 माह पानी उपलब्ध रहता है।

8. कुई या बेरी

कुई या बेरी सामान्यतः तालाब के पास बनाई जाती है। जिसमें तालाब का पानी रिसता हुआ जमा होता है। कुई मोटे तौर पर 10 से 12 मीटर गहरी होती है। परम्परागत जल-संरक्षण के अन्तर्गत स्थानीय ज्ञान की आपात व्यवस्था कुई या बेरी में देखी जा सकती है। खेत के चारों तरफ मेड ऊंची कर दी जाती है जिससे वर्षा का पानी जमीन में समाता रहता है। खेत के बीच में एक छिछला कुआं खोद देते हैं जहां इस पानी का कुछ हिस्सा रिसकर जमा होता रहता है। 

सीकर जिले में जल संरक्षण की आधुनिक विधियां

1. एनिकट

जल संरक्षण की इस आधुनिक विधि में बांस से छोटी संरचना बनाई जाती है जो कि नदी के समानान्तर होती है। जिसके जल को पेयजल एवं सिंचाई कार्यों में काम में लिया जाता है। एनिकटों को कुओं से जोड़ कर उनका जल पुर्नभरण किया जाता है एवं इससे जलोत्थान परियोजना भी सम्पादित की जाती है। अध्ययन क्षेत्र में व्यर्थ बहते जल को रोकने के लिए कई ग्रामीण क्षेत्रों में छोटे बांधनुमा एनिकटों का निर्माण किया गया है जिनमें अल्प वर्षा के समय क्यारियों द्वारा सिंचाई की जाती है जिससे किसानों की फसलों को लाभ मिलता है।

2. रिसाव तालाब

रिसाव तालाबों का निर्माण वर्षा जल को तीव्रगति से भूगभ्र में भेजने के उद्येश्यों से किया जाता है। अध्ययन क्षेत्र में रिसाव तालाबों का निर्माण ऐसे स्थान पर किया है जहां की मिट्टी रेतीली होती है साथ ही जिसमें वर्षा जल का रिसाव तेजी से होता है क्योंकि यह क्षेत्र जल स्तर की गिरावट की समस्या से ग्रसित है। रिसाव तालाबों की गहराई कम तथा फैलाव अधिक होता है जिससे वर्षा जल रिसाव के लिए ज्यादा से ज्यादा क्षेत्र मिल सके। रिसाव तालाब सामान्य अपवाह क्षेत्र से प्राप्त अपवाह को ग्रहण करने के लिए बनाया जाता है इसलिए इस प्रकार के तालाबों में सामान्यतया अतिरिक्त जल निकास द्वार की व्यवस्था नहीं की जाती परन्तु निकास द्वार की व्यवस्था कर असामान्य वर्षा की स्थिति में होने वाले नुकसान को रोका जा सकता है।

3. जल संरक्षण बांध

मुख्यतः जिन क्षेत्रों में वर्षा के दौरान सतही जल व्यर्थ में बह जाता है वहां उसे रोकने के लिए छोटे बांधों का निर्माण किया जाता है उन्हें जल संरक्षण बांध कहते हैं। जिससे बहते हुए व्यर्थ जल को सतह पर ही लम्बे समय तक संरक्षित किया जाता है। उपर्युक्त बांधों के द्वारा छोटे-छोटे कृत्रिम तालाबों का निर्माण होता है। छोटे बांध होने के कारण कृत्रिम बांधों पर दबाव कम पड़ता है एवं इसके अतिरिक्त यह जल सिंचाईभूमिगत जल पुर्नभरण एवं जीवोम के विकास में उपयोग है। ऐसे बांधों का निर्माण व देखरेख अध्ययन क्षेत्र में जलसंभर प्रबंधन कार्यक्रम के अन्तर्गत हो रहा है।

4. क्यारी विधि

सड़कों के किनारे व्यर्थ बहने वाले जल को संग्रहण करने के लिए सड़कों के दोनों किनारों पर एक क्यारीनुमा संरचना बना दी जाती हैजिससे व्यर्थ जल बहकर एक तालाबनुमा संरचना में संग्रहित हो जाता है यह विधि मुख्यतः असमतल स्थलाकृति वाले क्षेत्रों में अधिक लाभकारी है। जिले में पहाड़ी युक्त भूमि पर यह एक कारगर जल संरक्षण की तकनीक है। जिसमें अध्ययन क्षेत्र की मालखेत की पहाडियांहर्ष की पहाडियांरघुनाथगढ़ की पहाडियां वाले क्षेत्रों में इस विधि द्वारा जल संरक्षण को अपनाया है।

5. उप सतह बाधा

उपसतह बाधा कृत्रिम जल संरक्षण के लिए एक महत्वपूर्ण संरचना है यह नदी तल के नीचे अन्यत्र बनाया जाता है जिसमें जल पुनर्भरण के लिए मुख्य स्रोत नदी स्वयं है। पूर्ण भराव की स्थिति में इसमें नदी से जल प्राप्त होना बन्द हो जाता है जिससे यह बाढ़ में सहयोगी नहीं होता। यह विधि सीकर जिले में अधिक विकसित नहीं हो पाई है क्योंकि अध्ययन क्षेत्र एक पहाड़ी उच्चावचीय गुणों वाला क्षेत्र है। 

6. जल संरक्षण द्वारा त्वरित बाढ़ों का प्रबंधन

सीकर जिले में अत्यधिक मूसलाधान वर्षा या बादल के फटने से कुछ समय के लिए आने वाली त्वरित बाढ़ों का जलभृतों के माध्यम से रोका जाता है जिससे भूमिगत जल पुनर्भरण में भी सहयोग मिलता है इस जल को शुद्धिकरण की प्रक्रिया के बाद मानवोपयोगी बनाया जा सकता है। जिससे अध्ययन क्षेत्र में पेयजल की कमी को दूर किया जा सकता है। 

7. स्वस्थानिक जल एवं आर्द्रता संरक्षण

स्वस्थानिक जल एवं आर्द्रता संरक्षण सूखे की स्थिति से लड़ने में अत्यधिक लाभदायक है इससे भूमि की उत्पादकता में वृद्धि होती है। यह विधि स्थान विशेष मृदा संरक्षण व जल संरक्षण के लिए निम्नतम मूल्य पर एक उपयोगी विधि है। जिले में इसका निर्माण न्यून ढाल वाले स्थान पर किया जाता है इन न्यून ढालों के आस-पास छोटे जल संग्रहण केन्द्र बनाये जाते हैं जो कि सूखे की भयानक समस्या से लड़ने में सहायक है।

निष्कर्ष प्रस्तुत शोध पत्र में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का वर्णन किया गया है। जिसके अन्तर्गत जल संरक्षण की परम्परागत विधियां जैसे तालाब, झील, नाडी, बावडी, टांका, टोबा, झालरा एवं कुई का विस्तृत अध्ययन है, साथ ही आधुनिक विधियां जैसे जल संरक्षण बांध, क्यारी विधि, एनिकट, रिसाव तालाब, उप सतह बाधा आदि को स्पष्ट किया गया है। इस प्रकार प्रस्तुत शोध से स्पष्ट होता है कि सीकर जिले में जल संरक्षण की परंपरागत विधियों के साथ-साथ आधुनिक विधियों का प्रयोग भी बढ़ा है। क्षेत्र में जल प्रबंधन अत्यधिक आवश्यक है ताकि भविष्य में जल संसाधन की उपलब्धता प्रचुर मात्रा में रहे, साथ ही वर्तमान में भी सभी आवश्यक कार्यों में जल का उपयोग सीमित एवं संयमित हो।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. दिलबाग (2021): “सीकर जिले में जल संसाधन की उपलब्धता, उपयोग एवं प्रबन्धनः एक भौगोलिक अध्ययन” अनपब्लिशड पी.एच.डी. थीसीस, मो.सु.वि.वि. उदयपुर। 2. शर्मा, सुमन (2019) ने अपने शोध लेख “सीकर जिले में जल संरक्षण की परम्परागत एवं आधुनिक विधियों का एक विशेष अध्ययन”,International Journal of Geography, Geology and Environment, 2019. 2019 3. जाट, वी.सी. तथा कुमार अजय (2017): जल प्रबन्धन भूगोल, मलिक एण्ड कम्पनी, चौड़ा रास्ता जयपुर। 4. जैन, शरद कुमार (2018): भारत में जल संसाधन प्रबन्धन, जल चेतना (रा.ज.वि.सं.) खण्ड 7, अंक 2, जुलाई 2018, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली। 5. दुबे, राकेश कुमार (2018): राजस्थान में जल संचय के परम्परागत स्रोत वर्तमान में प्रासंगिकता, जल चेतना (रा.ज.वि.सं.) खण्ड 7, अंक 2, जुलाई 2018, राष्ट्रीय जलविज्ञान संस्थान, नई दिल्ली।