P: ISSN No. 2394-0344 RNI No.  UPBIL/2016/67980 VOL.- VIII , ISSUE- I April  - 2023
E: ISSN No. 2455-0817 Remarking An Analisation
मूक बधिर एवं अन्ध दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन
Comparative Study of Educational Achievement of Deaf-mute and Blind Disabled Adolescent Students
Paper Id :  17512   Submission Date :  19/04/2023   Acceptance Date :  21/04/2023   Publication Date :  25/04/2023
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राम प्रकाश सैनी
सहायक आचार्य
स्कूल आफ टीचर एजूकेशन
छत्रपति शाहू जी महाराज विश्वविद्यालय,
कानपुर,यूपी, भारत
सारांश विद्यार्थियों के लिए अन्य उपलब्धियों की अपेक्षा शैक्षिक उपलब्धि ही उनके जीवन की सर्वोपरि महत्व की होती हैै विशेष रूप से वर्तमान सामाजिक, आर्थिक एवं व्यावसायिकता के सन्दर्भ में। बाल्यावस्था के समापन के पश्चात् अर्थात् 13 वर्ष की आयु से किशोरावस्था आरम्भ हो जाती हैै और इस अवस्था को भयंकर तनाव एवं तूफान की अवस्था कहा जाता है। जब इस उम्र में दिव्यांग किशोंरों की इच्छाएं एवं आवश्यकताओं की पूर्ति नहीं हो पाती है तो उनमें असमायोजन की स्थिति उत्पन्न हो जाती है। ये दिव्यांग किशोर अपनी अच्छी शैक्षिक उपलब्धि होने पर अपने आपको वातावरण के साथ आसानी से समायोजित कर सकते हैं और शैक्षिक उपलब्धि पर उनके सर्वोत्तम व्यवसाय का चयन निर्भर करता है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Compared to other achievements for students, academic achievement is of paramount importance in their life, especially in the context of current social, economic and professional life. Adolescence begins after the end of childhood, that is, from the age of 13, and this stage is called the stage of severe stress and storm. When the desires and needs of disabled adolescents are not fulfilled at this age, then a situation of disadjustment arises in them. These disabled teenagers can easily adjust themselves with the environment if they have good academic achievement and their best vocation selection depends on the academic achievement.
मुख्य शब्द मूक बधिर, अन्ध दिव्यांग, किशोर छात्र-छात्राएं, शैक्षिक उपलब्धि।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Deaf-mute, Blind-Disabled, Adolescent Students, Educational Achievement.
प्रस्तावना
शिक्षा प्रत्येक व्यक्ति के सफलतम् जीवन का आधार है और इसका प्रारम्भ गर्भावस्था से माना जाता है। औपचारिक शिक्षा की शुरूआत विद्यालय से मानी जाती है। प्रत्येक विद्यालय में जहॉं बहुत से ऐसे विद्यार्थी आते हैं जो किसी न किसी रूप से एक दूसरे से भिन्न होते हैं। यह भिन्नता शारीरिक या मानसिक किसी भी प्रकार की हो सकती है। उदाहरणार्थ कुछ विद्यार्थी शारीरिक रूप से विकलांग या दुर्बल प्रकार के हो सकते हैं। साथ ही कुछ विद्यार्थी ऐसे भी होते हैं जिनकी शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण सामान्य बालकों के साथ नहीं हो सकता है। अतः इनके लिए अलग से शिक्षा या व्यावसायिक प्रशिक्षण की व्यवस्था करनी होती है। शिक्षा का केन्द्र बिन्दु बालक होता है। शिक्षा के द्वारा प्रत्येक बालक में छिपी अन्तर्निहित शक्तियों का विकास किया जाता है। सामान्य बालक की तरह दिव्यांग बालक भी ईश्वर की एक अनुपम रचना है। इनके अन्दर भी विभिन्न प्रकार की विशिष्ट योग्यताओं एवं क्षमताओं के बीज निहित हैं। आवश्यकता इस बात की है कि हम उनकी नैसर्गिक शक्तियों को पूर्ण रूप से विकसित होने के सम्पूर्ण अवसर प्रदान करें। विश्वविख्यात इटैलियन शिक्षाशास्त्री मारिया मान्टेसरी(1870-1952)के बाल प्रकृति एवं शिक्षा सम्बन्धी विचार विश्व भर में लोकप्रिय हैैं। वे इटली की प्रथम महिला थीं जिन्होंने चिकित्सा विज्ञान में एम0 डी0 की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने अपने अध्ययन एवं चिकित्सा काल में दिव्यांगों एवं उनकी समस्याओं को समझा और उसके आधार पर बाल शिक्षा के क्षेत्र में प्रमुख विचार दिये- “प्रत्येक बालक अपने जीवन की अनुपम अभिव्यक्ति हैै। उसका शरीर बढ़ता है और आत्मा विकसित होती है। इन शारीरिक एवं मानसिक दोनों रूपों का एक ही मूल स्रोत है और वह ‘जीवन‘। हम न तो उसका विनाश करें और न ही अबोध रहें वरन् उसकी समस्त अभिव्यंजनाओं की प्रतिक्षा करें, जिनके एक दूसरे के बाद प्रकट होने पर पूर्ण विश्वास है.............। हमें चाहिए कि बालकों के व्यक्तित्व के इन प्राथमिक चिन्हों का श्रृ़द्धा पूर्वक आदर करें।“ इस प्रकार बालक सृष्टि की सर्वाेत्तम रचना है और उसके जीवन की पूर्णता के अनिवार्य है-शिक्षा। कहा जाता है कि प्राचीन भारतीय ऋषि अष्टवक्र, जिनकी अस्थियॉं आठ स्थानों पर विकृत थी। बचपन से ही उन्होंने आत्मा और वृहा में स्वयं की प्रतिष्ठापना में अपने चिन्तन और अध्ययन को केन्द्रित किया। उनकी सफल उपलब्धि का यह प्रमाण है कि उनके ज्ञान-बल और चिन्तन शक्ति में राजा जनक जैसे महान विद्वान ने भी उनकी शरण ली। महर्षि विरजानन्द, सूरदास, लुई ब्रेल सभी को हम श्रद्धा और सम्मान देते हैं। इन्होंने अपने लक्ष्यों की सार्थकता को सिद्ध किया है।ऋग्वेद के एक कथन (ऋगुवेद 1/12/2/8) मात्र से दिव्यांगों के लिए शिक्षा के भारतीय चिन्तन का परिचय मिलता है- ”सृष्टि में जो भी अपंग, अन्धे, लूले-लंगड़े, बहरे आदि हैं, वे समाज में कृपा के पात्र नहीं हैं, बल्कि हमें उनके साथ सहृदयतापूर्ण मानवता का व्यवहार करना चाहिए।” अर्थात् समाज दिव्यांगों के प्रति सद्भावना रखकर उन्हें शिक्षित एवं पुरूषार्थी बनाए। दिव्यांगों के प्रति सद्भावना और उनके प्रति मानवीय व्यवहार की अपेक्षा वेद कालीन समाज में भी की गयी है। दिव्यांगों के लिए शिक्षा हमारी लोकतान्त्रिक आवश्यकता हैै। उन्हें समानता के अधिकार से वंचित नहीं किया जा सकता। यही कारण है कि भारत में दिव्यांगों का कल्याण राज्य के प्राथमिक दायित्वों में शामिल किया गया है ताकि दिव्यांग व्यक्ति राज्य के लाभदायक एवं सम्मानीय सदस्य के रूप में स्वावलम्बी जीवन व्यतीत कर सकें। इस दृष्टिकोण से संविधान में यह व्यवस्था दी गयी हैं कि राज्य अपनी आर्थिक क्षमता के अनुसार दिव्यांगों के जीवन यापन के लिए शिक्षा एवं रोेजगार की व्यवस्था करेगा, जिससे कि वे अपने आपको समाज में समायोजित कर सकें। इस प्रकार सामान्य व्यक्तियों की तरह दिव्यांग व्यक्तियों को भी पूर्ण जीवन जीने का अधिकार है फिर वर्तमान युग की विषम परिस्थितियों में कोई भी यह निश्चित रूप से यह नहीं जान पाता कि वह कब और कैसे थोड़ी सी असावधानी, किसी दुर्घटना और बीमारी के फलस्वरूप दिव्यांग हो जाए।
अध्ययन का उद्देश्य 1. मूक बधिर किशोर छात्र- छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन करना। 2. अन्ध विकलांग किशोर छात्र- छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन करना। 3. मूक बधिर किशोर छात्र और अन्ध दिव्यांग किशोर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन करना। 4. मूक बधिर किशोर छात्राओं और अन्ध विकलांग किशोर छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक अध्ययन करना।
साहित्यावलोकन

1.   2022, सिंह, नम्रता- बनारस विश्वविद्यालय बनारस ने ’’दृष्टिबाधित बच्चों में भावनात्मक बुद्धिमत्ता पर प्राणायाम का प्रभाव’’ का अध्ययन किया और पाया कि भावनात्मक बुद्धिमत्ता स्वयं की और दूसरों की भावनाओं को पहचानने, आकलन करने, प्रक्रिया करने और नियंत्रित करने की क्षमता है जो दृष्टिबाधित बच्चों को माता-पिता और समुदाय के सदस्यों के साथ नई लाइन स्वस्थ संबंध बनाने में मदद करती है। यह भी पता चला है कि दृष्टिबाधित बच्चों ने भावनाओं को व्यक्त करने और मूल्यांकन करने की क्षमता में औसत स्तर हासिल किया था और प्राणायाम के अभ्यास से उनके अंकों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई थी। शोधकर्ता ने यह भी पाया कि उनके पास बहुत अच्छी शब्दावली थी और खुद को अभिव्यक्त करने के लिए विभिन्न प्रकार के शब्दों का इस्तेमाल करते थे, इस तथ्य का यह कारण हो सकता था कि वे ज्यादातर संचार के लिए भाषा पर निर्भर थे और अपने परिवेश की खोज करते थे जिसके कारण उनके पास अच्छी तरह से विकसित क्षमता थी। अध्ययन से यह भी पता चलता है कि दृष्टिबाधित बच्चों में भावनाओं का उपयोग करने की क्षमता में सुधार हुआ था और प्राणायाम के अभ्यास से उनके अंकों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई थी। दृष्टिबाधित बच्चों ने स्वयं में भावनाओं को प्रबंधित करने की क्षमता में औसत स्तर हासिल किया था और प्राणायाम के अभ्यास से उनके अंकों में धीरे-धीरे वृद्धि हुई थी।

2. 2018, जे. एल. वालैंडर, वेंडी एस. फेल्डमैन और जेम्स डब्ल्यू वर्नी ने शारीरिक रूप से विकलांग बच्चों की शारीरिक स्थिति और मनोसामाजिक समायोजन के बीच संबंधों की जांच    की। अध्ययन में भौतिक स्थिति और समायोजन के बीच संबंधों की सामान्य कमी पायी गयी।

3.  2014, वांग सीवाई, श्यू सी.एफ और थामस ई. ने स्वास्थ्य संबंधी चर और शारीरिक-प्रदर्शन परीक्षणों का उपयोग करके वृद्ध व्यक्तियों पर एक अध्ययन किया और पाया कि शारीरिक विकलांगता के स्व-रिपोर्ट किए गए उपायों का उपयोग वृद्ध वयस्कों को अलग-अलग श्रेणियों में वर्गीकृत करने के लिए किया जा सकता है।

4.  2014, रूथ पुरिसमैन और बेंजामिन माओज ने यह जानने का प्रयास किया कि कौन से कारक  विकलांग बेटे की हानि के लिए अच्छे समायोजन और इष्टतम समायोजन से कम के बीच अंतर कर सकते हैं। अध्ययन में यह पाया गया कि किसी भी महत्वपूर्ण चर पर पुरुषों और महिलाओं के बीच सांख्यिकीय रूप से महत्वपूर्ण अंतर नहीं थे। उच्च शैक्षिक स्तर, घनिष्ठ सामाजिक संबंधों और बेहतर वैवाहिक समायोजन के साथ अच्छा समायोजन महत्वपूर्ण रूप से सहसंबद्ध था।

5.      2011, Vecchio N- Stevens ने आबादी की तुलना करके करियर धारणाओं की जांच कीः ऑस्ट्रेलिया में मानसिक अक्षमता वाले और शारीरिक अक्षमता वाले लोग कुल के 12.5% का प्रतिनिधित्व करने वाले डेटा का उपयोग करके यह निष्कर्ष निकाला कि गंभीर मूल विकलांगता वाले व्यक्तियों की देखभाल करने वालों में, शारीरिक अक्षमता वाले केवल 8.3% देखभालकर्ताओं की तुलना में मानसिक विकलांगता वाले 21.6% लोगों ने अपर्याप्त सेवा सहायता की सूचना दी। स्वास्थ्य देखभाल सेवा योजना में उपभोक्ताओं और उनके परिवारों की अधिक भागीदारी के लिए अवसर प्रदान करेगी

6.      2009, सुमंत खन्ना, पी.एन. राजेंद्र, डी.पी.एम. व एस.एम. चन्नबासवन्ना ने ऑब्सेसिव कंपल्सिव डिसऑर्डर में सामाजिक समायोजन पर शोध कार्य किया है। अध्ययन में पाया कि रोगियों में वैश्विक दुर्बलता थी, विशेष रूप से अवकाश के दौरान, जो विकार की गंभीरता से संबंधित थी। चिकित्सा के साथ इस हानि के सुधार पर प्रकाश डाला गया है। यह बल दिया जाता है कि जुनूनी में सामाजिक समायोजन नहीं था।

7.  2008, गोंनका: बूमिन ने अपने शोध में विकलांग बच्चों वाली माताओं में जीवन की गुणवत्ता के साथ चिंता और अवसाद के बीच संबंधों की जांच की। अध्ययन अंकारा में तीन पुनर्वास केंद्रों में किया गया था। अध्ययन में पाया गया कि विकलांग बच्चों वाली माताओं में चिंता और अवसाद होता है। माँ के जीवन की गुणवत्ता पर बुरी तरह से प्रभावित अवसाद और चिंता के स्तर में वृद्धि।

8.  2007, गुनेल, हेनसिंग, वाल्टर सुंध और फ्रेड्रिक स्पाक ने महिलाओं के शराब पर निर्भरता-दुरुपयोग (एडीए), चिंता या अवसाद विकारों पर अध्ययन किया। और पाया कि दैहिक चिंता, मांसपेशियों में तनाव, एकरसता से बचाव, सामाजिक वांछनीयता और चिड़चिड़ापन। फॉलो-अप के दौरान चिंता विकारों से उबरने वाली महिलाओं में दैहिक चिंता और मांसपेशियों में तनाव में कमी आई थी और मौखिक आक्रामकता में स्कोर में वृद्धि हुई थी। फॉलो-अप के दौरान एडीए विकसित करने वाली महिलाओं में वृद्धि हुई थी आवेग और मौखिक आक्रामकता के पैमाने पर स्कोर फॉलो-अप के दौरान अवसाद विकसित करने वाली महिलाओं में एकरसता से बचने में वृद्धि हुई थी। इस वयस्क महिला आबादी में व्यक्तित्व लक्षण आम तौर पर स्थिर थे लेकिन मानसिक विकारों में परिवर्तन के साथ कुछ व्यक्तित्व लक्षण बदल गए।

9.  2007, जेनिफर ए क्लेलैंड, अमांडा जे0 ली0 और सुसान बॉल नेब्रिटेन में सीओपीडी में प्राथमिक देखभाल, अवसादग्रस्तता और चिंताजनक लक्षणों पर अध्ययन किया और पाया कि ब्रिटेन में सीओपीडी में प्राथमिक देखभाल, अवसादग्रस्तता और चिंताजनक लक्षण उम्र और लक्षणों के उच्च स्तर से संबंधित हैं। अवसाद भी कम रोगी-रिपोर्ट की गई सामान्य स्वास्थ्य स्थिति से जुड़ा हुआ है।

10.  2007, ओसामु आबे, मोतोमु सुगा, नोबुमासा काटो एवं अन्य ने अवसादग्रस्तता और चिंता विकारो पर अध्ययन किया और पाया कि क्षेत्रीय मस्तिष्क मात्रा और के बीच संबंधों की खोज अवसादग्रस्तता और चिंता विकारों के लिए पहले से मौजूद भेद्यता को समझने के लिए चिंता से संबंधित व्यक्तित्व लक्षण महत्वपूर्ण हैं। उन्होंने पाया कि भार पर उच्च स्कोर सही हिप्पोकाः एमपीस में छोटे क्षेत्रीय ग्रे मैटर वॉल्यूम से जुड़े थे, जो दोनों लिंगों के लिए सामान्य था। इसके विपरीत, महिला-विशिष्ट सहसंबंध उच्च चिंता-संबंधित व्यक्तित्व लक्षणों और बाएं पूर्वकाल प्रीफ्रंटल कॉर्टेक्स में छोटे क्षेत्रीय मस्तिष्क की मात्रा के बीच पाया गया।

11. 2006, एडम, एम.: कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय नेे अध्ययन ने सांख्यिकीय रूप से दो निर्माणों को अलग करने और उनके अंतर सहसंबंधों का मूल्यांकन करने का प्रयास किया। और अध्ययन में पाया कि  दोनों नमूनों में अवसादग्रस्त प्रवृत्तियों और चिंता के प्रति संवेदनशीलता के रूप में व्याख्या किए गए दो कारक पाए गए तथा प्रत्येक कारक पर कारक भार दो नमूनों में अत्यधिक सहसंबद्ध थे। इन कारक संरचनाओं में कोई लिंग अंतर नहीं पाया गया। ब्लॉक नमूने में प्रतिभागियों के लिए अच्छी तरह से अलग-अलग मदों से युक्त कारक-आधारित अंकों की गणना की गई थी। आंशिक सहसंबंध विश्लेषणों का उपयोग करते हुए, प्रेक्षक-मापा और साथ ही आत्म-रिपोर्ट-आधारित व्यक्तित्व अवसादग्रस्तता की प्रवृत्ति से जुड़े विशिष्ट विचरण और चिंता के प्रति संवेदनशीलता के साथ क्रमशः विपरीत थे। परिणामों ने संकेत दिया कि अवसाद में एक मजबूत पारस्परिक घटक चिंता में कम ध्यान देने योग्य था।

12.  2005, फराबॉघ ए, स्क्लार्स्की के, पीटरसन टी, एवं अन्य ने उदास रोगियों पर एक जांच की कि क्या सहरुग्ण चिंता विकार एक व्यक्तित्व विकार (पीडी) के लिए मानदंडों को पूरा करने के लिए उदास रोगियों की संभावना को प्रभावित करते हैं और क्या सहरुग्ण चिंता विकार स्थिरता को प्रभावित करते हैं उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि चिंतित अवसाद रोगियों को पीडी निदान होने के अधिक जोखिम में डाल सकता है, विशेष रूप से क्लस्टर ए या सी से।

13.  2004, कर्स्टन नौमन मुर्तग और हेलेन बी ह्यूबर्ट ने वरिष्ठ नागरिकों के बीच अक्षमता में लिंग अंतर को स्पष्ट करने में सामाजिक-जनसांख्यिकीय कारकों, पुरानी बीमारी जोखिम कारकों और स्वास्थ्य स्थितियों की भूमिका का विश्लेषण किया है और पाया कि संभावित व्याख्यात्मक कारकों के लिए समायोजित सहप्रसरण का विश्लेषण। परिणामों से पता चला कि महिलाएं ज्यादा थीं।

14.  2003 वीसन और मारिका ने ‘‘विकलांग और गैर-विकलांग बच्चों के माता-पिता में अवसाद के लक्षण और भावनात्मक स्थिति‘‘ पर शोध किया और पाया कि माता-पिता, विशेष रूप से विकलांग बच्चों की माताओं में काफी अधिक नकारात्मक भावनात्मक अवस्थाएँ होती हैं और काफी अधिक अवसादग्रस्तता के लक्षण भी होते हैं। अधिकांश लक्षणों में विकलांग और नियंत्रित माता-पिता समूह के बीच अवसाद के लक्षणों में महत्वपूर्ण अंतर पाया गया। नियंत्रण समूह में माता-पिता काफी अधिक खुश, खुश, संतुष्ट, गर्वित, आभारी, अपने बच्चे के लिए खुश, प्रसन्न और आशान्वित थे।

15. 2001, Pervez, Nazali and Yakub, Kehkashan – Disabilities and Empowerment. Vol. No. 15(182), 98-104 studied on “Identifying sources of well being Happiness and Daily Hassles among blind Institutionalized Children. जिसमें उन्होंने पाया कि अन्ध विकलांग छात्र- छात्राओं के मध्यॅमसस ठमपदह में कोई सार्थक अंतर नहीं था। उन्हें भी पाया कि अंध विकलांग बच्चों की खुशियों मुख्य रूप से उनकी जीवन संतुष्टि के ऊपर निर्भर थी। खुशियों के मुख्य स्रोत जैसे मनोरंजन, कायर्, खेलकूद, व्यायाम के मामले में छात्र-छात्राओं में सामान्य अंतर पाया गया था ।

16.  2001. Reddy, G. Lokanadha, Kusuma, A, and Rajaguru, S.-ने सामाजिक विज्ञान विषय में अंध विकलांग बच्चों की उपलब्धि प्रदर्शनी पदार्थ (ब्रेल) तथा बोलने वाली किताबें (ऑडियो कैसेट) के प्रभाव का अध्ययन किया। उन्होंने पाया कि हाईस्कूल स्तर पर सामाजिक विज्ञान विषय के अध्ययन में स्पर्शनीय पदार्थ और ऑडियो कैसेट का प्रभाव पाया गया। ब्रेल लिपि के अपेक्षा अडियो कैसेट का अधिक प्रभाव पाया गया लेकिन इनमें कोई सार्थक अंतर नहीं पाया गया। सामाजिक विज्ञान अध्ययन में लिंग भेद में कोई अंतर नहीं पाया गया। जन्मजात अन्ध विकलांग बच्चों ने ब्रेल लिपि की वजाय ऑडियो कैसेट के अध्ययन करके सामाजिक विज्ञान विषयों में अच्छी उपलब्धि प्राप्त की।

17. 2000, Daniel, R.J.: Diller, L.- Columbia University, Teachers College, New York studied on “Learning of the Disabilities Children: Some behavioral  manifestation”और अध्ययन में पाया कि शैक्षिक अक्षमता ज्ञानात्मक एवं सीखने की गति अक्षमता, सामाजिक भावनात्मक दुर्बलता के मध्य सकारात्मक सह सम्बन्ध था। ऐसे बच्चे अक्षम होते हुए भी शैक्षिक अक्षमता में विशेष कमी नहीं पाई गई।

मुख्य पाठ

समस्या की उत्पत्ति-

प्रायः ऐसा देखने में आता है कि प्रकृति बालकों में इन्द्रिय विशेष की दिव्यांगता एवं कमी को अन्य क्षमताओं के विशेष विकास से पूर्ण करती हेै। शिक्षा इस विकास में पूर्ण योगदान करती है और बालक में छिपी अन्य विशिष्ट योग्यताओं को विकसित करके उसकी पूर्ति करती है।

स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिक का निर्माण होता है।

अरस्तु की परिभाषा यह बताती है कि जब तक शरीर स्वस्थ नहीं होगा तब तक मनुष्य सामान्य रूप से कार्य नहीं कर सकता है। शारीरिक स्वास्थ्य उसके कार्य एवं विकास को प्रभावित करता है। अक्षम अथवा अपंग बालक शारीरिक रूप से दिव्यांग बालक कहलाते हैं। इन दिव्यांग बालको को प्रायः हेय दृष्टि से देखा जाता है। उन्हें दया योग्य, भार योग्य, दान योग्य, मजाक का पात्र समझा जाता है। समाज की यह सोच इन बालकों में निराशा एवं हतासा भर देती है। यह न तो दिव्यांग किशोरों की दृष्टि से न समाज की दृष्टि और न ही राष्ट्र की दृष्टि से हितकर है। अतः दिव्यांगों की शिक्षा के प्रति ध्यान देना अति आवश्यक है। ऐसा माना जाता है कि समाज मूक बधिर दिव्यांगो पर अन्ध दिव्यांगों की अपेक्षा अधिक ध्यान दे रहा है। जिससे उनकी शैक्षिक उपलब्धि का स्तर अन्ध दिव्यांगों की अपेक्षा ज्यादा अच्छा होता है। इसीलिए शोधकर्ता के शोध का विषय निम्नवत् है-

समस्या कथन-

मूक बधिर एवं अन्ध दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि का तुलनात्मक  अध्ययन करना।

शोध में प्रयुक्त चरों का परिभाषीकरण-

दिव्यांगता

दिव्यांगता वह स्थिति है जिसमें मनुष्य के किसी अंग पर बीमारी, दुर्घटना या अन्य किसी वजह से इस हद तक प्रभाव पड़े कि उसके  रोज मर्रा के काम-काज में बाधा उत्पन्न हो जाए।

जरूरी काम में निम्न हैं- 1. चलना-फिरना, 2. देखना, 3. सुनना व बोलना 4. सोचना व समझना।


क्रो एण्ड क्रो के अनुसार-

एक व्यक्ति जिसमें कोई इस प्रकार का शारीरिक दोष होता हैं जो किसी भी रूप में उसे सामान्य क्रियाओं में भाग लेने से रोकता है या उसे सीमित रखता है, उसे हम विकलांग बालक (शारीरिक न्यूनता से ग्रसित व्यक्ति) कह सकते हैं।

शोधकर्ता ने अपने शोध कार्य के अन्तर्गत शारीरिक रूप से दिव्यांग बालको में से किशोरावस्था के चक्षु या अन्ध दिव्यांगता तथा मूक बधिर दिव्यांगता वाले बालकों को ही चुना गया है।

अन्ध दिव्यांग बालक

ऐसे बालक जिनकी दृष्टि तीष्णता 2/200 तक होती है, वे अन्धे बालक की श्रेणी में रखे गये हैं। ऐसे बच्चे किसी के हाथ घुमाने की गति 2 या 3 फीट की दूरी से भी नहीं देख पाते हैं। इनमें दृष्टि की हल्की झलक रहती है और इन्हें पूर्ण अन्ध दिव्यांग माना गया है।

मूक बधिर बालक

मूक बधिर बालक गूंगे और बहरे होते हेैं अर्थात् उनमें श्रवण औैैैैैर वाक्रूपी मिश्रित दिव्यांगता होती है। शोध में ऐसे छात्रों को शामिल किया गया है जो 100 डी0 बी0 की आवाज भी न सुनने में असमर्थ हैं।

शोध की आवश्यकता एवं महत्व

भारतीय संविधान में प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता एवं योग्यता को विकसित करने का अधिकार हैै। परन्तु जो कार्य सामान्य किशोर आसानी कर लेते हैं वह कार्य दिव्यांग किशोरों को करने में कठिनाई होती है। वर्तमान समय में किशोर छात्र-छात्राएं उपयुक्त रोजगार का आंकलन करते हुए अपनी शैक्षिक उपलब्धि के प्रति चिन्तित देखे जा सकते हेैं। सामान्य किशोंरोें की अपेक्षा यह चिन्ता दिव्यांग किशोरों में अधिक हो सकती है।

सरकार तथा सामाजिक संस्थाओं ने दिव्यांगों की प्रतिभा को निखारने एवं उनका समुचित उपयोग करने के लिए अनेक विशेष विद्यालयों एव व्यावसायिक प्रशिक्षण केन्द्रों की स्थापना की है। खासतौर पर नेत्रहीन दिव्यांगों की शिक्षा एवं व्यावसायिक प्रशिक्षण के शिक्षण संस्थाएं तथा पुनर्वास केन्द्र खोले गये हैं। जो इनमें छिपी प्रतिभा को विकसित कर तथा व्यवसायिक प्रशिक्षण देकर उन्हें समाज का एक योग्य एवं सक्षम नागरिक बनाने का प्रयास कर रहे हैं। इसके सरकार ने सरकारी नौकरियों तथा प्रशिक्षण संस्थाओं में दिव्यागों के लिए 4 प्रतिशत आरक्षण की व्यवस्था भी की है। साथ ही हमारी समाज सेवी संस्थाएं भी दिव्यांगों के कल्याण एवं सर्वोत्तम उन्नति के लिए प्रयासरत हैं फिर भी दिव्यांगों कर समस्याओं का निराकरण नहीं हो पाया है। इसीलिए इस विषय पर शोध करने की आवश्यकता  है।

शोध की परिकल्पनाएं- शोध की परिकल्पनाएं निम्नलिखित हैं-

1.       मूक बधिरकिशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक अन्तर होता है।

2.      अन्ध विकलांग किशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक अन्तर होता है।

3.      मूक बधिरकिशोर छात्रों और अन्ध दिव्यांगकिशोर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक अन्तर होता है।

4.      मूक बधिरकिशोर छात्राओं और अन्ध दिव्यांगकिशोर छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में सार्थक अन्तर होता है।

प्रस्तुत शोध की जनसंख्या-

शोधकर्ता ने अपने शोधकार्य को पूरा करने के लिए उत्तर प्रदेश के अर्न्तगत संचालित उच्चतर समस्त उच्चतर माध्यमिक स्तर पर संचालित अन्ध विद्यालय तथा मूक बधिर विद्यालयों को जनसंख्या के रूप में चयन के साथ-साथ उन प्रशिक्षण विद्यालयों को भी जनसंख्या में शामिल किया गया है जिनमें उपरोक्त छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हैं।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध की परिकल्पनाओं के सत्यापन एवं आंकड़ों के एकत्रण हेतु सर्वेक्षण विधि का प्रयोग किया गया है।
न्यादर्ष
प्रस्तुत शोधकार्य में शोधकर्ता ने उद्देश्य परक‘ न्यादर्शन चयन विधि के द्वारा अपनी समस्या से प्रत्यक्ष रूप से सम्बन्धित उत्तर प्रदेश के समस्त उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों  एवं प्रशिक्षण संस्थानों को चुना है जिनमें मूक बधिर तथा अन्ध दिव्यांग छात्र-छात्राएं अध्ययनरत हे या प्रशिक्षणरत हैं। 
प्रयुक्त उपकरण शैक्षिक उपलब्धि को जानने के लिए मान्यता प्राप्त समस्त बोर्डो के हाई स्कूल परीक्षा के परिणामों को आधार बनाया गया है।
अध्ययन में प्रयुक्त सांख्यिकी

प्रयुक्त सांख्यकीय विधि-

प्रस्तुत शोध में आंकड़ों के सांख्यिकीय विश्लेषण के लिए विश्लेषण अप्राचल (Non Parametric Test) की काई वर्ग परीक्षण विधि का प्रयोग किया गया है। इसका सूत्र इस प्रकार है-


d.f.= (r-1) (c-1)

विश्लेषण

तालिका-1
मूक बधिर दिव्यांग छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना

लिंग

शैक्षिक उपलब्धि के स्तर

योग

उच्च

औसत

निम्न

मूक बधिर छात्र

24

45

06

75

मूक बधिर छात्राएं

17

49

09

75

योग

41

54

15

150

= 1-88

2d.f. का मान =0.5% विश्वास के स्तर =5.99
प्रस्तुत तालिका से प्राप्त मान (1.88), 0.5%  विश्वास के स्तर पर सार्थकता के लिए आवश्यक मान से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूक बधिर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
तालिका-2
अन्ध दिव्यांग छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना

लिंग

शैक्षिक उपलब्धि के स्तर

योग

उच्च

औसत

निम्न

मूक बधिर छात्र

07

38

05

50

मूक बधिर छात्राएं

10

31

09

50

योग

17

69

14

100

= 1-88
2d.f. का मान =0.5% विश्वास के स्तर =5.99
प्रस्तुत तालिका से प्राप्त मान (2.38), 0.5%  विश्वास के स्तर पर सार्थकता के लिए आवश्यक मान से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि अन्ध दिव्यांग छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है। 
तालिका-3
मूक बधिर दिव्यांग छात्रों तथा अन्ध दिव्यांग छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना

लिंग

शैक्षिक उपलब्धि के स्तर

योग

उच्च

औसत

निम्न

मूक बधिर छात्र

24

45

06

75

अन्ध दिव्यांग छात्र

07

38

05

50

लिंग

31

83

11

125

 = 1-88
2d.f. का मान =0.5% विश्वास के स्तर =5.99

प्रस्तुत तालिका से प्राप्त मान (5.20), 0.5%  विश्वास के स्तर पर सार्थकता के लिए आवश्यक मान से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूक बधिर छात्रों तथा अन्ध दिव्यांग छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि में में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।

तालिका-4

मूक बधिर दिव्यांग छात्राओं तथा अन्ध दिव्यांग छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि की तुलना   

लिंग

शैक्षिक उपलब्धि के स्तर

योग

उच्च

औसत

निम्न

मूक बधिर छात्र

17

49

09

75

अन्ध दिव्यांग छात्राएं

10

31

09

50

योग

27

80

18

125

= 1-88

2d.f. का मान =0.5% विश्वास के स्तर =5.99

प्रस्तुत तालिका से प्राप्त मान (0.63), 0.5%  विश्वास के स्तर पर सार्थकता के लिए आवश्यक मान से कम है। इससे यह सिद्ध होता है कि मूक बधिर छात्राओं तथा अन्ध दिव्यांग छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।

निष्कर्ष आकड़ों के विश्लेषण के उपरान्त निम्नलिखित निष्कर्ष प्राप्त हुए- 1. मूक बधिरकिशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है। 2. अन्ध विकलांग किशोर छात्र-छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है। 3. मूक बधिर किशोर छात्रों और अन्ध दिव्यांग किशोर छात्रों की शैक्षिक उपलब्धि में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है। 4. मूक बधिर किशोर छात्राओं और अन्ध दिव्यांग किशोर छात्राओं की शैक्षिक उपलब्धि में कोई सार्थक अन्तर नहीं होता है।
अध्ययन की सीमा 1. अध्ययन के अन्तर्गत उत्तर प्रदेश में नेत्रहीन तथा मूक बधिर दिव्यांगता के क्षेत्र में कार्यरत शिक्षण संस्थाओं को सामिल किया गया हेै।
2. अध्ययन के अन्तर्गत उच्चतर माध्यमिक स्तर के संस्थागत किशोर छात्र-छात्राओं को ही सामिल किया गया है।
3. इसमें केवल शारीरिक रूप से दिव्यांग किशोर छात्र-छात्राओं को ही शामिल किया गया है।
4. ये सामान्य बुद्धि के शारीरिक रूप से दिव्यांग छात्र-छात्राएं हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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