ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के शासन काल (1966-1977) में भारतीय विदेश नीति का मूल्यांकन (दक्षिण एशिया के विशेष सन्दर्भ में)
Evaluation of Indian Foreign Policy during Prime Minister Indira Gandhis Regime (1966-1977) (With Special Reference to South Asia)
Paper Id :  17501   Submission Date :  14/03/2023   Acceptance Date :  22/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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दीपक सिंह
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
शासकीय पीजी कॉलेज
चरखारी,उत्तर प्रदेश, भारत
सारांश किसी भी देश की विदेश नीति उस देश के अन्य देशों के साथ सम्बन्धों को स्पष्ट करती है। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल (1966-1977) में दक्षिण एशिया के देशों (पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल, भूटान, मालद्वीव, श्रीलंका) के साथ विदेश नीति थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ सामान्य रही एवं लोकतन्त्र को बहाल करने पर जोर दिया। बांग्लादेश का उदय सख्त विदेश नीति का परिचायक रहा एवं पड़ोसियों के साथ सम्बन्धों को मधुर एवं सहिष्णु बनाने का प्रयास किया।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The foreign policy of any country clarifies the relations of that country with other countries. During the tenure of Prime Minister Indira Gandhi (1966-1977), the foreign policy with the countries of South Asia (Pakistan, Bangladesh, Nepal, Bhutan, Maldives, Sri Lanka) remained normal with minor changes and emphasized on restoring democracy. The rise of Bangladesh was a sign of strict foreign policy and tried to make relations with neighbors sweet and tolerant.
मुख्य शब्द प्रधानमन्त्री, विदेश नीति, दक्षिण एशिया, सहिष्णुता, सहयोगपूर्ण, सामंजस्यतापूर्ण, साम्राज्यवाद विरोधी, राष्ट्रीय हित।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Prime Minister, Foreign Policy, South Asia, Tolerance, Cooperative, Harmonious, Anti-imperialist, National Interest
प्रस्तावना
किसी भी सरकार की नीति (Policy) उस सरकार एवं देश की मार्गदर्शिका होती है चाहे वह आन्तरिक नीति हो या विदेश नीति, भारत की विदेश नीति प्रारम्भ से ही सहिष्णु, साम्राज्यवाद विरोधी एवं सहयोगमूलक रही है एवं पड़ोसियों के प्रति सहयोगात्मक रही है जिसका प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने भी कार्य रूप में परिणत करने का कार्य किया एवं सफल भी रहीं एवं यदि किसी देश नेे अराजकता की स्थिति पैदा करने की कोशिश की तो उसको मुंहतोड़ जवाब भी दिया जिसका परिणाम पाकिस्तान का दो भागों में बट जाना एवं बांग्लादेश का निर्माण है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य भारत की विदेश नीति का प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के कार्यकाल (1966-1977) में अवलोकन करना है कि पड़ोसियों के साथ सम्बन्ध कैसे रहे एवं भविष्य में सम्बन्धों को पड़ोसी देशों के साथ मुधर कैसे बनाया जा सकता है। पूर्व की नीतियों का अवलोकन करते हुए।
साहित्यावलोकन

शोध पत्र को प्रस्तुत करने में विदेश नीति के विशषज्ञों, विदेश सचिवों के अनुभवों एवं पत्र, पत्रिकाओं, पुस्तकों यू.आर.घई ए. अप्पादोरई जे.एन. दीक्षित आदि का सहयोग अपेक्षित रहा।

मुख्य पाठ

परिकल्पना

इस शोध पत्र के माध्यम से एक निश्चित कार्यकाल में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी की पड़ोसियों के प्रति नीति का मूल्यांकन कर भविष्य में परिपक्व एवं सहयोगात्मक विदेश नीति का संचालन  करना है जिससे अन्य देशों के साथ सम्बन्ध मधुर रहें।

शोध पद्धति

इस शोध पत्र में तथ्यात्मक पद्धति एवं परिणात्मक पद्धति का प्रयोग किया गया है।

प्रधानमन्त्री लालबहादुर शास्त्री की मृत्यु के बाद भारत की बागडोर श्रीमती इन्दिरा गाँधी को मिली जिनका पहला कार्यकाल जनवरी, 1966 से मार्च, 1977 तक तथा दूसरा कार्यकाल जनवरी, 1980 से अक्टूबर, 1984 तक रहा। इन्दिरा गाँधी तेज तर्रार एवं नीतिगत निर्णयों में त्वरित फैसला लेने वाली थीं तथा यथार्थवाद की ओर उनका झुकाव था। जहाँ तक हमारे निकटतम पड़ोसी पाकिस्तान के साथ हमारे सम्बन्धों का प्रश्न हैइस दशक के आरम्भ मे माहौल अनुकूल रहा क्योंकि उसी समय ताशकन्द की जो घोषणा हुई थीउससे दोनेां देशों की समस्याओं को अच्छी तरह समझने का रास्ता खुलायदि इसे मजबूती से अमल में लाया जाता तो इससे भविष्य में भाईचारे तथा शान्ति की आशा अपेक्षित थी। सितम्बर, 1966 में दोनों देशों के सैनिक अधिकारियों के बीच यह निश्चय किया गया कि यदि सीमाओं में कोई सैनिक गतिविधि हो तो इसकी सूचना एक दूसरे को पहले देंलेकिन पाकिस्तान इसके बाद भी छेड़छाड़ करता रहा। ताशकन्द समझौते के बाद रूसी रवैया पाकिस्तान के प्रति परिवर्तित हुआ और जुलाई, 1968 में रूस ने पाक को सैनिक सहायता देने का निश्चय किया। पाकिस्तान में अप्रैल 1969 में अयूब खाँ के हांथों से सत्ता छिनकर जनरल याहिया खाँ के हांथों में आ गयी। याहिया खाँ ने भी भारत के प्रति जहर उगलने को ही अपनी विदेश नीति का सिद्धान्त बनाया। पाकिस्तान की मनोवृत्ति और रवैये में विकृति पैदा हो गयी और फिर बाद की वे घटनाएं घटीं जिसका दिसम्बर, 1971 में सबसे अधिक दुर्भाग्यपूर्ण सैनिक युद्ध में अन्त हुआ। इस युद्ध में इन्दिरा गाँधी ने भारत को गौरवपूर्ण विजय प्राप्त करवायी। भारत-पाक युद्ध केवल 14 दिन चला और 16 दिसम्बर 1971 को ढाका में पाक सेना के ले.जनरल ऐ.के. नियाजी ने आत्मसमर्पण पर हस्ताक्षर कर दिए। पूर्वी मोर्चे पर लगभग 1 लाख पाक फौजों ने आत्मसमर्पण कर दिया और पश्चिमी मोर्चे पर भारत ने पाक की लगभग 1400 वर्ग मील भूमि पर कब्जा कर लिया।

आत्मसमर्पण के तुरन्त बाद ही इन्दिरा गाँधी ने 17 दिसम्बर की रात्रि को एक पक्षीय युद्धविराम करते हुए पाक राष्ट्रपति जनरल याहिया खाँ से युद्धबन्दी प्रस्ताव को मान लेने की अपील की जिसे स्वीकार करने के अलावा पाकिस्तान के पास और कोई चारा नहीं था। इस पराजय के कारण पाकिस्तान में बड़ा असन्तोष उत्पन्न हो गयाजिसका परिणाम यह हुआ कि राष्ट्रपति याहिया खाँ का पतन हुआ और सत्ता जुल्फिकार अली भुट्टो के हाथ में आ गयी। भुट्टो और इन्दिरा गाँधी के बीच 3 जुलाई, 1972 को शिमला समझौते पर हस्ताक्षर हुए जिसमें दोनों सरकारें इस बात पर सहमत हुईं कि उनके राष्ट्राध्यक्षों की भविष्य में फिर भेंट होगी तथा शान्ति एवं समर्थन का प्रयास शामिल है। अप्रैल, 1974 में दोनेां देशों ने 1971 के युद्ध के पहले एक दूसरे के बन्दी बनाकर रखे हुए सभी नागरिकों को वापस भेज देना स्वीकार किया। सितम्बर, 1974 में डाक एवं तार के संचार सम्बन्ध स्थापित करने के बारे में एक समझौता हुआ। सितम्बर, 1974 में व्यापार समझौता हुआ। 1974 में जब भारत ने पोखरण में शान्तिपूर्ण उपयोग के लिए आणविक परीक्षण किया तो भुट्टो ने कहा कि पाकिस्तान भी अवश्य बम बनाएगा चाहे इसके लिए उसे घास ही क्यों न खानी पड़े। जनवरी, 1975 में दोनों देशों ने जहाजरानी समझौता किया। 24 फरवरी, 1975 को प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने कश्मीर समस्या का अन्तिम रूप से समाधान करने के लिए शेेख अब्दुल्ला से एक समझौता कियाइसके अन्तर्गत शेख अब्दुल्ला को कश्मीर का मुख्यमन्त्री स्वीकार किया गया और श्री शेख ने कश्मीर को भारत का अंग स्वीकार किया।

‘‘प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने श्रीलंका के साथ सम्बन्धों को दृढ़ बनाने के लिए 1967 में श्रीलंका की यात्रा की तथा दोनों प्रधानमन्त्रियों ने यह निश्चय किया कि समझौते (1964) के अधिकांश भाग के कार्यान्वयन के पश्चात ही शेष बचे राज्यविहीन नागरिकों के सम्बन्ध में निर्णय लिया जाएगा।’’ 01 नवम्बर, 1968 को श्रीलंकाई प्रधानमन्त्री डडली सेना नायके भारत आए ‘‘दोनों राष्ट्र इस बात पर सहमत हुए कि वह परस्पर सहयोग के साथ अपने-अपने अन्तः विरोधों को सुलझाने का प्रयास करेंगें।’’[2] 1970 के चुनावों के उपरान्त श्रीमती सिरिमावों भण्डारनायके पुनः श्रीलंका की प्रधानमन्त्री बनींउन्होंने भारतीय मूल के नागरिकों के स्वदेश प्रत्यावर्तन की प्रक्रिया को शीघ्रता से आगे बढ़ाने पर जोर दिया। 30 अप्रैल, 1970 तक प्राप्त आवेदनों में 6 लाख 25 हजार प्रवासी भारतीयों ने श्रीलंका की नागरिकता प्राप्त करने हेतु आवेदन किया। ‘‘श्रीलंका की नागरिकता प्राप्त करने हेतु आवेदन करने वाले व्यक्तियों की संख्या 1967 के समझौते में निर्धारित संख्या की दुगने से भी अधिक     थी।’’[3] जून, 1971 में भाण्डारनायके सरकार द्वारा भारत-सीलोन समझौता अधिनियम 1967 में संशोधन किया गया जिसका उद्देश्य श्रीलंका की नागरिकता प्रदान किए जाने वाले व्यक्तियों की संख्या में प्रवासी भारतीयों के स्वदेश प्रत्यावर्तन की संख्या के समानुपात में लाना था।[4]

भारतीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने अप्रैल, 1973 को श्रीलंका की यात्रा की। ‘‘दोनों प्रधानमन्त्रियों द्वारा सहमति बनी कि प्रवासी भारतियों के स्वदेश प्रत्यावर्तन की दर में बढ़ोत्तरी की जाए जो कि 1964 के समझौते में निर्धारित संख्या 35,000 की 10 प्रतिषत वार्षिक की दर से होगी।’’[5] जनवरी, 1974 में श्रीलंकाई प्रधानमन्त्री भण्डारनायके भारत की यात्रा पर आयीं जिसके तहत 1964 के समझौते में शेष बचे, 1,50000 नागरिकता विहीन व्यक्तियों के सम्बन्ध में विचार-विमर्श किया गया तथा यह निश्चित किया कि 75,000 व्यक्तियों की श्रीलंका की तथा शेष 75000 व्यक्तियों को भारत की नागरिकता प्रदान की जाएगी। इस प्रकार वर्षों से चली आ रही प्रवासी भारतीयों की समस्या का समाधान किया गया। 21 फरवरी, 1974 को श्रीमती भण्डारनायके ने अपने भाषण में कहा ‘‘भारत-श्रीलंका मध्य की समस्या जो वर्षों से चली आ रही थी का समाधान उनके कार्यकाल में ही सम्भव हो सका है।[6] ‘‘1976 में एक समझौता किया जिसमें आर्थिक सांस्कृतिक और तकनीकी क्षेत्र में दोनों के बीच सहयोग बढ़ाने पर बल दिया गया।’’[7] भारतीय प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने अगस्त, 1976 में कोलम्बो में आयोजित ''NAM" सम्मेलन में श्रीलंका गयीं। दिसम्बर, 1971 को भारत ने बांग्लादेश को मान्यता दी तथा 16 दिसम्बर, 1971 को स्वतन्त्र बांग्लादेश का निर्माण हुआ। प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी के प्रयासों से 9 जनवरी, 1971 को शेख मुजीब को पाक जेल से रिहा कर दिया और 10 जनवरी, 1972 को भारत पहुंचने पर शेख ने श्रीमती गाँधी का आभार व्यक्त किया तथा कहाभारत-बांग्लादेश एक असीम भाईचारे में बंध गये हैं उनका कृतज्ञ राष्ट्र भारत-बाॅंग्लादेश सम्बन्ध घनिष्ठ मित्रता के रहे। दोनों ही देश धर्म निरपेक्षता तथा पंचशील एवं गुटनिरपेक्षता की नीति पर चलते रहे।

फरवरी 1972 को शेख मुजीब भारत आए तथा मार्च 1972 को प्रधानमंत्री इन्दिरा गांधी बांगलादेश गयी। 19 मार्च 1972 को दोनों के बीच एक मैत्री सन्धि हुई जिसकी अवधि 25 वर्ष थी इस सन्धि के द्वारा दोनों देशों ने एक दूसरे के आन्तरिक मामलों में हस्तक्षेप न करनेएक दूसरे की सीमाओं का आदर करने एक दूसरे के विरुद्ध किसी अन्य देश की सहायता न करनेविश्व शांति एवं सुरक्षा को दृढ़ बनाने आदि का संकल्प लिया दोनों देशों के मध्य व्यापार आर्थिक तथा सांस्कृतिक समझौता भी सम्पन्न हुआ। अप्रैल 1974 को भारत पाक तथा बांग्लादेश के मध्य एक त्रिपक्षीय समझौता हुआ जिसमें सभी पाकिस्तानी युद्धबन्दी मुक्त कर दिये गये।

भारत एवं बांग्लादेश के मध्य सीमांकन सम्बन्धी समझौता मई 1974 में सम्पन्न हुआ जिसके अनुसार भारत ने दाहग्राम और अमरकोट का क्षेत्र बांग्लादेश को दे दिया तथा बांग्लादेश ने बेरुबाड़ी पर भारतीय अधिकार स्वीकार कर लिया। मई 1974 में भारत ने बांग्लादेश को 40 करोड़ रुपए का ऋण देना भी स्वीकार किया। 15 अगस्त, 1975 को शेख मुजीब की हत्या कर दी गयी। पहले मुश्ताक अहमद और फिर 6 नवम्बर, 1976 को जस्टिस आबू सादात सयाम राष्ट्रपति बने।30 जनवरी, 1977 को मेजर जनरल जियाउररहमान ने मुख्य मार्शल लाॅ प्रशासक बनकर सत्ता पर अधिकार कर लिया। शेख मुजीब के कार्यकाल में दोनों देशों के सम्बन्ध मधुर बने रहे।

अक्टूबर, 1966 में प्रधानमन्त्री इन्दिरा गाँधी ने नेपाल की यात्रा की। उन्होंने नेपाल के पंचायती लोकतन्त्र की सराहना की तथा महाराज महेन्द्र को दार्शनिक शासक कहकर पुकारा। नेपाली प्रधानमन्त्री के.एन.विष्ट ने चीन को सन्तुष्ट करने के लिए यह माँग रखी की नेपाल से भारतीय सैनिक तथा कर्मचारी हटा लिए जाए तथा भारत को सन्तुष्ट करने के लिए उसने दोनों देशों के बीच परम्परागत सम्पर्कों को दृढ़ करने पर जोर दिया। 1970 तथा 1971 के समय दक्षिण एशिया उप महाद्वीप में जो परिवर्तन हुए उनके कारण एक ऐसा वातावरण पैदा हो गया जिसमें भारत के नेपाल के प्रति तुष्टीकरण नीति की अपेक्षा दृढ़ दृष्टिकोण अपनाया जाना सम्भव हो सका। भारत तथा रूस के मध्य भारत-रूसी मैत्री सन्धि (1971) बांग्लादेश मुक्त करवाने में भारत की भूमिका ने इस क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को चार चाँद लगा दिए। नेपाल के साथ सम्बन्धों में भारत ने नेपाल सम्बन्धों के आधार के लिए पारस्परिकता के सम्बन्धों को अपनाने का निर्णय लिया। इन्दिरा गाँधी ने नेपाल के साथ व्यापार तथा पारगमन संधि की पुनः नवीनीकरण की समस्या पर कड़ा रवैया अपनाया जो कि नवम्बर, 1970 में पुरानी संधि के समाप्त हो जाने के बाद आवश्यक हो गया था। दीर्घकालीन बातचीत के बाद ही अगस्त, 1971 को सन्धि का नवीनीकरण किया गया। नेपाल भारत से सभी वांछित रियासतें प्राप्त करने में असफल रहा तथा इससे नेपाल के प्रति भारत के दृष्टिकोण में परिवर्तन और अधिक स्पष्ट हो गया। 1975 में भारत-नेपाल सम्बन्ध उस समय तनावपूर्ण हो गए जब अपनी राजनीतिक व्यवस्था में सम्भावित परिणामों के कारण नेपाल ने सिक्किम में भारत के विलय के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त की। भारत ने नेपाल को तेल तथा पैट्रोलियम की आपूर्ति के विषय में दृढ़ रवैया अपनाया जिससे नेपाल के प्रधानमन्त्री श्री एन0पीरिज़ल द्वारा दिल्ली का दौरा तथा भारतीय वित्त मन्त्री वाई.बी. चैहान का नेपाल दौरे से दुराव कम हुआ लेकिन श्रीमती गांॅंधी ने दृढ़ रवैया अपनाये रखा। अक्टूबर, 1975 में महाराजा वीरेन्द्र भारत आये तथा श्रीमती गाँधी ने आश्वासन दिया कि वे उसकी पंचवर्षीय योजनाओं में सहायता देंगी। भारत ने नेपालियों को भारत के विशेष क्षेत्रों में गतिविधियों पर भी इस आधार पर रोक लगा दी कि ये क्षेत्र संरक्षित होने के कारण दूसरे देशों के नागरिकों के लिए निषिद्ध नेपाल के साथ मैत्रीपूर्ण सम्बन्ध रहे। ‘‘पहले से सशक्त स्थिति ने भारत को नेपाल के साथ सम्बन्धों में इच्छित परिवर्तन लाने में सहायता प्रदान की।‘‘[8]

प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की दक्षिण एशिया के प्रति विदेश नीति के क्रम में भूटान को एक प्रभुसत्ता सम्पन्न देश माना तथा कहा कि वह भूटान की प्रभुसत्ता तथा आन्तरिक स्वायत्तता का पूर्ण सम्मान करती है। 1971 में संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता के लिए भारत ने भूटान का नाम प्रस्तावति किया तथा भारत ने इस दावे को झुंठला दिया जिसमें कहा जाता था कि भारतभूटान पर आँख रखता है। इस घटना के बाद दोनों के सम्बन्धों में प्रगाढ़ता आ गयी। भूटान-भारत के साथ सम्बन्धों से पूर्णतया संतुष्ट है। भूटान दूसरे देशों के साथ-साथ कूटनीतिक सम्बन्धों को बनाने से परहेज करता है तथा खासकर ‘चीन की टोह’ से दूर ही रहा है। बांग्लादश के संकट के समय भूटान ने भारत को नैतिक समर्थन दिया तथा भारत के तुरन्त बाद संयुक्त राष्ट्र संघ ने बांग्लादेश की मान्यता को तुरन्त प्रदान कर दी। जब 1975 में सिक्किम भारतीय क्षेत्र का एक भाग बन गया तो चीन ने भारत को यह समझाने का प्रयास किया कि भूटान का हाल भी सिक्किम जैसा ही होगालेकिन भूटान ने इस पर कोई ध्यान नहीं दिया। भारत ने हमेशा भूटान को आर्थिक एवं तकनीकी रूप से सहायता की है तथा वही स्थिति भारत बनाए हुए है।

निष्कर्ष भारतीय प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी ने अपने पड़ोसियों के साथ सदैव सहयोगपूर्ण रवैया अपनाया तथा पड़ोसियों से लोकतन्त्र की बहाली पर खास जोर दिया। कभी छोटे देशों को यह एहसास नहीं होने दिया कि भारत की स्थिति इन सब देशों से हर तरह से मजबूत है। पश्चिमी पाक द्वारा पूर्वी पाक पर आक्रमण, जघन्य, हत्या, बलात्कार पर तुरन्त कड़ी कार्यवाही की जिसका परिणाम बांग्लादेश है। भूटान को स्वयं यू.एन.ओ. का सदस्य बनाने का प्रस्ताव रखा और बनवाया। पाकिस्तान के साथ सहयोगात्मक, शांतिपूर्ण नीति अपनाने का प्रयास किया। श्रीलंका, नेपाल, मालद्वीव के साथ सम्बन्धों को मधुर एवं सौहार्द्धपूर्ण बनाने का भरसक प्रयत्न किया। प्रधानमन्त्री श्रीमती इन्दिरा गाँधी की विदेश नीति सहयोगपूर्ण के साथ-साथ यथार्थपूर्ण एवं वास्तविक भी रही जिस पर चलकर कोई देश अपने राष्ट्रीय हित प्राप्त कर सकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. ए. अप्पादोरई एण्ड एम.एस. राजनः इण्डियाज फॉरेन पॉलिसी एण्ड रिलेशन्सः साउथ एशियन पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 1988, पृ0-202 2. ए.के. सेनः इण्टरनेशनल रिलेशन्स, एस.चन्द एण्ड को, नई दिल्ली, 1993, पृ0-616 3. एस.यू. कोडिकाराः फॉरेन पॉलिसी ऑफ़ श्रीलंका, ए थर्ड वल्र्ड पर्सपेक्टिव, चाणक्य पब्लिकेशन दिल्ली, 1982, पृ0-36 4. सीलोन प्रोसीडिंग ऑफ़ डिबेट इन द हाउस ऑफ़ रिप्र्रजन्टेटिव, वाल्यूम-94, कोलः1954-55 5. ए.अप्पादोरई एण्ड एम.एस. राजनः इण्डियाज फॉरेन पॉलिसी एण्ड रिलेशन्सः साउथ एशियन पब्लिशर्स, नई दिल्ली, 1988, पृ0-202 6. द हिन्दूः 22.02.1974 7. रिपोर्ट 1976-77 गवर्नमेंट ऑफ़ इण्डिया, मिनिस्ट्री ऑफ़ इक्सटर्नल एफेयर्स नई दिल्ली, पृ0-19 8. यू.आर.घईः भारतीय विदेश नीति, न्यू एकेडमिक पब्लिशिंग कम्पनी जालन्धर, 2005, पृ0-437-38.