ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- XII March  - 2023
Anthology The Research
जनजातीय विकास में सरकारी नीतियों की भूमिका एवं चुनौतियां
Role and Challenges of Government Policies in Tribal Development
Paper Id :  17426   Submission Date :  17/03/2023   Acceptance Date :  21/03/2023   Publication Date :  25/03/2023
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मीनाक्षी मीना
सहायक आचार्य
समाजशास्त्र विभाग
जय नारायण व्यास विश्वविद्यालय
जोधपुर, राजस्थान, भारत
सारांश वैदिक काल से लेकर वर्तमान काल तक भारत में जनजातियों का एक महत्वपूर्ण योगदान रहा है। ब्रिटिश काल में भारत को आजादी दिलवाने में इन जनजातियों ने कंधे से कंधा मिलाकर अ-जनजातीय समूह के साथ कई आंदोलन द्वारा अपना आक्रोश भी व्यक्त किया है । परंतु दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि स्वतंत्रता आंदोलन में इनके आत्मसमर्पण का उल्लेख काफी कम मिलता है। जनजातीय समुदाय को समाज की मुख्यधारा में लाने व उनके विकास हेतु भारतीय संविधान में कई प्रावधान रखे गए जो कि उनके शैक्षणिक, आर्थिक व सामाजिक जीवन की जरूरतों को ध्यान में तो रखेगी साथ ही सामाजिक न्याय व शोषण के विरुद्ध उनकी रक्षा भी करेगी सरकार द्वारा जनजाति विकास के लिए कई नीतियां योजनाएं समितियां बनाई गई है जिसके माध्यम से जनजातीय लोगों का सामाजिक, आर्थिक, शैक्षणिक विकास हो पाएगा किंतु इन सरकारी योजनाओं व नीतियों संबंधित कार्यक्रमों के बावजूद भी जनजातीय क्षेत्रों में रहने वाले लोगों को कई प्रकार की चुनौतियों से अभी भी जूझना पड़ रहा है।ऐसे में सवाल यह उठता हैकि आज भारत में आजादी के 75 वर्षों बाद भी इन जनजातियों के लिए कानून का संरक्षण होने के बावजूद भी कहीं ना कहीं वे अपने आप को असुरक्षित, उपेक्षित महसूस कर रहे हैं। इसका क्या कारण है? इसके लिएकौन जिम्मेदार है ? आखिर क्या कारण है कि यह जनजातियां बाहरी आधुनिक दुनिया में अभी भी अपने आप को अलगाव, असुरक्षित महसूस कर रही है ? चौहान आई.एस,(1970) ’’कल्चरल चेंज इन ट्राईबल लाइफ इकनोमिक एंड पॉलिटिकली में जनजाति जीवन की संस्कृति के परिवर्तन का अध्ययन किया उनके अनुसार जनजातियों में परिवर्तन उनकी सोच के अनुसार होगा तभी उनका अनुकूल विकास हो सकेगा।"[1]
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribes have been an important contribution in India from the Vedic period to the present. During the British period, these tribes have expressed their indignation through many agitations along with non-tribal groups in getting India freedom. But the unfortunate thing is that there is very little mention of their sacrifice in the freedom movement. In order to bring the tribal community into the mainstream of the society and for their development, many provisions were kept in the Indian Constitution, which take care of the needs of their educational, economic and social life. Along with this, it will also protect them against social justice and exploitation. Many policies, plans and committees have been formed by the government for tribal development, through which social, economic, educational development of tribal people will be possible, but these government schemes and programs related to policies Despite this, the people living in the tribal areas still have to face many challenges. In such a situation, the question arises that even after 75 years of independence in India, despite the protection of the law for these tribes, there is somewhere they are feeling insecure, neglected. What is the reason for this? Who is responsible for it ? After all, what is the reason that these tribes are still feeling isolated, insecure in the outside modern world? Chauhan I.S., (1970) studied the change in the culture of tribal life in "Cultural Change in Tribal Life, Economically and Politically". Changes will happen according to their thinking only then their favorable development will be possible."1
मुख्य शब्द जनजातीय समुदाय, विकास, योजनाओं व नीतियों, भारतीय संविधान, चुनौतियाँ।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Tribal Communities, Development, Plans and Policies, Indian Constitution, Challenges.
प्रस्तावना
भारत की कुल आबादी का लगभग 8.6 प्रतिशत आबादी जनजातीय है जो कि अधिकांशत: ओडिशा, झारखंड, छत्तीसगढ़, कर्नाटक, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, राजस्थान, गुजरात, आंध्रप्रदेश और पश्चिम बंगाल राज्यों में रहती है। इन राज्यों में देश की कुल जनजातीय आबादी का लगभग 80 प्रतिशत हिस्सा है। भारत में कुल जनजातीय आबादी का 14.7 प्रतिशत मध्यप्रदेश में है। महाराष्ट्र और ओडिशा कुल जनजातीय आबादी के मामले में दूसरे और तीसरे स्थान पर हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र के अध्ययन का उद्देश्य जनजातीय समुदाय के लोगों को समाज की मुख्यधारा में जोड़ने के लिए सरकारी नीतियों की भूमिका व इन नीतियों के क्रियान्वयन में आई चुनौतियों से संबंधित है।
साहित्यावलोकन

वेरियर एल्विन को जनजातियों का मसीहा कहा जाता था। वेरियरएल्विन आदिवासियों को देश का मूल स्वामी (ओरिजिनलऑनर्स) कहकर पुकारते हैं।"[3] वे मानते थे कि जनजातियां भारत देश की मूल निवासी है। आर्यों के आने से पूर्व ही यह आदिवासी यहां रहते थे। वेरियरएल्विनघुरिये व अन्य मानवशास्त्रियों के बीच इस बात को लेकर से हमेशा मतभेद रहा है। घुरिये जनजातियों को मूल आदिवासी के रूप में स्वीकार नहीं करते थे। घुरिये ने अपनी पुस्तक शेड्यूल्डट्राइब कहा है कि जनजातियां हिंदुओं के संपर्क में आने के कारण हिंदू सभ्यता का अंग बन गई है। प्रसिद्ध समाजशास्त्री डॉ घुरिये ने आदिवासियों को पिछड़े हिंदू नाम से संबोधित किया।"[4] उनकी अलग से पहचान बनाने की कोई आवश्यकता नहीं है। यह मात्र पिछड़ी हिंदू जाति है। जिसका पिछड़ापन इसलिए है क्योंकि समाज के साथ पूर्ण रूप से समन्वित नहीं हुई है इसी को लेकर घुरिये और वेरियनएल्विन के बीच विवाद का विषय हमेशा से ही रहा है। वहीं एल्विन अपनी पुस्तक लॉस ऑफ नॉर्वे में बताते हैं कि जनजातियों के जीवन को कभी नहीं छोड़ना चाहिए। वह जैसी है वैसे ही उन्हें रहने देना ही उचित है। इसके विपरीत घुरिये का कहना था कि उन्हें हिंदू जातियों के साथ आत्मसातीकरण कर देना चाहिए।हमारे देश की विकास नीति का लक्ष्य होना चाहिए था विकास में सबको समान अधिकार की प्राप्तिलेकिन ऐसा नहीं हुआ। "रमणिका गुप्ता ने आदिवासियों की आर्थिक स्थिति का निरीक्षण करते हुए लिखा है जंगल माफिया कीमती पेड़ उनसे सस्ते दामों पर खरीदकर उच्च दामों पर बेचता है और करोड़पति बन जाता है। पेड़ काटने के आरोप में आदिवासी दंड भरता है या जेल जाता है। सरकार की ऐसी ही नीतियों के कारण आदिवासी जमीन के मालिक बनने के बजाय पहले मजदूर बने फिर बंधुआ मजदूर।"[5]

मुख्य पाठ

जनगणना 2011 के अनुसार भारत में राज्यवारजनजातीय जनसंख्या का विवरण-

क्रम संख्या

राज्य

कुल जनसंख्या का प्रतिशत

1.

मध्य प्रदेश

14.7%

2.

महाराष्ट्र

10.1%

3.

उड़ीसा

9.2%

4.

राजस्थान

8.9%

5.

गुजरात

8.6%

6.

झारखंड

8.3%

7.

छत्तीसगढ़

7.5%

8.

आंध्र-प्रदेश

5.7%

 9.

पश्चिमी बंगाल

5.1%

10.

कर्नाटक

4.1%

11.

असम

3.7%

12.

मेघालय

2.5%

13.

अन्य राज्यों में

11.5%

आदिवासी कौन है? यह प्रश्न वर्षों से विचार-विमर्शों और संगोष्ठियों का मुख्य विषय रहा है। विनायक तुकाराम के अनुसार "वर्तमान स्थिति में आदिवासीशब्द का प्रयोग विशिष्ट पर्यावरण में रहने वालेविशिष्ट भाषा बोलने वालेविशिष्ट जीवन पद्धति तथा परंपराओं से सजे और सदियों से जंगलपहाड़ों में जीवन यापन करते हुए अपने धार्मिक और सांस्कृतिक मूल्यों को संभालकर रखने वाले मानव समूह का परिचय करा देने के लिए किया जाता है और बहुत बड़े पैमाने पर उनके सामाजिक दु:ख तथा नष्ट हुए संसार पर दु:ख प्रकट किया जाता है। उनके प्रश्नों तथा समस्याओं पर जी तोड़कर बोला जाता है।”[6]

जनजातीय समुदाय हमेशा से ही प्रकृति पूजक रहे हैं। साथ ही पर्वत, नदियोंसूर्य की आराधना आदि करते आए हैं। यह जनजातीय समुदाय हमारे समाज के लिए हमेशा से ही उपयोगी थे। परंतु इनके घुमंतू जीवन के कारण जनजातीय समुदाय अपने आप को एक जगह स्थापित नहीं कर पाए। इनका दुर्भाग्य तब से शुरू होता है। जब-जब बाहरी लोगों ने इन जनजातियों के साथ संपर्क साधने की कोशिश की है। यह समुदाय हमेशा से ही स्वाभिमानी और विद्रोही प्रवृत्ति के थे। इसीलिए ब्रिटिश सरकार द्वारा इन पर नियंत्रण स्थापित करने के लिए एक काला कानून क्रिमिनलट्राइब्सएक्ट 1871 लाया गया। इसी कानून के तहत करीब 200 समुदाय को क्रिमिनल जनजाति में शामिल करवा दिया था साथ ही इनके बच्चों को 6 वर्ष की आयु में इनसे अलग कर दिया जाता था क्योंकि ब्रिटिश सरकार की धारणा थी कि यह अपराधिक लक्षण आनुवांशिक होते हैं। जो एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को स्थानांतरित होते हैं ।यह जनजातीय समुदाय लिए एक अमानवीय व्यवहार था हालांकि अखिल भारतीय जांच समिति व 1949 की सिफारिश पर वर्ष 1952 में भारत सरकार द्वारा इन जनजातियों को क्रिमिनल जनजातियों के दर्जे को बदल कर इन्हें ‘गैर अधिसूचित जनजातियां’’ डिनोटिफाइडट्राइब्स’’ के रूप में जानने लगी। विडंबना की बात तो यह है कि संवैधानिक प्रावधानों तथा आरक्षण के पश्चात भी जनजाति समाज का एक बड़ा हिस्सा आज भी सामाजिक आर्थिक एवं शैक्षणिक दृष्टि से पिछड़ा ही रह गया है राजनीतिक शासक दल उन्हें अपना वोट बैंक समझते हैं। यह आदिवासी समूह अपने ही देश में उपेक्षा, अपमान, तिरस्कार और सरकार के दोयम दर्जे का शिकार होती रही है। आज भी इन समुदाय को उनके मूलभूत अधिकारों से वंचित रखा गया है क्योंकि ब्रिटिश काल में इन आदिवासियों पर अपराधी होने का जो कलंक लगाया गया था। वह आज भी समाज पूरी तरीके से नहीं भूल पा रहा है। आज भी समाज इन आदिवासी समूहों को अपराध की दृष्टि से देखती है

भारत में मानवजातीय समूह को विकसित करने का अवसर प्रदान किया गया। इसके साथ ही-साथ आदिवासी समूह के लिए भी संवैधानिक एवं आर्थिक विकास करने का प्रयास किया गया। आर्थिक विकास हेतु कई योजनाएं क्रियान्वित की गई ताकि आदिवासी क्षेत्रों में रहने वाले लोगों का विकास हो सके। "विकास तो हुआपर कुछ चुनिंदा लोगों काअसंख्य लोगों की कीमत पर, खासकर आदिवासियों की कीमत पर। राष्ट्रीयता के नाम पर आदिवासी लोगों की जमीन अधिग्रहित कर उन्हें विस्थापित ही नहीं किया गया बल्कि उसके संदर्भ में संविधान में प्राप्त मूल अधिकारों का उल्लंघन भी किया गया। इन विकास परियोजनाओं से इन आदिवासी प्रदेशों अथवा क्षेत्रों का आर्थिक संतुलन भी बिगड़ गया।"[6] आदिवासी विकास को मुख्यतः दो भागों के आधार पर देखा जा सकता है-

1. स्वतंत्रता-पूर्व काल में जनजातीय विकास:-

2. स्वतंत्रता के बाद के युग में जनजातीय विकास:-

स्वतंत्रता-पूर्व काल में जनजातीय विकास:

भारत पर लगभग 200 वर्षों तक अंग्रेजों का शासन रहा था। आदिवासी समुदाय मुख्य रूप से जंगल और पहाड़ी इलाकों में रहने वाले भारतीय समाज का एक अभिन्न अंग रहा हैवर्तमान समय की तुलना में समाज की मुख्यधारा से अधिक अलग-थलग जीवन जी रहा था ब्रिटिश सरकार ने विभिन्न नीतियों को अधिनियमों के रूप में तैयार किया। भारत में वन नीतियों का इतिहास बताता है कि पहली बार वानिकी में रुचि 1806 में पूर्व-ब्रिटिश के दौरान मालाबार में सागौन के जंगल के आरक्षण से देखी गई थी। यह नेपोलियन के साथ युद्ध के दौरान शाही नौसेना और अन्य जरूरतों के लिए इंग्लैंड को लकड़ी की आपूर्ति करने के लिए किया गया था। 1865 के भारतीय वन अधिनियम और बाद में 1878 के अधिनियम को वनों की कटाई और अन्य वन मामलों की जांच के लिए तैयार किया गया। ताकि वन पर राज्य का एकाधिकार हो सके। वन अधिनियम ने आदिवासियों और गैर-आदिवासियों को भी प्रभावित किया क्योंकि प्राकृतिक संसाधनों पर उनके अधिकारों से समझौता किया गया था। और आदिवासी केवल ब्रिटिश शासकों की दया पर जंगल तक पहुंच सकते थे।वन अधिनियम ने जनजातीय क्षेत्रों में विद्रोह को जन्म दिया और लोगों ने वन विभाग की गतिविधियों में सहयोग नहीं किया

तत्कालीन ब्रिटिश सरकार ने देश के विस्तृत जनजातीय क्षेत्रों के प्रशासन में कठिनाइयों को महसूस किया। इसलिए उन्होंने आदिवासी क्षेत्रों पर प्रभावी प्रशासनिक नियंत्रण के लिए और बाहरी दुनिया के उन्नत समुदायों के एकत्रीकरण और शोषण के खिलाफ जनजातीय जीवन और संस्कृति की रक्षा और संरक्षण के लिए अलगाव के दृष्टिकोण को अपनाया। आदिवासियों को विशेष प्रशासनिक नियंत्रण में लाने के लिए ब्रिटिश सरकार ने 1875 के अनुसूचित जिला अधिनियम को तैयार करके कुछ विशिष्ट प्रावधानकिएजिसमें आदिवासी क्षेत्रों को देश में प्रचलित आम कानूनों से बाहर रखा गया था। आदिवासी क्षेत्रभारत सरकार अधिनियम 1919  के तहत फिर से 'पूर्ण बहिष्कृत क्षेत्रों और संशोधित बहिष्करण के क्षेत्रमें विभाजित किया गया था। 

स्वतंत्रता के बाद के युग में जनजातीय विकास:

स्वतंत्रता के बाद भारत सरकार ने पंचवर्षीय योजनाओं के माध्यम से अर्थव्यवस्था को बढ़ावा देने के लिए उद्योगोंखनन और विभिन्न अन्य विकासात्मक परियोजनाओं पर ध्यान केंद्रित किया। इसके अलावा सरकार आदिवासियों से संबंधित मामलों के बारे में भी बहुत चिंतित थी। जनजातीय समुदाय के समग्र विकास के लिए विभिन्न नीतियां और कार्यक्रम तैयार कियाताकि भारत के दलित लोगों के लिए एक विकासात्मक ढांचा तैयार किया जा सके। भारत में अनुसूचित जनजातियों से संबंधित सभी मामलों की देखभाल के लिए 1999 में एक जनजातीय मंत्रालय स्थापित किया गया था। अनुसूचित क्षेत्रों के विशेष प्रावधान से लेकर राष्ट्रीय अनुसूचित जनजाति आयोग (NCST) जैसे विभिन्न संवैधानिक निकायों के गठन तकसरकार ने जनजातीय विकास के लिए कई कदम उठाए। एनसीएसटी(NCST) एक संवैधानिक निकाय है। जिसका गठन जनजातीय समुदाय की विभिन्न समस्याओं को देखने और उनकी शिकायतों को सुनने के लिए किया गया है। इससे पहले अनुच्छेद-338 के तहत अनुसूचित जनजाति और अनुसूचित जाति के लिए एक ही आयोग था। वर्ष 2004 में एनसीएसटी(NCST) को 89 वें संशोधन अधिनियम 2003 द्वारा एनसीएससी (NCSC)  से अलग कर दिया गया था।

भारत के संविधान में एक नया अनुच्छेद 388 (ए) सम्मिलित किया गया था। इसके अलावाभारत का संविधान सामाजिकआर्थिकशैक्षिक विकास के लिए और भारत में रहने वाले आदिवासी समुदायों की संस्कृतिभाषापरंपरा और रीति-रिवाजों को संरक्षित करने के लिए विभिन्न लेखों के तहत कई प्रावधान प्रदान करता है।

जनजातियों के विकास के लिएसरकार द्वारा संचालितयोजनाएंऔर कार्यक्रम:

आदिवासी समुदाय के विकास के लिए अनेक नीतियों एवं कार्यक्रमों का क्रियान्वयन किया गया।विकास के उद्देश्यों को पूरा करने के लिए संविधान में प्रावधान किया गया है।सरकार ने अनुसूचित जनजातियों के समग्र विकास के लिए कई योजनाएंनीतियां और कार्यक्रम बनाए हैं। इन नीतियों और कार्यक्रमों पर निम्नानुसार है-

1. जनजातीय उप-योजना के लिए विशेष केंद्रीय सहायता (Tribal sub plan )-

जनजातीय उप-योजना (SCA से TSP) के लिए विशेष केंद्रीय सहायता 1977-78 से भारत सरकार की ओर से 100% अनुदान है। जनजातीय उप-योजना (टीएसपी) जिसे अब केंद्रीय स्तर पर अनुसूचित जनजाति घटक (एसटीसी) कहा जाता है पूरे देश में जनजातीय विकास के लिए वित्त पोषण का एक समर्पित स्रोत है। आदिवासी बहुल क्षेत्रों में अधिकांश बुनियादी ढांचे का विकास और पूरे देश में आदिवासी लोगों के लिए बुनियादी सेवाओं का प्रावधान केंद्रीय मंत्रालयों और संबंधित राज्य सरकारों के विभिन्न संस्थागत कार्यक्रमों के माध्यम से किया जाता है।

2. अनुसूचित जनजाति के लड़कों और अनुसूचित जनजाति की लड़कियों के लिए छात्रावास की केंद्र प्रायोजित योजना-

योजना का उद्देश्य केंद्रीयराज्य या केंद्र शासित प्रदेश प्रशासन के तहत विभिन्न स्कूलोंकॉलेजों और विश्वविद्यालयों में अनुसूचित जनजाति के लड़कों और लड़कियों के लिए छात्रावास उपलब्ध कराना है। भारतीय संविधान का अनुच्छेद-16 समाज के वंचित वर्ग के सामाजिक-आर्थिक विकास के लिए विशेष प्रावधान तैयार करने का प्रावधान करता है। शिक्षा सरकार की प्राथमिक चिंता हैजो कमजोर वर्ग को सशक्त बनाने के लिए आवश्यक है और इस प्रकारआदिवासी छात्रों को शिक्षा प्राप्त करने की सुविधा के लिए छात्रावास सुविधाओं को मजबूत करने की आवश्यकता है। यह योजना कानून साक्षरता दर के उन्मूलन और आदिवासी छात्रों के ड्रॉप आउट में मदद करती है। हॉस्टल बनाने के लिए केंद्र सरकार द्वारा अनुदान स्वीकृत किया जाता है जिसे राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा लागू किया जाता है। छात्रावासों का निर्माण मध्यमाध्यमिकमहाविद्यालयविश्वविद्यालय स्तर पर किया जाता हैव्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्र भी योजना में शामिल हैं। लड़कियों के लिए छात्रावास को केंद्र सरकार द्वारा 100% वित्त पोषित किया जाता है जबकि लड़कों के लिए केंद्र और राज्य के बीच 50:50 के वित्त पोषण फार्मूले का उपयोग किया जाता है। हालाँकिकेंद्र उक्त उद्देश्य के लिए नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में पूर्ण अनुदान देता है। कार्यान्वयन एजेंसी परियोजना के पूरा होने तक जनजातीय मामलों के मंत्रालय को एक त्रैमासिक रिपोर्ट देती है।

3. प्री-मैट्रिक (कक्षा IX और X) और पोस्ट मैट्रिकछात्रवृत्ति (PMS)-

संविधान के अनुच्छेद-46 में राज्य नीति के निर्देशक सिद्धांत (भाग- IV) समाज के कमजोर वर्गविशेष रूप से अनुसूचित जाति और अनुसूचित जनजाति के शिक्षा और आर्थिक हित को बढ़ावा देने के बारे में बोलते हैं। यह योजना संविधान के उपरोक्त लेखों के पीछे के उद्देश्य को पूरा करने के लिए है। प्री-मैट्रिकछात्रवृत्ति योजना का लाभ नौवीं से दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले छात्रों को मिलता है। माता-पिता की सभी स्रोतों से आय प्रति वर्ष 2.00 लाख रुपये से अधिक होनी चाहिए। प्रति वर्ष 10 महीने की अवधि के लिए दैनिक विद्वानों के लिए मासिक @ 150/- रुपये और छात्रावास के लिए मासिक @ 350/- रुपये का भुगतान किया जाता है। पोस्ट-मैट्रिकछात्रवृत्ति छात्रों को किसी भी मान्यता प्राप्त और मान्यता प्राप्त संस्थान में कक्षा X या उससे ऊपर के पंजीकरण की योग्यता के साथ पाठ्यक्रम लेने की सुविधा प्रदान करती है। सभी स्रोतों से माता-पिता की आय 2.50 लाख से अधिक होनी चाहिए। शैक्षणिक संस्थान द्वारा लिए जाने वाले आवश्यक शुल्क की प्रतिपूर्ति230/- रुपये से लेकर छात्रवृत्ति के रूप में की जाती है। 1,200/- प्रति माह वर्ष में दस महीने की अवधि के लिए। राज्य/संघ राज्य क्षेत्र के लिए 75:25 के अनुपात में केंद्रीय सहायता दोनों के लिए भारत सरकार द्वारा प्रदान की जाती है।

4. एसटी(ST)विद्यार्थियों की उच्च शिक्षा के लिए राष्ट्रीय फैलोशिप-

इस योजना का उद्देश्य अनुसूचित जनजाति के छात्रों को देश में सबसे कम साक्षरता स्तर वाले समाज के एक वर्ग को एम.फिल और पीएचडी करने के लिए फेलोशिप के रूप में उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना है।  अनुसूचित जनजातियों के लिए राजीव गांधी राष्ट्रीय फैलोशिप (RGNF) योजना वर्ष 2005-06 में शुरू की गई थी।अब इसका नाम बदलकर एसटी छात्रों की उच्च शिक्षा के लिए राष्ट्रीय फैलोशिप कर दिया गया है। भारत सरकार द्वारा जनजातीय मामलों के मंत्रालय के माध्यम से वित्त पोषित किया जाता है। यह योजना अनुसूचित जनजाति के उम्मीदवारों को विज्ञानमानविकीसामाजिक विज्ञान और इंजीनियरिंग और प्रौद्योगिकी में नियमित और पूर्णकालिक एम.फिल और पीएचडी उम्मीदवारों के रूप में उच्च अध्ययन प्राप्त करने का अवसर देती है। फेलोशिप की अधिकतम अवधि 5 वर्ष है। यह योजना 3 साल के लिए 31,000 / - प्रति माह और शेष 2 वर्षों के लिए 35,000 / - प्रति माह का अनुदान प्रदान करती है।

5. जनजातीय उपयोजना क्षेत्रों में आश्रम विद्यालयों की स्थापना-

योजना का उद्देश्य अनुसूचित जनजातियों के बीच शिक्षा को बढ़ाना है। आश्रम स्कूल एक ऐसे वातावरण में आवासीय सुविधाओं के साथ शिक्षा प्रदान करते हैं जो शिक्षा को सीखने के लिए अनुकूल है। यह योजना 1990-91 से चल रही है। योजना का संचालन जनजातीयउपयोजना में किया जाता है। यह योजना प्राथमिकमाध्यमिक और वरिष्ठ माध्यमिक शिक्षा चरण के लिए आश्रम स्कूल के निर्माण और आदिवासी लड़के और लड़कियों दोनों के लिए मौजूदा आश्रम स्कूल के उन्नयन के लिए धन प्रदान करती है। आश्रम स्कूल की स्थापना के बुनियादी ढांचे के लिएजैसे स्कूल, भवन,टीएसपी क्षेत्र में लड़कियों के लिए आश्रयरसोई और स्टाफ क्षेत्रयोजना के माध्यम से सरकार द्वारा 100% वित्त पोषण प्रदान किया जाता है। हालांकिअन्य गैर-आवर्ती मदों के लिए टीएसपी क्षेत्र में आश्रम विद्यालयों को 50:50 के आधार पर धन प्राप्त होता है। इस बीचनक्सल प्रभावित क्षेत्र के रूप में पहचाने जाने वाले टीएसपी क्षेत्र में छात्रों के लिए आश्रम स्कूलों की स्थापना के लिए व्यय की सभी आवर्ती और गैर-आवर्ती मदों सहित 100% धनराशि प्रदान की जाती है। कार्यान्वयन एजेंसियां प्रगति की बारीकी से निगरानी करती हैं और जनजातीय मामलों के मंत्रालय को त्रैमासिक रिपोर्ट देती हैं।

6. एकलव्यमॉडल आवासीय विद्यालय (ईएमआरएस)-

EMRS की स्थापना देश के दूरस्थ क्षेत्रों में अनुसूचित जनजाति (ST) के छात्रों को गुणवत्ता स्तर की शिक्षा देने के लिए की गई है।EMRS  भारत में ST छात्रों के लिये मॉडल आवासीय स्कूल बनाने की एक योजना है।वर्ष 1997-98 में इसकी शुरुआत हुई थी।इसे जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा कार्यान्वित किया जा रहा है।इस योजना का उद्देश्य जवाहर नवोदय विद्यालयों और केंद्रीय विद्यालयों के समान स्कूलों का निर्माण करना हैजिसमें खेल तथा कौशल विकास में प्रशिक्षण प्रदान करने के अलावा स्थानीय कला एवं संस्कृति के संरक्षण के लिये विशेष अत्याधुनिक सुविधाओं पर ध्यान केंद्रित किया गया है। एकलव्यमॉडल आवासीय विद्यालय (EMRS) भारतीय संविधान के अनुच्छेद-275(1) के तहत अनुदान के साथ राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में स्थापित किए गए हैं। ईएमआरएस में अध्ययन के लिए छात्रों का प्रवेश उचित चयन या खुली प्रतियोगिता के माध्यम से किया जाता है। जहां आदिवासियों को पीवीटीजी और पहली पीढ़ी के छात्रों आदि को वरीयता दी जाती है। योजना का कार्यान्वयन और इसका प्रशासन जनजातीय मामलों के मंत्रालय द्वारा सुनिश्चित किया जाता है।

7. जनजातीय उत्पादों/उत्पादों के विकास और विपणन के लिए संस्थागत सहायता-

भारत सरकार ने जनजातीय मंत्रालय को  “जनजातीय उत्पादों / ऊपज का बाजार विकासतथा 'लघु वन उत्पाद संचालन के लिए राज्य जनजातीय विकास सहकारी निगम को सहायता अनुदानदो अलग योजनाओं के विलय द्वारा जनजातीय उत्पादों / ऊपज के विकास तथा विपणन के लिए संस्थागतसमर्थन की योजना कार्यान्वित करने का निर्णय लिया है।भारत सरकार राज्य जनजातीय विकास सहकारी निगमों (STDCCs) और भारत के जनजातीय मंत्रालय के तहत एक बहु-राज्य सहकारी संस्थाभारतीय जनजातीय सहकारी विपणन विकास संघ लिमिटेड (TRIFED) को अनुदान देती है। यह पहल उत्पादनउत्पाद विकास और पारंपरिक विरासत के संरक्षणजनजातीय वन उत्पादों और कृषि उत्पादों के समर्थन और पूरे क्षेत्र में विभिन्न जनजातियों के लोगों को व्यापक समर्थन प्रदान करने के लिए की जाती है। निधियों का उपयोग संस्थानों को उपरोक्त गतिविधियों को पूरा करने में सक्षम बनाने के लिए किया जाता हैउन्हें बेहतर बुनियादी ढांचाडिजाइन विकासमूल्य निर्धारण की जानकारी का प्रसार और उत्पादों की खरीदटिकाऊ विपणन के लिए सरकारी एजेंसियों का समर्थनइस प्रकार एक उचित मूल्य प्रणाली सुनिश्चित करना। प्रशासन इसी तरह ग्राम पंचायतों और ग्राम सभाओं के साथ डेटा साझा करना सुनिश्चित करता है कौशल उन्नयनबाजार मूल्य बढ़ाने के लिए उपयोगी वस्तुओं में सुधार। योजना का लक्ष्य अनुसूचित जनजाति के उत्पादों को संस्थागत सहायता देनाविज्ञापन और उन गतिविधियों के विकास में मदद करना है। जिन पर वे अपनी आजीविका के लिए निर्भर हैं। इन्हें कुछ विशिष्ट उपायों द्वारा पूरा करने की कोशिश की जाती है- जैसे (i) बाजार हस्तक्षेप,आदिवासी कारीगरोंशिल्पकारोंलघु वन उपज संग्राहकों आदि का प्रशिक्षण और कौशल उन्नयन,अनुसंधान एवं विकास गतिविधि,आपूर्ति श्रृंखला संरचना का विकासआदि। 

चुनौतियां-

जनजातीय समुदाय के सतत विकास की दिशा में सबसे बड़ीचुनौतियांउनके लिए बनाई गई नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में जागरूकता की कमी है जिसे मजबूत करने की आवश्यकता है। यह केवल जनजातीय समुदाय के बीच साक्षरता दर को बढ़ाकर ही संभव हो सकता है।भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों की बात कही गई है । जिसमें संविधान के भाग-में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार प्रत्येक व्यक्ति को दिया गया है ।संविधान के भाग-में अनुच्छेद 25  26 के द्वारा यह सुनिश्चित कर दिया गया है ।

संविधान के अनुच्छेद-13( 2 )में स्पष्ट रूप से उल्लेखित है कि राज्य संविधान के भाग-में प्रदत्त मौलिक अधिकारों का हनन करने वाला कोई कानून नहीं बना सकता है परंतु क्या यह बात जनजातियों के लिए सही साबित हुई है क्या लालच धोखाधड़ी प्रलोभन दबाव धमकी आदि के द्वारा उनके धर्मों को परिवर्तित नहीं किया जा रहा है। ईसाई मिशनरियों द्वारा जनजातीय समुदाय निशाना बनाकर क्या इनका राजनीतिक लाभ नहीं उठाया जा रहा है । इन जनजातियों को डरा धमका कर या जोर-जबरदस्ती से किसी दूसरे धर्म को अपनाने को कहा जाता है । तो उसके खिलाफ कानूनी कार्रवाई के लिए भारतीय दंड विधान 1860 की धारा 295 ए में पर्याप्त प्रावधान है । राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्डब्यूरो के आंकड़े देखे तो क्या आंकड़े मौजूद हैं या सिर्फ राजनीतिक हित साधने के लिए ही धर्म परिवर्तन का एक प्रश्न खड़ा किया गया है।

"ईसाई धर्म प्रचारकों ने भी समाज सुधारक के रूप में जनजाति प्रदेशों में प्रवेश कर उनके जीवन में कुछ सुधार लाने का प्रयत्न किया क्योंकि इनका आंतरिक उद्देश्य धर्म परिवर्तन से था धर्म परिवर्तन से यदि जनजातियों के सामाजिक स्तर में सुधार हो भी गया तो उनके सामने दूसरी समस्याएं प्रस्तुत होने लगी मिशनरियों ने रोमन लिपि के माध्यम से इन्हें शिक्षा देना प्रारंभ किया अतः जनजातीय लोग अपनी बोली और भाषा धीरे-धीरे भूलते गए।"[8]

यहां सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि क्या धार्मिक स्वतंत्रता के विरुद्ध कानून बनाना संविधान संगत है। कुछ लोग जनजातीय समुदाय को पिछड़े हिंदू मानते हैं। परंतु क्या यह उचित होगा जिनका जीवन शुरू से जंगलों में निवास रहा हो जो प्रकृति पूजक हो। आज समाज में जनजातीय समुदाय के प्रति मानसिकता क्या है,क्या हम जनजातीय समुदाय को सशक्तिकरण का हिस्सा बनना देना चाहते हैं या सिर्फ इनको पिछड़ेपन का सहारा बने रहना देना चाहते हैं।

समाज में आज भी इतने वर्षों बाद भी भेदभाव और शोषण चरम पर है। आदिवासी महिलाओं लड़कियों की तस्करी आज भी रोकी नहीं जा रही है अनेकों बार विभिन्न कारणों से आदिवासी समाज में लोगों को सार्वजनिक रूप से पीटा जाता है। राजनेता एक छोटे से बयान देकर मामलों को खत्म कर देते हैं। आदिवासी समाज हाशिए पर चला गया है। आर्थिक उदारवाद के दौर में आज आर्थिक उदारवादी  ने समाज के संसाधनों का जमकर शोषण करना आरंभ कर दिया है। और आदिवासियों को उनके पारंपरिक व्यवसाय में भी बेदखल किया जा रहा है।

सरकारी नौकरी जिसमें आरक्षण की वजह से आदिवासी समाज कुछ हद तक अपनी स्थिति को सुदृढ़ करने का प्रयास कर रहा है परंतु आर्थिक उदारवाद की वजह से निरंतर सरकारी नौकरियों में कटौती की जा रही है और प्राइवेट नौकरियों में इस वर्ग का ज्यादा कोई स्थान नहीं है। इस वजह से आदिवासी समाज में आर्थिक एवं सामाजिक राजनीति एवं सामाजिक प्रयास नहीं किए गए तो आदिवासी समाज वापस अंधकार की तरफ अग्रसर हो जाएगाआज भी भारतीय समाज के कुछ वर्गों को दोयम दर्जे के रूप में देखा जाता है। उनके साथ अलग ही तरह का व्यवहार भी किया जाता है। घूर्य के अनुसार "आदिवासियों में अलगाव व आंदोलनों के संबंध में उन्होंने कहा था कि जब तक वे देश की राजनीतिक व्यवस्था में समन्वित नहीं हो जाते उनकी समस्याएं मौजूद रहेगी।"[9]

आज भी देश की कई जनजातियों को अपराधिक जनजातियों के रूप में जाना जाता है। आजादी के इतने लंबे समय बाद भी उनका स्वरूप उसी रूप से उल्लेखित है। धर्म और संस्कृति की बात यदि हम करते हैं तो इन आदिवासियों का एक विशिष्ट धर्म संस्कृति एवं भाषा आदि से संपन्न इनकी एक अलग ही अपनी पहचान है।

निष्कर्ष सरकारी आंकड़े बताते हैं कि 2011 की जनगणना के मुताबिक आदिवासियों की साक्षरता दर 59 फीसदी है। लेकिन यह एक कड़वी सच्चाई है कि इन साक्षर जनजातियों में एक बड़ा तबका नाम मात्र के लिए साक्षर है। उन्होंने प्रारंभिक अवस्था में ही अपनी शिक्षा छोड़ दी और उनके लिए बनाई गई नीतियों और कार्यक्रमों के बारे में उन्हें अधिक जानकारी नहीं है और वे अपने अधिकारों से अनभिज्ञ हैं। संविधान निर्माताओं ने आदिवासी लोगों के सुधार हेतु दो तरह की नीतियों को अपनाया, सुरक्षात्मक नीति और विकासात्मक नीति। "संविधान निर्माता निर्माता इस सत्य को अच्छी तरह से जानते थे कि आदिवासियों के साथ हमेशा से ही भेदभाव की नीति अपनाई जाती रही है उनका शोषण होता रहा है इसलिए उन्हें सुरक्षात्मक और विकासात्मक सुविधाएं दी है इन सुरक्षा ओं का उद्देश्य उन्हें देश की मुख्यधारा में लाना है इस सुरक्षा ओं का उल्लेखअनुच्छेद14,15(4),16(4),46,330,332 ,335तथा पाँचवीं, छठी अनुसूची में किया गया है"। 9पाँचवीं पंचवर्षीय योजना के अंतर्गत एकीकृत ग्रामीण विकास कार्यक्रम को जारी किया गया। छठी पंचवर्षीय योजना के दौरान मांडा योजना संशोधित क्षेत्रीय विकास दृष्टिकोण को अपनाया गया। सातवीं पंचवर्षीय योजना में TSP के माध्यम से विकास कार्यक्रमों को इन जनजाति क्षेत्र में आगे बढ़ाया गया।"भारत के संविधान में जनजाति क्षेत्रों के विकास एवं जनजातियों के सामाजिक एवं आर्थिक विकास हेतु अनेक अनुसूचियों अनुच्छेदों का उल्लेख किया गया है ऐसे प्रावधान जनजाति क्षेत्रों एवं वहां रहने वाले लोगों के विकास की ओर संकेत करते हैं स्वतंत्र भारत में संवैधानिक प्रावधानों में विकास की पहली कड़ी के रूप में कार्य किया है तथा इन प्रावधानों ने जनजातीय लोगों में चेतना जागृत करने का महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।"[10] सरकार की नीति को केवल जनजातीय विकास पर ध्यान केंद्रित नहीं करना चाहिए बल्कि जनजातियों के समृद्ध संस्कृति, रीति-रिवाजों, परंपराओं और भाषा के सतत विकास पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए, क्योंकि जनजातीय पहचान उनकी विशिष्ट संस्कृति और परंपराओं के साथ निहित है जो उन्हें अपने पूर्वजों से विरासत में मिली है। वैश्वीकरण के इस युग में आदिवासी समुदाय को अपनी संस्कृति और पहचान की रक्षा और संरक्षण के लिए कुछ विशिष्ट नीतियों की तत्काल आवश्यकता है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. विनायक तुकाराम, 2008आदिवासी कौन, अनामिका पब्लिशर, नई दिल्ली, पृ. 251 2. चौहान. आई.एस,(1970)’’ कल्चरलचेंज इन ट्राईबललाइफइकनोमिक एंड पॉलिटिकलीपृष्ठ-151. 3. एल्विन.बैरियर,(1961),एन्यू डील फॉरट्राईबल इंडिया गृह मंत्रालय भारत सरकार पृष्ठ- 11 . 4. जी.एस.घूर्य,(1963),शेड्यूल्डट्राइब,पॉपुलर प्रकाशन मुंबई ,पृष्ठ-44. 5. रमणिका गुप्ता :आदिवासी विकास से विस्थापन, राधाकृष्णन प्रकाशन, नई दिल्ली, 2018, पृ. 12 6. रमणिका गुप्ता; दीपक कुमार, देवेंद्र चौबे; : आदिवासी अस्मिता के प्रश्न, पृ. 357-358 7. उपरेती. हरीश. चंद्र, 2007, भारतीय जनजातियां संरचना एवं विकास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर,पृष्ठ -संख्या 396 8. नागला.बी.के, 2018 , भारतीय समाजशास्त्रीय चिंतन , रावत पब्लिकेशन जयपुर 2018 पृष्ठ -संख्या 78 9. दोषी.एस.एल,जैन.पी.सी, 2020 ,जनजातीय समाजशास्त्र, रावत पब्लिकेशन, जयपुर पृष्ठ- संख्या- 238. 10. उपरेती. हरीश. चंद्र, 2007, भारतीय जनजातियां संरचना एवं विकास, राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी जयपुर,पृष्ठ -संख्या 364