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योग और आयुर्वेद के अङ्गों की तुलना | |||||||
Comparison of Parts of Yoga and Ayurveda | |||||||
Paper Id :
17494 Submission Date :
2023-04-14 Acceptance Date :
2023-04-21 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
योग एवं आयुर्वेद का विकास एवं सम्पूर्ण प्रयोग मानव जाति को स्वस्थ बनाते हुए मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर करना है। इन दोनों विद्याओं का उद्गम एवं विकास भारत वर्ष में हुआ आजके युग में समग्र विश्वने योग एवं आयुर्वेद को अपनाया है ।योग शास्त्र में व्याधि, सत्यान आदि नौ तत्वों को योग के बाधक तत्व की श्रेणी में रखा गया है। जबकि इसके समान आयुर्वेद शास्त्र में आदिभौतिक, आदिदैविक एवं आध्यात्मिक कष्टों को जीवन के बाधक तत्व माना गया है। इसके साथ साथ मानव जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों का उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है। आयुर्वेद शास्त्र में भी ' धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्'।। ये चार पुरुषार्थों को मानव जीवन के मूल उद्देश्य के रूप में वर्णित किया गया है। और इस शोधपत्र मे हम यौगिक षट्कर्म एवं आयुर्वेदोक्त पंचकर्म, योगासन एवं आयुर्वेदोक्त व्यायाम, प्राणायाम एवं आयुर्वेदोक्त पंचप्राण, यौगिक धारणा, ध्यान, समाधि एवं आयुर्वेद इन के बारेे मे जानेगे।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | The development and complete use of Yoga and Ayurveda is to make mankind healthy and move towards the path of liberation. The origin and development of both these disciplines took place in India. In today's era, the whole world has adopted Yoga and Ayurveda. In Yoga Shastra, nine elements like disease, truth etc. have been kept in the category of obstacle elements of Yoga. Whereas in Ayurveda Shastra, Adibhautik, Adidaivik and spiritual sufferings have been considered as obstacles in life. Along with this, the four Purusharthas of human life named Dharma, Artha, Kama and Moksha have been mentioned in Ayurveda Shastra. These four Purusharthas are described as the basic purpose of human life. And in this research paper, we will learn about Yogic Shatkarma and Ayurvedic Panchkarma, Yogasan and Ayurvedic exercise, Pranayama and Ayurvedic Panchpran, Yogic Dharana, Meditation, Samadhi and Ayurveda. | ||||||
मुख्य शब्द | योग, आयुर्वेद षटकर्म, पंचकर्म आसन, प्राणायाम, मुख्य प्राण, धारणा, ध्यान समाधि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Yoga, Ayurveda Shatkarma, Panchakarma Asana, Pranayama, Main Prana, Dharana, Dhyana Samadhi. | ||||||
प्रस्तावना |
योग एवं आयुर्वेद का विकास एवं सम्पूर्ण प्रयोग मानव जाति को स्वस्थ बनाते हुए मुक्ति के मार्ग की ओर अग्रसर करना है। इन दोनों विद्याओं का उद्गम एवं विकास भारत वर्ष में हुआ आज के युग में समग्र विश्व ने योग एवं आयुर्वेद को अपनाया है । योग के विषय में महर्षि पंतजलि ने
यमनियमासनप्राणायामप्रत्याहारधारणाध्यानसमाधयोऽष्टावङ्गानि।।[1]
ये आठ अंग दिए हैं तथा हठयोग ग्रंथो के अन्तर्गत षट्कर्म, आसन, मुद्रा-बंध, प्रत्याहार, प्राणायाम, ध्यान एवं समाधि नामक सप्त साधनों का उल्लेख किया गया इसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में पूर्वकर्म, प्रधानकर्म और पश्चातकर्म के रुप में तीन प्रमुख कर्मों को वर्णित किया गया है। पूर्व कर्म के अन्तर्गत स्नेहन एवं स्वेदन कर्म का वर्णन आता है। इन कर्मों के द्वारा शरीर एवं मन का शोधन करने के उपरान्त रोगी पुरुष को स्वस्थ बनाने हेतु औषध चिकित्सा का प्रयोग आयुर्वेद शास्त्र में किया जाता है।
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अध्ययन का उद्देश्य | योग एवं आयुर्वेद शरीर को स्वस्थ बनाता है। योग और आयुर्वेद का उद्देश्य ही स्वस्थ प्राणी के स्वास्थ्य की रक्षा तथा रोगी की रोग को दूर करना है -प्रयोजनं चास्य स्वस्थस्य स्वास्थ्यरक्षणं आतुरस्यविकारप्रशमनं च ॥ इनको अपना ने शरीर स्वस्थ और निरोगी ओर रोगों से मुक्त रहेगा और आनंद की प्राप्ति होगी। |
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साहित्यावलोकन |
योग शास्त्र में व्याधि, सत्यान आदि नौ तत्वों को योग के बाधक तत्व की श्रेणी में रखा गया है। जबकि इसके समान आयुर्वेद शास्त्र में आदिभौतिक, आदिदैविक एवं आध्यात्मिक कष्टों को जीवन के बाधक तत्व माना गया है। इसके साथ साथ मानव जीवन के धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक चार पुरुषार्थों का उल्लेख आयुर्वेद शास्त्र में किया गया है। आयुर्वेद शास्त्र में भी ' धर्मार्थकाममोक्षाणामारोग्यं मूलमुत्तमम्'।।[2] ये चार पुरुषार्थों को मानव जीवन के मूल उद्देश्य के रूप में वर्णित किया गया है। योग शास्त्र में योगी पुरुष हेतु जन्मौषधिमन्त्रतपःसमाधिजाःसिद्धयः।।[3] ये सिद्धि प्राप्त करने का उपदेश दिया गया है। तो वहीं समान रूप से आयुर्वेद शास्त्र में वैध हेतु इसका उपदेश किया जाता है। |
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मुख्य पाठ |
जिस प्रकार महर्षि पतंजलि कृत अष्टांग योग में योग के आठ अंगों की व्याख्या की गई है। वेसेही आयुर्वेद शास्त्र में भी अष्टविभाजन का वर्णन प्राप्त होता है। जो कि योग एवं आयुर्वेद में मूल समानता की ओर संकेत करता है। इसके साथ साथ अष्टांग योग एवं आयुर्वेद की इन समानताओं का बिंदुवार अध्ययन इस प्रकार है। 1. यौगिक षट्कर्म एवं आयुर्वेदोक्त पंचकर्म योग में शरीर शोधनार्थ हेतु धौतिर्वास्तिस्तथा
नेतिः लौलिकी त्राटकं तथा। कपालभातिश्चैतानि षटकर्माणि समाचरेत।।[4] ये छ शोधन क्रियाओं का वर्णन किया गया है।
इसी प्रकार आयुर्वेद शास्त्र में शरीर शोधन करने हेतु वमनं रेचनं नस्यं निरुहस्चानुवासनम्
ऐतानि पंचकर्माणि कथितनि मुनीश्वरैः।[5] ये पंचकर्मों का उपदेश किया गया है। आयुर्वेद
शास्त्र में वायुः पित्तं कफश्चेति त्रयो दोषाः समासतः।[6] ये त्रिदोषों
को स्वास्थ्य का मूल आधार माना गया है। मानव शरीर में यह तीन दोष की साम्यावस्था में
रहते हुए सभी कियाओं का संचालन भलि भांति होता है। किन्तु इसके विपरित इन दोषों के
विकृत होने पर शरीर में विकार अर्थात रोगों की उत्पत्ति हो जाती है। शरीर में इन तीन
दोषों की न्यूनता एवं अधिकता को सम बनाने हेतु योग शास्त्र में षट्कर्म एवं समान रूप
में आयुर्वेद शास्त्र में पँचकर्मों का उल्लेख किया गया है। योग के प्रमुख ग्रन्थ
हठयोग प्रदीपिका में षट्कर्म का उपदेश करते हुए योगी स्वात्माराम कहते हैं - मेदः श्लेष्माधिकः पूर्व षट्कर्माणि समाचरेत । अन्यस्तु नाचरेत्तानि दोषाणां समभावतः
।।[7] अर्थात मेद और श्लेष्मा की अधिकता होने पर षट्कर्म
का आचरण करें। जिन्हे मेद व श्लेष्मा की अधिकता नहीं है। अर्थात जिनके दोष समभाव में
स्थित है। वे इनका आचरण ना करें। इस प्रकार शरीर में त्रिदोषों की विषमता से मेद एवं
श्लेष्मा की अधिकता होने पर यौगिक ग्रन्थों में षट्कर्म का उपदेश किया गया है।, समान रूप में आयुर्वेद शास्त्र में त्रिदोषों की विषमता के शमन एवं विषाक्त
पदार्थों के शोधन हेतु पूर्व कर्म स्नेहन, स्वेदन, एवं वमन, विरेचन, अनुवासन वस्ति, निरुह वस्ति
एवं रक्तमोक्षणम् नामक प्रधान कर्मों का उपदेश किया गया है। इन पँचकर्मों का उद्देश्य
शरीर में रोगों को उत्पन्न करने वाले अर्थात विकृत अवस्था को प्राप्त दोषों को प्राकृत
अर्थात सम बनाना होता है। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि योग एवं आयुर्वेद दोनों ही
स्थानों पर शरीर शोधनार्थ एवं वात-पित्त व कफ नामक त्रिदोषों
को सम बनाने के उद्देश्य से क्रमशः षट्कर्म एवं पँचकर्म का उपदेश किया गया है। 2. योगासन एवं आयुर्वेदोक्त व्यायाम योग के एक महत्वपूर्ण अंग के रूप में योगासनों का
उल्लेख है । योग में शरीर को स्वस्थ, लचीला एवं मन को एकाग्र
बनाने के उद्देश्य से योगासनों का उपदेश योग के सभी प्रमुख ग्रन्थों में किया गया है।
प्राचीन काल से लेकर वर्तमान काल तक योगासनों की महत्ता एवं उपादेयता का वर्ण सभी यौगिक
ग्रन्थों में किया गया है। विशेष रुप में योग चिकित्सा में योगासन का प्रयोग एक अचूक
शस्त्र के रूप में किया जाता है। योग के प्रमुख ग्रन्थ योग दर्शन में महर्षि पतंजलि
आसन को स्पष्ट करते हुए कहते हैं। स्थिरसुखमासनम्।।[8]
अर्थात स्थिरतापूर्वक एवं सुखपूर्वक किया गया अभ्यास आसन कहलाता है।
योगासनों का सतत् अर्थात निरन्तर अभ्यास करने से शरीर स्वस्थ, लचीला, हल्का एवं अनेक प्रकार के रोगों से मुक्त बनता
है। इसके साथ साथ योगासन मानसिक शान्ति प्राप्त करने के अपूर्व साधन है। योगासनों का
अभ्यास करने से शरीर में दृढता एवं स्थिरता के साथ स्फूर्ति का संचार होता है। यौगिक
ग्रन्थों में शारीरिक एवं मानसिक लाभ प्राप्त करने हेतु योगासनों का उल्लेख किया गया
है। आयुर्वेद शास्त्र में योगासनों के समान लाभकारी अभ्यास के रुप में व्यायाम को स्पष्ट
करते हुए कहा गया है। शरीरचेष्टा या चेष्टा स्थैर्यार्था बलवर्धिनी। देहव्यायाम
संख्याता मात्रया तां समाचरेत।।[9]
अर्थात शरीर की वह चेष्टा जो शरीर की स्थिरता के लिए की जाती है।
और जो शरीर के बल को बढाने वाली होती है, व्यायाम कहलाती है।
इसे मात्रापूर्वक करना चाहिए। इस प्रकार यह स्पष्ट होता है कि योग एवं आयुर्वेद दोनों
शास्त्रों में शारीरिक एवं मानसिक लाभ हेतु क्रमशः योगासन एवं व्यायाम को वर्णित किया
गया है। यद्यपि योगासन एवं व्यायाम को करने की विधि अलग अलग होती है किन्तु इन दोनों
अभ्यासों का मूल उद्देश्य एक समान है। 3. प्राणायाम एवं आयुर्वेदोक्त पंचप्राण योग में आसन के समान महत्वपूर्ण क्रिया प्राणायाम
को वर्णित किया गया है। प्राणायाम का अभ्यास प्राण ऊर्जा में वृद्धि करने के उद्देश्य
से किया जाता है। प्राणायाम को परिभाषित करते हुए महर्षि पतंजलि कहते हैं। तस्मिन
सति श्वासप्रश्वाससोर्गतिविच्छेदः प्राणायामः।।[10] अर्थात
आसन के सिद्ध हो जाने पर श्वास और प्रश्वास की गति में विच्छेद कर देना अर्थात श्वास
प्रश्वास को अलग अलग कर देने की क्रियाको प्राणायाम कहा जाता है। वेसेही आयुर्वेद शास्त्र
में वायु को प्राण की संज्ञा से सुशोभित किया गया है। आयुर्वेद शास्त्र में प्राण को
अत्यन्त महत्वपूर्ण मानते हुए कहा गया वायुः यन्त्रतन्त्रधरः।।[11]
अर्थात वायु यन्त्र अर्थात
शरीर एवं तन्त्र अर्थात इनके कार्यों को धारण करने वाली है। यहां पर वायु का सम्बन्ध
शरीर के साथ साथ मन से भी कहा गया है। इसके साथ साथ आयुर्वेद एवं योग शास्त्र में वायु
के पांच भेदों को स्पष्ट कीया गया है। ' प्राणोदानसमानाख्यव्यानापानैः
स पञ्चधा।[12]
ये पांच भेदों से वायु - शरीरिक अंग-अवयवों को धारण करने के साथ साथ इनकी चेष्टाओं
, गतियों व कार्यों को नियंत्रित करने का कार्य करती है । इस शरीरस्थ
वायु पर नियंत्रण स्थापित करना ही प्राणायाम कहलाता है। जिसका उल्लेख योग ग्रन्थों
के साथ साथ आयुर्वेद शास्त्र में भी प्राप्त होता है। ओर प्राणायाम से शरीरकी, मनकी और आत्माकी शुद्धि होती है। 4. यौगिक धारणा, ध्यान, समाधि एवं आयुर्वेद योग के अन्तर्गत धारणा, ध्यान एवं समाधि को अन्तरंग योग के रुप में वर्णित किया गया। योगी पुरुष यम- नियम से अपनी योग साधना को प्रारम्भ करते हुए धारणा, ध्यान और समाधि का सोपान करता है। धारणा, ध्यान एवं समाधि को योग के उच्चतम् सोपान माना गया है। इन तीनों का किसी एक विषय में स्थित होना संयम कहलाता है जिसके फलस्वरुप योगी पुरुष को सिद्धि की प्राप्ति होती है। इस प्रकार योगसिद्धि प्राप्त करने में धारणा, ध्यान एवं समाधि अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका वहन करते हैं। आयुर्वेद शास्त्र में मानस रोगों की चिकित्सा करने के लिए धारणा, ध्यान एवं समाधि को अलग रूप में वर्णित किया है। आयुर्वेद शास्त्र के सुप्रसिद्ध आचार्य चरक मानस रोगों का चिकित्सा सूत्र बताते समय समाधि को वर्णित करते हैं। इसके साथ साथ समाधि से पूर्व ज्ञान, विज्ञान, धैर्य और स्मृति का उल्लेख भी आचार्य चरक द्वारा किया गया है। इस ज्ञान, विज्ञान, धैर्य और स्मृति का सम्बन्ध धारणा एवं ध्यान से ही है। आचार्य चरक स्पष्ट करते हैं कि मानस रोगों से ग्रस्त मनुष्य को धर्म- अर्थ व काम का ध्यान करना चाहिए। आचार्य चरक ने योग विद्या से प्राप्त उच्च कोटि की प्रज्ञा बृद्धि का वर्णन सत्याबुद्धि के नाम से किया है। इस प्रकार उपरोक्त अध्ययन से स्पष्ट होता है कि योग एवं आयुर्वेद दोनों शास्त्रों में धारणा, ध्यान एवं समाधि को वर्णित किया गया है। यद्यपि दोनों स्थानों में विधि भेद एवं नाम भेद अवश्य प्राप्त होता है किन्तु इनके लाभों एवं प्रभावों में एकरुपता को दोनों स्थानों पर स्वीकार किया गया है। |
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निष्कर्ष |
योगसूत्रों में अविद्यास्मितारागद्वेषाभिनिवेशाः क्लेशाः।।[13] ये पंचक्लेशों को वर्णित करते हुए इन्हे बंधन का कारण एवं मानव जीवन में दुख व कष्ट की उत्पत्ति का कारण बताया गया है । योग शास्त्र में इन क्लेशों का त्याग करने का उपदेश किया गया है। इसी प्रकार समान रूप से आयुर्वेद शास्त्र में इस विषय का सम्यक निरुपण आयुर्वेद के ग्रन्थों में किया गया है। तथा वैद्य को इनसे बचने एवं छोडने का उपदेश किया गया है। योगशास्त्र में चित्त प्रसाद्यन अर्थात मन को प्रसन्न करने के उपाय के रुप में मैत्रीकरुणामुदितोपेक्षाणां सुखदुःखपुण्यापुण्यविषयाणां भावनातश्चत्रसादनम्।।[14] का उपदेश किया गया है । इन भावों को रखने से योगी साधक का मन प्रसन्न रहता है। और योगी साधक पुरुष ईश्वर के चिन्तन में लीन रहता हुआ मुक्ति के पथ पर अग्रसर रहता है। आयुर्वेद शास्त्र में महर्षि चरकने भी उपरोक्त चार वृत्तियों का वर्णन करते हुए कहते हैं। कि मैत्री करुण्यमातैषु शक्ये प्रितिरुपेक्षणम् । प्रकृतिस्थेषु भूतेषु वैद्यवृत्तिश्चतुर्विधा ।।[15] अर्थात रोगी के रोग को दूर करने के लिए जीव मात्र एवं औषधि से मित्रता, रोगी पुरुष के प्रति करुणा का भाव रखने का उपदेश करते हैं। साध्य रोगों में प्रेम एवं प्रसन्नतापूर्वक चिकित्सा का उपदेश करते हुए असाध्य रोगों के प्रति उपेक्षा का भाव रखने का उपदेश किया गया है। इस प्रकार योग एवं आयुर्वेद में मूल रूप से समानताएं दृष्टिगोचर होती हैं। ओर योग एवं आयुर्वेद दोनोंका अभ्यास करने से मनुष्य का शरीर शुद्ध होकर स्वस्थ बनता है। और निरोगी रहता है। उनका जीवन आनंदमय रहता है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. पातंजलयोगदर्शन- गीता प्रेस गोरखपुर
2. चरक संहिता सूत्रस्थान- डॉ. मीनू श्रीवास्तव खेर, डॉक्टर धीरेंद्र बहादुर चौखंबा ओरियन्टालिया।
3. पातंजलयोगदर्शन- व्यास भाष्य एवं भोज वृत्ति सहित- सतीश आर्य
4. घेरण्डसंहिता- स्वामी निरंजनानंद सरस्वती योग पब्लिकेशन ट्रस्ट, मुंगेर, बिहार, भारत।
5. शार्ङ्गधर संहिता उत्तरखंड- तेज कुमार, नवल कुमार बुक दीपो(प्रो.) लिमिटेड लखनऊ।
6. अष्टाङ्गहृदय , सूत्रस्थान - एवं मौलिक सिद्धांत चौखंबा सुरभारती प्रकाशन।
7. हठयोगप्रदीपिका-परमहंस स्वामीअनंत भारती- चौखंबा ओरियन्टालिया।
8. पातंजलयोगदर्शन-व्यासभाष्य-संवलितम् तच्च योगसिद्धि- हिंदी व्याख्योपेतम् - डॉ सुरेशचंद्र श्रीवास्तव।
9. चरक संहिता -वैध्य हरीशचंद्र सिंह कुसवाह्य- चौखंबा ओरियन्टालिया।
10. आयुर्वेदीय क्रियाशारीर- प्रो. पूर्ण चंद्र जैन, डॉ. प्रमोद मालवीय चौखंबा संस्कृत प्रतिष्ठान दिल्ली। |
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अंत टिप्पणी | 1. पातंजलयोगदर्शन-१/२१ 2. चरक सूत्र-१/१५ 3. पातंजलयोगदर्शन-३/१ 4. घेरण्डसंहिता १/ 5. शार्ङ्गधर संहिता उत्तरखंड ८/१७ 6. अष्टाङ्गहृदय , सूत्रस्थान १/६ 7. हठयोग प्रदीपिका २/२१ 8. पातंजलयोगसूत्र २/४६ 9. चरक संहिता ७/३१ 10. पातंजल योगसूत्र -२/४८ 11. चरकसूत्र 12. चरक-संहिता,चिकित्सास्थान २८/५ 13. पातंजलयोगदर्शन-२/३ 14. पातंजलयोगदर्शन-१/३३ 15. चरक सू० ९/२६ |