P: ISSN No. 2321-290X RNI No.  UPBIL/2013/55327 VOL.- X , ISSUE- V January  - 2023
E: ISSN No. 2349-980X Shrinkhla Ek Shodhparak Vaicharik Patrika
महासमर के पात्रः आधुनिकताबोध के परिप्रेक्ष्य में
Characters of Mahasamar: In The Perspective of Modernity
Paper Id :  16981   Submission Date :  13/01/2023   Acceptance Date :  24/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
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आरती बंसल
एसोसिएट प्रोफेसर
हिन्दी विभाग
सी. एम. के. नेशनल पी. जी. कॉलेज
सिरसा,हरियाणा, भारत
सारांश नरेन्द्र कोहली द्वारा रचित उपन्यासों में कृष्ण के चरित्र को आधार बनाकर लिखे गए उपन्यासों की महत्वपूर्ण भूमिका है। उनके द्वारा रचित कृष्ण-कथा के आठ खंडों का समग्र संकलन ‘महासमर’ शीर्षक से प्रकाशित है। प्राचीन कथा का आधुनिक सन्दर्भों में विश्लेषण इस कृति की विशेषता है। कथा के विविध प्रसंगों के मध्य लेखक ने जन-सामान्य के शोषण, स्वार्थी राजनीतिज्ञों, राजनीतिक व्यवस्थाओं, विघटित होते मानव-मूल्यों एवं विखंडित होती मान्यताओं का क्रांतिकारी विश्लेषण किया है। सत्य तो यह है कि नरेन्द्र कोहली ने पुरानी कथा की बाह्यकृति को बरकरार रखते हुए नए रचना-संसार का निर्माण किया है। इस प्रकार इतिहास को आधार बनाकर तद्युगीन सामाजिक विधान के जीवन्त चित्रों को प्रस्तुत करके जहाँ एक ओर उन्होंने ऐतिहासिक जिज्ञासा को शान्त किया है, वहीं दूसरी ओर आधुनिक जीवन की समस्याओं के समाधान भी प्रस्तुत किए हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The novels based on Krishna's character have an important role in the novels written by Narendra Kohli. The entire compilation of eight volumes of Krishna-Katha composed by him is published under the title 'Maha Samar'. The analysis of ancient story in modern contexts is the specialty of this work. The author has made a revolutionary analysis of the exploitation of common people, selfish politicians, political systems, disintegrating human values and disintegrating beliefs in the various contexts of the story. The truth is that Narendra Kohli has created a new creation-world by keeping the exterior of the old story intact. In this way, on the one hand, by presenting the lively pictures of contemporary social legislation on the basis of history, on the one hand, he has calmed the historical curiosity, on the other hand, he has also presented solutions to the problems of modern life.
मुख्य शब्द बाह्यकृति, मिथकीय, विघटित, प्रकारान्तर।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Exterior, Mythic, Decomposed, Variant.
प्रस्तावना
समाज किसी भी राष्ट्र का अविभाज्य एवं अनिवार्य अंग है। सामान्य अर्थ में ‘समाज’ शब्द का प्रयोग व्यक्ति-समूह के लिए किया जाता है, लेकिन अपने विशिष्ट अर्थ में समाज व्यक्तियों का समूह मात्र नहीं, वरन् सामाजिक सम्बन्धों की एक व्यवस्था होती है। डॉ0 महेन्द्रनाथ वर्मा के अनुसार- ”एक ही प्रकार के उद्देश्यों और संस्कारों में जुड़े हुए व्यक्ति, जो एक देश या उसके किसी एक भू-भाग में रहते हैं तथा जिनकी एक स्वतन्त्र, आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक व्यवस्था होती है, मिलकर एक समाज का निर्माण करते हैं।“[1] यह सत्य है कि देशकाल के अनुसार समाज में परिवर्तन आना भी स्वाभाविक है। आज समाज में चारों ओर छल-कपट, ईर्ष्या-द्वेष, द्वन्द्व, वेदना व संत्रास का प्राधान्य दिखाई देता है। महत्वाकांक्षाओं ने व्यक्ति को स्वार्थी बनाया है। बार-बार की असफलाताओं से वह घुटन, तनाव व कुंठा का शिकार हुआ है। विद्रोह, निराशा, द्वन्द्व, संघर्षशीलता, कुण्ठाग्रस्तता आदि सहज मानव-जीवन के पथ में आने वाले अवरोध हैं। नरेन्द्र कोहली ने मानव-मन में आए इन्हीं विकारों के चित्रण के साथ-साथ दूषित समाज-व्यवस्था तथा ज्वलंत सामाजिक समस्याओं को अतीत के सन्दर्भ में उठाने का स्तुत्य प्रयास किया है। निःसन्देह आधुनिक मानव स्वार्थ का जीता-जागता प्रतिरूप है। स्वार्थपरता वहीं है जहाँ मनुष्य समाज को अनदेखा कर अपनी व्यक्तिवादिता को बनाए रखता है। शशि जेकब लिखती हैं - ”साधारणतः लोग अपने-अपने वैयक्तिक कर्म में ही अधिक व्यस्त रहते हैं। इस व्यवस्था के मध्य वे अच्छा समाज तथा अच्छी व्यवस्था के निर्माण की ओर प्रयत्न ही नहीं करते। इस प्रकार वे अनजाने ही अपने सामाजिक अकर्म से एक दुष्ट एवं भ्रष्ट व्यवस्था में प्रकारान्तर से सहायक होते हैं।“[2]
अध्ययन का उद्देश्य यह सत्य है कि आधुनिक युग में वैज्ञानिकता के प्रचार-प्रसार के कारण हमारा समाज परिवर्तन के दौर से गुजर रहा है। पिछले कुछ दशकों में समाज में हुए परिवर्तन से हमारी मर्यादाएँ, परम्पराएँ व मूल्य प्रभावित हो रहे हैं। आज व्यक्तिवादिता के प्रभावस्वरूप सामाजिकता की भावना मन्द होती जा रही है और वैयक्तिक-स्वातन्त्र्य, अर्थ-केन्द्रियता तथा सत्ता-लोलुपता बढ़ती जा रही है। भारतीय समाज पर पाश्चात्य भोगवादी विचारधारा का विशेष प्रभाव पड़ा है जिससे परम्परागत सामाजिक मूल्य हृास की स्थिति को प्राप्त होते जा रहे हैं। वर्ण और जाति-सम्बन्धी धारणायें परिवर्तित होती जा रही हैं। नरेन्द्र कोहली के कृष्ण-कथात्मक उपन्यासों में इन्हीं सामाजिक रूढ़ियों के प्रति विद्रोह का स्वर प्रतिध्वनित हुआ है। लेखक ने अति लौकिक, मिथकीय कथा को लौकिक व आधुनिक धरातल पर उतारा है। वर्तमान युग के लेखक होने के कारण उन्होंने वर्तमान युग की नैतिक चेतना के अनुकूल अनेक नवीन उद्भावनाएँ भी की हैं। आवश्यकतानुसार लेखक ने कथा में कल्पना का समुचित समावेश भी किया है और अपने समकालीन परिवेश में घटित अनेक घटनाओं का महाभारतयुगीन घटनाओं के साथ तालमेल भी बिठाया है।
साहित्यावलोकन

साहित्य-समीक्षा के फलस्वरूप विभिन्न पुस्तकों व शोधों का अध्ययन किया, जिसमें कोहली की कृष्ण-कथा में आधुनिकताबोध, मिथकीय कथा का आधुनिक सन्दर्भों में विश्लेषण व जीवन-मूल्यों के सन्दर्भ में कोहली की कृष्ण-कथा का विवेचन-विश्लेषण समाहित है। निश्चित तौर पर इन अध्ययनों से अपने शोध-पत्र के कार्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिली। इनमें डॉ0 एम0 नारायण रेड्डी का शोध-पत्र ‘नरेन्द्र कोहली के मिथकीय उपन्यासों में आधुनिकता का बोध’ (मार्च, 2021) प्रमुख हैं, जिसके अध्ययन के अन्तर्गत लेखक कोहली के आधुनिक दृष्टिकोण को गहराई से समझा। डॉ0 राहुल उठवाल का ‘डॉ0 नरेन्द्र कोहली के कृष्णपरक उपन्यासों में जीवन-मूल्य (सितम्बर, 2017) शोध-पत्र से कोहली की भारतीय जीवन-मूल्यों के प्रति आस्था को पहचाना, जिससे पात्रों के चरित्रों को समझने में सहायता मिली। डॉ0 पूनम काजल के शोध-पत्र ‘मनोविश्लेषणात्मक दृष्टिकोण से ‘महासमर’ के पात्रों का अध्ययन’ (जून, 2019) से भी अपने शोध-पत्र के कार्य को आगे बढ़ाने में सहायता मिली।

मुख्य पाठ

‘महासमर’ उपन्यास में सत्यवती, धृतराष्ट्र, कीचक, दुर्योधन आदि पात्र स्वार्थ की इस प्रवृत्ति का पूरा प्रतिनिधित्व करते दिखाई देते हैं। कभी सत्यवती निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर भीष्म की पूर्णतः उपेक्षा करती है, लेकिन आवश्यकता पड़ते ही उसे गले लगा लेती है। धृतराष्ट्र के चरित्र में भी स्वार्थ की यह प्रवृत्ति अनेक बार मुखरित होती है। निजी स्वार्थ से प्रेरित धृतराष्ट्र समस्त मानवीय मूल्यों को ताक पर रखकर अपने ही भतीजों के अहित के लिए तत्पर रहता है। पिता के ही पदचिह्नों पर चलने वाला दुर्योधन स्वार्थ का जीता-जागता प्रतिरूप है। दुर्योधन की स्वार्थ-वृत्ति को उद्घाटित करते हुए ‘प्रत्यक्ष’ उपन्यास में सात्यकि का कथन है - ” .... जो व्यक्ति राजसत्ता के लिए, धन-सम्पत्ति के लिए, अपने भाइयों की हत्या का प्रयत्न कर सकता है, वह अपने स्वार्थ के लिए, थोड़ी देर के लिए निर्लज्ज होकर, किसी के सम्मुख हाथ नहीं पसार सकता? ........... अपने स्वार्थ के लिए किसी की भी प्रशंसा कर सकता है ..................।“[3]

यह सत्य है कि आधुनिक मनुष्य स्नेह-सम्बन्धों को भी उपयोगिता की दृष्टि से देखता है। कीचक जैसे स्वार्थी भाई के चित्रण द्वारा उपन्यासकार इस तथ्य की पुष्टि करते हैं कि आधुनिक वैज्ञानिक युग में बहन-भाई के पारस्परिक सम्बन्ध भी पूर्णतः स्वार्थ-प्रेरित हैं।वस्तुतः आज चारों ओर इतना स्वार्थ है कि द्रोण जैसे ईमानदार व्यक्ति भी परिस्थितिवश स्वार्थ की ओर प्रेरित हो जाते हैं।उपन्यासकार ने समाज में फैली स्वार्थ की इस प्रवृत्ति को उघाड़कर समाज के सामने रख दिया है। वस्तुतः कोहली एक स्वार्थविहीन समाज की कामना करते हैं। युधिष्ठिर के शब्दों में सम्पूर्ण मानव-समाज को प्रेरणा देते प्रतीत होते हैं - ”प्रत्येक मनुष्य अपने तुच्छ स्वार्थों को छोड़, मानव-जाति के व्यापक हित में काम करेगा, तो प्रत्येक मनुष्य सुखी होगा और यह लोक भी, देवलोक के समान सुख और आनन्द से भरा-पूरा हो जाएगा।“[4]

आधुनिक मनुष्य ईर्ष्या व द्वेष से ग्रस्त है। शशि जेकब मानती हैं कि ”मनुष्य स्वभाव से ही स्वार्थी एवं ईर्ष्यालु होता है। यह बात अलग है कि यह भावना किसी में कम तो किसी में कुछ अधिक होती है। इसी भावना विशेष के कारण वह दूसरों का उत्कर्ष नहीं देख सकता, दूसरों की उन्नति नहीं देख सकता।“[5]

उपर्युक्त कथन दुर्योधन पर पूर्णरूपेण लागू होता है। पांडवों के प्रति अतिशय ईर्ष्या एवं द्वेष के कारण वह बाल्यावस्था से ही उनके विनाश के लिए प्रयासरत रहता है। पांडवों के प्रति दुर्योधन की ईर्ष्या को उद्घाटित करते हुए कृष्ण का कथन है - ”.......... दुर्योधन ने भी तो पांडवों के प्रति ईर्ष्या, द्वेष और घृणा को अपनी सबसे मूल्यवान निधि मानकर ही हृदय से लगा रखा है ....।“[6]

इसी भाँति धृतराष्ट्र, सत्यवती, द्रोण, कृतवर्मा आदि पात्र भी आधुनिक मानव की इस दुष्प्रवृत्ति से ग्रस्त हैं। द्रोण दु्रपद के प्रति द्वेष के कारण उम्र भर रौरव की अग्नि में जलता रहा। कर्ण अपने ईर्ष्या व द्वेष के वशीभूत होकर सदैव पांडवों का अहित चाहता रहा। कृतवर्मा सात्यकि के प्रति द्वेष के कारण कभी भी सत्य के प्रतीक कृष्ण के पक्ष में न आ सका। इन द्वेषी और ईर्ष्यालु चरित्रों के माध्यम से वस्तुतः कोहली आधुनिक मानव की त्रासद स्थिति की ओर संकेत करते हैं तथा सांसारिक मनुष्यों को इन मनोवृत्तियों का प्रतिकार करने का सुझाव देते हैं।

जब व्यक्ति बार-बार की विफलताओं से परेशान हो कर मन से हार जाता है और भविष्य में भी सफलता की आशा नहीं रखता, तो यह निराशा की स्थिति होती है। हस्तिनापुर के चक्रवर्ती सम्राट शान्तनु का जीवन निराशा के भँवर में डूबा हुआ है। शान्तनु की असीम निराशा का मूल कारण वे प्राचीन घटनाएँ हैं, जो गंगा से सम्बद्ध हैं। आशा-निराशा के भँवर में फँसे शान्तनु सुखद भविष्य की लालसा में सत्यवती का सहारा लेते हैं, लेकिन अपने वैवाहिक जीवन में आए अवरोधों के कारण वे पूर्णतः निराशा की स्थिति में अपनी ही मृत्यु की कामना करने लगते हैं। कोहली इस प्रकार की किसी भी स्थिति को उचित नहीं मानते। उपन्यासकार लिखते हैं - ”........ निराशा तो जीवन में कई बार आती है ....... पर उस निराशा को जीवन की पूँजी के रूप में वक्ष से चिपकाकर तो नहीं बैठ जाना चाहिए। उसे जीवन से बाहर ढेलने का प्रयत्न ही तो मनुष्य का जीवन-संघर्ष है।“[7]

यह भी सत्य है कि आज का मानव अन्तर्द्वन्द्व से ग्रस्त होकर दोहरा जीवन जीने के लिए बाध्य है। द्वन्द्व के उद्भव के मूल कारणों को रेखांकित करती हुई डॉ0 सुमन मेहरोत्रा लिखती हैं - ”जहाँ पीड़ा, व्यथा, संत्रास, कुंठा आदि अनुभूतियाँ होती हैं, वहाँ जब तक वे केवल अपने मौलिक रूप में एकाकी हैं, तब तक केवल भावना मात्र रहती हैं, परन्तु जहाँ पर इन स्थितियों से निष्कासन पाने की इच्छा है वहाँ यह स्पष्ट है कि इन भावनाओं के साथ ही साथ वे विरोधी स्थितियाँ भी होंगी, जिनमें जाने की इच्छा है तो ऐसी परिस्थिति में दो विरोधी प्रवृत्तियाँ, मनोवृत्तियाँ या इच्छाएँ एक ही समय में एक स्थल पर उत्पन्न होती हैं जो द्वन्द्व की जन्मदात्री बन जाती हैं।“[8]

कोहली की कृष्ण-कथा में भीष्म, युधिष्ठिर, अर्जुन, द्रोण, बलराम व कर्ण आदि पात्रों के माध्यम से आधुनिक मानव की मानसिक द्वन्द्व की अवस्था का चित्रण है। भीष्म सर्वाधिक द्वन्द्वग्रस्त हैं। युद्ध के समय व काशिराज की कन्याओं के हरण के समय उनका यह द्वन्द्व मुखर हो उठता है। अपनी द्वन्द्वग्रस्तता के कारण ही वे कभी भी सत्य का पक्ष नहीं ले  पाए। वस्तुतः परिवर्तित होता परिवेश, बिखरते मूल्य, पारिवारिक-सामाजिक समस्याएँ जब व्यक्ति के जीवन में रच-बस जाती हैं अथवा उसे उत्तेजित कर देती हैं, तो वह अन्तर्द्वन्द्व में फँस जाता हैं। नरेन्द्र कोहली की कृष्ण-कथा के अनेक पात्र ऐसे ही द्वन्द्वग्रस्त आधुनिक मनुष्यों के प्रतिरूप हैं।

आधुनिक भैतिकतावादी युग में मानव कुण्ठाग्रस्त है। अपने लक्ष्य में बार-बार असफल होने से मनुष्य का आत्मविश्वास खंडित हो जाता है जिस कारण उसके स्वभाव व रहन-सहन में परिवर्तन आ जाता है तथा वह कुंठित जीवन जीने के लिए विवश हो जाता है। नरेन्द्र कोहली के ‘महासमर’ के अनेक पात्र कुण्ठा से ग्रस्त हैं। धृतराष्ट्र की जन्मान्धता ने उसके व्यक्तित्व को कुंठित कर दिया है। वृद्ध शान्तनु से ब्याही गई सत्यवती भी कंुठित जीवन जीने के लिए बाध्य है। कर्ण भी एक कुंठित नवयुवक के रूप में आधुनिक युवा वर्ग का प्रतीक बन कर उभरता है। इसी प्रकार द्रुपद द्वारा अपमानित हो कर द्रोण भी कुण्ठाग्रस्त हो जाते हैं। ”अपने विषय में सोच-सोच कर आचार्य ने यही पाया था कि उनकी क्षमताओं और गुणों का कभी आदर नहीं हुआ। जो सम्मान उन्हें मिलना चाहिए था, वह उन्हें कभी नहीं मिला ....।“[9]

मनुष्य का मूल स्वभाव वेदना व त्रास का है। वेदना मानव-जीवन की व्यथा, पीड़ा या दुख है। त्रास डर व भय है। आधुनिक मानव में व्याप्त संत्रास के मूल कारणों पर प्रकाश डालती हुई सुमन मेहरोत्रा लिखती हैं - ”वह चारों ओर से कटा हुआ है, उसे इस संसार में कहीं भी अपनत्व, स्नेह और सम्बन्ध नहीं मिल पाते हैं।वह अपने सुख में भी अकेला है, अपने दुख में भी अकेला। उसका अकेलापन, उसका अजनबीपन ही उसकी घुटन, उसके संत्रास का कारण   है।“[10]

समूचे ‘महासमर’ में भीष्म, दुर्योधन, द्रोण, कुंती, कर्ण आदि पात्र आधुनिक मानव की भाँति जीवन-भर वेदना व त्रास को ढोते दिखाई देते हैं। बचपन में माता-पिता का प्रेम एक साथ न मिल पाने के कारण भीष्म प्रेम से वंचित रह तड़पते रहे। वयस्क हेने पर पिता की अनुचित इच्छा हेतु अपने जीवन को दाँव पर लगा कर जीवन-भर व्यथित रहे। इसी प्रकार दुर्योधन सदैव अपना राज्य छिन जाने के भय से पीड़ित रहा और जीवन-भर वेदना व त्रास को अंगीकार किए रहा। उपन्यासकार लिखते हैं - ”पांडव वनों में मारे-मारे फिरते रहे......................... उनकी आत्मा का मल कटता गया.......... और दुर्योधन अपने प्रासाद में बैठा सुख भोगता हुआ भी ईर्ष्या और द्वेष से जलता रहा। ...... उसके मन में राज्य छिन जाने का भय और पांडवों के लौट आने का त्रास तांडव करते रहे।“[11]

वर्तमान युग गरीबी और विवशता का युग है। आधुनिक युग में प्रत्येक व्यक्ति कहीं-न-कहीं विवश है। विवशता में मनुष्य को न चाहने वाले कार्यों में भी प्रवृत्त होना पड़ता है।  ‘महासमर’ के पात्रों में भीष्म सर्वाधिक विवश हैं। शान्तनु, सत्यवती, धृतराष्ट्र और दुर्योधन-सभी उनकी विवशता का भरपूर लाभ उठाते हैं। इस सम्बन्ध में विदुर का कथन उद्धरणीय है - ”पितृत्व भीष्म भी स्वयं अपने बंधनों में बँधे सिंहासन के सम्मुख सर्वथा अक्षम हो गए      हैं।“[12]

भारतीय समाज में नारी सर्वाधिक विवश है। आज अम्बा, अम्बिका, अम्बालिका, कुन्ती और माद्री जैसी अनेक नारियाँ हैं जो विभिन्न प्रकार के बन्धनों में जकड़ी हुई, विवशता-भरी जिन्दगी जीने को बाध्य हैं। अम्बा और अम्बालिका के चरित्र में नारी-विवशता का चरम रूप दिखाई देता है, जब उन्हें माता सत्यवती की अनुचित आज्ञा की पालना हेतु अनिच्छापूर्वक पर पुरुष से नियोग के लिए तत्पर होना पड़ता हैं। इसी प्रकार द्यूतसभा के अवसर पर और जयद्रथ द्वारा हरण के समय नारी-विवशता का चरम रूप दिखाई देता है।

निष्कर्ष यह सत्य है कि प्रत्येक प्रबुद्ध रचनाकार अपनी समकालीन स्थितियों- परिस्थितियों से अवश्य प्रभावित होता है। यह कारण है कि प्रत्येक महत्वपूर्ण रचना अपने समाज का प्रतिबिम्ब होती है। वस्तुतः नरेन्द्र कोहली के कृष्ण-कथात्मक उपन्यास व्यक्ति, परिवार और परिवेश की स्थितियों में व्याप्त विसंगतियों के बीच जीते हुए जनसाधारण की कहानियाँ हैं। इन उपन्यासों में आज के आम भारतीय के जीवन के विभिन्न पक्षों को प्रस्तुत करते हुए जीवन की समस्याओं से जुड़े क्रूर एवं भीषण यथार्थ को चित्रित किया गया है। पौराणिक पात्रों को आधार बना, उनके आदर्श प्रस्तुत कर आधुनिक मानव की व्यथा को ही प्रस्तुत किया गया है। लेखक ने सामाजिक समस्याओं के चित्रण के साथ-साथ यह संकेत भी दिया है कि उन पात्रों से प्रेरणा ले कर हम समाज में व्याप्त विसंगतियों, शोषण व अपमान से मुक्ति पा सकते हैं। सही अर्थों में कोहली की कृष्ण-कथा एक ऐसी कथा है जो भारतीय जीवन-मूल्यों की आधारशिला पर खड़ी हो कर मानव को अपने अस्तित्व के लिए संघर्ष की प्रेरणा देती है। यह प्रेरणा जहाँ व्यक्ति को है, वहीं समाज और राष्ट्र के लिए भी उतनी ही सार्थक है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. महेन्द्रनाथ वर्मा, समाजशास्त्र, पृ0 29 2. शशि जेकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचारिकता, पृ0 17 3. नरेन्द्र कोहली, प्रत्यक्ष, पृ0 122 4. वही, अंतराल, पृ0 27 5. शशि जेकब, महिला उपन्यासकारों की रचनाओं में वैचाारिकता, पृ0 234 6. नरेन्द्र कोहली, प्रत्यक्ष, पृ0 366 7. वही, बंधन, पृ0 237 8. डॉ0 सुमन मेहरोत्रा, हिन्दी कहानियों में द्वन्द्व, पृ0 33 9. नरेन्द्र कोहली, अधिकार, पृ0 244 10. डॉ0 सुमन मेहरोत्रा, हिन्दी कहानियों में द्वन्द्व, पृ0 207 11. नरेन्द्र कोहली, निर्बन्ध, पृ0 205 12. वही, अधिकार, पृ0 333