ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
मध्यकालीन साहित्य में नारी विमर्श
Feminism in Medieval Literature
Paper Id :  17218   Submission Date :  10/03/2023   Acceptance Date :  18/03/2023   Publication Date :  23/03/2023
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सोनम रानी
सहायक प्रोफेसर
कला विभाग
श्री सिद्धिविनायक कॉलेज
हनुमानगढ़, राजस्थान, भारत
सारांश ’नारी विमर्श’ यह शब्द परिचय में "Feminism" का हिन्दी पर्याय हैं। लेकिन भारतीय व पाश्चात्य साहित्य में नारी विमर्श की भिन्न-भिन्न अवधारणा हैं। भारतीय सभ्यता में अनेक रुढियॉ व परम्पराएं है और इनमें से अधिकांश रीति-रिवाज व परम्पराएं नारियों से ही सम्बन्धित हैं। भारतीय समाज में परम्पराओं व संस्कृति के आधार पर जितने बंधन हैं वे नारी पर ही लागू होते हैं। हिन्दी साहित्य के आरम्भिक युग में नारियों का योगदान कमतर ही था। अधिकांश कवि पुरुष वर्ग के ही थे। क्योंकि आरम्भिक युग में व मध्यकालीन युग में चारण भाट जाति ही कवि/लेखक के रुप में अपने आश्रयदाता राजा की प्रंषसा युक्त काव्य रचना करते थे और इसी कार्य से उनका गुजर-बसर होता था।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In medieval literature Women's discussion is equivalent of "Feminism". But in Indian and Western literature, there are different approaches to women's discourse. There are many customs and traditions in Indian civilization and most of the customs and traditions are related to women only.
Contribution of women in the early period of Hindi literature was less. Most of the poets belonged to the male class only. Because in early age, in Medieval period, only Charan/Bhats used to compose poetry in the form of poet/writer to praise of his patron king.
मुख्य शब्द साहित्य, अवधारणा, आश्रयदाता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Literature, Concept, Shelter.
प्रस्तावना
स्त्री विमर्श उस साहित्यिक आंदोलन को कहा जाता हैं जिसमें स्त्री अस्मिता को ध्यान में रखकर संगठित रुप से स्त्री साहित्य की रचना की। हिन्दी साहित्य में स्त्री विमर्श अन्य अस्मितामूलक विमर्शो के भांति ही मुख्य विमर्श रहा है। जो कि लिंग विमर्श पर आधारित है। कुछ लोग इसे पश्चिमी साहित्य का अविष्कार कहते है। मगर यह सही नहीं है। यह अत्यन्त गंभीर व नाजुक विषय है। इसे लेकर हमारे यहॉ पिछली आधी सदी से अलग वैचारिकता बनी हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य मध्यकालीन साहित्य में नारी विमर्श का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
पश्चिम की विद्वान इस्टेल फ्रडमेन ने निम्न शब्दो में परिभाषित किया है:-

Feminism is a belief that although women and men are inherently of equal worth, most ties privilege men as a group. As a result social movements are necessary to achieve political equality between women and men, with the understanding that gender always intersects with other social hierarchies.

"अर्थात् पुरुष व स्त्री सम महत्व रखते है। अधिकांश समाजों में पुरुष को वरीयता देते है। स्त्री-पुरुष समानता के लिए सामाजिक आंदोलन जरुरी है। क्योंकि लिंगाधारित अंतर अन्य अतः सामाजिक परम्पराओं में प्रवेश करता है तो यह निश्चित है कि यह चिन्तन अन्याय के विरुद्ध हैं।"

मुख्य पाठ

प्राचिन हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श

हमारे भारतीय समाज में हमेशा से ही नारी की आजादी का प्रश्न एक प्रमुख मुद्दा रहा है। किसी भी समाज की सभ्यता व संस्कृति का ज्ञान उसके साहित्य से होता है। साहित्य को निर्मित करने वाला एक मात्र प्राणी मनुष्य है। हिन्दी के अनेक साहित्यकारों ने साहित्य शब्द को स्पष्ट करने का प्रयास किया है। हिन्दी साहित्य के प्राचीन साहित्य में  महिला साहित्यकारों का अभाव रहा है। वीरगाथा काल का अधिकांश साहित्य पुरुष प्रधान साहित्य है। और उनके रचनाकार भी अधिकांश पुरुष ही हैं। प्राचीन हिन्दी साहित्य में नारी का योगदान, नारी का जीवन बहुत ही संघर्ष से विरत है। महिला साहित्यकारों के लिए सबसे पहले बाहरी संदर्भो में उसका आंतरिक समय होता हैं, जहॉ वह जीती और सांस लेती है, और वहीं दूसरी ओर समय की चुनौतियॉ जिससे वे बिलकुल परे होती हैं। महिला साहित्यकारों के जीवन में अनेक संघर्ष होते है। उनकी राह आसान नहीं होती, उनकी राहों में बहुत सी दुविधा है। वैसे भी प्राचीन काल में तो महिलाओं कि स्थिति समाज में बहुत ही दयनीय थी। उन पर अनेक तरह के रोक-टोक व प्रतिबन्ध थे। महिलाएं केवल भोग का साधन थी और उनकी सीमा केवल घर की चारदीवारी तक ही सीमित थी।

समय के साथ समाज व समाज की स्थिति में परिवर्तन हुए। साहित्य लेखन का केन्द्र बिन्दु बदल गया। साहित्य जो केवल पुरुषों (राजाओं) की प्रशंसा में ही लिखा जाता था, उसी साहित्य की विषय-वस्तु में परिवर्तन हुए। बाहरी  आक्रमण व युद्ध के कारण राजनैतिक, सामाजिक, आर्थिक परिवर्तन प्रारम्भ हुए। तब समाज में चारों तरफ निराशा के भाव थे। निराशा व त्रस्त जनता ने ईश्वर की भक्ति को आधार बनाया।

'भक्ति' की अवधारणा दक्षिण भारत से आरम्भ हुई, वहॉ पर आलवार सन्तों की भक्ति की अवधारणा शुरु की। तथा उत्तर भारत में रामानन्द जी ने हरि भक्ति को लाया। मध्यकाल में जनता भक्ति की ओर उन्मुख हुई। तत्कालीन साहित्य भी भक्तिकालीन साहित्य था।

मध्यकालीन हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श

स्त्री विमर्श भारतीय स्थितियों और हिन्दी साहित्य में पहली बार मध्यकाल (भक्तिकाल) में मीराबाई के काव्य में और उनके व्यक्तित्व में दिखाई पड़ता हैं। और उनकी रचनाओं का मध्यकाल में महत्वपूर्ण प्रभाव हैं। महान कवयित्री मीराबाई ने अपने भजनों में विरह की व्याकुलता और अपने ईश्वर से मिलने की अटूट् इच्छा व्यक्त हैं। मीरा बाई 15 वीं शताब्दी की एक एसी विद्रोहिणी प्रतिभा थी जिसने नारी अस्मिता का अभूतपूर्ण इतिहास लिखा था।

"मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरो न कोई, जाके सिर मोर-मुकुट मेरो पति सोई,

अब तो बात फैल गई जाने सब कोई।"

तत्कालीन रुढ़िवादित और परम्पराओं व रीति-रिवाजों से बंधे हुए समाज में जब यह बात फैली तो न जाने  मीराबाई के विरुद्ध कितने सामाजिक ज्वालामुखी फटे होंगे, और न जाने कितने तूफान आये होंगे। लेकिन फिर भी मीराबाई अपनी भक्ति के प्रति अटूट् थी। अनेक विरोधो व व्याघातो के बावजूद उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण के प्रति अपनी भक्ति कम नहीं होने दी। उनका प्रेम व उनकी भक्ति दिन-प्रतिदिन बढ़ती ही चली जा रही थी। मीराबाई के साहित्य के कई सौ वर्षो के बाद यह स्त्री चेतना की लहर हमें 20 वीं शताब्दी में नजर आती है। यह पुनर्जागरण की लहर स्त्री विमर्श, स्त्री साहित्य व स्त्री चेतना के रुप में समाज में व्याप्त हो गई।

श्रीकृष्ण के प्रति मीरा का प्रेम दाम्पत्य प्रेम था। वह श्रीकृष्ण को अपने पति के रुप में स्वीकार करती थी। उनकी रचनाओं में श्रृंगार रस के दोनों पक्षो संयोग व वियोग का सुन्दर चित्रण हुआ हैं। कृष्ण के सुन्दर रुप का वर्णन करते हुए मीरा कहती हैं:-

"बसो मेरे नैनन में नन्दलाल सांवरी सूरत मोहिनी मूरति नैना बने बिसाल

छुद्र घटिका कटि तट सोभित उर बैजंती माल।"

मीरा की तरह भक्तिकाल में अनेक महिला साहित्यकारों का महत्वपूर्ण योगदान रहा हैं। इनमें रायप्रवीन, ताजप्रताप, कुंवरबाई, सुन्दरबाई, सुन्दर कुंवरबाई, चंद्रकला बाई, अक्कामहादेवी, ललद्य आदि। इनमें संत कवयित्रियों में बाबरी साहिबा, दयाबाई, सहजोबाई जैसे कवयित्रियों ने हिन्दी के विकास में अपना योगदान दिया।

"बावरी रावरी का कहिये मन हयै के पतंग भरे नित भंवरी

भंवरी जानहि संत सुजान जिन्हें हरिरुप हिये दरसावरी।"

महान् कवयित्रियों में त्रेयीका यह स्वर आज भी हमारी भाषा और भाव का एक अविभाज्य अंग हैं।

"असतो मा सद्गमय। तमसो मा ज्योतिर्गमय। मृत्योर्मा अमृतगंमय।" परन्तु इन सबसे विपरीत मध्यकाल में सतीप्रथा, बालविवाह एवं विधवाओं को हेय दृष्टी से  देखना जैसी अनेक कुरीतियाँ पनपने  लगी।

"साहित्य समाज का दर्पण हैं।" समाज की बुराईयों का पर्दाफाश करने तथा उसे सुधारने में साहित्य का बड़ा योगदान रहता है। नारी की उपेक्षित अवस्था में अनेक महिला साहित्यकारों को जन्म दिया। संस्कृत भाषा से लेकर आज तक लगभग सभी भाषाओं में इन लोगों ने अपनी लेखनी चलाई हैं और पुरुष साहित्यकारों की तरह प्रशंसा और सम्मान प्राप्त किया हैं।

प्राचीन भारतीय समाज नारी को बहुत सम्मान देता था। उस समय नारी की तुलना देवताओं से की जाती थी। जैसे विद्या, बुद्धि, विभूति और शक्ति के रुप में क्रमश: सरस्वती, लक्ष्मी एवं पार्वती या दुर्गा का पूजन होता था।

स्त्री द्वारा रचा गया समस्त साहित्य अधिकतर श्रुति-परंपरा में ही मिलता हैं, वजह स्त्री को शिक्षा से दूर रख जाना, वैदिक समय में कुछ विदुषियों के नाम स्मृत इतिहास में दर्ज है, जिनमें "रोमशा, लोपामुद्रा, श्रद्धा, कामायनीथमीवैवस्वती, पौलोमी शची, विश्ववारा, अपाला, घोशा, सुर्या, शाष्वती, ममता एवं उशिज आदि ऋषिकाओं के नाम मन्त्र-दृष्टा के रुप में प्राप्त होते हैं।"

मध्यकाल में कवयित्री ताज कृष्ण के प्रेम में पड़कर अपने धर्म तक को छोड़ देने से नहीं चूकती। प्रेम जीवन का ऐसा तत्व है जो स्त्री को स्वतन्त्रता देता है, और प्रेम यदि ईश्वर से हो जाए तो मनुष्य सब कुछ छोड़ ही देता है, ताज कहती है-

"नन्द के कुमार, कुबनि ताणी सूरत पर, हौं तो तुरकानी हिन्दुआनी हौ रहूंगी मैं।"

मीरा की तरह प्रताप बाला ने भी कृष्ण भक्ति को अपनाया और उसके प्रेम में रंग कर अपने को धन्य माना  साधारणतः इनकी रचनाएं अच्छी हैं, और उनमें इनकी भक्ति-संलग्नता दिखाई देती है, वे लिखती हैं-

"सखी री चतुर श्याम सुन्दर सों मोरी लगन लागी री

लाख कहो अब एक ण मानूं उनके प्रीति मगी री।"

ऐसी मान्यता है कि पुरुषों ने ही चारण कार्य किया है किन्तु मध्यकालीन साहित्य में उपस्थित अनेक महिला साहित्यकारों ने इस धारणा को बदल कर हिन्दी साहित्य में अपना अमूल्य योगदान दिया।

मध्यकाल में सबसे दयनीय स्थिति नारियों कि थी। डॉ. आशीर्वादी लाल श्रीवास्तव ने कहा कि ’’सल्तनत काल में स्त्रियों की दशा बहुत खराब हो गई हैं, परन्तु इस काल में भारत से बाहर दूसरे देशों में स्त्रियों की दशा अपेक्षाकृत बहुत अच्छी थी।"

वैराग्यमूलक धर्मो में नारी के लिए विभिन्न निंदासूचक विशेषणों का प्रयोग किया गया। नारी के लिए अनृत, साहस, माया, मूर्खता, लोभ आदि को स्वभावज कहा गया। कृष्ण भक्त कवियों में राधा की प्रतिष्ठा होने के कारण स्त्रियों के प्रति थोड़ी सम्मान की भावना जाग उठी थी। इसीलिए सूर की गोपियॉ कृष्ण की निष्ठुरता पर उपालम्भ दे सकी थी।

मनुस्मृति में इस बात को माना है कि धर्म, संपति, संतानोप्पत्ति और रति तीनों में स्त्री और पुरुष समान, अभिन्न तथा अविच्छेद हैं। स्त्री के बिना गृह व पुरुष दोनों ही अधूरे हैं। एक स्त्री ही भवन को घर बनाती है।

मध्यकाल का पूरा युग नारी के पतन व गिरावट का युग हैं। नारी-जाति के उत्थान के लिए पहला प्रयत्न वैष्णव भक्त कवियों ने धार्मिक आंदोलन किया। आगे चलकर इस दिशा में दो धारांए सामने आई- एक वैष्णव पंथी व  दूसरी रामानन्द पंथी। जिन्होंने स्त्रियों को महिमामड़ित किया। नारी को महिमामड़ित करने के लिए ब्रह्मांड़ में कृष्ण-उपासना की दृष्टि से एक पृथक् सखी संप्रदाय का उदय हुआ। मध्यकालीन युग आक्रामक मुस्लिम शासन के अत्याचार, नारी अपहरण तथा बलात्कार का युग था। हिन्दु समाज अपने अंधविश्वास में डूबा हुआ था।

अतः तुलसीदास ने सद्भावना और दुभावना को कसौटी बनाकर स्त्रियों की सामाजिक स्वीकृति का मार्ग प्रशस्त किया। नारी मान्यता की दृष्टि से तुलसी बडे़ उदार दृष्टिगत होते है।

हिन्दी पद्य व गद्य में नारी विमर्श

समाज मे दो पहलू स्त्री व पुरुष एक-दूसरे के पूरक हैं। किसी एक के अभाव में जीवन में दूसरे का अस्तित्व ही नहीं हैं। फिर भी पुरुष वर्ग ने स्त्रियों को समाज में अपने बराबर की समानता से वंचित रखा। इसी भेदभाव व पक्षपातपूर्ण व्यवहार ने स्त्रियों को अपने हक के लिए लड़ने के लिए मजबूर कर दिया व यहीं मजबूरी एक आन्दोलन के रुप में आज ज्वंलत मुद्दे नारी-विमर्श के रुप में दृष्टिगोचर हैं। स्वामी विवेकानन्द जी कहा है कि "स्त्रियों की अवस्था को सुधारे बिना जगत् के कल्याण की कोई सम्भावना हीं नहीं हैं, जैसे पक्षी के लिए एक पंख से उड़ना सम्भव नहीं हैं।"

सुशीला टाकभौरे के काव्य संग्रह स्वातिबूंद और खारे मोती काफी चर्चित रहे हैं। इनकी विद्रोहिणी कविता में आक्रोश की ध्वनि सुनाई देती हैं-

"मॉ बाप ने पैदा किया था गूंगा परिवेश ने लंगड़ा बना दिया चलती रहीं परिपाटी पर बैसाखियॉ चरमराती हैं।"

हिन्दी साहित्य में नारी विमर्ष के नए आयाम की तलाश आवश्यक हैं।  हिन्दी  में  स्त्री  विमर्श  मात्र  पूर्वाग्रहों  या  व्यक्तिगत  विश्वासों  तक  ही सीमित नहीं हैं। कला साहित्य के हर विचारधारात्मक संघर्ष के पीछे अपने समय और समाज के परिवर्तनों को भी ध्यान में रखना जरुरी है। जहॉ तक हिन्दुस्तान में पुरुष सता की संस्कृति को बदलने की लड़ाई के शुरु होने की बात है तो वह उसी दिन से शुरु हो गई जिस दिन से स्त्री सत्ता ने  अपने  हक  व  अपने  अधिकार  के  लिए  बोलना  शुरु  किया।  सर्वप्रथम स्त्रियों ने अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता की मांग की। और उसके बाद नारियों ने अपनी आजादी की लड़ाई शुरु की। वे इस दबाव भरी जिन्दगी से मुक्त होना चाहती थी, जीना चाहती थी। वें चाहती थी कि वे जीवन को अपने तरीके से जिये न कि जीवन के हर मोड़ पर पुरुष प्रतिनिधि- कभी पिता, भाई, पति व बेटे के दबाव में जिए।

निष्कर्ष मध्ययुगीन वादियों ने स्त्री विमर्श, जेंडर थ्योरी के विस्तार को लेकर साथ ही समकालीन सिद्धांतकार हैं, और उन्होंने मुख्यधारा में योगदान दिया हैं। अबला व दुर्बला कहीं जाने वाली भारतीय महिला ने सामाजिक, आर्थिक व मानसिक दृष्टि से उपेक्षित होकर भी कभी हार नहीं मानी। स्वतन्त्रता से पहले हो या बाद में वह पुरुषो के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती है। आज जिवन का ऐसा कोई कार्य नहीं हैं जिसे नारी नहीं कर सकती हैं। और अपनी कार्यनिष्ठा, लगन व धैर्यशीलता के कारण वह जीवन में आने वाली हर समस्याओं का सामना करती है। और उस समस्या का विवेकपूर्ण समाधान भी निकालती हैं। यदी वो कोमल है तो कठोर भी हैं। जीवन के हर कदम पर नारी ने अपने आप को मजबूत किया है। आज समाज के हर क्षेत्र में नारी अपनी भागीदारी सुनिश्चित करती हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. हिन्दी साहित्य का इतिहास (आचार्य रामचन्द्र शुक्ल) 2. ड़ां. नगेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास 3. हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श 4. नारी विमर्श का इतिहास, पश्चिम में आधुनिक विमर्श 5. आलेखः- स्त्री विमर्श का स्परुप/भावना मासीवाल 6. भारत में स्त्री विमर्श और स्त्री संघर्ष/इतिहास के झरोखे से 7. हिन्दी साहित्य में नारी विमर्श तथा इसकी महत्ता 8. हिन्दी पद्य साहित्य में नारी विमर्श-कीर्ति भारद्वाज 9. प्रभा खेतान के स्त्री विमर्श संबधी चिंतन और रचनात्मक लेखन का आलोचनात्मक अध्ययन 10. स्त्री विमर्श-नारी मुक्ति (एक शोध)