ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XI February  - 2023
Anthology The Research
महावीरचरितम् - महाकवि भवभूति के कवित्व एवं पाण्डित्य का अद्भुत संगम्
Mahaviracharitam - Wonderful Confluence of Poetry and Scholarship of Great Poet Bhavabhuti
Paper Id :  17109   Submission Date :  05/02/2023   Acceptance Date :  22/02/2023   Publication Date :  25/02/2023
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हिमा गुप्ता
सहायक आचार्य
संस्कृत विभाग
राजकीय कला महाविद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश संस्कृत साहित्य में मुख्य रूप से दो काव्य विधाएँ है - श्रव्य तथा दृश्य। वैदिक काल से ही दृश्य काव्य विधा का भी विकास होने लगा था। ऋग्वेद के यमयमी[1], उर्वशी पुरूरवा[2], सरमापणि[3] आदि संवाद सूक्तों में नाटकीय तत्त्व विद्यमान है। सामवेद का तो प्राण ही संगीत है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद There are mainly two poetic genres in Sanskrit literature - audio and visual. From the Vedic period, the development of visual poetry also started. Dramatic element is present in the dialogue hymns of Rigveda, Yamayami[1], Urvashi Pururva[2], Sarmapani[3] etc. Music is the soul of Samveda. Indian literary tradition also believes the origin of plays from the Vedas.
मुख्य शब्द महावीरचरितम्, संस्कृत साहित्य, काव्य विधा।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Mahaviracharitam, Sanskrit Literature, Poetry.
प्रस्तावना
भारतीय साहित्य परम्परा भी नाटकों की उत्पत्ति वेदों से मानती है। नाट्यशास्त्र में भरतमुनि का स्पष्ट वचन है कि देवताओं की प्रार्थना पर ब्रह्मा ने चारों वेदों का सार ग्रहण कर नाट्यशास्त्र की रचना की- जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथर्वणादपि।।[4]
अध्ययन का उद्देश्य महावीरचरितम् में महाकवि भवभूति के कवित्व एवं पाण्डित्य के अद्भुत संगम् का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन
रामायण-महाभारत काल में भी रंगशाला, नट, नर्तक, नाटक, रंगमंच, कुशीलव आदि का वर्णन स्थान-स्थान पर मिलता है। महामुनि पाणिनी ने ‘‘पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः‘[5] सूत्र में नटसूत्रों (नाट्यशास्त्र) का उल्लेख किया है। इस प्रकार संस्कृत नाटकों की परम्परा अत्यन्त प्राचीन    थी। महामुनि पाणिनि के इस उल्लेख से यह भी स्पष्ट है कि नाटकों की रचना उनके काल से अति प्राचीन समय से होती आ रही थी क्योंकि लक्षण ग्रन्थों की रचना का आधार लक्ष्य ग्रन्थ ही हुआ करते हैं।
मुख्य पाठ

संस्कृत नाटक रस प्रधान होते हैं।[6] इनके लेखन से लेकर प्रस्तुतिकरण तक चूँकि नाटक में कई कलाओं का सन्निवेश होता है अतः काव्येषु नाटकं रम्यम्कहकर उसकी विशिष्टता को रेखांकित किया जाता है। जो काव्यात्मक सौन्दर्य की विलक्षण सृष्टि करता है। आस्वादन और सम्प्रेषण सोदर्य होकर रसिकों तक पहुँचते हैं। भाव, अवस्था, रसभाव, अभिनय, रस पेशलता आदि सभी प्रकार से अपने श्रेष्ठ कर्म द्वारा सुखदायक नाट्य विलक्षण ही होता है। वस्तुतः नाट्य तीनों लोकों के समस्त भावों का अनुकीर्तन करता है अतः भरतमुनि ने इसे सार्ववर्णिक पंचम वेद[7] कहा है। भरतमुनि के अनुसार ऐसा कोई ज्ञान, कोई शिल्प, विद्या, कला, योग या कर्म नहीं, जो नाट्य में न दिखाई देता हो[8] अतः सद्यः आस्वाद्य, रम्य और संप्रेष्य नाट्य की ओर आकर्षण सहज है। वस्तुतः नाटकों की प्रेषणता तो सर्वविदित ही है क्योंकि श्रव्य माध्यम की अपेक्षा दृश्य माध्यम का प्रभाव सामाजिकों पर अधिक दृष्टिगोचर होता है। भास, कालिदास, कुमारदास अश्वघोष आदि प्रसिद्ध नाटककारों की परम्परा में भवभूति का महत्त्वपूर्ण स्थान है।

महाकवि भवभूति संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध नाटककार हैं, महावीरचरितम् में राम के राज्याभिषेक से पूर्व के जीवनचरित का वर्णन किया गया है। भारतीय संस्कृति में राम विष्णु के दस अवतारों मंे सातवें अवतार हैं। महर्षि वाल्मीकि द्वारा रचित महाकाव्य रामायण में सर्वप्रथम राम के चरित एवं पराक्रम का वर्णन प्राप्त होता है। गोस्वामी तुलसीदास प्रणीत सुप्रसिद्ध महाकाव्य रामचरितमानस उनके जीवन पर केन्द्रित भक्ति भाव से परिपूर्ण रचना है। इन दो प्रसिद्ध रचनाओं के अतिरिक्त भी अनेक भारतीय भाषाओं में भी राम के जीवन चरित का वर्णन भिन्न-भिन्न प्रकार से हुआ है। उत्तर भारत में राम एक पूजनीय देव हैं और आदर्श पुरुष हैं। राम की प्रतिष्ठा मर्यादा पुरुषोत्तम के रूप में है। राम ने मर्यादा पालन के लिए राज्य, परिवार, मित्र, भाई-बन्धु यहाँ तक कि पत्नी का भी त्याग किया। आदर्श भारतीय परिवार का प्रतिनिधित्व करने वाले रघुकुल में उत्पन्न राम का सम्पूर्ण जीवन आदर्शोन्मुख श्रेष्ठ चरित्र की गाथा कहता है। ऐसे जीवन चरित्र का रंगमंच पर प्रस्तुतीकरण काव्यकला कौशल एवं विविध कलाओं में पाण्डित्य की अपेक्षा करता है।

ऐसे ही श्रेष्ठ विद्वान् महाकवि भवभूति द्वारा तीन रूपकों का प्रणयन किया गया है- महावीरचरितम्, मालतीमाधवम् तथा उत्तररामचरितम्। क्रमशः वीर, श्रृंगार एवं करूण रस प्रधान इन नाटकों की रस पुष्टि एवं वर्णन नैपुण्य के दृष्टिकोण से महावीरचरितम्भवभूति की प्रथम रचना प्रतीत होता है। आठवीं सदी पूर्वार्द्ध के इस महाकवि की रचनाओं का महत्व दो कारणों से अत्यधिक बढ़ जाता है प्रथम- यही वह काल था, जब भारतवर्ष में बौद्ध धर्म पतन को प्राप्त हो रहा था, और इस कारण वैदिक धर्मानुरागी भारतीय संस्कृति और आचार की ओर जनमानस का झुकाव जागृत हो रहा था। भारतीय सनातन परम्परा में निबद्ध विद्वान् बौद्धधर्म को निर्मूल करने के प्रयत्नों में लगे थे, उस समय भवभूति ने भी इस कार्य को अपना धर्म मान कर कवित्व कर्म द्वारा सहायता पहुँचाने में सफल प्रयास किया। काव्यत्व की रक्षा के लिए भवभूति ने प्रत्यक्ष रूप से बौद्ध धर्म का न तो खण्डन किया, न ही निन्दा की किन्तु नाटकीय घटनाक्रमों द्वारा वैदिक धर्म की श्रेष्ठता और बौद्ध धर्म की असारता का चित्रण करते हुए दोनों का यथातथ्य चित्रांकन किया। उनके मध्य रेखांकन होने से बिना स्पष्ट उद्घोष के ही वैदिक धर्माचरण पर श्रद्धा तथा बौद्धाचारण के प्रति जुगुप्सा का भावोदय स्वयमेव जनमानस को उद्वेलित कर उठता है। इस दृष्टि से काव्य परम्परा के श्रव्य एवं दृश्य भेदों में श्रेष्ठ दृश्य काव्य ही है, जो दर्शक को बिना बताए, चुपचाप उनके हृदय को आप्लावित कर भिन्न मानस एवं विचार से संयुक्त कर देता है। इस तथ्य को भवभूति सम्यक्तया जानते थे और उन्होंने अपने कर्तव्य का निर्वहन सफलतापूर्वक किया।

द्वितीय कारण है- कवित्व की समीक्षा के दो पहलू - एक वर्णन पक्ष, दूसरा हृदय पक्ष। वर्णन पक्ष में प्रौढि अभ्यास तथा पाण्डित्य से प्राप्त होती है तो हृदय पक्ष में प्रौढ़ि जन्मजात प्रतिभा तथा अन्तस्तत्व परीक्षण की सूक्ष्म अनुभूति द्वारा प्राप्त होती है। यही कारण है कि वर्णनानिपुण कवियों की तुलना में हृदयावर्जक काव्य रचना निपुण कवियों की संख्या अत्यल्प है। भारवि, माघ, श्रीहर्ष आदि के काव्य जहाँ शब्दाडम्बर बहुल पाण्डित्य का प्रदर्शन करते हैं वही कालिदास, भास, भवभूति आदि का कविकर्म यद्यपि वर्णन की विशाल श्रृंखला उपस्थित नहीं करता परन्तु हृदयगत भावों की चित्रावली नेत्रों के समक्ष खींचकर हृदय और दर्शन दोनों में तादात्म्य स्थापित करके सामाजिक का रसाप्लावित कर देता है और यही कवित्व का श्रेष्ठ मूल्यांकन भी होता है। भवभूति के काव्य चित्रों में उपर्युक्त दोनों एक साथ प्राप्त होते हैं, यही कारण है कि भवभूति के वर्णन माधुरी में लिपटे हुए हृदयाकर्षक चित्र अन्यत्र दुर्लभ है।

महाकवि कालिदास के नाटककार रूप की तुलना अन्य कवियों से की जाये तो उनके समकक्ष यदि कोई ठहरता है तो वे महाकवि भवभूति ही हैं। कालिदास के पश्चात्वर्ती कवियों में भवभूति को प्रथम स्थान प्राप्त है। नाटककार कालिदास की ही भाँति भवभूति के भी तीन नाटक प्राप्त होते हैं- महावीरचरितम्, मालतीमाधवम् तथा उत्तररामचरितम्। इन तीनों नाटकों में कवि की प्रतिभा क्रमशः उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर हुई है। भवभूति के नाटकों में उनकी प्रथम कृति कौनसी है, इस पर संदेह है। सभी विद्वान् एकमत से यह स्वीकार करते है कि उत्तररामचरितम् भवभूति की अन्तिम कृति है किन्तु पूर्वोक्त दोनों कृतियों में प्रथमा भाव हेतु विद्वानों में मतवैभिन्न है महावीरचरितम्को उनकी प्रथम रचना स्वीकार करने के लिए यह तर्क समुचित जान पड़ता है कि महावीर चरितम् में कवि ने जो स्वयं ‘‘अपूर्वत्वात् प्रबन्धस्य‘‘[9] पद प्रयुक्त किया है, उससे सिद्ध होता है कि भवभूति ने महावीरचरितम् से पूर्व अन्य रचना का प्रणयन नहीं किया था, अतः कवि को प्रसिद्धि भी प्राप्त नहीं थी। इस कारण  उन्होंने अपना परिचय विस्तार से ग्रन्थ के प्रारम्भ में दिया है। भवभूति दक्षिणापथ के पद्मपुर नामक नगर में यजुर्वेदीय तैत्तिरीय शाखाध्यवसायी, व्रतधारी, सोमयज्ञकारी, पंक्तिपावन, पंचाग्निक, ब्रह्मवादी, कश्यपगोत्रीय, उदुम्बर ब्राह्मण भट्टगोपाल के पौत्र तथा नीलकण्ठ के पुत्र श्रीकण्ठसंज्ञक भवभूतिकी उपाधि से विभूषित थे। माता जतुकर्णी तथा गुरु अप्रतिम ज्ञानधारा के प्रकाशक ज्ञाननिधि थे।[10] मालतीमाधव में भी यही परिचय ईषत्परिवर्तन के साथ प्रस्तुत किया गया है अतः वही भवभूति की आद्य रचना क्यों न मानी जाये ? इस प्रश्न का उत्तर मालतीमाधव में ही प्राप्त होता है- ये नाम केचिदिह[11] श्लोक से ध्वनित होता है कि भवभूति की आद्याकृति का विद्वत्समाज में समादर नहीं हो रहा था वरन् कुछ लोग अवमानना कर रहे थे, इससे स्पष्ट होता है कि उनकी कोई न कोई रचना पहले से विद्यमान थी और वह रचना महावीर चरितम्ही हो सकती है क्योंकि उत्तररामचरितम्के प्रणयन काल में उनकी पर्याप्त प्रसिद्धि हो चुकी थी अतः इस कृति में महाकवि ने अपना परिचय भी संक्षेप में दिया है। इस प्रकार महावीरचरितम् को उनकी पहली कृति माना जाता है। यहाँ भवभूतिश्रीकण्ठ कवि की उपाधि थी, इस मान्यता के पीछे टीकाकारों के द्वारा उद्धृत दो श्लोक आधारभूत हैं परन्तु वे भवभूति के नाटकों में नहीं आये हैं। महावीरचरितम् के टीकाकार वीरराघव के अनुसार साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिरचना में भवभूति पद के प्रयोग से सन्तुष्ट होकर किसी राजा ने उन्हें भवभूति की उपाधि प्रदान की तथा आर्या सप्तशती की टीका में अनन्त पण्डित ने श्लोक उद्धृत किया है-

तपस्वौ कां गतोऽवस्थामिति स्मेराननाविव।

गिरिजायाः स्तनौ वन्दे भवभूतिसिताननौ।।[12]

इसमें भवभूतिपद का सफल एवं रमणीय प्रयोग देखकर किसी गुणग्राही महाराज ने उनको भवभूतिउपाधि से सुशोभित किया। महावीरचरितम् में आदि से अन्त तक हृदय की सूक्ष्म भावनाएँ बड़ी ही मार्मिकता से प्रस्तुत की गई हैं -

आतंकश्रमसाध्वसव्यतिकरोत्कम्पः कथं सह्यता-

मङ्गैर्मुग्धमधूकपुष्परूचिभिर्लावण्यसारैरयम्।

उन्नद्धस्तनयुग्मकुड्मलगुरुश्वासावभुग्नस्यते

मध्यस्य त्रिवलीतरङ्गकजुषो भङ्गः प्रिये मा च भूत्।।[13]

सीता परशुराम के आह्वान पर जाते हुए राम के पीछे-पीछे जा रही है और राम को रोकना चाह रही हैं। सीता के हृदय को सम्प्रति जो भावों का आवेश मथ रहा है, उन्हें अत्यल्प शब्दों में कवि ने व्यक्त किया है। यहाँ कितनी सरस और स्पष्ट व्यंजना है। इसी प्रकार एक अन्य प्रसंग में राम की मनोदशा का भी सुन्दर चित्रण किया है-

उत्सिक्तस्य तपःपराक्रमनिधेरस्यागमादेकतः

तत्संगप्रियता च वीररभसोन्मादश्च मां कर्षतः।

वैदेहीपरिगम्भ एष च मुहुश्चैतन्यमामीलय-

न्नान्दी हरिचन्दनेन्दुशिशिरस्निग्धो रूणद्ध्यन्यतः।।[14]

राम की अन्तर्द्वन्द्वात्मक दशा का इससे मनोहारी वर्णन क्या कहीं हो सकता है ? पिता की आज्ञा से वनगमन करते हुए राम का मन भरत में अटक जाता है किन्तु राम के वियोग से भरत का मन व्यथित हो उठेगा अतः राम भरत से मिलना नहीं भी चाहते, इस द्वन्द्व का मार्मिक चित्रण इस प्रकार किया है-

अपरिष्वज्य भरतं नास्ति मे गच्छतो धृतिः।

अस्मत्प्रवासदुःखार्तं न त्वेनं द्रष्टुमुत्सहे।।[15]

वहीं भवभूति का वर्णन नैपुण्य भी अप्रतिम है-

लोकालोकालबालस्खलनपरिपतत्सप्तमाम्भोधिपूरं

विश्लिष्यत्पर्वकल्पत्रिभुवनमखिलोत्खातपातालमूलम्।

पर्यस्तादित्यचन्द्रस्तबकमवपतद्भूरिताराप्रसूनं

ब्रह्मस्तम्बं धुनीयामिह तु मम विधावस्ति तीव्रो विषादः।।[16]

उक्त वर्णन से स्पष्ट होता है कि भवभूति की रचनाएँ रसिक समाज के लिए सरलतया ग्राह्य हैं और साधुवाद की पात्र है।

महावीरचरितम्सात अंकों का नाटक है और इसमें महाकवि भवभूति ने राम के पूर्ववर्ती जीवन की महत्वपूर्ण घटनाओं का यथा- विश्वामित्र के आश्रम में ताड़का वध, हरचाप भंग, सुबाहु एवं मारीच का वध, परशुराम का वृत्तान्त, राम-सीता विवाह, वनगमन, खरादि वध, सीताहरण, बाली-वध, लंकारोहण, लक्ष्मणमूर्छा, रावण-वध, अयोध्यागमन एवं राम का राज्याभिषेक आदि का नवीन उद्भावनाओं एवं कल्पनाओं से युक्त हृदयावर्जक वर्णन वैचित्र्य के साथ किया है।महावीरचरितम्की कथा का उपजीव्य महर्षि वाल्मीकिकृत रामायण की प्रसिद्ध कथा है। नाटकीय दृष्टि से महाकवि भवभूति ने कुछ परिवर्तन एवं परिवर्धन भी किया है। यथा -रामवनगमन का प्रसंग अयोध्या के स्थान पर मिथिला में घटित होता है। माल्यवान् की मन्त्रणाएँ तो भवभूति की नवीन कल्पनाओं का उद्बोधन एवं नाटक की मौलिकता का प्राणतत्त्व ही है। परशुराम घटना भी अनेक नवीनताओं के साथ प्रस्तुत की गई है। रावण बाली को राम-हनन हेतु संप्रेषित करता है, यह भी कवि की सर्वथा भिन्न नवीन उद्भावना है। रामायण जैसे विशालकाय ग्रन्थ में आबद्ध रामकथा का सात ही अंकों में निबन्धन और वहाँ भी स्वयं कवि की प्रतिभा और पाण्डित्य का प्रदर्शन निश्चित रूप से अभूतपूर्व एवं प्रशंसनीय है और महाकवि भवभूति इसके प्रणयन में सफल रहे हैं। महाकवि भवभूति की प्रथम रचना होते हुए भी यह कवि के नवत्व अथवा नैपुण्याभाव को प्रकट नहीं करती अपितु विशाल कथानक को सहजता से विशिष्ट बनाते हुए नवल कल्पना विधानों के साथ आकर्षक एवं मनोहर बनाकर प्रस्तुत करती है। अतः सामाजिक ही नहीं विद्वत्समाज में भी समाहत है।

पात्र योजना में राम, लक्ष्मण, सीता, रावण, परशुराम, माल्यवान, विश्वामित्र आदि सभी पुरातनपरिचित होकर भी नूतनता का समावेश लेकर मंच पर उपस्थित होते हैं। मानवीय संवेदनाएँ भी इस नाटक में यथा स्थान चित्रांकित हैं, उदाहरणार्थ -ताडका के वध का अवसर प्राप्त होने पर भी राम की वीर हृदय कह उठता है- ‘‘भगवन्। स्त्री खल्वियम्।‘‘[17] राम पराक्रमी हैं, वीर हैं, साथ ही नग्रता से युक्त सौजन्य से आवृत्त हैं और ऐसे महनीय वीर को भवभूति महावीरकहना चाहते हैं अतः महान् वीरता से ओतप्रोत राम का चरित वर्णित होने के कारण नाटक का नामकरण महावीरचरितम्किया गया है। संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध अन्य नाटककार जहाँ सहज, सरल, रसपेशल भावों की चित्रावलि मात्र प्रस्तुत करते हैं, वहीं भवभूति हृदयावर्जक भावों की सहज, सरल, रसपेशल चित्रावलि के साथ-साथ काव्यात्मक वर्णन नैपुण्य भी श्रृंखलाबद्ध प्रस्तुत करने में सफल रहे हैं। वस्तुतः भवभूति के अन्य नाटकों की भाँति महावीरचरितम् में भी सूक्ष्मतम भावों तथा नाटकीय व्यापारों का वर्णन और प्रकाशन समेकित रूप से प्राप्त होता है, वह इतना प्रौढ़ी युक्त है कि सहृदयों के हृदय निश्चित ही आकृष्ट हो जाते हैं। यही भवभूति का अन्य नाटककारों की अपेक्षा वैशिष्ट्य है।

महाकवि भवभूति काव्यकला एवं नाट्यकला दोनों विषयों में सिद्धहस्त है तथा कालिदास जैसे महाकवियों की पंक्ति में उनकी द्वितीय स्थान पर गणना की जाती है। वीरश्रृंगार तथा करूण रस प्रधान नाटकों की रचना कर वे भिन्न-भिन्न रस से युक्त नाट्य रचना करने वाले अद्वितीय कवि हैं। महावीरचरितम् उनकी आद्य रचना है और इसकी विशेषता यह है कि उपजीव्य रामायण के कथानक में अपनी प्रतिभा से भवभूति ने इतने विशिष्ट परिवर्तन किये हैं कि रामकथा का भिन्न ही स्वरूप दृगपटों पर उपस्थित हो जाता है।

भारतीय संस्कृत नाट्यपरम्परा प्रायः श्रृंगार प्रधान रही है। महाकवि कालिदास की भी तीनों नाट्यकृतियाँ - विक्रमोर्वशीयम्, मालविकाग्निमित्र तथा अभिज्ञानशाकुन्तलम्‘ श्रृंगार प्रधान हैं। ऐसे में भवभूति का परम्परा से हटकर वीरश्रृंगार एवं करूण रस प्रधान रचनाओं का निर्माण करना, एक साहसिक कदम है। काव्यकला एवं नाट्यकला दोनों में ही निष्णात भवभूति का स्थान कालिदास के उपरान्त स्वीकार किया जाता है। वर्णन नैपुण्य एवं भावप्रवण रचना करते हुए भवभूति एक ओर पाण्डिय का प्रदर्शन करते है तो वहीं हृदयावर्जक भावों की सूक्ष्म चित्रावली भी प्रस्तुत करते हैं।

निष्कर्ष यही कारण है कि भवभूति ‘नाटककारों के कवि‘ कहे जाते हैं। ये विशुद्ध नाटककार से ऊपर उठकर ‘गीति नाट्य‘ (Lylrical äama) के प्रणेता कवि हैं। भावों के अनुरूप सुललित और परिष्कृत भाषा का प्रयोग ही उनके नाटकों की लोकप्रियता का प्रमुख कारण है। वे अपनी बहुमुखी नाट्य प्रतिभा, विलक्षण काव्यकला, सरस रसाभिव्याक्ति और मौलिक उद्भावना शक्ति से कालिदास के निकटवर्ती तो कहीं-कहीं उनसे बढ़ कर सिद्ध होते हैं। दाम्पत्य प्रेम के उत्कृष्ट चित्रण में वे अनुपमेय हैं। उनके अनुसार प्रेम के लिए बाह्य उपकरणों की अपेक्षा नहीं होती है और यह आदर्श उनकी प्रत्येक कृति में उत्तरोत्तर विकास को प्राप्त होता हैं। इस क्रम में महावीरचरितम् भवभूति के आदर्श, श्रद्धा, और दाम्पत्य जीवन के प्रति अवधारणाओं की आधार शिला है। उनकी इन्हीं विशेषताओं पर मुग्ध होकर किसी भावुक समीक्षक ने उनकी प्रशस्ति में कहा है- ‘‘कवयः कालिदासाद्या भवभूतिर्महाकविः।‘‘
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. यमयमी संवाद सूक्त,ऋग्वेद 10.10 2.उर्वशीपुरूरवा संवाद सूक्त,ऋग्वेद 10.95 3.सरमापणि संवाद सूक्त,ऋग्वेद 10.108 4. नाट्यशास्त्र, 1.17 5.अष्टाध्यायी, 4.3.110 6.दशरूपकम् 1.8 7. नाट्यशास्त्र, 1.12 8. नाट्यशास्त्र, 1.117 9. महावीरचरितम् अंक 1, प्रस्तावना, पृष्ठ-7 10. महावीरचरितम् अंक 1, प्रस्तावना, पृष्ठ, 4-6 11. मालतीमाधवम्, 1.6 12. कां तपस्वी गतोऽवस्थामिति स्मराविव स्तनौ। वन्दे गौरीघनाश्लेषभवभूतिसिताननौ।। सदुक्तिकर्णामृत, 1.22.4 में उद्धृत 13. महावीरचरितम्, 2.21 14. महावीरचरितम्, 2.22 15. महावीरचरितम्, 4.43 16. महावीरचरितम्, 5.45 17. महावीरचरितम्, प्रथम अंक, पृष्ठ, 35