ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- I April  - 2023
Anthology The Research
जे.कृष्णमूर्ति की शैक्षिक विचारधारा
Educational Ideology of J.Krishnamurthy
Paper Id :  17548   Submission Date :  16/04/2023   Acceptance Date :  21/04/2023   Publication Date :  24/04/2023
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
आईलीन डिसिल्वा
व्याख्याता
बी.एड. विभाग
एस.के. टीटी कॉलेज
कोटा, राजस्थान, भारत
सारांश इस अध्ययन का उद्देश्य जे.कृष्णमूर्ति की शैक्षिक विचारधारा के अन्तर्गत उनके अनुसार शिक्षा से अभिप्राय, शिक्षा के कार्य, शिक्षा के उद्देश्य, शिक्षण विधियॉ, पाठ्यक्रम, अनुशासन का अवलोकन किया गया है। जे.कृष्णमूर्ति एक महान शिक्षाविद् होने के साथ-साथ एक प्रख्यात दार्शनिक भी थे। उनकी विचारधारा अन्य दार्शनिकों एवं शिक्षाविदों से बिल्कुल भिन्न थी। उनकी इसी विचारधारा को शिक्षा के विभिन्न पहलुओं को ध्यान में रखकर प्रस्तुत किया गया है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The purpose of this study is to observe the meaning of education, functions of education, objectives of education, teaching methods, curriculum, discipline according to J.Krishnamurthy's educational ideology. J. Krishnamurti was a great educationist as well as an eminent philosopher. His ideology was completely different from other philosophers and educationists. His ideology has been presented keeping various aspects of education in mind.
मुख्य शब्द शैक्षिक विचारधारा, उद्देश्य, शिक्षण विधियॉ, पाठ्यक्रम, अनुशासन, निष्कर्ष।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Educational Ideology, Objectives, Teaching Methods, Curriculum, Discipline, Conclusion.
प्रस्तावना
किसी भी राष्ट्र की प्रगति उसकी मजबूत शिक्षा प्रणाली पर आधारित होती है। जिससे उसका जीवन विकसित होता है। जीवंत शिक्षा पद्धति जीवन का मूलाधार होकर समाज तथा राष्ट्र का निर्माण करती है तथा इसके मुख्य आधार राष्ट्र या राज्य उसकी उचित व्यवस्था करता रहता है। शासन व्यवस्था की ईमानदारी, क्रियाशीलता एवं सामर्थ्य इसके विशेष महत्वपूर्ण तत्व है। ये सभी तत्व शिक्षा प्रणाली के द्वारा राष्ट्र की जीवन प्रक्रिया को आगे बढ़ाते है। जिससे वह विकसित एवं उन्नति की अवस्था में पहुॅचता है। हमारी शिक्षा नीति समाज दर्शन, मनोवैज्ञानिक उपलब्धियॉ, धार्मिक आस्था, नैतिक मूल्य एक उत्कृष्ट संक्रान्ति से प्रभावित हुये मालूम होते है। इसलिये समस्त दार्शनिक चिन्तन मानव जीवन और उसकी नियमित एक पहेली सी प्रतीत होती है। इस पहेली को सुलझाने में मेधावी विचारकों ने अनेक प्रयास किया है। इस बाबत् जे.कृष्णमूर्ति का नाम हमारे स्मृति पटल पर स्वाभाविक ही उभर-कर आ जाता है। जे.कृष्णमूर्ति निश्चय ही एक महान् दार्शनिक माने जाते है। उन्होने जीवन को उसकी अनन्त गहराई तक समझने तथा जन मानस को जागृत करने में अपना सारा जीवन न्यौछावर कर दिया। जे.कृष्णमूर्ति के दर्शन का हृदय सूत्र यह है सत्य के खोजों को वचनों, गुरूओं और परम्परागत विधियों, विधानों का त्याग कर स्वयं ही तथ्यों का वस्तुपूरक एवं प्रत्यक्ष दर्शन करना प्राथमिक है।
अध्ययन का उद्देश्य जे.कृष्णमूर्ति के उपलब्ध साहित्य में निहित शैक्षिक तत्वों का अध्ययन एवं विश्लेषण करना।
साहित्यावलोकन

संबंधित साहित्य के ज्ञात होता है कि जे.कृष्णमूर्ति के दर्शन पर अनुसंधान कार्य बहुत कम हेये है। इस कर्मो को पूरा करने एवं वर्तमान में जे.कृष्णमूर्ति के शैक्षिक-विचारों को मध्य नजर रखकर शैक्षिक समस्याओं के समाधान को पूर्ण करने की आवश्यकता तथा उनके विचारों को समाज के प्रत्येक व्यक्ति तक पहुॅचा कर सम्पूर्ण जगत को अवगत कराने का प्रयास किया गया है 

मुख्य पाठ

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षण की विधियॉ-

इसके अनुसार शिक्षण विधियों में निम्न तत्वों का समावेश आवश्यक है।

1. शिक्षण विधि ऐसी होनी चाहिए कि "स्वयं करके सीखना’’ और ‘‘अनुभवों से सीखना’’ का प्रयोग करके छात्र अधिगम प्राप्त करे।

2. शिक्षण विधि बालक के स्तरानुसार मानसिक व शारीरिक विकास के अनुकूल होनी चाहिए।

3. शिक्षण विधि में सीखने की प्रक्रिया में सह सम्बन्ध स्थापित किया जा सके।

4. शिक्षण विधि भयमुक्त हो।

5. शिक्षण में आवश्यकतानुसार व्याख्यान, वाद् विवाद ,संगोष्ठीकार्यशालायें एवं शिक्षण उपयोगी गतिविधियों का आयोजन हो।

6. शिक्षण में विषयों को सरल व रोचक बनाने हेतु सहायक सामग्री जैसे  दृश्य श्रव्य सामग्री का समुचित प्रयोग किया जाय।

7. शिक्षण विधि में प्रोजेक्ट विधि, कहानी, कथन विधि, प्रदर्शन विधि एवं अन्य प्रमुख विधियों का प्रयोग करके विषयवस्तु को आसानी से समझाया जा सकता है।

8. शिक्षण के दौरान छात्र अध्यापक अन्तःक्रिया व सहभागिता की भावना आवश्यक होती है।

9. शिक्षण में आगमन निगमन दोनो विधियों का समावेश है।

10. शिक्षण जिज्ञासापूर्ण हो तथा अन्त में विद्यार्थियों में स्वमूल्यांकन की प्रवृत्ति विद्यमान हो। उनके अनुसार उचित शिक्षा वही है जो बालक के जीवन की समस्याओं का समाधान करने में सक्षम है।

वह समस्याओं को समझ सकें एवं बालको को दबावों से बाहर करके नई सोच के साथ नवीन शक्ति उत्पन्न करे और बालक रूढिवादी व अंधविश्वास ना बने। जे.कृष्णमूर्ति वर्तमान की शिक्षा को पूर्णतः असफल बताते है, क्योंकि वह शिक्षा तकनीकी पर ही आधारित है।

तकनीकी शिक्षा मानव को यांत्रिकीय बना देती है एवं मानव के आन्तरिक सौन्दर्य, प्रेम करूणा, स्नेह को समाप्त कर देती है।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के कार्य-

शिक्षा का कार्य बालक को सीखने की कला से अवगत कराना है। उनके अनुसार ‘‘सीखने की कला का तात्पर्य दी गई जानकारी को उचित स्थान देना तथा जो सीख गया है उसकी न तो उन प्रतिभाओं और प्रतीकों से बच जाना जिन्हें विचार करना होता है। अतः कला का तात्पर्य प्रत्येक वस्तु को उचित स्थान पर रखना है।

शिक्षा का एक अन्य बालक में बालक का सम्पूर्ण उत्तरदायित्व का ज्ञान कराये।

अनके अनुसार शिक्षा व्यक्ति को केवल संस्कार युक्त होने में ही सहयोग नहीं देती अपितु जीवन की सम्पूर्ण प्रक्रिया को समझने में सहायता करती है। इसके द्वारा उसकी दृष्टि स्पष्ट होगी और वे संस्कारो व आदर्शों की मिली जुली संस्कृति से स्वतंत्र होकर मौलिक परिवर्तन के द्वारा नवीन संसार की रचना में सहायता कर सकेंगे।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा के उद्देश्य-

1. बालको की जिज्ञासा के संबंध मे।

2. वास्तविक चरित्र निर्माण के संबंध मे।

3. व्यावसायिक प्रशिक्षण के संबंध में ।

4. सृजनात्मकता के विकास के संबंध में।

5. शारीरिक, मानसिक व सांस्कृतिक विकास के संबंध में।

6. वास्तविक अनुशासन की समझ उत्पन्न करने के संबंध में।

7. अंहकार से मुक्ति के संबंध में।

8. जीवन जीने की कला सिखाने के संबंध में।

9. स्वयं को आलोकित करने में सहायता करने के संबंध में।

10. जीवन और मृत्यु का बोध कराने के संबंध में।

11. विश्व शान्ति की स्थापना के संबंध मे।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षण की विधियॉ-

इसके अनुसार शिक्षण विधियों में निम्न तत्वों का समावेश आवश्यक है।

1. शिक्षण विधि ऐसी होनी चाहिए कि "स्वयं करके सीखना’’ और ‘‘अनुभवों से सीखना’’ का प्रयोग करके छात्र अधिगम प्राप्त करे।

2. शिक्षण विधि बालक के स्तरानुसार मानसिक व शारीरिक विकास के अनुकूल होनी चाहिए।

3. शिक्षण विधि में सीखने की प्रक्रिया में सह सम्बन्ध स्थापित किया जा सके।

4. शिक्षण विधि भयमुक्त हो।

5. शिक्षण में आवश्यकतानुसार व्याख्यान, वाद् विवाद, संगोष्ठि, कार्यशालाऐ एवं शिक्षण उपयोगी गतिविधियों का आयोजन हो।

6. शिक्षण में विषयों को सरल व रोचक बनाने हेतु सहायक सामग्री जैसे दृश्य श्रव्य सामग्री का समुचित प्रयोग किया जाय।

7. शिक्षण विधि में प्रोजेक्ट विधि, कहानी, कथन विधि, प्रदर्शन विधि एवं अन्य प्रमुख विधियों का प्रयोग करके विषयवस्तु को आसानी से समझाया जा सकता है।

8. शिक्षण के दौरान छात्र अध्यापक अन्तःक्रिया व सहभागिता की भावना आवश्यक होती है।

9. शिक्षण में आगमन निगमन दोनो विधियों का समावेश है।

10. शिक्षण जिज्ञासापूर्ण हो तथा अन्त में विद्यार्थियों में स्वमूल्यांकन की प्रवृत्ति विद्यमान हो।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार पाठ्यक्रम

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार पाठ्यक्रम में निम्नलिखित तत्वों को सम्मिलित करना चाहिए।

1. बालको को भौतिक ज्ञान दिया जाये।

2. बालकों को व्यावसायिक विषयों का ज्ञान देने के साथ साथ व्यावसायिक प्रशिक्षण भी आवश्यक है।

3. बालकों को आध्यात्मिक विषयो का ज्ञान दिया जाये।

4. बालक के चेतन एवं अचेतन मन का विकास किया जाये।

5. कला, संगीत, कविता आदि का ज्ञान दिया जाये।

6. बालको में तर्क, चिन्तन जिज्ञासा, अभिव्यक्ति का विकास किया जाये।

7. स्वस्थ शरीर में स्वस्थ मस्तिष्क का निर्माण हेतु पाठ्यक्रम में शारीरिक ज्ञान देना चाहिये।

8. शिक्षा का स्वरूप संकुचित होने के साथ साथ व्यापक शिक्षा भी होनी चाहिए।

9. पाठ्यक्रम में सृजनशीलता का ज्ञान भी दिया जाये।

10. पर्यावरण शिक्षा का ज्ञान भी आवश्यक माना है।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार अनुशासन-

जे.कृष्णमूर्ति के दर्शन में अनुशासन का विशेष महत्व है। उन्होने सदैव आन्तरिक अनुशासन पर बल दिया। उनके अनुसार वास्तविक अनुशासन का अर्थ होता है अपने मन एवं हृदय के सहायोग से मित्रवत एवं स्नेहपूर्ण अवस्था में सीखना। अनुशासन शिक्षक एवं शिक्षार्थी के मध्य अवस्था का संबंध है। उन्होने लिखा है कि ‘‘ अनुशासन शिष्यत्व से जुडा है, क्योंकि अनुशासन का संबंध सीखने से है।

जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार अनुशासन से व्यवस्था आती है। व्यवस्था से स्वतंत्रता का जन्म होता है और स्वतंत्रता से अच्छाई, प्रेम और प्रज्ञता का प्रस्फुटन होता है।

निष्कर्ष जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा का अभिप्राय ऐसा व्यवहारिक ज्ञान प्राप्त कराना है जो हमें जीवन की समस्याओं का समाधान करने के योग्य बना सके। ऐसी शिक्षा मानव को प्रज्ञावान एवं विनयशील बनाती है तथा मनुष्य के अन्दर विश्व बंधुत्व एवं मानव प्रेम उत्पन्न करती है। जे.कृष्णमूर्ति की शैक्षिक विचारधारा अन्य दार्शनिकों एवं शिक्षाविदों की शैक्षिक विचारधाराओं से बहुत भिन्न है। उन्होनें अपने स्वयं के जीवन अनुभव के आधार पर ही दार्शनिक मत व्यक्त किये। जे.कृष्णमूर्ति के अनुसार सही शिक्षा का स्वरूप बोध में है जो आत्मज्ञान से आता है और आत्मज्ञान अपनी समस्त मानसिक प्रक्रिया के प्रति सजगता से आता है। जे.कृष्णमूर्तिजी शिक्षक को शिष्य का एक अच्छा सलाहकार मित्र मानते थे। उन्होने प्रश्नोत्तर विधि, चिन्तन मनन एवं वाद् विवाद् विधि सीखने के लिये सर्वोत्तम विधि मानी है। वे भयमुक्त शिक्षण प्रणाली को श्रेष्ठ मानते थे। शिक्षण कार्य जिज्ञासापूर्ण हो एवं शिक्षार्थी स्वमूल्यांकन करके स्वयं का आकलन करे। उन्होने व्यावसायिक प्रशिक्षण पर जोर दिया एवं पाठ्यक्रम में पर्यावरण शिक्षा, सृजनशीलता को महत्व दिया एवं व्यापक प्राथमिकता दी। जे.कृष्णमूर्ति ने शिक्षार्थी में आन्तरिक अनुशासन पर बल दिया।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘शिक्षा क्या है’’? राजपाल 2. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘शिक्षा एवं जीवन का तात्पर्य’’ राजघाट फोर्ट वाराणसी 3. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘शिक्षा दर्शन’’ डॉ.राम सकल पाण्डेय। 4. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘सीखने की कला’’ राजघाट फोर्ट वाराणसी। 5. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘सत्य एक पथहीन भूमि’’ राजघाट फोर्ट वाराणसी। 6. कृष्णमूर्तिः " आपको जीवन में क्या करना है " फोर्ट वाराणसी। 7. कृष्णमूर्ति जे. ‘‘जीवन की पुस्तक’’ राजघाट फोर्ट वाराणसी।