ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
प्रथम दशक की कहानियों में किन्नर समुदाय
Kinnar Community in The Stories of The First Decade
Paper Id :  17418   Submission Date :  05/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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पदमाराम
सहायक आचार्य (वी.एस,वाई )
शिक्षा विभाग
राजकीय कन्या महाविद्यालय, लोहावट,
जोधपुर,राजस्थान, भारत
सारांश मानव समाज में नर और नारी दोनों ही विलोम लिंगी जैविक लक्षणों की सम्पूर्णता से वंचित ‘किन्नर’ को समाज में साधारणतया परिहास की ही दृष्टि से देखा गया है। भारत के विभिन्न अंचलों में किन्नरों को हिजड़ा, जनखा, छक्का एवं अन्य हीनतासूचक संबोधन भी दिये जाते है। समकालीन साहित्य में इनको थर्डजेंडर्स (तृतीय लिंग) की श्रेणी में रखते हुए अनेक प्रासंगिक उल्लेख किए गए है। विभिन्न उपन्यासों कहानियों एवं काव्य-विधाओं की रचनाओं में किन्नर समाज की बदहाली का मर्मस्पर्शी विवरण मिलता है। सुप्रसिद्ध मलयालम कवयित्री कमलादास ने अंग्रेजी कविता डॉस ऑव दो सूनवेज में महानगरों की तपती डामर सड़कों पर नंगे पाव, फटेहाल नाच नाचकर पेट पालने को मजबूर किन्नरों की खस्ताहाली का हृदयविदारक वर्णन किया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद In the human society, the 'eunuch' deprived of the completeness of biological characteristics of both male and female opposite gender is generally seen in the society only from the point of view of ridicule. Eunuchs, Jankha, Chakka and other derogatory addresses are also given to eunuchs in different regions of India.
Many relevant mentions have been made in the contemporary literature keeping them in the category of third genders. Touching details of the plight of transgender society are found in various novels, stories and poetry. Renowned Malayalam poetess Kamaladas has given a heart-wrenching description of the plight of eunuchs who are forced to dance bare footed, torn dance on the hot asphalt roads of metropolitan cities in the English poem Dos of two Soonways.
मुख्य शब्द लज्जास्पद, प्रासंगिक, मनो विश्लेषणात्मक, संकुचित, साइकोथेरेपी, प्रयोजनमूलक, निर्मूल |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Shameful, Contextual, Psychoanalytic, Narrow, Psychotherapy, Purposive, Nirmul.
प्रस्तावना
समकालीन हिन्दी कहानीकारों ने भी अपनी कहानियों में प्रसंगवश कहीं मुहल्ला - गवाड़ी में सामाजिक पारिवारिक समारोहों के अवसर पर नेग (सीख) की कामना हेतु आये किन्नरों की टोली के चर्चे शामिल किये है तो कहीं रेलगाड़ी में तालियाँ पीट-पीटकर किंचित लज्जास्पद शैली में चन्दा वसूली करने वाली टोलियों को आजीविका पर प्रकाश डाला है। इस प्रकार विभिन्न कहानियों में अत्यल्प मात्रा में ही किन्नर समाज की परम्पराओं और संस्कृति पर विचार किया गया है और इसे हाशिए का सामाजिक वर्ग के रूप में ही देखा गया है।
अध्ययन का उद्देश्य इक्कीसवीं सदी के प्रथम दशक में बहुत से लेखकों ने किन्नरों के साथ हो रहे भेदभाव का जिक्र किया है की समाज एवं परिवार दोनों से इनको प्रताड़ना मिलती है जिसके कारण यह समुदाय अपनी जिजीविषा खो रहा है तथा यह समाज आये दिन उपेक्षा का शिकार होता जा रहा है | इस समुदाय को अपना हक़ दिलाने के लिए हमें हर संभव प्रयास करना होगा |
साहित्यावलोकन

बांग्ला कहानीकार कमलेश राय ने इस समुदाय के लिए अनेक पुस्तके, पत्र पत्रिकाएँ, शोध पत्र, लेख आदि के माध्यम से अपने साहित्य को प्रकाशित करवाया तथा अपने अधिकारों के प्रति प्रेरित करने का बीड़ा उठाया|

मुख्य पाठ

'द्रौपदी' कहानी में हिजड़ों के मनोविश्लेषणात्मक अध्ययन हेतु अनेक उदाहरण मिल जाते है। पिटाई से बेहाल हिजड़े को अपनी झोपड़ी में शरण देने वाली धन्धेवाली लड़की उसकी वेदना सुनकर रो पड़ती है वेश्या को ग्लानि भावना से रोते देखकर हिजड़े का यह कथन कितना मार्मिक है हमारा जीवन तुम लोगों से भी खराब है। तुम नहीं समझोगी। महीने में पन्द्रह दिन इस शरीर में औरत जैसी कामना जगती है उस वक्त ठीक तुम लोगों जैसी हालत होती है उस वक्त घर-गृहस्थी बसाने, माँ होने, बच्चे पैदा करने की इच्छा करती है मगर यह भी नहीं हो पाता......।“ इसी प्रकार कहानी में अन्यत्र भी एक किन्नर (थर्डजेन्डर) में बफर स्टेट (बिचली-स्थिति) का दर्दभरा वर्णन मिलता है।

हिजड़ा होने के नाते वह जानता है कि गरीब धंधेवालियों की जिंदगी कितनी कठिन है। शरणदात्री लड़की के जागने से पहले ही बड़े सवेरे उठकर यह रवाना हो जाता है। यह स्वार्थी मरद नहीं है, बल्कि सोचता है कि लोगों के जागने से पहले ही उसे इस झोपड़ी से जाना होगा। एक हिजड़े मरद का किसी औरत के साथ रात बिताने की खबर फैलने पर उसका धन्धा ही चौपट हो जाएगा। इस प्रकार कहानी में किन्नर और वेश्या की बदहाली और विवशता के बावजूद दया भावना का चरम उदाहरण मिलता है। विभिन्न समकालीन हिन्दी कहानियों में 'थर्ड जेन्डर की वैयक्तिक, आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक समस्याओं को उकेरा गया है तथापि उन पर विशेष प्रयोजनमूलक शोध का प्रयत्न नहीं किया जा सका है।

कुछ कहानीकारों ने किन्नर समुदाय को खानाबदोश यायावर और नाच-नाच कर पेट भरने वाले हिजड़ा समुदाय से अलग मानते हुए भी कहानियाँ लिखी है। पुराणों से शास्त्रों में यज्ञ गन्धर्व और किन्नर आदि जनजातियों को देवताओं के सुरम्य दरबार के शोभावर्धक समूह के रूप में निरूपित किया गया है। भौगोलिक दृष्टि से देखा जाए तो आज भी उत्तर-पश्चिमी हिमालय पर्वत में हिमाचल प्रदेश के सीमान्त जनजातीय जनपद किन्नौर में बसी हुई किन्नर जनजाति अपनी पहचान बनाये हुए है। इसे किन्नौर समुदाय के रूप में भी जाना जाता है।

पर्वतीय अंचल पर गंभीर कहानी-सर्जन में तत्पर आर.एच. हरनोट ने अपनी कहानी 'किन्नर' में किन्नौरा जाति के लोगों के रीतिरिवाज, जातीय विशिष्टताओं और आचार-व्यवहार की विलुप्त हो रही स्थिति का प्रामाणिक विवरण दिया है, जो कि किन्नर जनजाति के नेतृत्व को एक विशिष्ट रूपाकार देने में सहायक है। कहानी की समीक्षा करते हुए श्रीनिवास श्रीकान्त ने लिखा है- 'हमारे समय में इन अर्द्धचरवाहा, अर्द्धआधुनिक और यायावर जाति के साथ देश की संकुचित राजनीतिक जमात ने एक ऐसा भद्दा खेल खेला है जिससे उनकी छवि को हानि पहुँची है। आज किन्नर उन्हें भी बेवाक कहते है जो शिखंडी जाति के नर्तक कबीले देश में अन्यत्र मौजूद है। कहानी किन्नर में इसी मुद्दे को उनकी खोयी हुई और खिंडियों के भ्रामक नामकरण से खड़ित सहज अस्मिता को पुनः प्रतिष्ठा दिलाने के लिए हरनोट ने अपने समय में जोरदार अभियान चलाया था, जो संसदीय कक्षों में भी अपनी आवाज बुलन्द करता रहा। संभवतः अंदाज में उन्होंने इस कहानी की रचना भी की ताकि राज्य व देश के आमजन यह जान सके कि किन्नर सचमुच किस जनजातीय पहचान का नाम है।

कहानीकार हरनोट को अन्य कहानियों में भी किन्नौरा समुदाय पर बाहरी प्रभागों और बाजारवाद को भार का उल्लेख है। फिल्म निर्माता प्रवीश अरोड़ा ने 'नदी गायब है'' कहानी के बारे में लिखा है इस कहानी का भावार्थ इन्होनें अपनी फिल्म निर्माण करते हुए किन्नौर में स्वयं देखा है। इस प्रकार कहा जा सकता है कि प्रथम दशक के हिन्दी कहानीकारों ने पूर्णतया उपेक्षित हाशिए के हिजड़ा - समुदाय को केन्द्र में रखकर बड़ी कहानियों की रचना का सफल प्रयत्न किया है, वहीं हरनौटजी जैसे कहानीकार ने पर्वतीय 'किन्नर जनजाति की अस्मिता के संरक्षण हेतु सार्थक पहल की है।

इस बोधलेख में शामिल प्रतिनिधि उदाहरणों को दृष्टिगत रखते हुए कहा जा सकता है कि किन्नर समाज के बारे में आज की अनेक भ्रांतियों प्रचलित है। इनको समाज की मुख्यधारा में लाने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति, कानूनी सुधार एवं आर्थिक मदद के अतिरिक्त भी सामाजिक संचेतना की दृष्टि से साहित्यकारों एवं बुद्धिजीवियों को आगे आना होगा। यह भी उल्लेखनीय है कि आज हमारे घर-परिवारों में भी ऐसे सदस्य विद्यमान हैं जिसको पौरूष क्षमता या स्त्रीत्व के अभाव में हिकारत से देखा जाता है कतिपय हिन्दी कहानियों में नपुंसकों की समस्या पर भी विचार किया गया है।
हृदयेश की कहानी 'बाबू हरेराम की लड़कियों में सावित्री ससुराल से लौटते ही बता दिया कि यह लड़का शादी के योग्य नहीं है। पिता को ढ़ाढ़स देने वाली दलीलों के उत्तर में तर्थी से कहा 'इलाज दवा कुछ नहीं वह मर्द नहीं है।‘ इसी प्रकार अन्य कतिपय कहानियों में नामर्द को नकारने वाली नारी की स्पष्टवादिता के उल्लेख मिलते है।
रामदास केरो की कहानी बांझ में नपुंसक खाबसाम की पत्नी रोबांशी अपने पूर्वप्रेमी शलोम से गर्भ धारण कर लेती है। पता चलने पर नामर्द खाबसाम उसकी पिटाई का पौरुष जरूर दिखा देता है और रोबांशी जहर खाकर आत्महत्या कर लेती है। वैसे तो सैद्धांतिक तौर पर शास्त्रों में नियोग प्रथा का उल्लेख है. परन्तु हीन ग्रन्थि से ग्रस्त समाज में इसको व्यावहारिक रूप मिलना कठिन है।
विभांशु दिव्याल की कहानी 'प्रतिकाक' में भी नायिका शुचि रोजाना सास-जेठानियों के तानों से तंग आकर अपने नपुंसक पति के मित्र के कोख हरी करवा तो लेती है और सास-जेठानियों से लाड़दुलार भी ले लेती है, परन्तु हर रात उसे भूखे भेडिए की भांति खूंखार नामर्द हिंसक जानवर प्रतिकार झेलना पड़ा। इसी प्रकार कहानीकारों ने 'नंपुसकता' की समस्या पर गंभीर विचार किया है इसका संबंध भी तथाकथित किन्नर समाज की अस्मिता के प्रश्न से है।
हरिप्रकाश राठी जैसे आदर्शोन्मुखी यथार्थवादी कहानीकार ने बांझपन और नपुंसकता को मनोचिकित्सा के माध्यम से निवारण करने की प्रेरणा के साथ बेहतर कहानियो लिखी है। महायोगी कहानी में भूराराम और उसकी पत्नी माया का प्रगाढ दांपत्य प्रेम और साइकोथेरेपी द्वारा बन्ध्यत्व निवारण का आशावादी चित्रण है। इसी प्रकार कतिपय अन्य कहानियों में सकारात्मक यथार्थवादी दृष्टिकोण देखा जा सकता है।

निष्कर्ष समग्रतः कहना चाहिए कि विगत दशकों की तुलना में प्रथम दशक की हिन्दी कहानियों में किन्नर समाज की समस्याओं पर विचार करने का साहस दिखाया गया है। किन्नर जनजाति और कथितरूप से मानी जा रही किन्नर घुमक्कड़ जाति के बारे में व्याप्त भ्रांतियों को निर्मूल किया जाना जरूरी है तभी इन हाशिए के लोगों को समाज की मुख्यधारा में लाया जा सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. रस्तोगी, वी.के. - कॉम्पीटीशन गाइड फॉर फर्स्टग्रेड लेक्चर एग्जाम दक्ष प्रकाशन, सी.वी.सी., जयपुर, वर्ष 2012, पृ. सं. 192-195 2. नया ज्ञानोदय (मासिक) 2009 पृ. सं. 24 3. – वही - पृ. सं. 24 4. – वही - पृ. सं. 25 5. – वही - पृ. सं. 25 6. – वही - पृ. सं. 26 7. – वही-- पृ. सं. 26 8. – वही-- पृ. सं. 27 9. नया ज्ञानोदय (मासिक) नवंबर 2012 पृ. सं. 112 10. सनद (त्रैमासिक) जुलाई-सितम्बर 2008 पृ. सं. 76 11. हृदयेश : संकलित कहानियाँ, नेशनल बुक ट्रस्ट, दिल्ली प्र.सं.2011, पृ. सं. 91 12. गुप्ता, रमणिका (संपा)-- पूर्वोतर की आदिवासी कहानियों ने. बु.ट्रस्ट, दिल्ली, 2009, पृ. सं. 29 13. राठी, हरिप्रकाश -- उसकी बीवी और अन्य कहानियाँ राजस्थानी ग्रन्थागार, जोधुपर प्र.स. 2011 पृ. सं. 263 -268