ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
सल्तनत कालीन भारत के धार्मिक जीवन का विश्लेषण
Analysis of the Religious Life of Sultanate India
Paper Id :  17433   Submission Date :  11/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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शेख तेज हसन
असिस्टेंट प्रोफेसर
इतिहास विभाग
गवर्नमेंट कॉलेज
पथरिया,मध्य प्रदेश, भारत
सारांश भारत में तुर्क आक्रमण के पश्चात दिल्ली सल्तनत की स्थापना ने भारत में एक नवीन धर्म को समाज में जड़े जमाने के अवसर प्रदान किए। यह नवीन धर्म इस्लाम था। इस्लाम की अपेक्षित नवीन और परिष्कृत पद्धति और राजनीतिक संरक्षण ने भारत में इस्लाम धर्म को तेजी से फलने फूलने का अवसर प्रदान किया। इसने पारंपरिक हिंदू धर्म में अधिकारों से वंचित वर्ग को अपनी ओर आकर्षित कियाए और इस वर्ग ने अपनी वर्तमान अधिकार विहीन अवस्था से ऊपर उठने के लिए इस्लाम को अपनाने लगे। अतः इस्लाम की इस नवीन चुनौती से सामना करने के लिए भारत में हिंदू धर्म में सुधारात्मक आंदोलन की शुरुआत होती है, जिसे संपूर्ण मध्यकाल में भक्ति आंदोलन के नाम से जाना जाता है। यद्यपि भारत में भक्ति आंदोलन की शुरुआत दक्षिण भारत से होती है किंतु इसे अधिक लोकप्रियता सल्तनत काल के भारत में मिलती है। जब संपूर्ण भारत के विभिन्न प्रदेशों से उच्च श्रेणी के संतों का प्रादुर्भाव होता है। इन संतों ने ना केवल लोकवाणी में साहित्य का सृजन किया बल्कि अनेक कविताओं और पदों की रचना भी की, जो आगे चलकर स्थानीय भाषा के संरक्षण और संवर्धन में मील का पत्थर साबित हुई। हिंदू धर्म को एक बार फिर जन-जन का धर्म बनाने का प्रयास कियाए उन्होंने हिंदू धर्म में फैली रूढ़ीवादी मानसिकता के खिलाफ आवाज उठाईए साथ ही हिंदू-मुस्लिम एकता पर भी बल दिया। इस्लाम की कट्टरवादी सोच के विरुद्ध इस्लाम के भीतर से ही एक नवीन आंदोलन की शुरुआत होती है, जिसे सूफी आंदोलन कहते हैं। सूफी आंदोलन में तत्कालीन भारतीय समाज के निम्नतम तबके को अपनी ओर आकर्षित किया जो तत्कालीन सामाजिक आर्थिक राजनीतिक समस्याओं से जूझ रहा था। एक और जहां आम जन धार्मिक कट्टरता, राजनीतिक सत्ता की दम घोटू पकड़, और सामाजिक बदलाव से परेशान थे, वही सूफी खानकाहे आम जनता को प्यार, और सामाजिक समरसता का संदेश दे रहीं थीं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The establishment of the Delhi Sultanate after the Turkish invasion of India provided opportunities for a new religion to take root in the society. This new religion was Islam. The required innovative and sophisticated method and political patronage of Islam provided an opportunity for Islam to flourish rapidly in India. This attracted the asceticism desired by rights in traditional Hinduism, and this asceticism converted to Islam to rise above their present disenfranchised status. Therefore, to face this new challenge of Islam, a reformative movement in Hinduism begins in India, which is known as the Bhakti movement throughout the medieval period. Although the Bhakti movement in India starts from South India, but it gets more popularity in India during the Sultanate period. When saints of high order emerge from different regions of entire India. These saints not only created literature in Lokvani, but also composed many poems and verses, which later proved to be a milestone in the preservation and promotion of the local language. Tried to make Hinduism once again a religion of the masses, he raised his voice against the conservative mentality spread in Hinduism, as well as emphasized on Hindu-Muslim unity.
Against the fundamentalist thinking of Islam, a new movement starts from within Islam, which is called Sufi movement. The Sufi movement attracted the lowest strata of the then Indian society, which was struggling with the then socio-economic political problems. Another where the common people were troubled by religious bigotry, suffocation of political power, and social change, the same Sufi Khankahe was giving the message of love and social harmony to the common people.
मुख्य शब्द ब्रह्म, भक्ति, प्रेम, सूफी, अलवर, नयनार, कबीर, सगुण, निर्गुण, रहस्यवाद, गुरु, चिश्ती।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Brahman, Bhakti, Prem, Sufi, Alvar, Nayanar, Kabir, Saguna, Nirguna, Mysticism, Guru, Chishti.
प्रस्तावना
सल्तनत काल में भारत में विभिन्न धर्म और उनसे संबद्ध अनेक संप्रदाय विद्यमान थे सबसे प्राचीन वैदिक धर्म (हिंदू) के वैष्णव, शैव, शाक्त तथा तांत्रिक संप्रदाय संपूर्ण भारत में प्रसिद्ध थे। इनमें वैष्णव और शैव संप्रदायाओं की संख्या बहुत अधिक थी। बौद्ध धर्म भी प्रचलित था किंतु धीरे-धीरे उसकी संख्या में कमी होती जा रही थी। जैन धर्म का फैलाव लगभग सारे उत्तर भारत में था परंतु उसके मानने वालों की अधिक संख्या राजस्थान गुजरात और मध्यप्रदेश के मालवा में ही थी। सल्तनत काल में हिंदू धर्म के बाद इस्लाम धर्म का स्थान हो गया था। मुसलमान में भी सुन्नी और शिया दो प्रमुख संप्रदाय थे। वैसे तो सैकड़ों वर्ष पहले से ही भारत में विदेशी आक्रमण होते आ रहे थे। जितने भी आक्रमणकारी भारत में आए, वे भारत के विराट समाज का हिस्सा बन गए और उन्होंने अपनी पहचान को भारतीय धर्म में ही विलीन कर लिया। किंतु इस्लाम के उदय के पश्चात मध्य एशिया से आने वाले आक्रमणकारियों के पास एक नवीन धर्म का उत्साह था जो हिंदू धर्म के जातिवादी और बहुदेववादी विश्वास से अपेक्षाकृत अधिक परिष्कृत और एकेश्वरवाद में विश्वास करता था जो तत्कालीन हिंदू धार्मिक समूह के लिए एक गंभीर चुनौती थी, जिसके फलस्वरूप भारत में तत्कालीन परिस्थितियों के अनुरूप हिंदू धर्म में सुधारात्मक आंदोलन के रूप में भक्ति आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ। वही इस्लाम की कट्टर रूढ़िवादिता के विरुद्ध इस्लाम धर्म में ही एक नवीन आंदोलन का प्रादुर्भाव हुआ जिसे हम सूफी आंदोलन कहते हैं, जो कि भारत के अनेक धर्मों के आचार विचारों से प्रभावित हुआ साथ ही उसने इस्लाम को अधिक उदार और आमजन तक पहुंचाने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की।
अध्ययन का उद्देश्य 1. मध्यकालीन भारत में धार्मिक सामाजिक परिवर्तन का अध्ययन। 2. भारतीय समाज में एक नए धार्मिक तत्व इस्लाम के साथ सहअस्तित्व के साथ धार्मिक सद्भाव के मूल तत्वों की खोज करना। 3. आर्थिक परिवर्तनों के साथ संन्यासी प्रधान संस्कृति के स्थान पर कर्म प्रधान व्यक्तियों का संतो के रूप में रूपांतरण के साथ उनके उपदेशों के लोकप्रिय होने के कारणों की समीक्षा।
साहित्यावलोकन

हरिश्चंद्र वर्मा की पुस्तक मध्यकालीन भारत भाग 1 (750 ईस्वी - 1540 ईस्वी) एवम भाग 2(1540 ईस्वी-1761ईस्वी) से राजनैतिक, सामाजिक घटनाओं के परिणाम स्वरूप धार्मिक सुधारों की भूमिका और हिंदू- मुस्लिम सामाजिक सद्भाव को शामिल किया गया है।

एल. पी. शर्मा की पुस्तक मध्यकालीन भारत 1000 ईस्वी से 1761 ईस्वी धर्मिक एवम सामाजिक आंदोलन व हिंदू मुस्लिम एकता में भक्ति एवम सूफी आंदोलन की भूमिका को शामिल किया गया है।

मुख्य पाठ

भक्ति आंदोलन 

हिंदू धर्म और समाज में जब भी अपनी भीतरी समस्या  और बाहरी संकट उत्पन्न हुआ तब प्रतिक्रिया स्वरुप धर्म सुधार आंदोलन या क्रांतियां हुई। धर्म और समाज को सुधारने के लिए प्राचीन काल में जैन और बौद्ध आंदोलन हुए जिन्होंने बाद में धर्म का रूप धारण कर लिया। इसी तरह से मध्यकाल में भक्ति परंपरा के रूप में धार्मिक पुनर्जागरण की शुरुआत होती है धार्मिक सामाजिक भेदभाव के फलस्वरूप उत्पन्न हुए धार्मिक आंदोलनों ने हिंदू धर्म और समाज में धर्म को एक नए तत्व के साथ उपस्थित किया, जो अपनी नई शक्ति और नवजीवन का संचार करके उसे अधिक सहिष्णु बनने में मदद की। राजनैतिक परिस्थितियों को देखते हुए भक्ति आंदोलन भारतीय संस्कृति की एक महान घटना थी।

भक्ति मार्ग उत्पत्ति और विकास

भारत में भक्ति परंपरा की शुरुआत दक्षिण भारत में आठवीं नौवीं शताब्दी में अलवार(वैष्णव) और नयनार(शैव) संतों ने की थी वैसे भारत में मोक्ष की प्राप्ति के मार्ग के रूप में कर्मकांड और ज्ञान के साथ ही भक्ति का सिद्धांत भी बहुत प्राचीन है। उपनिषदों, भगवत गीता, आदि में भक्ति के अस्तित्व को देखा जा सकता है। भगवत गीता में कृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि सब धर्मों को छोड़कर मेरी शरण में आ जाओ इसका अर्थ ही यही हुआ कि मेरी भक्ति करो।

अतः कहा जा सकता है कि मोक्ष प्राप्ति भारतीय संस्कृति के मूल प्रवृत्ति में से एक है। भक्ति का प्रतिपादन प्राचीन भारतीय साहित्य से हुआ है परंतु मोक्ष प्राप्ति और एक अच्छे इंसान बनने के साधन के रूप में भक्ति का व्यापक प्रयोग मध्ययुगीन भारत की प्रमुख विशेषता है। दक्षिण के अलवार भक्तों की भक्ति गीतों तमिल प्रबन्धम में भक्ति का स्वरूप स्पष्ट रूप से निकलकर सामने आता है। रामानुज,  माधव एवं ज्ञानेश्वर आदि संतों की वाणी से दक्षिण भारत तथा महाराष्ट्र तक भक्ति मार्ग का विकास होता है बाद में उत्तर भारत में रामानंद, कबीर, नानक, तुलसी, सूर चैतन्य एवं दादू जैसे प्रसिद्ध संतो ने इसे संपूर्ण उत्तर भारत में लोकप्रिय बना दिया।

भक्ति मार्ग की उत्पत्ति के कारण

1. हिंदू धर्म का रूढ़िवादी स्वरूप

मध्यकाल में वैदिक धर्म अधिक जटिल हो गया था। धर्म के क्षेत्रों में कर्मकांड  का महत्व बढ़ गया था। पूजा-पाठ की प्रकिया  अत्यधिक कठिन थी औपचारिकताओं वाह्य आडंबरो ने  हिंदू धर्म की विशेषताओं पर कठोर आघात किया था। जिससे आम जनता से  हिंदू धर्म दूर हो गया था, इन परिस्थितियों भक्ति मार्ग ने समाज के दबे कुचले वर्ग को भी ईश्वर की प्राप्ति का सरलतम मार्ग बताया।

2. तुर्क आक्रमणकारियों द्वारा मंदिरों और मूर्तियों का विनाश

मध्य कालीन तर्क अक्रमणकारियो ने मंदिरों को लूटा उन्होंने पवित्र स्थलों को अपवित्र किया। मूर्तियों को नुकसान पहुंचाया। अतः मूर्ति पूजा के स्थान पर हिंदू धर्मावलंबियों  को भक्ति और उपासना का मार्ग श्रेष्ठ लगा ।

3. हिंदुओं में भेदभाव की भावना

मध्यकाल में हिंदू धर्म, निम्न जातियों के लिए अपेक्षाकृत कठोर होता जा रहा था, जिससे निम्न जातियों में असंतोष बढ़ता जा रहा था। अतः भक्ति मार्ग के इन संतों ने ऊंच-नीच का विरोध किया जिससे प्रेरित होकर अछूतों और निम्न वर्ग के लोगों ने भक्ति मार्ग का स्वागत किया अब यह एक ऐसा मार्ग था जिसमें बाहरी आडंबरो का विरोध था, साथ ही  मनुष्य की समानता पर बल था।

4. हिंदुओं की पलायन प्रवत्ति

तुर्क आक्रमणकारियों से हिंदू राजाओं की पराजय ने हिंदुओं के दिल हताशा से भर गए। फलस्वरूप अपने कष्टों से मुक्ति के लिए वे भगवान की भक्ति में लीन हो गए।

5. इस्लाम का प्रभाव

भारत में  इस्लाम के आगमन ने हिंदू धर्म को गंभीर चुनौती दी। इस्लाम सादगी, सरलता, जाति व्यवस्था के विरोध ने हिंदू धर्म के अनुयाइयों के समक्ष अपने धर्म में सुधार के लिए प्रेरित किया। अतः भक्ति आंदोलन के जोर पकड़ने का एक कारण इस्लाम से मिलती चुनौती भी थी।

6. राजनीतिक वातावरण

तुर्क आक्रमणकारियों के आक्रमणों से हिंदू समाज वा धर्म को गहरा धक्का लगा। समय के साथ तुर्क आक्रमणकारियों की आक्रमकता में कमी आई, वही मेवाड़, विजयनगर जैसे शक्तिशाली हिन्दू राज्य अस्तित्व में आए। इन राज्य ने भी भक्ति मार्गी संतों के लिए संरक्षण दिया।

भक्ति आंदोलन की विशेषता

1. एकेश्वरवाद में विश्वास

भक्ति कालीन संत ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते थे। वे विभिन्न देवी-देवताओं की उपासना के स्थान पर एक ईश्वर में विश्वास करते थे। कुछ संत राम और कृष्ण उपासना करते थे, परंतु वे उनमें किसी प्रकार का भेदभाव नहीं करते कुछ संत निर्गुण ब्रह्म की उपासना करते थे और कुछ सगुण ब्रह्म की। वे राम - रहीम में अंतर नहीं करते थे।

2. भक्ति द्वारा मोक्ष प्राप्ति

भक्ति कालीन संतों का विश्वास था कि मनुष्य अपने इष्ट की उपासना या भक्ति द्वारा मोक्ष की प्राप्ति कर सकता है इसके लिए आवश्यक है कि व्यक्ति भगवान के प्रति मन में सच्चा प्रेम और श्रद्धा रखें। वे मानते थे कि प्रत्येक हृदय में ईश्वर का वास है ईश्वर को मंदिरों या मस्जिदों में ढूंढना व्यर्थ है अगर सच्चे ईश्वर की प्राप्ति करना है तो उसे अपने हृदय में ढूंढो

3. मानव सेवा पर जोर

भक्ति कालीन संतो ने ईश्वर की प्राप्ति के लिए जहां भक्ति मार्ग को आधार बनाया वही प्रेम करुणा मानव मात्र की सेवा भी ईश्वर की प्राप्ति के लिए आवश्यक बताई। उन्होंने माना कि सच्ची मानव सेवा  मोक्ष प्राप्ति का आधार है। इस तरह भक्ति कालीन संत सच्चे मानवतावादी थे।

4. जाति प्रथा कर्मकांड और मूर्ति पूजा का विरोध

भक्तिकाल के संतो की दृष्टि में सभी मानव समान थे। रामानंद ने कहा भी था "जाति पात पूछे नहीं कोई हरि को भजे सो हरि को होय" भक्ति आंदोलन के संतों ने कर्मकांड, पाखंड, व आडंबर का विरोध किया इनमें कबीर सबसे अग्रणी थे। वह मोक्ष प्राप्ति के लिए संन्यास को आवश्यक नहीं मानते थे।

5. गुरु का महत्व

भक्ति कालीन संतों ने मोक्ष प्राप्ति के लिए गुरु की महिमा का प्रतिपादन किया है अगर किसी व्यक्ति को मोक्ष की प्राप्ति करनी है तो उसके लिए सच्चा मार्ग गुरु ही बता सकता था। केवल गुरु के माध्यम से ही मनुष्य ईश्वर के सच्चे स्वरूप को समझ सकता था।

6. हिंदू मुस्लिम एकता पर विशेष बल

भक्ति कालीन संतो और विचारकों ने हिंदू मुस्लिम की एकता पर जोर दिया कबीर चैतन्य, नानक जैसे अग्रणी भक्ति मार्गी संत हिंदू मुस्लिम एकता के अगुआ थे। वे राम रहीम में कोई अंतर नहीं मानते थे उनका विचार था कि विभिन्न धर्म ईश्वर तक पहुंचने के पृथक-पृथक मार्ग हैं इसलिए लोगों को एक दूसरे के धर्म का आदर करना चाहिए इस तरह से विभिन्न धर्मों संप्रदायों के बीच धार्मिक सहिष्णुता और उदारता की भावना का विकास हुआ।

भक्ति कालीन प्रमुख संत

1. अलवार- नायनार संत

मध्य कालीन भक्ति आंदोलन की सबसे पहली महत्वपूर्ण कड़ी थे- दक्षिण भारत के अलवार संत। ये भगवान विष्णु को आराध्य मानकर उनकी पूजा करते थे। इनका काल 7वीं से 9 वीं सदी तक माना जाता है अलवार, केरल तथा तमिलनाडु के विभिन्न जातियों में जन्मे संत थे। अलवारों के  भक्ति गीत ' "नालायिरा दिव्य प्रबंधम"  में संकलित है। इस प्रबन्धम की विवेचना करते हुए डॉ. मालिक मोहम्मद ने मत व्यक्त किया हैये प्रबन्धम है भगवत पुराण नही।डॉक्टर रामधारी दिनकर ने  अपनी   पुस्तक संस्कृति के चार अध्याय में है मत का समर्थन किया है । उन्होंने बिना  भेदभाव आम जन को भक्ति का अधिकारी घोषित किया अलवार का शब्द अर्थ है भगवद भक्ति में संलग्न संत । पोयगैं अलवार, तिरन मलसई, मधुर कवि, कुलशेखर आदि प्रमुख संत थे। दक्षिण में नयनार भक्त भी अलवारों के समकालीन थे। इन्होंने शिव को अपना आराध्य बनाकर भक्ति गीत लिखे। नयनार संतों की रचनाओं को 11 तिरुमुरैयों में संकलित हैं।

2. रामानुज

11वीं 12वीं शताब्दी के दक्षिण के वैष्णव संतो में आचार्य रामानुज का नाम अत्यधिक लोकप्रिय हैं आचार्य रामानुज की सबसे बड़ी देन भक्ति जगत में बुद्धि पक्ष तथा हृदय पक्ष दोनों में सामंजस्य स्थापित करना था। उन्होंने ब्राह्मण तथा अलवर दोनों ही परंपराओं विश्वास व्यक्त किया। दोनों तत्वों को मिलाकर उन्होंने अपनी राह बनाई। उन्होंने शंकराचार्य के अद्वैतवाद का विरोध करते हुए व्यक्तित्व पूर्ण एवं सगुण परमात्मा की उपासना बल दिया। रामानुज की चिंतन पद्धति को  विशिष्ट अद्वैतवाद के नाम से जाना जाता है। इस पद्धति का मुख्य आधार यह है कि जीव और प्रकृति ईश्वर पर आश्रित हैं किसी भी तरह ईश्वर से वह अलग नहीं है वास्तव में यह दोनों एक हैं उनमें से कोई भी अलग करके नहीं देखा जा सकता। रामानुज ने तीन ग्रंथ लिखे इसमें वेदार्थ संग्रह, गीता की टीका और वेदांत सूत्र का श्रीभाष्य। 1137 ईस्वी में उनकी मृत्यु हो गई।

3. महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन

महाराष्ट्र में भक्ति आंदोलन महाराष्ट्र में भक्ति की अलख संत ज्ञानेश्वर ने जगाई। बहुत कम आयु में उन्होंने भगवत गीता की समीक्षा लिखी, और अपने विचारों का प्रचार प्रसार मराठी भाषा में किया। नामदेव महाराष्ट्र में ज्ञानदेव  जी के समकालीन नामदेव(1270 ईस्वी से 1350 ईस्वी) थे।  नामदेव डाकुओं के सरदार थे। जीवन की कुछ घटनाओं से प्रभावित होकर उनके मन में  भक्ति की भावना जागृत हुई। वह पंढरपुर के विठोबा के भक्त बन गए।  उन्होंने ईश्वर की एकता पर बल दिया। उनका मूर्ति पूजा, उपवास और तीर्थ में कोई विश्वास नहीं था।

मराठी संतों में सर्वाधिक लोकप्रिय तुकाराम थे। उनका जन्म 1608 में पुणे से 30 किलोमीटर दूर देही गांव में हुआ था। वे शिवाजी के समकालीन थे। वे जन्म से शूद्र। थे उनके शिष्य में सभी धर्मों और जातियों के लोग थे। संत तुकाराम के उपदेश अभंगों के रूप में संग्रहित हैं। जिनकी संख्या 8000 के करीब है।

उन्होंने बाहरी आडंबर की जगह मन की शुद्धता पर बल दिया। उन्होने हिंदू मुस्लिम एकता का प्रचार किया।

संत रामदास भी तुकाराम जी के समकालीन थे आध्यात्मिक के साथ उन्होंने जीवन के व्यवहारिक पक्ष पर  बल दिया। शिवाजी के स्वराज स्थापना के प्रयासों के पीछे उनकी महत्वपूर्ण प्रेरणा थी।

4. उत्तर भारत में भक्ति आंदोलन

1. स्वामी रामानंद

रामानंद, रामानुज के शिष्य परंपरा के आचार्य राघवानंद के शिष्य थे। 14वीं शताब्दी में रामानंद का जन्म इलाहाबाद में हुआ था। उनकी शिक्षा बनारस और प्रयाग में हुई थी। उन्होंने सारे भारत का भ्रमण किया और विष्णु के अवतार के रूप में राम की भक्ति को मुक्ति का साधन माना। स्वामी रामानंद ने राम भक्ति को व्यापक रूप प्रदान किया। स्वामी रामानंद का दृष्टिकोण बहुत व्यापक था। उन्होंने जाति धर्म लिंग भेद के बगैर सभी को अपना शिष्य बनाया। वह जातिवाद में विश्वास नहीं रखते थे। वह पहले वैष्णव भक्त थे जिन्होंने अपने उपदेशों का प्रचार हिंदी भाषा में किया उनके शिष्य में धन्ना सेना रैदास और कबीर अधिक प्रसिद्ध हुए।

ii. कबीर

कबीर का जन्म 1398 ईसवी में एक विधवा ब्राह्मणी के घर हुआ था उनका लालन-पालन एक मुस्लिम जुलाहा दंपत्ति ने किया था। रामानंद के शिष्य में सर्वाधिक लोकप्रिय कबीर हुए। वह हिंदू मुस्लिम एकता के जीवंत प्रतीक थे। उन्होंने हिंदू और मुसलमानों के बीच खाई को कम करने तथा इन दोनों धर्मों में समन्वय की भावना बढ़ाने का प्रयत्न किया, और दोनों ही धर्म के बाहरी आडंबरो व सामाजिक रूढ़ियों पर कठोर प्रहार किए। रामानंद के शिष्य होते हुए भी कबीर पर नाथपंथी संप्रदाय का काफी प्रभाव था। कबीर, राम को अपना इष्टदेव मानते थे, कबीर के राम, ब्रह्म के प्रतीक थे। कबीर ने राम के निर्गुण निराकार स्वरूप की  उपासना की। कबीर की नजर में राम - रहीम और कृष्ण- करीम में कोई अंतर नहीं था। उनके उपदेश बीजक में संग्रहीत हैं।

iii. रैदास एवं अन्य संत

भक्ति काल की शिष्य परम्परा के अनमोल रत्न के रूप में रैदास, अपने गुरु रामानंद के बाद प्रसिद्ध संतों में से एक थे। संत रैदास के चर्मशिल्पी थे परंतु उनकी भक्ति और निर्गुण ब्रह्म के गुणगान से प्रभावित होकर ब्राह्मण और उच्च वर्ग के लोग भी उनका बहुत आदर एवं सम्मान करते थे। उनके भक्ति गीत कबीर की तरह व्यंग्यात्मक नहीं है उनमें प्रेम सद्भाव का भाव ज्यादा है उनके नाम से रैदासी संप्रदाय भी प्रचलित हुआ। अन्य प्रसिद्ध संतों में धन्ना, पीपा, सेना, रैदास, कबीर साहेब के पदों के आदि ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहब में मिलते हैं।

iv. गुरु नानक

गुरु नानक का जन्म लाहौर के निकट तलवंडी नामक स्थान पर 1469 ईसवी में हुआ उन्होंने देश के सभी प्रमुख धार्मिक स्थलों की यात्रा की वह मक्का भी गए हिंदू संतो तथा मुस्लिम सूफियों के साथ उनका संपर्क रहा हिंदू मुस्लिम एकता और सद्भाव के अग्रदूत थे उन्होंने अपनी वाणी और आचरण से हिंदू मुसलमानों को एक दूसरे के करीब लाने की कोशिश की गुरु नानक निराकार ब्रह्म की वाणी के उपासक थे। उनका विश्वास था कि ईश्वर की भक्ति और मानव सेवा से ही मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है उन्होंने जाती पाती का विरोध किया सामाजिक समानता तथा विश्व विश्व बंधुत्व की भावना के उपदेश दिए। 1539 ईसवी में उनकी मृत्यु हो गई।

v. चैतन्य महाप्रभु

चैतन्य भक्ति आंदोलन के महान संतों में से एक थे उनका जन्म 4 फरवरी 1486 ईस्वी में नादिया में हुआ था 1510 ईसवी में ईश्वर पूरी नामक संत से प्रभावित होकर उन्होंने वैराग्य ले लिया। वर्षों तक वे सारे भारत घूमते रहे और 1530 ईसवी में उन्होंने शरीर का त्याग कर दिया। कृष्ण ही चैतन्य  के प्रमुख उपास्यदेव थे।  उनकी भक्ति पूर्ण प्रेम एवं समर्पण कृष्ण के प्रति था। राधा और कृष्ण के माध्यम से उन्होंने अपने भक्ति गीत में आत्मा और परमात्मा के मिलन को चित्रित किया है। चैतन्य के बहुत सारे शिष्य  पिछड़ी जाति के थे कुछ मुसलमान भी थे। वे महान समाज सुधारक भी थे।

सूफी आंदोलन

सातवीं शताब्दी में अरब में इस्लाम का जन्म हुआ। इस्लाम के प्रवर्तक पैगंबर हजरत मोहम्मद साहब की मृत्यु के बाद यह धर्म अनेक संप्रदायों और पंथों में विभाजित हो गया। अपने रहस्यवादी और उदारवादी विचारों के प्रभाव के कारण अरब में सूफी संप्रदाय का उदय हुआ।

1. सूफी

सूफी वही कहलाता था जो तसवुफ (इस्लामी रहस्यवाद) का अनुयायी होता है

शेख अबुल हसन के अनुसार "तसवुफ रीतियों और विधाओं का नाम नहीं है बल्कि सब व्यवहार व सदाचार का नाम है" सूफी शब्द की उत्पत्ति पर  विद्वानों का मत है कि सूफी शब्द सफा से निकला है जिसका अर्थ है पवित्रता और शुद्धता अर्थात जिन लोगों ने स्वयं को सांसारिक वासनाओं और भौतिक सुखों से मुक्त और शुद्ध कर लिया तथा जो आचार विचार से पवित्र हैं सूफी कहलाए।

कुछ लोगों का मत है कि सूफी शब्द सफ (पंक्ति) से निकला है। अल सिराज के अनुसार सूफी शब्द की उत्पत्ति सूफ (ऊन) से हुई मोहम्मद साहब की मृत्यु के पश्चात जो सन्यासी, बकरी या भेड़ के बाल का ऊनी कपड़ा पहनकर घूमा करते थे, वह सूफी कहलाए।

कुछ विद्वानों का मत है कि सफा पहाड़ी पर शरण लेने वाले लोगों को  सूफी कहा गया।



भारत में प्रमुख सूफी सिलसिले

1. चिश्ती संप्रदाय

संप्रदाय के संस्थापक ख्वाजा अब्दाल चिश्ती थे। जिनकी मृत्यु 966 ईसवी में हुई थी। भारत में चिश्ती संप्रदाय की स्थापना ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती ने की। जिनका जन्म 1142ईस्वी में  हुआ था,वह संप्रदाय के शेख अब्दुल कादिर के शिष्य थे उन्होंने स्थान स्थान पर जाकर सूफी मत का प्रचार किया। 1190 ईस्वी में भारत आए। राजस्थान के अजमेर में अपना स्थाई निवास बनाकर रहने लगे और अपने सिद्धांतों का प्रचार करने लगे। उनका विचार था कि विश्व के समस्त धर्मों का मूल स्रोत एक है, ईश्वर एक है। 1236 ईसवी में उनका देहांत हो गया। अजमेर स्थित ख्वाजा साहब की समाधि पर प्रतिवर्ष मेला लगता है। जहां हिंदू मुसलमान सभी एकत्रित होते हैं। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के शिष्य के रूप में ख्वाजा कुतुबुद्दीन बख्तियार काकी का नाम उल्लेखनीय है, वे इल्तुतमिश के समकालीन थे, उन्हीं के नाम पर कुतुबमीनार का नाम पड़ा। ख्वाजा कुतुबुद्दीन के उत्तराधिकारी में उनके शिष्य फरीदुद्दीन गंज, शकर प्रमुख हैं, जिन्हे बाबा फरीद के नाम से जाना जाता हैप्रख्यात हुए बाबा फरीद की वाणी को सिखों के धार्मिक ग्रंथ गुरु ग्रंथ साहिब में भी शामिल किया गया है। बाबा फरीद के शिष्य निजामुद्दीन औलिया थे जिनका जन्म 1263 ईस्वी को बदायूं में हुआ था वे दिल्ली में स्थाई रूप से निवास करने लगे थे, उन्होंने दिल्ली के 07  सुल्तानो की सल्तनत देखी, किंतु वे किसी के  दरबार में नही गए। निजामुद्दीन औलिया को महबूब- -इलाही भी कहा जाता था। बाबा फरीद के बाद चिश्ती संप्रदाय दो भागों में विभक्त हो गया निजामिया, साबरिया

2. सुहरावर्दी संप्रदाय

इस संप्रदाय के प्रवर्तक शिहाबुद्दीन सुहरावर्दी थे। जिन्होंने अपने शिष्यों को भारत जाकर अपने  विचारों को फैलाने का आदेश दिया। उनके शिष्य में हमीउद्दीन नागौरी और बहाउद्दीन जकारिया ने प्रचार में विशेष योगदान दिया

3. कादरी

सूफी संप्रदाय के प्रवर्तक अब्दुल कादिर जिलानी थे जो बगदाद के निवासी थे भारत में कादरी संप्रदाय के प्रचार करने वालों में शाह नियामतुल्ला और  मखदूम मोहम्मद जिलानी के नाम उल्लेखनीय है। जिलानी ने अपना प्रचार  केंद्र सिंध को बनाया।

नक्शबंदी भारत में इस सिलसिले का प्रचार ख्वाजा बाकी बिल्लाह ने किया

प्रभाव

सूफी संतों ने भारत में उदार इस्लाम का प्रचार किया। वे बिना भेदभाव के उन्मुक्त रूप से हिंदू मुसलमानों से मिला करते थे। प्रेम करुणा उनके उपदेशों के केंद्र हुआ करते थे। आज भी हिंदू मुसलमान समान रूप से इन संतों की दरगाह पर जियारत के लिए जाते हैं।

निष्कर्ष तुर्क आक्रमण और मुगल साम्राज्य की स्थापना के बाद भारत में धार्मिक रूप से एक नए तत्त्व इस्लाम का प्रवेश हुआ। भारतीयों की इस्लाम के प्रति शुरुआती प्रतिक्रिया नकरात्मक थी। किंतु शासक वर्ग का प्रधान धर्म और इस्लाम के एकता और जाति विहीन समाज को अवधारणा ने हिंदू समाज ने जाति व्यवस्था में निचले क्रम की जातियों को अपनी ओर आकर्षित किया। जिसके फलस्वरूप बड़ी संख्या में ऐसे लोगों ने इस्लाम को स्वीकार कर लिया। फलस्वरूप हिंदू समाज ने अपनी कमियों को देख कर उसमे आत्ममंथन कर, एक ऐसे धार्मिक आंदोलन की शुरुआत की, जिसमे समाज के सभी वर्गो को धर्म और उपासना के अधिकारों के साथ सहज रूप में धार्मिक संदेश दिए जा सके। इसके लिए समाज के निम्न तबकों से भी संतों का प्रदुर्भाव हुआ। इन संतों ने, न केवल जाति पति को नकारा, बल्कि नानक, कबीर जैसे संतों ने प्रछन्न रूप से इस्लाम से संबंध भी स्थापित किए, साथी ही हिंदू मुस्लिम एकता पर बल दिया । दूसरी ओर इस्लाम के उदय के बाद इस्लाम का विभिन्न संस्कृतियों और सभ्यताओं से सामना हुआ जिससे इस्लाम धर्म भी प्रभावित हुआ। भारत में आगमन के पश्चात इस्लाम का सूफी मत लोकप्रिय होने लगा। सूफी संत और खानकाहों ने हिंदू मुस्लिम को बिना भेदभाव के अपनी शिक्षा दीं।जिससे हिंदू मुस्लिमो के मतभेदों में कमी आई। फलस्वरूप संयुक्त संस्कृति का जन्म हुआ, जिसे आज हम गंगा जमुनी तहजीब के नाम से जानते हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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