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महिला सशक्तीकरणः एक ज्वलंत प्रसंग |
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Women Empowerment: A Vivid Case | |||||||
Paper Id :
16408 Submission Date :
2023-07-11 Acceptance Date :
2023-07-19 Publication Date :
2023-07-25
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सारांश |
महिला सशक्तीकरण की याता
जिसका आरम्भ यूरोप में लगभग दो शताब्दी पूर्व हुआ, आज तक अनवरत जारी हैं। 8 मार्च, रात 1857 ई को न्यूयार्क
की सड़कों पर जो हजारो कामकाजी महिलाये एकत्रित हुई उन्होंने विभिन्न कारणों से
हड़ताल कर दी थी, इनकी मेहनत रंग लाई और 1975 ई. में संयुक्त राष्ट्र ने इसे कानूनी तौर पर मान्यता दे
दी। तब से लेकर अब तक निस्तर प्रयास जारी है। अनला कही जाने वाली महिला को सशक्त
बनाने के लिए शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा इन तीनों पर पुरजोर बल
लगाते हुए इस कार्य को आगे बढ़ाया जा रहा है। उम्मीद है, आने वाले समय में परिणाम सुखद होगा। |
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The journey of women empowerment, which started in Europe about two centuries ago, continues till today. On the night of March 8, 1857, thousands of working women gathered on the streets of New York and went on strike for various reasons. Their hard work bore fruit and in 1975, the United Nations gave it legal recognition. Since then till now the efforts are continuing. To empower the women known as Anala, this work is being taken forward by putting strong emphasis on education, health and security. Hopefully, the results will be pleasant in the times to come. | ||||||
मुख्य शब्द | सशक्तिकरण, स्वतंत्रता, अस्मिता, समानता, स्वास्थ्य, अपराध। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Empowerment, Freedom, Identity, Equality, Health, Crime. | ||||||
प्रस्तावना | महिलाएं हमारे देश
की आबादी का लगभग आधा हिस्सा है। यह विडम्बंना ही है कि हमारे देश को आजादी मिले 75
वर्ष बीतने के बाद भी आधी आबादी कहलाने वाली महिलाओं की हालत को
अब भी “अच्छा” नहीं कहा जा सकता।
दुनिया पर नजर डालें तो ऐसा कोई भी देश नहीं है जहाँ महिलाओं को हाशिए पर रखकर
आर्थिक विकास संभव हुआ हो। महिलाओं को विकास की मुख्यधारा से जोड़े बिना किसी समाज,
राज्य एवं देश के आर्थिक, सामाजिक और
राजनीतिक विकास की कल्पना भी नहीं की जा सकती है। अतः महिला सशक्तिकरण की बात उठते
की यह चिन्तन मन में आरम्भ होता है कि क्या वास्तव में महिलाएं कमजोर है, जो उनके सशक्तिकरण की आवश्यकता हैं। इनका उत्तर है-हा। |
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अध्ययन का उद्देश्य | 1. महिला सशक्तिकरण में शिक्षा की भूमिका का अध्ययन। 2. महिला सशक्तिकरण के माध्यम से समानता, स्वतंत्रता एवं न्याय का अध्ययन। 3. महिला स्वास्थ्य तथा सशक्तिकरण के सह-सम्बंधों को ज्ञात करना। |
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साहित्यावलोकन | 1. डॉ॰ धनंजय कुमार मिश्रा के
शोध पत्र “महिला सशक्तिकरणः दिशा, आयाम एवं भविष्य में प्राचीन काल से लेकर वर्तमान समय में
महिला सशक्तिकरण की दिशा, आयाम और उज्जव भविष्य पर
चर्चा का अध्ययन किया। 2. नीलम चैधरी के महिला
सशक्तिकरण: एक ज्वलंत प्रसंग का अध्ययन जिसमें आज हमारे देश में ही नहीं अपितु
विश्व पटल पर नारी केन्द्रित समस्याएँ, विकास, सुधार और उनकी समान भागीदारी के ज्वलंत प्रश्न ने ध्यान
आकर्षित किया। 3. आज के संदर्भ में महिला
सशक्तिकरण डॉ॰ अमित शुक्ला के शोध पत्र का अध्ययन जिसमें महिला सशक्तिकरण की पहल
से लेकर 21वीं सदी की महिला जागरूकता
सम्बंधी तथ्यों पर चर्चा की गयी है। 4. दैनिक समाचार पत्र अमर
उजाला एवं जनसत्ता के सम्पादकीय आलेखों में महिला सशक्तिकरण सम्बंधी विभिन्न
तथ्यों का अध्ययन।
5. योजना एवं कुरूक्षेत्र
मासिक पत्रिकाओं में महिला सशक्तिकरण से सम्बंधित विभिन्न आलेखों का अध्ययन। |
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मुख्य पाठ |
महिला सशक्तिकरण अब वर्तमान दुनिया का बेहद जरूरी विमर्श है। चूकि यह स्तीं की
स्वंतत्रता, समानता, मजबूती और महत्ता का हिमायती है, इसीलिए इसे सम्पूर्ण मानव जाति के आधे हिस्से की बेहतरी से
जुडों विमर्श कहा जा सकता है। महिला सशक्तिकरण की इस यात्रा पर नजर डाली जाए तो
यूरोप में इसकी शुरूआत कोई दो शताब्दी पहले हुई,
जब 1792 में मेरी बोल्स्टन क्राफ्ट
की पुस्तक ए विन्डिक्शन ऑफ द राइट्स ऑफ विमेन का प्रकाशन हुआ। इसमंे पहली बार मेरी
ने फ्रांस क्रान्ति से प्रभावित होकर ‘स्वतंत्रता-समानता-भ्रातृत्व’ के सिद्धान्त को
स्त्री समुदाय पर लागू करने की मांग की उन्होने स्पष्ट रूप से कहा कि कोई भी
समतावादी सामाजिक दर्शन तब तक वास्तविक अर्थो में समतावादी नही हो सकता जब तक कि
वह स्त्रियों को समान अधिकार और अवसर देने तथा उनकी हिफाज़त करने की हिमायत नही
करता। इसलिए मेरी बोल्स्टन क्राफ्ट को स्त्री मुक्ति का आदि सिद्धान्तकार माना जाता
है। संघर्ष का शंखनाद हो चुका था। विश्व के इतिहास में ऐसा पहली बार हुआ था जब 8 मार्च सन् 1857 ई0 को न्यूयार्क की सड़कों पर हजारों कामकाजी महिलाऐं एकत्रित
हुई जो गारमेन्ट तथा टैक्सटाइल कारखानों की कामगार थी और विभिन्न कारणों से ग्रस्त
होकर उन्होने हड़ताल कर दी थीं। इसके 53 वर्ष बाद (सन् 1910 ईं0) को कोपेन हेगन में महिला
सोशलिस्ट इंटरनेशनल ने निर्णय लिया कि 1857 की हड़ताल को एक यादगार
दिवस के तौर पर मनाया जाय। अतः 8 मार्च को अन्र्तराष्ट्रीय
महिला दिवस घोषित कर दिया गया और सन् 1975 ई0 में संयुक्त राष्ट्र ने इसे कानूनी तौर पर मान्यता दे दी। कैसी बिडम्बना है कि सन् 1975 से लेकर आज तक प्रत्येक
वर्ष 8 मार्च को महिला दिवस मनाया
जाता है लेकिन 47 वर्ष व्यतीत होने के बाद
भी क्या महिला सशक्त हुई ? आधी आबादी के कितने अधूरे
सपने पूरे हुए ? महिलां आत्मनिर्भर हो या
घरेलू इस पुरूष प्रधान समाज में आज भी एसे कदम कदम पर दुव्र्यवहार, प्रताड़ना, तथा व्यंग झेलने पड़ते है।
परिवार में ही अस्मिता, मान-सम्मान तथा गरिमा बनाये
रखने के लिए उसे तिल-तिल संघर्ष करना पड़ता है। एक ऐसा संघर्ष जिसमे अपना सर्वस्व
समर्पित करके भी वह स्वंय को हार की दहलीज पर खड़ा पाती है। कुछ राहत है कि सोशल मीडिया से लकर असल दुनिया तक, महिलाऐं अब स्थापित खांचों से बाहर आ रही हैं इस खुलेपन में
सबसे अहम बात उनका यह मानना और दूसरों से मनवाना की बिना किसी गलती के हम शर्मिदा
क्यों हों ? असल में शर्मिदा तो उन्हे
होना चाहिए जो महिलाओं की सुरक्षा और समानता के उस हक पर डाका डालते है जो इस देश
का नागरिक होने के नाते उनका अधिकार है। हमारे देश में सबसे ज्यादा बदलाव की दरकार तो समाज मे मौजूद परम्पराओं, रूढ़ियों और भेदभाव से परिपूर्ण मानसिकता की जकड़न को लेकर
है। बेटे और बेटी में किए जाने वाले भेदभाव की मानसिकता के चलते ही आज भी दूर-दराज
के गांवों में बेटियों की शिक्षा और स्वास्थ्य को महत्व नही दिया जाता। कागजों में
से संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में पाया गया कि प्रगति के बावजूद समूह आधारित
असमानताऐं भारत मे बनी हुई हैं, जो खासकर महिलाओं और
लड़कियों को प्रभावित कर रही हैं। भारतीय लड़कियां क्षेत्रीय औसत की तुलना में कम
अवधि के लिए स्कूल जाती हैं, इस आकड़े के अनुसार देश मे
लगभग के 6 लाख प्राथमिक विद्यालयों
में 86 प्रतिशत से अधिक गांवों
में है लेकिन अधिकतर ग्रामीण स्कूलों को सरकारी योजनाओं का लाभ नहीं पहंुच पा रहा
हैं। यंहा तक कि अफ्रीका जैसे पिछड़ें देश से भी महिला साक्षरता दर कम है। अभी
सैकड़ों गांवों की लड़कियां निरक्षर है। इसके एक नहीं बल्कि अनेक कारण हैं। सुदूर
गांवों मे आज भी प्राथमिक विद्यालय नहीं है। ऐसे सैकड़ों गांव है जहा के प्राथमिक
पाठशाला मे एक कमरे के अलावा और कुछ भी सुविधा उपलब्ध नहीं हैं। एक अध्ययन के
अनुसार 34 प्रतिशत परिवार कपड़ों, पुस्तकों और अन्य चीजों की व्यवस्था न दे पाने के कारण
लड़कियों को नही भेज पा रहे हैं। जबकि 13 प्रतिशत लड़कियां इस लिए
पढ़ने नही जाती क्योंकि उनके माता पिता घर या बाहर के कार्यो को उनसे करवाते है।
वर्ष 2015-16 की अवधि के आकड़ें माध्यमिक
शिक्षा तक लड़कियों की कुछ बढ़ती भागीदारी को दर्शाते हैं, लेकिन जब बात उच्च शिक्षा की आती है, तो लड़कियों का नामाकंन लड़कों की तुलना में कम होता है। उच्च
शिक्षा पर नवीनतम अखिल भारतीय सर्वेक्षण के मुताबिक,
उच्च शिक्षा में कुल नामांकन अनुमानित रूप से 3.66 करोड़ हैं, जिसमें लड़कों की संख्या 1.92 करोड़ और लड़़कियों की
संख्या 1.74 करोड़ है। शिक्षा के बाद स्वास्थ्य की चर्चा करें तो महिला सशक्तिकरण का स्वास्थ्य से
संबंध - यह कहा जा सकता है कि दोनों पहलू एक दूसरे से लाभ के तौर पर जुड़े हुए हैं।
भारत में विभिन्न सरकारी नीतियों और कानूनी उपायों के जरियें स्वास्थ्य सेवाओं को
बेहतर बनाने और महिलाओं के सशक्तिकरण के लिए लगातार कोशिशें जारी रही हैं। इसके
बावजूद जनसंख्या और स्वास्थ्य संबंधी सर्वेक्षणों राष्ट्रीय स्वास्थ्य परिवार
सर्वेक्षण (एन.एफ0एच0एस0) और जिला स्तर पर घरेलू
सर्वेक्षण में कमियों का संकेत है। इन सर्वेक्षणों के मुताबिक, देश के तमाम हिस्सो में महिलाओं के बीच सेवा के उपयोग और
इसके परिणाम में पुरूषों की तुलना में असमानता देखी गई है। इसके अलावा महिलाओं के
एक बड़े हिस्से के पास अपनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए स्वास्थ्य सेवाओं के
उपयोग और इसके परिणाम में पुरूषों की तुलना में असमानता देखी गई है। इसके अलावा
महिलाओं के एक बड़े हिस्से के पास अपनी स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं के लिए स्वास्थ्य
सेवाओं के उपयोग के बारे मे फैसले लेने की स्वतंत्रता और जागरूकता नहीं है। अपने
स्वास्थ्य से जुड़े मामलों को लेकर बड़े पैमाने पर जानकारी ओर जागरूता की कमी भारतीय
महिलाओं के स्वास्थ्य और सुख में बड़ी बाधा है और यह उन्हें अशक्त बनाता है। वल्र्ड
बैंक की एक्सपर्ट मीरा चटर्जी की रिर्पोट ‘‘स्पायरिंग लाइव्स’ मे भारत समेत बांग्लादेश,
नेपाल, पाकिस्तान तथा श्रीलंका में
महिलाओं की स्वास्थ्य की स्थिति का लेखा जोखा पेश किया गया जिसके अनुसार भारत में
आज भी प्रति एक लाख प्रसवों के दौरान 301 महिलाओं की मृत्यु हो जाती
है। जबकि नेपाल में यह दर 281, पाकिस्तान में 276, तथा श्रीलंका में सिर्फ 58 है। सुरक्षा के आंकड़ों पर नजर डाले तो राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरों
(एन.सी.आर.बी.) के नवीनतम आंकडो के मुताविक देशभर में 2017 में महिलाओं के खिलाफ अपराध के 3,59,849 मामले दर्ज किए जए। एन.सी.आर.बी. के आंकडो के अनुसार
अधिकतम मामले उत्तर प्रदेश (56,011) में दर्ज किए गए। उसके बाद
महाराष्ट्र में 31,979 मामले दर्ज किए गए।
एन.सी.आर.बी. के अनुसार 2018 में महिलाओं के खिलाफ
अपराध की श्रेणी में 3,78,277 मामले दर्ज किए गए थे। 2018 में आई.पी.सी की धारा 376 के तहत बलात्कार के मामलो
की संख्या 33,356 रही। बेतहाशा बढ़ रही इन
आंकडो की यह संख्या तब है जबकि महिलाओं के प्रति अपराध पर लगाम लगाने और उनकी
सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए भारतीय संविधान में कानूनों की एक लंबी सूची है।
इसीलिए चार साल पहले विश्व बैंक ने टिप्पणी की थी कि हम महिलाओं के सशक्तीकरण
की चाहे जितनी डीगें हांक ले, पर 21 वीं सदी के भारत में भी महिलाओं की स्थिति में कोई ज्यादा
फर्क नहीं आया है। वे पत्र-लिखकर कामकाजी जरूर हुई हैं, पर घर सें बाहर उन्हें और ज्यादा परेशानियों का सामना करना
पड़ रहा है। नौकरी के लिए निकलते हुए उन्हें अपने पति और सास-ससुर से इजाजत लेनी
पड़ती है। स्पष्ट है कि महिला अभी भी हर मोर्चे पर लड़ती हुई सशक्त नहीं अभी अशक्त
है। आधी आबादी को पूरी मजबूती मिलने में भी अभी न जानें कितना वक्त लगेगा पर
उम्मीद है कि यह वक्त भी जल्द ही अलेगा। |
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निष्कर्ष |
शिक्षा, स्वास्थ्य और सुरक्षा ये तीनों पहलू एक दूसरे से जुड़े हुए
हैं। भारत में विभिन्न सरकारी नीतियों और कानूनी उपायों के जरिये इन मुद्दों से
जुड़ी योजनाओं का लाभ महिलाओं क पहुँचा कर उन्हें सशक्त बनाने की पुरजोर कोशिश की
जा रही हैं। भारतीय संविधान में भी महिलाओं के प्रति अपराध पर लगाम लगाने और उनकी
सुरक्षा निशिचत करने के लिए कानूनों की एक लम्बी सूची है। अन्ततः उम्मीद करते हैं
कि आधी आबादी को पूरी मजबूती जल्द ही मिलेगी। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. योजना - अक्टूवर, 2008 - पृष्ठ - 23 2. जनसत्ता - 3 अप्रैल, 2019 3. अमर उजाला - 30 दिसम्बर, 2019 4. कुरूक्षेत्र - अंक 03 जनवरी, 2016, पृष्ठ - 18 5. योजना - अक्टूवर, 2018 - पृष्ठ - 67 6. राष्ट्रीय अपराध रिकार्ड ब्यूरो रिपोर्ट |