ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
देवालयी संस्कृति का स्वरुप विकसित करने वाली लोक कलाएं
Folk Arts That Developed The Form of Devalay Culture
Paper Id :  17458   Submission Date :  14/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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हेमलता तिवारी
शोध छात्रा
ललित कला संकाय
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर,राजस्थान, भारत
तनुजा सिंह
प्रोफ़ेसर
ललित कला संकाय
राजस्थान विश्वविद्यालय
जयपुर, राजस्थान, भारत
सारांश मनुष्य का मन चंचल होता है, मन की गति की कोई सीमा अथवा रोक उसके पास नहीं होती, क्षण मात्र में विश्व के एक सिरे से दूसरी ओर घूम आता है। ऐसे चंचल मन को नियंत्रण में रखने के लिए धर्म के अतिरिक्त और कोई समर्थ नहीं है। अतः देवालय ही वह स्थान है जहां चंचल मन विश्रांति पाता है तथा संसार सागर से पार उतरने का अवसर प्राप्त करता है। देवालय भी देवता स्वरुप है एवं भगवान की भांति ही देवालय भी पूज्य है। संसार की संस्कृतियों में भारतीय संस्कृति सर्वाधिक प्राचीन तथा समन्वयकारिणी है और इस प्राचीनता को संजोये रखने में कला का प्रमुख स्थान रहा है। कलाएं ही है जो मनुष्य को जीवन्तता का आभास हर क्षण देती है। मानव सभ्यता की शुरुवात में पहले बीज कला के पड़े, इस प्रकार कलाएं सभ्यता के प्रथम दृष्टि में आयीं है। मानव ने अपने इतिहास के प्रारंभिक दिनों में जिस दैवीय शक्ति का अनुभव किया उसे कला के माध्यम से ही चट्टानों गुहा के भित्तियों आदि में अभिव्यक्त किया। ईश्वर के प्रति अपनी आस्था को व्यक्त करने का यह पहला उदाहरण था। आदिम जन से प्रारंभ हुई इस कला ने भारत के विभिन्न क्षेत्रों में व्याप्त जन जन की लोक कला शैलियों की आधारशिला रखी। भारतीय कला धारा प्रारंभ से ही धर्म और समाज से जुड़कर प्रवाहित होती रही है जिसमे मंदिर, देवालय अथवा देवस्थान इसका प्रमुख हिस्सा रहे है। साधारण जन तक धर्म की धारणा के विस्तार के लिए कला में नए प्रतीक, आकृतियाँ और नए माध्यम रचे गये। देव और देवालय का जो वर्तमान स्वरुप आज हम देख रहे है यह भी कलाकार की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति ही है। प्रारंभ में मनुष्य ने प्रकृति स्वरुप को चित्रित कर उसकी पूजा उपासना करी, विभिन्न रूप, भावों के माध्यम से लोक जन की भावनाओं को भी एकाकार किया इस प्रकार कला ने भिन्न भिन्न प्रकार से इस समाज के आध्यात्मिक उन्नति के भाव को, लोकधर्म को, लोक आदर्शों को फिर से लोगों के मन में स्थापित करने का कार्य किया। मनुष्य ने अपने आराध्य को सगुण रूप में देखने की लालसा से उसके सुन्दर रूप की कल्पना की तत्पश्चात अपनी कल्पना को साकार रूप देते हुए उसके विभिन्न लक्षणों से युक्त चित्र एवं मूर्ति का निर्माण किया एकाग्रचित होकर ईश्वर का चिंतन मनन करने के उद्देश्य से देवालय आदि का निर्माण कराया तथा निरंतर उस देवालय में इष्ट देव उपस्थित रहें इसके लिए उसने भजन, कीर्तन, नाट्य, संगीत, सजावट, चित्र सेवा जैसी लोक कलाओं को ढूंढ निकाला। यह सभी प्रकार की कलाएं मंदिर समाज को सकारात्मक उर्जा से संचालित करने का कार्य करती है साथ ही परिवेश में उपस्थित जन मानस में आध्यात्मिक भावना का संचार करती है। विभिन्न धार्मिक त्योहारों आदि में अनेकों प्रकार की चित्रकला, रंगोली, भित्ति चित्र आदि बनाकर अपनी भावनाओं को व्यक्त किया जाता है। देवालय मात्र देव प्रतिमा से नहीं अपितु उस परिवेश में समाहित लोक जन की धार्मिक, मांगलिक भावनाओं से अनुप्राणित होता है। समाज का सामान्य मनुष्य एवं उसकी अपने ईष्ट के प्रति आस्था व प्रेम, साथ ही इस प्रेम को प्रदर्शित करने हेतु उसके द्वारा किये गये धार्मिक कृत्य, कलायें यह सभी सम्मिलित रूप में देवालयी संस्कृति का निर्माण और उत्तरोत्तर विकास करते है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से देवालयी संस्कृति का स्वरुप विकसित करने में लोक कलाओं का क्या योगदान रहा है इसे वर्णित करने का प्रयास किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Man's mind is fickle, there is no limit or stop to the movement of the mind, it wanders from one end of the world to the other in just a moment. To keep such fickle mind under control, no one else is capable except religion. Therefore, the temple is the place where the fickle mind finds rest and gets the opportunity to cross the worldly ocean. The temple is also in the form of a deity and like God, the temple is also worshipable. Among the cultures of the world, Indian culture is the most ancient and co-ordinating and art has played a major role in preserving this antiquity. It is the arts that give man the feeling of being alive every moment. In the beginning of human civilization, the first seeds of art were laid, in this way arts have come in the first sight of civilization. The divine power experienced by man in the early days of his history was expressed through art in the form of rocks, caves, etc. This was the first instance of him expressing his faith in God. This art, which started from the primitive people, laid the foundation stone of the folk art styles of the people spread in different regions of India. Indian art stream has been flowing since the beginning by connecting with religion and society, in which temples, temples or temples have been a major part of it. New symbols, figures and new mediums were created in art to expand the concept of religion to the common people. The present form of God and Devalaya that we are seeing today is also the spiritual expression of the artist. In the beginning, man worshiped nature by portraying its form, through different forms and feelings, it also united the feelings of the people, in this way, in different ways, the art of the spiritual progress of this society, folk religion, folk Worked to re-establish the ideals in the minds of the people. With the longing to see his deity in a virtuous form, man visualized his beautiful form, then giving form to his imagination, created a picture and idol of him with various characteristics. He got the construction done and to ensure that the deity was constantly present in that temple, he found folk arts like bhajan, kirtan, drama, music, decoration, picture service. All these types of arts work to operate the temple society with positive energy, as well as communicate spiritual feelings to the people present in the environment. Various types of paintings, rangoli, murals etc. are used to express our feelings in various religious festivals etc. The temple is inspired not only by the idol of God, but also by the religious and auspicious sentiments of the people present in that environment. The common man of the society and his faith and love for his deity, as well as the religious acts done by him to show this love, the arts, all these jointly create and develop the Devalayai culture. Through the presented research paper, an attempt has been made to describe the contribution of folk arts in developing the form of Devalayai culture.
मुख्य शब्द संस्कृति, देवालय, लोक कला, धर्म, अध्यात्म, रंगोली, भित्ति चित्र।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Culture, Temple, Folk Art, Religion, Spirituality, Rangoli, Mural Paintings
प्रस्तावना
भारतीय संस्कृति को देव संस्कृति भी कहा जाता है, इसमें मनुष्य को एवं उसकी मनुष्यता को आदर्शनिष्ठ बनाये रखने के लिए हर स्तर पर प्रखर दर्शन और विवेक संगत परम्पराओं का ऐसा क्रम बनाया गया है वह स्वयं सहज रूप में प्रगति और सद्गति का अधिकारी बन सके। पौराणिक धर्म के प्रचार व मंदिरों की स्थापना, निर्माण ने वास्तु कला को चरम उन्नति प्रदान की और इस देश के उत्तर से दक्षिण तक के प्राचीन भूखंडों पर वास्तुकला के अप्रतिम उज्जवल उदाहरण प्रस्तुत किए। संस्कृति के मूल आधार स्थापत्य एवं शिल्प कला के प्रतिनिधि यहां के मंदिर भारत की संस्कृति के अनुपम उदाहरण है । भारतीय संस्कृति और मंदिरों की संस्कृति दोनों एक दूसरे में विलीन है। भारतीय संस्कृति से मंदिर अलग नहीं किये जा सकते। मध्यकाल में मंदिरों का महत्व अत्यधिक बढ़ गया। वह धार्मिक, सामाजिक शैक्षिक विकास के केंद्र बने। इस विचारधारा को मंदिरों के माध्यम से व्यवहारिक रूप प्रदान किया गया कि राष्ट्र के सर्वांगीण उन्नति हेतु देवालय सर्वाधिक उपयुक्त है। भारत एक ऐसा सांस्कृतिक प्रदेश है जहाँ प्रत्येक नए काम के प्रारंभ में मांगलिक कार्यों, धार्मिक पूजा पाठ आदि को संपन्न कराया जाता है, इन कार्यों के लिए कला प्रतीकों का सर्वथा उपयोग किया जाता है। प्रकृति के सर्वाधिक सुलभ साधनों को भी यहाँ कला माध्यम के रूप में प्रयोग किया गया है जैसे गोबर, गेरू, आटा, चावल, कहने का अर्थ है की माध्यम कोई भी हो उद्देश्य एक ही है। अपने आराध्य के प्रति श्रद्धा भाव से समर्पित किया गया अपना सर्वस्व अपनी कृतज्ञता बचपन से हम देखते आएं है की जब घर में पूजा हुआ करती थी तो माँ अथवा घर की महिलाओं द्वारा भित्ति, भूमि पर विशेष मांगलिक चिन्हों को उकेरा जाता था, मंगलकरता गणेश की आकृति बनाने हेतु गोबर का प्रयोग किया जाता था, हवनकुंड और वेदी के चहुँ ओर गेहूं अथवा चावल के आटे से स्वास्तिक, अष्टदलकमल आदि प्रतीको को बनाया जाता था इस कला में किसी विशिष्ट गुणों वाली शास्त्रीय अथवा अकादमिक शैली का प्रयोग नहीं होता है न ही यह बहुत बुद्धिवादी ही होती है, यह तो आम जन की सरल, सादगी भरे जीवन और विचारों को प्रकट करती है। यह अंकन ही लोक चित्रांकन है जिसे प्रतीक माध्यम में व्यक्त किया जाता है अर्थात प्रतीकों के माध्यम से एक व्यक्ति सम्पूर्ण मानव जाति की आस्था और विचारों को प्रकट कर देता है। लोक संस्कृति मनुष्य को आत्मीयता से लगातार भरती रहती है, जिससे वह न तो अकेला पड़ पाता है और न ही कुंठित हो पाता है। यही कारण है कि लोक संस्कृति ने कभी मनुष्य को पराजय बोध का शिकार नहीं होने दिया संसार को अधिक मानवीय बनाने में लोक संस्कृति का बड़ा योगदान है। हमारी भारतीय परंपरा में लोक शब्द से तात्पर्य सम्पूर्ण जगत से है, इसमें मात्र एक व्यक्ति की कल्पना नहीं की गयी है, इस प्रकार हमारी सनातनी धर्म के मूल संस्कार और विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम का वास्तव में उदाहरण लोक कलाओं में दिखलाई पड़ता है।
अध्ययन का उद्देश्य लोक संस्कृति मनुष्य को आत्मीयता से लगातार भरती रहती है, जिससे वह न तो अकेला पड़ पाता है और न ही कुंठित हो पाता है। यही कारण है कि लोक संस्कृति ने कभी मनुष्य को पराजय बोध का शिकार नहीं होने दिया संसार को अधिक मानवीय बनाने में लोक संस्कृति का बड़ा योगदान है। हमारी भारतीय परंपरा में लोक शब्द से तात्पर्य सम्पूर्ण जगत से है, इसमें मात्र एक व्यक्ति की कल्पना नहीं की गयी है, इस प्रकार हमारी सनातनी धर्म के मूल संस्कार और विचारधारा वसुधैव कुटुम्बकम का वास्तव में उदाहरण लोक कलाओं में दिखलाई पड़ता है। प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से कला और अध्यात्म के बीच एक जो गहरा सामंजस्य है उसे दिखलाने का लघु प्रयास किया गया है कि किस प्रकार देवालयी परंपरा ने कलाओं को संजोया है और कलाओं ने भी उनके उत्तरोत्तर विकास में अपने आप को और निखारा है।
साहित्यावलोकन

भारत में कितने ही पर्वत्यौहार है जिनमें अनेक रूपों में हम प्राचीन काल की घटनाओं का स्मरण करते है और भावनात्मक रूप से ईश्वर के अपने करीब होने का अनुभव करते है। विभिन्न तीज त्योहारों में महिलाएं परंपरागत रूप से चित्रित होते आये प्रतीक चिन्हों को बनाती है जिसका तात्पर्य अपने परिवार और समाज की सुखद जीवन कामना होती है। शशिप्रभा तिवारी द्वारा सम्पादित पुस्तक भारतीय कला दर्शन में श्यामसुंदर दुबे के एक लेख में उन्होंने बताया है कि मानव द्वारा निर्मित अपने सम्पूर्ण विकास के आध्यात्मिक-कलात्मक सरोकार संस्कृति में समाहित है। उसकी वे सभी क्रियाएं और सभी तरह के चिंतन,जो उसे निरंतर मानवीय बनाते जाते हैसंस्कृति के अंतर्गत आ जाते है। संस्कृति के साथ लोक जोड़ देने से लोक संस्कृति शब्द बन जाता है अंग्रेजी में इस लोक को फोक कहा जाता है। आज फोक कल्चर के पर्यायवाची शब्द के रूप में लोक संस्कृति शब्द का प्रयोग किया जाता है। इसको सामान्यतः ग्रामीण संस्कृति बोधक शब्द मान लिया गया हैजबकि भारतीय मनीषा में लोक को सम्पूर्ण जगत के रूप में स्वीकार किया है।

कला को संस्कृति की रीढ़ कहा गया है। लोक कला धर्म से सर्वाधिक प्रभावित है लोक कला विभिन्न रूपों में धर्म को पोषित करने का कार्य करती है। धार्मिक स्वरुप की कलाओं में भी विभिन्न प्रकार की कलाएं आती है जैसे भित्ति चित्रपट चित्रछवि चित्रग्रन्थ चित्र और भूमि चित्र देवालयी संस्कृति का स्वरुप विकसित करने वाली कलाओं में प्रमुख है सांझी कलापिछवई कलाफड़ चित्रणपट चित्रमधुबनी आदि।

मुख्य पाठ

सांझी कला एक प्रकार की लोक कला है जो प्रायः सम्पूर्ण भारत के विभिन्न क्षेत्रों में  अपने अपने तरीके से मनायी जाती है। यह कई अलग अलग नामों जैसे संझ्या, साँझा फूली, सान्झुलदे, सांझीकोट, झांझी, सिंझा, संज्या पर्व आदि से प्रचलित है बुंदेलखंड में इसे मामुलिया भी कहा जाता है। संस्कृत साहित्य में सांझी का मूल अर्थ है- श्रृंगार-सज्जा धार्मिक मान्यताओं के अनुसार पितृपक्ष में किसी भी प्रकार के शुभ कार्यों को करना वर्जित होता है किन्तु सांझी ऐसा पर्व है जो विशेषतः पितृपक्ष के समय ही मनाया जाता है। सांझी पेंटिंग, भगवान कृष्ण को समर्पित एक प्राचीन कला है, जो उत्तर प्रदेश के मथुरा और वृन्दावन के वैष्णव मंदिरों में सैकड़ों वर्षों से फली फूली है। इस कला की उत्पत्ति भगवन कृष्ण की जन्मस्थली ब्रज में हुई और इसके जरिये राधा कृष्ण के प्रेम को दर्शाया जाता है। सांझी को मंदिर के प्रांगण में और अक्सर गर्भगृह के बाहर बनाया जाता है और शाम के समय इसे भक्तों के दर्शनार्थ हेतु मंदिर पटों को खोल दिया जाता है। सांझी के विषय में अलग अलग धार्मिक मान्यताएं व लोक कथाएं प्रचलित है ऐसी मान्यता है की आश्विन माह में श्राद्धपक्ष के समय गांवों में हरियाली हो जाती थी श्री कृष्ण गाय चराने जाते थे तो जब वापस आते थे तो राधा सहित गोपियाँ उनके मार्ग में फूल, पत्तियों को  बिछा देती थी। इसी परंपरा को लोक मान्यता मिलने पर घर घर सांझी सजाई जाने लगी। अन्य मान्यता के अनुसार सांझी ब्रज की लोक देवी है तथा संभवतया गौरी-पार्वती का प्रतिरूप है जो संध्या के समय पूजे जाने के कारण सांझी कही जाती है। बुंदेलखंड में पुराने समय में सांझी का चित्रांकन करने के लिए एक चौकोर सीढी युक्त मिटटी का चबूतरा बनाकर इसके पास मिटटी की दीवारों से यमुना नदी बनाते है। उसमे पानी भर दिया जाता मिटटी के चबूतरे पर सांझी चित्रांकन किया जाता है। इसमें फूल पट्टी बेल की अलंकारिक आकृतियों के साथ कुछ विशेष चित्र भी प्रतिदिन बनाये जाते है। दतिया में कागजी साँचों से भी सांझी तैयार की जाती है। सांझी कला का प्रदर्शन अन्य प्रकार से भी होता है। परातों में पानी भरकर उस पर पिसी सेल खड़िया धीरे से डालकर उस पर कागजी सांचों से रंग बिछाकर सुन्दर सांझी तैयार की जाती है इसी प्रकार परात की तह में तैलीय रंगों से सांझी चित्रण कर सूखने पर ऊपर से पानी भर देते है। बुंदेलखंड आदि स्थानों में यह गोबर, मिटटी से बनाई जाती है।

यह वस्तुतः कौमार्य व्रत की परम्परा है अर्थात यह कुंवारी कन्याओं द्वारा संध्या के समय बनायीं जाती है जिसके पीछे का उनका उद्देश्य शुभ मंगलकारी जीवन व आगामी जीवन में अच्छे वर की प्राप्ति है। यह कला पर्व किशोरियों को अपने कलात्मक गुणों को निखारने का एक अवसर प्रदान करता है साथ ही उनके ईश्वर के प्रति आध्यात्मिक भावों को भी जागृत करता है। भूमि पर बनने वाली सांझी में पहले भूमि पर खड़िया अथवा कोयले से बाह्य रेखांकन कर, कागज के विभिन्न खांको को भूमि पर रख कर, इन पर सूखे रंगों को बुरक कर छाना जाता है, तदुपरांत खांकों को सावधानीपूर्वक हटा लिया जाता है। इस प्रकार से भूमि पर रंगोली की भांति सांझी तैयार हो जाती है। तैयार हो जाने पर यह सुन्दर  दृश्य की तरह प्रतीत होती है। किन्तु वर्तमान समय में आधुनिकता के बढ़ते दौर में अब यह कला प्रदेश के कुछ क्षेत्रों तक ही सीमित रह गयी है। चूँकि गाँव आदि जगहों पर भी अब कच्चे व गोबर से लिपे घरों का अभाव है अतः लोग गोबर आदि का प्रयोग न करके बाजारों में छपे छपाए चित्र आदि जो आसानी से उपलब्ध है तो अब उन्हीं का प्रयोग पूजा उपासना में किया जाता है।


दैवीय लोक कला के इसी क्रम में और भी लोक कलाएं है जिनमे नाथद्वारा की पिछवाई कला का महत्व अत्यधिक है। पुष्टिमार्गीय वल्लभ संप्रदाय की प्रमुख प्रधान पीठ है। नाथद्वारा यहाँ की प्रत्येक सामाजिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में कभी आनंद झलकता है तो कभी प्रेम भाव। यहाँ आनंद और भाव का जब मिलन होता है तो एक विशेष शैली बनती है, जिसे हम नाथद्वारा शैली कहते है। नाथद्वारा शैली का चित्रकला सौन्दर्य अपने आप में अप्रतिम है जो विशेषतः भगवान कृष्ण की भक्ति पर आधारित है। मेवाड़ में कृष्णोपासना के चित्रांकन की विशिष्ट परंपरा रही है। कलाकार पीढ़ियों से वल्लभ सम्प्रदाय की विचारधारा को अपनाकर कला का सृजन कर रहे है। जब औरंगजेब ने अपने शासनकाल में धर्म विरोधी नीति अपनाई तो उसने हिन्दू धर्म के सभी मंदिरों को तोडना शुरू किया। हिन्दू पूजा घरों, मंदिरों, धार्मिक स्थलों की तोड़फोड़ की आज्ञा से समाज में तहलका मच गया औरंगजेब जैसे बादशाहों की अनुदार नीति के कारण मुगल साम्राज्य के सीधे आधिपत्य वाले नगरों से आचार्यों ने सुरक्षा की दृष्टि से अपनी आराध्य मूर्तियों को हटाकर देशी रियासतों के राजाओं के संरक्षण में ले जाना श्रेयस्कर समझा गोवर्धन पर्वत पर स्थित वल्लभ संप्रदाय के प्रमुख मंदिर के श्रीनाथजी के विग्रह को लेकर वहां के गोस्वामी श्री दामोदर तथा उनके चाचा गोविन्द जी 30 सितम्बर, 1669 को गोवर्धन से निकल कर जब राजस्थान पहुंचे तो राजा राज सिंह (1652-1680) ने इस मूर्ति का मेवाड़ में सहर्ष स्वागत किया और इसकी स्थापना अपने शासन काल के दौरान सीहाड़ गाँव में भव्य समारोह के साथ करी थी और तब से यह स्थान नाथद्वारा कहलाने लगा। मथुरा के गोवर्धन व आस पास के स्थानों के कुछ भक्त कलाकार भी श्रीनाथजी के साथ नाथद्वारा आ गये जिन्होंने श्रीनाथजी के विग्रह के अलग अलग रूप और भावों का चित्रण करना शुरू किया। मुगलों की अधीनता न स्वीकार करते हुए उन्होंने अपनी धर्मप्रियता का परिचय दिया था तभी से पिछवाई चित्रों की एक नयी परंपरा का प्रचलन शुरू हुआ।

पिछवाई चित्र एक प्रकार के पर्दा चित्र है जिन्हें वैष्णव पुष्टि मार्ग संप्रदाय के मंदिर में देवी देवताओं की प्रतिमा के पार्श्व में लगाया जाता है अर्थात श्री नाथजी स्वरुप के पीछे लगने वाली कपडे पर बनी पेंटिंग को पिछवाई कहा जाता है। इस वल्लभ संप्रदाय का प्रमुख मंदिर श्री नाथ जी का है, जो नाथद्वारा (उदयपुर के निकट, राजस्थान) में स्थित है। श्री नाथ जी जो श्री कृष्ण का बाल विग्रह रूप हैए पिछवाई कला के केन्द्रीय विषय के रूप में रहते है। पुष्टिमार्ग में प्रभु की पूजा अर्चना को सेवा कहा जाता है। कृष्ण सेवा का वास्तविक अर्थ है- चित्त को प्रभु में तल्लीन करना पुष्टिमार्गीय भगवत सेवा में साहित्य, संगीत, शिल्प, स्थापत्य, चित्र, पाक, सज्जा, आरती आदि समस्त कलाओं का समावेश हो जाता है। चित्रकला को भी पुष्टिमार्ग में बहुत प्रोत्साहन मिला पुष्टिमार्गीय चित्रकला का उद्गम ब्रज क्षेत्र है और उसके केंद्र ब्रजराज श्री कृष्ण है, इसलिए उस पर ब्रज संस्कृति का गहरा प्रभाव होना स्वाभाविक है। पुष्टिमार्गीय चित्रों कृष्ण-लीला के असंख्य चित्र मिलते है, जिनमें व्यक्ति चित्रण के साथ प्रकृति चित्रण और लोक जीवन का भी अंकन है। भगवत सेवा में हाथ-कलम से चित्रित चित्र ही मान्य है। सेव्य स्वरूपों के पीछे कलात्मक चित्रांकन वाली पिछवाईयां लगाई जाती है, जिनमें कृष्ण-लीला, पर्व, उत्सव आदि का चित्रण होता है। ३०० वर्ष से अन्नकूट की दृश्यावली वाली पिछवाईयों में त्रिआयामी अंकन हो रहा है। यह चित्रशैली मेवाड़ शैली की की उपशैली है। भगवान कृष्ण ने अपनी आनंदमयी सरस लीलाओं और लोकोपकारी क्रिया-कलापों से भारतीय जन जीवन को जितना प्रभावित किया उतना अन्य किसी महापुरुष ने नहीं यही कारण है कि उनको पुरुषोत्तम ही नहीं वरन परब्रह्म कहा गया। ब्रज और मेवाड़ की समन्वित शैली के साथ ही कलाकारों ने कृष्ण के जीवन से सम्बंधित अनेक चित्र बनाये श्रीनाथजी के प्राकट्य एवं रसमय लीलाओं तथा अष्टयाम की सेवा पूजा के रूपांकन कागज और कपडे पर बनने लगे। मूलतः पिछवाईयां श्रीनाथजी के उत्सवों तथा कृष्ण लीलाओं के विषयगत रूपों के लिए तैयार की जाती है। परम्परागत शैली के रूप में यहाँ रागमाला, बारहमासा, कृष्ण चरित्र के चित्रों की प्रधानता है। अधिकांश चित्रों में ब्रज की पावन भूमि का प्रभाव यथा प्रवाहित पतित पावन यमुना का प्रवाहमान शीतल जल में खिले कमल पुष्प, मनोहारी मोर और पवित्र गायों का चित्रण अवश्य मिलता है।

इन चित्रों को सूती कपड़ों पर अस्तर लगाकर, विभिन्न खनिज वानस्पतिक एवं सोने के रंगों द्वारा बनाया जाता है। विषय वास्तु के अनुरूप सर्वप्रथम गेरू रंग व बारीक कलम की सहायता से रेखांकन का खाका बना लिया जाता है। आकृतियों में रंगों को भरने के बाद वस्त्र आदि को रंगांकित कर स्वर्ण रंग के प्रयोग से आभूषण व अलंकरण बनाये जाते है। अंत में गहरे रंग और तूलिका की सहायता से पक्की लिखाई की जाती है। पिछवाई में रंगों को टिकाऊ तथा चमक को बनाये रखने के लिए हकीक के पत्थर से घुटाई की जाती है। सोने की कलम का काम इन चित्रों की अलग ही विशेषता है पिछवाई चित्रण मात्र केवल एक कला का रूप नहीं है अपितु यह भक्त स्वरुप कलाकार की अपने आराध्य के प्रति प्रकट की गयी सेवाभाव भक्ति है जिसमे वह अपना तन और मन को पूर्णतः समर्पित कर तैयार करता है। समर्पण और सेवाभाव के द्वारा की गयी भक्ति नवधा भक्ति का एक बहुत ही पवित्र स्वरुप है।

भारतीय समाज में वैष्णव धर्म की परम उपासना का बड़ा महत्व रहा है। समाज में वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के लिए कलाओं का सहारा लिया गया है और कला ने धर्म के गूढ़तम रहस्यों और लक्षणों को अर्थ निरूपण में सहयोग देकर अग्रसर किया विशिष्ट उत्सवों पर मंदिर की दीवारों पर भित्ति चित्र, कागज व कपड़े पर बने लघु चित्र में श्रीनाथजी की लीलाओं का अंकन नाथद्वारा शैली की निजी विशेषताओं को दर्शाता है।

कला और अध्यात्म के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध को दर्शाती हुई एक लोक कला उड़ीसा की पट्टचित्र कला है। पट्टचित्र ओडिशा के समृद्ध कला और संस्कृति का प्रतीक है। उड़ीसा के रघुराजपुर, चंदनपुर (पुरी के निकट) स्थान में कपड़े, रेशमी वस्त्र, ताड़- पत्र एवं कागज पर पट चित्र बनाने की प्राचीन परम्परा है संस्कृत में पट्टा का अर्थ है। कपड़ा जबकि चित्र का अर्थ है पेंटिंग। जैसा कि नाम से पता चलता है, पट्टचित्र एक प्रकार की स्क्रॉल पेंटिंग है, जो पारंपरिक रूप से कपड़े पर की जाती है। इन पट (पट्ट) चित्रों के विषय भी धार्मिक साथ ही सामाजिक भी होते है। भगवान जगन्नाथ की उपासना की परम्परा में पटचित्र का उपयोग उस अवधि में पूजा- अर्चना हेतु किया जाता है। जब अनुष्ठानिक स्नान की रीति निर्वाहन के लिए जगन्नाथ जी के मंदिर के द्वार बंद कर दिये जाते है। इस समय यह चित्र, मूर्ति के पर्याय रूप में प्रयुक्त किये जाते है। इन चित्रों का निर्माण सूती कपड़े की दो परतों को लेही द्वारा में चिपका कर तैयार की गयी सतह पर किया जाता है। कपड़े से इस प्रकार तैयार की गयी सतह पट या पट्ट कहलाती है, इसी कारण यह चित्र, पटचित्र कहलाते है। विद्वानों के अनुसार इस चित्रण शैली में लोक एवं शास्त्रीय दोनों ही तत्वों का समावेश है तथा इन्हें बनाने में भुबनेश्वर, पुरी एवं कोणार्क के मंदिर एवं प्रासादों में बनाये गये म्यूरल चित्रों से प्रेरणा ली गयी है।

आरंभ में जो पटचित्र बनाये जाते थे। वे आज बनाये जाने वाले पट्चित्रों जैसे नहीं होते थे। इनका आकार बहुत छोटा रखा जाता था और इनपर केवल जगन्नाथ, सुभद्रा एवं बलभद्र का चित्रांकन किया जाता था। पुरी के जगन्नाथ मंदिर के तीर्थ परिसर को दर्शाने वाले चित्र ठिया बढ़िया चित्र कहलाते थे। उड़िया भाषा में ठिया का अर्थ है खड़ा आयताकार और बढ़िया का अर्थ हुआ सुन्दर, इन चित्रों का प्रारूप लगभग निश्चित होता है तथा इनमे पुरी और वहां स्थित जगन्नाथ मंदिर के प्रत्येक महत्वपूर्ण स्थान एवं घटना को दर्शाया जाता है।

पटचित्रों को मजबूती देने के लिए इन्हें कुछ मोटे सूती कपड़े से बनाये गये पट पर चित्रित किया जाता था तथा अंत में उनपर गर्म लाख का लेप कर दिया जाता था ताकि वे पानी से खराब न हों चित्र पर लाख चढाने की यह प्रक्रिया जाऊ साल कहलाती है। यह चित्र अधिकांशतः पुरी, रघुराजपुर एवं डंडासाही गांवों में बनाये जाते थे और इन्हें स्त्रियाँ बनाती थी।

जगन्नाथ मंदिर के चार द्वार है, सामने पूर्व दिशा की ओर मुख्य सिंहद्वार, दाहिनी ओर अर्थात उत्तर दिशा में हाथीद्वार, बांयी ओर अर्थात दक्षिण दिशा में घोडा द्वार तथा पीछे की ओर पश्चिम दिशा में बाघ द्वार। सामान्यतः ठिया बढ़िया चित्रों में स्थान की कमी के कारण केवल सिंहद्वार ही दर्शाया जाता है। चित्र में चारों ओर बनाया गया बॉर्डर मंदिर की बाहरी चारदीवारी जिसे मेघनाद पाचिरी कहते है, को दर्शाता है।

इन पट्ट चित्रों की सतह तैयार करने के लिए इमली के बीज को भिगोकर, पीसकर, पकाकर लेई बनाते है, तत्पश्चात दो कागज को या कपड़ों के दो टुकड़ों को आपस में इस लेई के द्वारा चिपका देते है। फिर इसे धूप में सुखाकर, इसमें लेई तथा चाक पाउडर का अस्तर करते है। सतह सूख जाने के पश्चात सतह को चिकना करने हेतु विशेष प्रकार के पत्थर से सतह को घिसते है। यह चित्र परम्परागत लोक शैली में बनाये जाते है। इनका अंकन सामूहिक रूपों में किया जाता है। प्रायः यह विभिन्न खण्डों में कथा या प्रसंग अनुरूप विभाजित होते है। प्रत्येक चित्र के चारों ओर लघु चित्रों की श्रृंखला बनी रहती है। पट्टचित्र को चित्रित करने के लिए उपयोग किये जाने वाले रंग पूरी तरह से प्राकृतिक है। किन्तु अब सुविधानुसार रासायनिक रंगों का भी प्रयोग होने लगा है। पट्टचित्रों का मुख्य विषय स्थानीय देवता जगन्नाथ है और यह कला मुख्य रूप से पूजा और अनुष्ठानो से जुडी है। इसके अतिरिक्त चित्रों के विषय भगवान जगन्नाथ के विविध रूपों का वर्णन, चैतन्य महाप्रभु, गणेश जी के विभिन्न रूप, श्री राम एवं श्री कृष्ण के विभिन्न प्रसंग, महिषासुर मर्दिनी, दशावतार आदि पर आधारित होते है।

ओडिशा के अलावा यह कलाकृति पश्चिम बंगाल में भी व्यापक रूप से प्रचलित है और दोनों संस्करणों को भौगोलिक संकेत टैग से सम्मानित किया गया है। इस बीच, इस आकर्षक कला के घर रघुराजपुर शहर को वर्ष 2000 में इंडियन नेशनल ट्रस्ट फार आर्ट एंड कल्चरल हेरिटेज द्वारा विरासत गाँव घोषित किया गया है।

निष्कर्ष भारतीय संस्कृति त्याग, साधना और चिंतन की संस्कृति है। लोक कला आज अपने गौरवशाली अतीत के कारण ही नहीं, अपनी वर्तमान लोक प्रियता एवं उपयोगिता के कारण भी उपादेय तथा महत्वपूर्ण है। लोक कला हमारे जीवन में जितना अधिक प्रचार प्रसार हो उतना ही राष्ट्रीय सुख - समृद्धि और सांस्कृतिक चेतना के जागरण में उसके द्वारा सहायता हो सकती है। भारतीय कला का धार्मिक पक्ष सदैव प्रबल और जीवंत रहा है। धर्म का क्षेत्र इतना व्यापक है, कि जीवन का कोई आदर्श या उद्देश्य इसकी परिधि से परे नहीं है। श्रेष्ठ कला सृजन के लिए कलाकार के चित्र में धार्मिक संस्कारों का समुच्चय परम आवश्यक है। कला की उन्नति धर्म और सौन्दर्य बोध से होती है, धर्म ही एक ऐसा साधन है जिससे कलाकार प्रकृति के सौंदर्य में छुपे गूढ़ रहस्यों का साक्षात्कार करता है। जिस प्रकार बिना आत्मा के शरीर निष्प्राण है, उसी प्रकार बिना धर्म और दर्शन के कला निर्जीव प्रतीत होती है। धर्म और कला का सम्बन्ध चिरकाल से चला आ रहा है। कला और धर्म ने साथ साथ चलते हुए समाज में उच्च आदर्शों का प्रचार प्रसार किया है एवं व्यक्ति विशेष को अपने अध्यात्म और ईष्ट के प्रति प्रेम जागृत करने में विशेष सहयोग भी प्रदान किया है। समाज का सामान्य मनुष्य एवं उसकी अपने ईष्ट के प्रति आस्था व प्रेम, साथ ही इस प्रेम को प्रदर्शित करने हेतु उसके द्वारा किये गये धार्मिक कृत्य, कलायें यह सभी सम्मिलित रूप में देवालयी संस्कृति का निर्माण और उतरोत्तर विकास करते है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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