ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VII , ISSUE- X January  - 2023
Anthology The Research
बस्तर जिले मुरिया जनजाति मे जीवन संस्कार का अध्ययन
Study of Life Culture in Muria Tribe of Bastar District
Paper Id :  17520   Submission Date :  13/01/2023   Acceptance Date :  21/01/2023   Publication Date :  25/01/2023
This is an open-access research paper/article distributed under the terms of the Creative Commons Attribution 4.0 International, which permits unrestricted use, distribution, and reproduction in any medium, provided the original author and source are credited.
For verification of this paper, please visit on http://www.socialresearchfoundation.com/anthology.php#8
खोमेश मौर्य
शोधकर्ता
मानव विज्ञान एवं जनजातीय अध्ययनशाला
शहीद महेंद्र कर्मा विश्वविद्यालय
छत्तीसगढ़, भारत
सुकृता तिर्की
शोध निर्देशिका, सहायक प्राध्यापक
मानव विज्ञान एवं जनजातीय अध्ययनशाला
शहीद महेंद्र कर्मा विश्वविद्यालय
छत्तीसगढ़, भारत
सारांश जनजाति की संस्कृति का आधार जीवन संस्कार व उनकी परम्पराएं होती है। प्रत्येक जनजाति में जीवन संस्कार अर्थात् जन्म, विवाह व मृत्यु से संबंधित विशिष्ट संस्कार या अनुष्ठानों की श्रृंखला होती है, जिसे जीवन संस्कार कहा जाता है। यह जीवन की अनिवार्य घटनाओं को समुदाय को सूचित करने व समाज स्वीकृत करने का तरीका भी है। इनका व्यक्ति, परिवार व समुदाय पर व्यापक प्रभाव होता है। मुरिया जनजाति के जीवन संस्कार में विशिष्ट परंपराओं व रस्मों का योग होता है। जिसे समाज के सभी सदस्यों को पालन करना होता है। इस परंपराओं की नियमितता एवं निरंतरता ही समाज के मूल स्वरूप को बनाये रखने में महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन करती है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The basis of the culture of the tribe is the way of their living style and their traditions. Every tribe has a series of specific rites or rituals related to life, i.e. birth, marriage and death, which are called life rituals. It is also a way of informing the community about the essential events of life and getting it accepted by the society. They have a wide impact on the individual, family and community. There is a combination of special traditions and rituals in the lifestyle of Muria tribe. Which all the members of the society have to follow. The regularity and continuity of these traditions plays an important role in maintaining the original form of the society.
मुख्य शब्द संस्कार का अध्ययन, परम्पराएं, अनुष्ठानों की श्रृंखला।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद The study of Rites, Traditions, Series of Rituals.
प्रस्तावना
जनजातियॉ एक निश्चित क्षेत्र में निवास करते है। उनका पृथक नाम, संस्कृति, रीति-रिवाज, भाषा-बोली, धार्मिक मान्यतायें व अनुष्ठान होता है। जनजाति की संस्कृति का आधार जीवन संस्कार व उनकी परम्पराएं होती है। प्रत्येक जनजाति में जीवन संस्कार अर्थात् जन्म, विवाह व मृत्यु से संबंधित विशिष्ट संस्कार या अनुष्ठानों की श्रृंखला होती है, जिसे जीवन संस्कार कहा जाता है। यह जीवन की अनिवार्य घटनाओं को समुदाय को सूचित करने व समाज स्वीकृत करने का तरीका भी है। इनका व्यक्ति, परिवार व समुदाय पर व्यापक प्रभाव होता है। मुरिया जनजाति मुरिया जनजाति छत्तीसगढ राज्य के बस्तर संभाग की एक प्रमुख जनजाति है। यह गोंड जनजाति समूह की जातियों में है। मुरिया जनजाति का मुख्य निवास क्षेत्र बस्तर संभाग के सभी सातों जिले कांकेर, नारायणपुर, कोंडागांव, बस्तर, दंतेवाड़ा व सुकमा जिले में निवासरत है। मुरिया जनजाति की बस्तर, कोंडागांव व नारायणपुर जिले में जनसंख्या अधिक है। मुरिया जनजाति द्रविड भाषा परिवार की गोडी बोली बोलते है, इसके साथ-साथ वे संपर्क बोली के रूप में हल्बी बोली भी बोलते हैं। मुरिया जनजाति में प्रोटो आस्ट्रेलॉयड प्रजातीय लक्षण पाये जाते हैं। मुरिया जनजाति तीन उपजातियों राजा मुरिया, घोटुल मुरिया व झोरिया मुरिया में विभाजित हैं। इनमें से राजा मुरिया बस्तर जिला में, घोटुल मुरिया नारायणपुर व कोंडागांव जिले में व झोरिया मुरिया कोंडागांव जिलें में निवास करते हैं। बस्तर की मुरिया जनजाति पर ब्रिटिश मानवशास्त्री वेरियर एल्विन लिखित ग्रंथ “मुरिया एंड देयर घोटूल” (1947) विख्यात है। जिसमें मुरिया जनजाति के युवागृह “घोटूल“ तथा उनकी संस्कृति का अध्ययन किया गया है। उपरोक्त ग्रंथ में मुरिया जनजाति की उपजाति के रूप में राजा मुरिया का अनेक बार उल्लेख किया गया है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध पत्र बस्तर जिले की मुरिया जनजाति के जीवन संस्कार अर्थात् जन्म, विवाह व मृत्यु से जुड़े संस्कार पर आधारित है। इस शोध पत्र का उद्देश्य बस्तर जिले की राजा मुरिया जनजाति के जीवन संस्कार के समस्त पहलुओं का विवरण प्रस्तुत करना है। बस्तर संभाग की मुरिया जनजाति पर आधारित अधिकांश शोध व जानकारियां घोटूल मुरिया जनजाति पर ही आधारित है। मुरिया जनजाति की शेष दो उपजातियों राजा मुरिया व झोरिया मुरिया पर प्रमाणिक शोध का अभाव है। अतः प्रस्तुत शोध पत्र के माध्यम से मुरिया जनजाति की उपजाति राजा मुरिया के संबंध में प्रमाणिक जानकारी उपलब्ध होगी।
साहित्यावलोकन

एल्विन, वी. (1947) के प्रसिद्ध ग्रंथ मुरिया एंड देयर घोटूलमें मुरिया जनजाति के युवागृह घोटूल एवं मुरिया जनजाति की संस्कृति का विस्तृत अध्ययन किया है। इस अध्ययन में उन्होने मुरिया जनजाति के निवास क्षेत्र, बसाहट, बोली, जन्म, विवाह, मृत्यु, आजीविका, सामाजिक जीवन, परिवार एवं गोत्र व्यवस्था, धार्मिक जीवन, राजनीतिक जीवन, घोटूल व्यवस्था, नृत्य, गीत, संगीत आदि का वर्णन किया है। उन्होनें मुरिया समाज में जन्म, विवाह व मृत्यु की घटना व रीति-रिवाजों का वर्णन किया है तथा घोटूल के सदस्यों का इससे जुड़े कार्यों में भूमिका व महत्व का भूमिका का गहन विश्लेषणात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है।

ग्रिगसन, डब्ल्यू. वी. (1938) के ग्रंथ माड़िया गोंड्स ऑफ बस्तरमें बस्तर में निवास करने वाली हिल माड़िया तथा बॉयसन हार्न माड़िया जनजाति का सांस्कृतिक अध्ययन प्रस्तुत किया है। उन्होंने उपरोक्त जनजातियों के निवास क्षेत्र, आवासीय प्रतिमान, जनसंख्या, प्रजातीय लक्षण, जन्म, विवाह, मृत्यु, भोजन एवं पेय, बोली, पारिवारिक-सामाजिक जीवन, आर्थिक जीवन, राजनीतिक जीवन, धर्म एवं जादू, मेले-मंडई, नृत्य-गीत-संगीत आदि का वर्णन किया   है।

थुसु, के. एन. (1968) ने द धुरवास ऑफ बस्तरग्रंथ में बस्तर जिले में निवासरत् धुरवा जनजाति का नृजातीय अध्ययन किया है। अध्ययन में उन्होंने धुरवा जनजाति के भौतिक संस्कृति, सामाजिक संरचना, जीवन चक्र, अंतर्जातीय संबंध, आर्थिक संगठन, धार्मिक विश्वास, पंचायत व्यवस्था एवं लोक कहानियों का अध्ययन किया है। सामाजिक संरचना में उन्होंने धुरवा के परिवार, वंश, गोत्र एवं भातृदल का उल्लेख किया है। जीवन चक्र के अंतर्गत जन्म, विवाह तथा मृत्यु से संबंधित संस्कार की व्याख्या किया गया है।

हाजरा, डी.(1970) ने द दोरलास ऑफ बस्तरग्रंथ में बस्तर के दक्षिण भाग में निवास करने वाले दोरला जनजाति का सांस्कृतिक अध्ययन किया है। इस अध्ययन में उन्होनें ने दोरला जनजाति के जीवन संस्कार-जन्म, विवाह एवं मृत्यु का विस्तृत विवरण दिया है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध पत्र हेतु बस्तर जिले के तोकापाल तहसील के मुरिया जनजाति निवासरत मोरठपाल, डोंगरीगुड़ा, कलेपाल, मारेंगा तथा राजूर ग्रामों में मुरिया जनजाति के बुजुर्ग व्यक्तियों, समाज प्रमुखों, पटेल, कोटवार आदि राजनीतिक प्रमुखों आदि व्यक्तियों से एकल व सामूहिक साक्षात्कार के माध्यम से प्राथमिक तथ्यों का संकलन किया गया। द्वितीयक तथ्यों का संकलन पूर्व संदर्भ ग्रंथों, प्रतिवेदनों, जनगणना प्रतिवेदनों से संकलन किया गयाहै।
विश्लेषण

1. जन्म संस्कार
मुरिया जनजाति में जन्म से संबंधित प्रक्रियाओं व रस्म-रिवाज को निम्नांकित बिंदुओं में प्रस्तुत किया गया है-
गर्भकाल
मुरियाजनजाति में महिला के मासिक चक्र रूकने से गर्भधारण का अनुमान लगाया जाता है। गर्भकाल की प्रारंभिक अवधि में महिला सामान्य रूप से काम-काज करती है। लेकिन गर्भकाल के अंतिम तीन माह में भारी सामान व श्रमसाध्य कार्य करने में मनाही होती है। परिवार के वरिष्ठ जनों अपने ईष्ट कुल देवी-देवता से महिला व बच्चे की कुशलता हेतु प्रार्थना व पूजा किया जाता है।
प्रसव
गर्भकाल के पूर्णता पर गर्भवती महिला का प्रसव गांव की जानकार महिला दाई” एवं परिवार की बुजुर्ग महिलाओं द्वारा कराया जाता है। नवजात शिशु के जन्म के बाद दाई हाथ में रखकर शिशु को रूलाती है। शिशु के नहीं रोने पर गर्म पानी को पीठ में छिड़कते हुए हाथ से थपकी देती है। शिशु के रोने के बाद नाल को हंसीया या तीर या धागे या छुरी से काट कर धागे से बांध दिया जाता है। शिशु को हल्दी-पानी से पोछते है और पुराने कपड़े में लपेटते हैं और नाल को घर में गड्ढा खोद कर गाड़ दिया जाता है एवं उस स्थान को गोबर से लीप कर आग जला दिया जाता है और उसी कमरे में महिला एंव शिशु को नाल के झड़ने तक रखा जाता है।
शुद्धिकरण व कस्सा पानी रस्म
शिशु का नाल झड़ने के बाद शुद्धिकरण किया जाता है। इस दिन घर की  साफ-सफाई एवं प्रसूता व शिशु को स्नान कराया जाता है। इस दिन अनेक जंगली जड़ी-बूटियों को पानी में उबाल कर औषधीय पेय तैयार किया जाता है। जिसे कस्सा पानी कहते हैं। इसमें लगभग 21 प्रकार के वन के वृक्ष एंव पौधे तथा जंगली जड़ी-बूटी जैसे- सिन्द गोखा या कान्दाबोंडकी चेर या जडबिजा चेरभेंलवा चेरकंटा मुतरी चेरसेदावरी चेररसना चेरटिवस पेड का छाली या छिलकाभुंई भेंलवाफाफनी छालीककई छालीसियाडी छालीडुरका मुडेया बोताभुंई धवडीहाड जमेलाबोदोल चेरमहुआ छालीसरगी छालीकाला तिलहंरवा या कुल्थी एंव गुड आदि को पानी में उबाल कर लहसुन से लोहे के चम्मच से छोंक लगाकर कस्सा पानी तैयार किया जाता है। कस्सा पानी को सर्वप्रथम अपने पितर या पूर्वज देवी देवता को कस्सा पानी अर्पित या तरपनी देने के बाद माता को पिलाया जाता है। इसके बाद आमंत्रित महिलाओं को भी कस्सा पानी पीने के लिये दिया जाता है।
छटी या नामकरण
कस्सा पानी रस्म के एक दो हफ्ते बाद छटी या नामकरण संस्कार किया जाता है छटी या नामकरण संस्कार के लिये घर की साफ-सफाईलिपाई-पोताई, कपड़ो की धुलाई की जाती है। कस्सा पानी बना कर घर के चारोंओर छिडकाव किया जाता है एवं उसके बाद शुभ कार्य किया जाता है। छटी के लिये संबंधियोंमामाबुआसगे संबंधियों एंव ग्रामवासियों को आमंत्रित किया जाता है। छटी के दिन एक स्थान पर नयी हान्डी में पानी भरकर उस पर सात चॉवल का दाना डाल ऊपर से नये कपड़ा रखा जाता है एवं कलश रख कर दिया जलाया जाता है। प्रसूता एवं बच्चे को नया कपड़ा पहना कर कलश के सामने बैठाया जाता है धूप बत्ती को जला कर अपने ईष्ट देवी-देवता की पूजा की जाती है एवं महिलाओं द्वारा मां और बच्चे के चारों तरफ तीन से सात बार घुमाया जाता है। हल्दी चांवल से माता के माथे में टीका किया जाता है।

छटी में आयी हुयी महिलाओं द्वारा अपने घर से चांवल लाया जाता है जिसे पत्ते से बने हुये चोकनी” (दोना) में चांवल और पैसा रख कर माता एवं गोद में रखे बच्चे के सामने ऊपर से गिराते है एवं शुभ एवं अच्छे जीवन की कामना करते है और उस चांवल के ढेर से पैसे को अलग कर कसेला” (लोटा) में डालते है। इसके बाद महिलायें शिशु का नाम रखती हैंबच्चे उस नाम को पुकारते हुए घर से बाहर खेलने के लिये बोलते हुये निकलते है। महिलायें उस पैसे से कुछ पारम्परिक रस्म से अनुमान लगा कर शिशु के अच्छे भविष्य की कामना करती    हैं। रस्मों की समाप्ति के बाद सभी आये हुए सगे-संबंधियों एवं ग्रामीणों को घर में बने पकवान एवं भोज दिया जाता है। इस प्रकार नामकरण का कार्य पूर्ण होता है और उस दिन से परिवार में समस्त शुभ कार्य प्रारम्भ हो जाता है और प्रसूता घर का कार्य करना प्रारंभ करती है।
2. विवाह संस्कार
मुरियाजनजाति में विवाह युवावस्था का अनिवार्य संस्कार है। इसमें समाज स्वीकृत विधियों से वर-वधू व उनके संबंधी द्वारा विभिन्न रस्मों-अनुष्ठानों को पूर्ण किया जाता है। इसके पश्चात् समाज में उन्हें दंपत्ति के रूप में स्वीकार किया जाता है। विवाह संस्कार को समाज का आधार माना जा सकता है क्योंकि इसके बाद ही परिवार व नयी पीढ़ी का जन्म व समाज की निरंतरता बनी रहती है। मुरिया जनजाति के विवाह संस्कार का बिंदूवार विवरण निम्नांकित है-
नियम
मुरिया जनजाति में विवाह हेतु नियम निम्नांकित है-
1. मुरियाजनजाति में एक ही गोत्र में विवाह संबंध नहीं किया जाता है। एक गोत्र के व्यक्ति को आपस में रक्तसंबंधी माना जाता है। इस कारण सगोत्रीय विवाह निषेध होता है।
2. मुरिया जनजाति में वधू मूल्य प्रथा का प्रचलन है। इसमें वर पक्ष द्वारा वधु पक्ष को वधुमूल्य देना अनिवार्य होता है।
3. मुरियाजनजाति में ममेरे-फूफेरे विवाह को अधिमान्यता है। इसके अंतर्गत किसी कन्या से विवाह में मामा पक्ष के लड़के का सबसे पहले पूर्वाधिकार होता है। बुआ अपनी लड़की देने में सम्मान की अनुभूति महसूस करती हैमामा के लड़के पर बुआ का सर्वप्रथम दावा होता है।
जीवन साथी चयन की विधियां
मुरिया जनजाति में जीवन साथी चयन की अनेक विधियां प्रचलित हैं। जिसमें से कुछ विधियाँ सर्वाधिक प्रचलन में हैं जबकि कुछ विधियों में विवाह विशेष परिस्थितियों में किया जाता है। यह विधियां निम्न है-
1. बेटी पहुचाना विवाह (सहमति विवाह)-
मुरियाजनजाति में बेटी पहुचाना विवाह का प्रचलन अधिक है। इसमें वर-वधु पक्ष की सहमति से विवाह संस्कार संपन्न होता है।
विवाह प्रस्ताव/प्रथम माहला
मुरिया जनजाति में विवाह हेतु प्रस्ताव वर पक्ष की ओर से भेजा जाता है। अपने पुत्र के लिये अपने संबंधीपरिचितों में योग्य कन्या की तलाश करते हैं। वे अमूसनयाखानी पर्वदियारी पर्व में रिश्तेदारों को आमंत्रित करते हैंउस समय अलग-अलग गाँव के सगामन (रिश्तेदार) से योग्य कन्या का पता कर उसके परिवारगोत्रविवाह प्रस्ताव की स्वीकृत होने की संभावना को ज्ञात करलड़का-लड़की का नाम शुभाशुभ के सम्बन्ध में सिराह-गुनिया या पारिवारिक सदस्यों से विचार कराने के बाद उचित तिथिदिवस में लड़की के घर वाले को  सूचना भेजा जाती है। उस दिन लड़की वाले घर के सामने पानी से भरी हुई हान्डी शुभ मान कर रख देते है। विवाह प्रस्ताव लेकर जाने को पहला माहला मानते हैं। इसमें लड़के पक्ष के तीन-चार लोग एक बोतल या ढ़ूडी मे मन्द अर्थात् शराब लेकर जाते है।लड़की पक्ष वाले उनका स्वागत करते है। वहां लड़की के घरवाले एवं मामा पक्ष के लोग मौजूद होते हैप्रारंभिक बातचीत उपरांत लड़के वाले लड़की का हाथ माँगते हैं और आपसी सहमति होती है। यदि लड़के पक्ष वाले ममेरे-फूफेरे संबंधी नही हैं तो पहले वधु पक्ष द्वारा मामा के पक्ष से अनुमति लिया जाता है इसके उपरांत शराब सर्वप्रथम मामा को तत्पश्चात् पिता व माँ को देते है। इसी समय पिता द्वारा अपनी बेटी को आवाज देकर कहता है कि नोनी आमी तुचो महला मंद के खाद लु” (बेटी हमने तुम्हारी सगाई के रस्म की शराब पी ली) इस पर लडकी अपनी सहमति देती हैं। इस प्रकार रिश्ता तय होने के बाद वधु पक्ष द्वारा वर पक्ष से कहा जाता है कि सभी रीति नीति को मानते हुए माहला कर विवाह करें और दोनों पक्ष जौहार भेंट (अभिवादन) करते है।


द्वितीय सगाई (जानती महाला)
दूसरा माहला शनिवार, बृस्पतिवार एवं पांडफागुन महीना छोड़कर एवं शुक्ल पक्ष में पूर्णिमा के पहले किया जाता हैं। दूसरा माहला के लिए वर पक्ष द्वारा लड़की पक्ष में खबर भेजा जाता है जिससे लड़की वाले अपने संबंधियों को सूचित कर सकें। नियत तिथि को वर पक्ष से माता-पितावरिष्ठ जनसंबंधी मिल कर जानती महाला के लिये ढुडी में शराबसल्फीलाईचनागुड़बोबोचिवडा लेकर जाते हैं। कन्या के घर में स्वागत उपरांत सभी के माथे में हल्दी चांवल का टीका लगाते हैं। घर के आंगन में गांव के सगे लोग एवं एक तरफ वर पक्ष को बैठाया जाता हैं। जो सामान वर पक्ष से लाया गया हैउसको दोनों पक्षो के सामने रखा जाता हैं। सामान के सामने लड़के पक्ष के तीन-चार व्यक्ति खड़े होकर हाथ जोड़कर लडकी पक्ष के सगे लोगों के सामने माहला के सम्बध में एवं गांव का नामगोत्र बता कर दंडवत प्रणाम करते हैं व कन्या पक्ष को सामान स्वीकार करने का आग्रह करते है। इसके बाद दोनों पक्षों के पुजारी अपने-अपने देवी देवता एवं पूर्वजो की पूजा करते हैं। इसके बाद दोनों पक्षों के लोग वर पक्ष से लाये गये सामान एवं भोजन को ग्रहण करते है। भोजन के पश्चात् वर पक्ष के सदस्य अपने गांव वापस जाते है।
तीसरी सगाई  (जनती बडे मन्द और झोड़ा माहला)
तीसरी सगाई को जनती बडे मन्द और झोड़ा माहला कहा जाता है। इस हेतु निश्चित तिथि को वर पक्ष के लोग समस्त सामग्री के साथ वर पक्ष के घर जाते हैं। दोनों पक्षों के बीच माहला सामान जैसे लाई, गुड़, चिवड़ा, बोबो, शराब रखने के बाद वर पक्ष के सदस्य सभी का अभिवादन करने के बाद सामग्री के बारे में पुछने पर ढुटी में रखे मन्द या शराब के बारे में बताते है कि पहला सगा जनतीदूसरा जनतीतीसरा बडे मन्दचौथा जोडा इस तरह जानने के बाद जोडा धान नापते है। इसमें पॉच-सात पायेली धान 12 बजे के पूर्व नापते हैं तब दोनों तरफ के पूजारी देवी-देवतापूर्वज देव अर्थात् पित्तर डुमा को शराब अर्पित कर प्रार्थना व पूजा करते हैं व सभी लोगों को लाईमन्दचन्नाचिवडागुढ व बोबो बाटंते है तथा कन्या माहला में आये हुये सभी लोगों का पैर छूकर आशीर्वाद लेती है। इस दिन लगीन अर्थात् विवाह का दिन व जोड़ा तय होता है। जोडा या खरचा अर्थात् वधुमुल्य में 9 खन्डी धान5 पैली दालवधु को पहुचाने के बाद सूअरमुर्गा व माय लुगा के साथ लगीन तय होता है।
विवाह रस्म
मुरिया जनजाति में विवाह के एक रात पहले घरवाले गांव के सभी युवक-युवतियांवरिष्ठ महिला पुरूष को आमंत्रित कर लाई व शराब सबके सामने रख कर विवाह कार्य में सहयोग प्रदान करने का आग्रह करते हैं। तब गांव के सियान या वरिष्ठ जन खाना बनाने के सामान को देख-रेख के लिए भन्डारीपनारा जाति के सदस्य को महुण बनाने का सूचना दिया जाता है क्योंकि महुण बनाने वाले भी आकाश के तारे को मिलने का जोड देख कर महुण बनाते है। इस प्रकार सभी को कार्य विभाजन व जिम्मेदारी सौंपी जाती है। विवाह के प्रथम दिन सुबह कुछ युवक पुजारी के साथ कच्चा धागाबेट अर्थात् रस्सीआगसिंदूरकुल्हाडी ले कर महुआ की शाखा लेने जाते है। पुजारी महुआ शाखा का चयन पूजा करता है व एक बार में शाखा काट कर हंसी रिश्ता (परिहास संबंध) वाले युवक को पकड़ाया जाता है। फिर उस महुआ शाखा की जोडी के लिए साल वृक्ष की शाखा को साथ मिलाकर नया कपड़ा में दोनों को लपेटकर घर लाया जाता है। इसे लाते देख कर बाजा मोहरी बजाई जाती है। घर पहुँचने पर पाँच-सात महिलाएँ पीसी हल्दी चावल को घोल से लेकर महुआ साल की शाखा को पानी से पैर धुला कर घोल को लगाकर स्वागत करती हैं। इसे मंडप के मध्य में स्थापित किया जाता है।
रैला माटी रस्म
रैला माटी रस्म में वर की माता के साथ महिलायें बांस के परला में दीपक लेकर गोठान में मिट्टी लेने जाती हैं। पुजारी की पत्नी वर की माता के आंचल में मिट्टी देती है। इसे परला में रख कर वापस घर आते हैं। इस मिट्टी से मान्डो अर्थात् मंडप में चौकी बनाते है। इसके चार कोनों मेें दिया रख कर कच्चे धागे के साथ जोड़कर करके बांध देते है। इसके बाद हल्दी चॉवल टीकने के बाद मंण्डप में प्रवेश करते है। तब पुजारी एवं अन्य पुरूष इकट्ठा होते है। उस स्थान को शुद्ध कर पूजा कर लोहे के सब्बल में लाली टीका लगाकर एक नया कपडा बान्ध कर तीन से पॉच लोग पकड कर गढढा खोदते हैं। उस गड्ढे में पानी भरकर हल्दी गांठचुपडी एवं थोडा सा चॉवल डालते है। पानी में चांवल के एक जगह एकत्र होने पर महुआ साल गाड़ते हैं। इस दौरान पारंपरिक बाजा मोहरी वाद्य बजाते हैं।
हल्दी ठेचाई कपडा रगांई रस्म
रैला माटी रस्म के बाद पुजारी द्वारा हल्दी ठेचाई कपडा रगांई रस्म होता है। पत्थर के सील लोढ़ा को शुद्ध करने के बाद धूपलालीचॉवल से पूजा कर हल्दी को पिसा जाता है। फिर हल्दी रस्म के लिए वर/वधू को नया कपड़ा पहना कर नृत्य के साथ हल्दी रस्म को पूरा करने के लिए हल्दी को ढेकी में कुटते है। घर की वरिष्ठ महिलाएं देव तेल के लिए देवगुडी व पुजारी घर जाते है। देव तेल लाने के बाद नया हान्डी में गोबर से लीप कर धान से सजा कर कलश तैयार किया जाता है। पांच दीपवाला दिया सात आम के पत्ते के ऊपर रख कर टोरा तेल डालकर दीप जलाया जाता है।

हल्दी रस्म
नयी चटाई मे कलश के सामने पूर्व दिशा की ओर मुख कर वर-वधु को बैठा कर पुजारी व कुछ जन महूण अर्थात् छिंद की कोमल पत्तियों से बना मुकुट पहनाते है। महुण बांधने के बाद पुजारी देवी देवता को देव तेल चढ़ाता है उसके बाद घर के प्रमुख लोग जो उपवास रहते है वो देव तेल चढ़ाते है फिर पुजारी द्वारा मण्डप में महुआ के गाड़े हुये शाखा में महुण बान्धते है। उसके बाद लडके की माँ परला में हल्दी चॉवल कलश को परला में रख अपने सिर में उठा कर वर के दायें हाथ को पकडकर घर से बाहर मण्डप में लाकर महु मान्डो का एक चक्कर लगाती है। फिर कलश के सामने माँ या बड़ी बहू वर को अपने गोद में बैठाते है फिर पहले पुजारी व बाद में अन्य जन हल्दी लगाते है। इसी तरह वर को सात बार घर के अन्दर ले जाकर सात बार मंण्डप मे लाया जाता है और हल्दी चढ़ाया जाता हैं। हल्दी चढ़ाने की विधि में बॉस से बना हुआ परला में मिट्टी के टांगे (मिट्टी का छोटा मटका) में हल्दी तेल एंव चॉवल का घोल होता है। दोनों हाथ में पत्ते को पकड कर हल्दी घोल वाले टांगे (मिट्टी का छोटा मटका) में डुबोकर-
1. पहली बार में परला के चारों ओर छुते है।
2. दूसरे बार में कलश में चढाते है।
3. तीसरे बार हल्दी में डुबोकर महुआ की शाखा में जहॉ महुण बन्धा होता है उसे चढाते है।
4. चौथी बार हल्दी में डुबोकरवर को हल्दी चढ़ाते हैं। इसमें वर के पैरहाथकन्धेमाथे में जिसमें महुण बन्धा होता है जिसे आम के पत्ते के साथ हल्दी चढ़ाते है। फिर दोनों हाथों में हल्दी पकड़ कर पहले पैर से जांघ तक दूसरी बार में हल्दी पकड़ कर बारी-बारी से दोनों हाथ व बांह में हल्दी लगाते है। तीसरी बार में सीने व पीठ में चौथी बार गाल में हल्दी चढ़ाते है। अन्त में हाथ धोकर चॉवल को कलशमहु मान्डोलडके के माथे व महुण में टिकान कर चूमते है तब वर हल्दी चढाने वाले का पैर छूकर आशीर्वाद लेता है। इस तरह सभी आये हुये लोग बारी-बारी से हल्दी चढाते है। नाच-गाना के साथ हल्दी का रस्म पूर्ण होता है। इसी दिन वर पक्ष से दो महालाकारी हल्दी महुण वधू के लिए लेकर जाते हैं।       
हल्दी रस्म
माण्डो गड़ाई रस्म
वधू पक्ष के पुजारी द्वारा माण्डो गड़ाई रस्म किया जाता है। महालाकारी गांव के सभी घर जाकर तेल हल्दी लगाने के लिए बुलाते हैं। उसी दिन सुबह चार बजे वधु के गांव वाले महिला पुरूष मिल कर वधू को पहुचाते है। महालाकारी वधु को पीठ में बिठा कर घर से निकालता है व गांव की सीमा समाप्त होने के बाद उतार देते है। फिर सभी वधू को लेकर वर के यहाँ जाते है। फिर दूसरा महालाकारी द्वारा वर पक्ष को सूचना दिया जाता है। तब वर पक्ष के लोग बाजा मोहरी लेकर समधी भेंट करते है और वधु पक्ष वाले वधु को कपड़े के घेरे में छुपा कर रखते है। फिर वधु को महिलाए पीठ में बैठा कर के घर में सार में डेरा (रूकने की जगह) दिया जाता है। जब तक विवाह रस्म का समापन नहीं होता तब वधुपक्ष के लोग वहीं रहते है और लगन का जोड़ा तैयार करते है।
विवाह रस्म
विवाह रस्म की तैयारी में मण्डप में हल्दी एवं चांवल आटा से वर व वधु का डेरा में बाना बनाया जाता है। वर को वर की माता के द्वारा सर पर कलश रखकर और वधु की माता  कलश को सिर पर रखकर लगन महुण के साथ आमने-सामने चादर की आड में खड़े होकर गांव के पुजारी द्वारा पारम्परिक विवाह रस्म पूर्ण कराया जाता है। विवाह रस्म के बीच में भंडारी द्वारा अंगार में मिर्ची डालकर लगन के समय घुमाते हैंयह माना जाता है कि इससे वर-वधु को किसी भी प्रकार का पांगन नाशन (जादू टोना) नही लगता है। लगन के पश्चात वर-वधु को धान भंडार कक्ष में ले जाकर धान भंडार करने की ढोलगी को छुवाते है। फिर वर-वधु को एक साथ मंडप में बैठा कर जोडी तेल चढ़ाया जाता है। वर-वधु को सात बार उठाते है सात बार बैठा कर तेल-हल्दी चढ़ाया जाता है। हल्दी चढ़ाने के बाद पुजारी द्वारा तेल-हल्दी उतारा जाता है। फिर दोनों को धान व उसके बाद कांडीपुची खेलाते हैं। महिलाओं द्वारा वर-वधु को एक दूसरे को पुकारने को कहा जाता है तो वधु कहती है कि ए बाबू चो बाबा दारू चिर दो” अर्थात् ऐ बाबू के पिता लकड़ी काट दोइसके बाद वर कहता है, नोनी चो आया पेज देस” अर्थात् ऐ बेटी की मॉ मुझे पेज दो” कहता है। उसके बाद वर वधु को अपने पीट में बैठा कर गीत गाते नाचता है। फिर वधु पक्ष के लोग वर को परला में बैठा कर गीत गाते हुए नाचते है। चॉवल को एक-दूसरे को मारते है। महिलाएँ मांडो में नाचती है। फिर नाचते नाचतेे जितना भी तेल हल्दी होता है उसे वर-वधु से उतारा जाता है वर के माता के द्वारा पानी लाया जाता है एवं महिलाओं द्वारा पूजा पाठ कर वर-वधु के सिर के ऊपर महु मांडो में पानी डाला जाता है। परिहास संबंध (हंसी रिश्ता) वाला लडका मान्डो के ऊपर चढ जाता है वर वधु को कपडा ढंक कर ऊपर से कोन्डी पुची से छः बार पानी डालते हुए आखरी बार में पूरे हान्डी का पानी डाल देता है। वर मान्डो को ऊपर से हिलाता है।
टीकान
इस दिन शाम को गोहना टीकान होता हैं। चटाई में वर-वधु को बैठा कर मिट्टी के पात्र में हल्दी चॉवल को रख कर एवं दोनो के लिए अलग-अलग थाली रख दिया जाता है। पुजारी द्वारा पूजाकर पहला टीकान किया जाता है फिर थाल में पैसे व आशीर्वाद दिया जाता है। इस तरह सभी के द्वारा टिकान किया जाता है व भोज होता है। भोज के बाद नाच-गानों के साथ विदाई करते है।
मान्डो रस्म
दूसरे दिन मान्डो रस्म होता है रात को महिलायें मिलकर मुन्डा लेने जाती है। इस मुन्डा को लड़के लोग छुपा कर रखते है उसे महिलाये ढूंढ कर निकालती है लड़की लोग कन्धे में लाते है उसी समय में लडके लोग उस मुन्डा को पकड़ कर झुलाते है व कपडे में लपेट के सूखे दाब खड को लेकर आते है और महु शाखा के सामने गाड़ देते है और महुण बान्धते है उस मुन्डा में योनी खुदा हुआ रहता है वर वधु का विवाह समाप्त होने पर पूजारी मुन्डा को मुख्य द्वार पर बेट लपेट कर दांये स्थान में गाड़ दिया जाता है और पूजारी द्वारा मन्द तरप कर केे पुत्र प्राप्ति की कामना करते हैं। इस तरह विवाह सम्पनं होता है।
जीवन साथी प्राप्त करने की अन्य विधियां
इसके अतिरिक्त मुरिया जनजाति में अन्य विवाह विधि का भी प्रचलन है जैसे ठेंगा विवाह इसमें वर को उसके घर में तेल हल्दी चढ़ाते है और बाजा मोहरी के साथ बारात जाते है वधु को उसके घर में तेल हल्दी चढ़ाते है और दोनों को मिलाकर वधु के घर में लग्न करते है और वधु के वर के घर लाने के बाद मान्डों में एक चक्कर लगा कर तेल उतारते है विवाह के विभिन्न रस्मों के साथ विवाह सम्पन्न होता है। चल विवाहधरमार विवाहमन्द विवाहघर जमाई विवाह,चुडी पहनाना विवाह व ठेगवा विवाह भी पाया जाता है।
3. मृत्यु संस्कार
मुरियाजनजाति के किसी परिवार मे दुख या मृत्यु होने पर शव के पास दिया जलाते है उस मृत शरीर को आम के पत्ते से चोवर करते रहते है। सभी सगे सबंधियों को सूचना दी जाता हैं। सभी के एकत्रित होने पर गांव व सगे लोगों (विवाह संबंधी) के द्वारा बांस को सियाडी रस्सी से बान्ध कर डोला या टरन्डी अर्थात् अर्थी बनायी जाती है। उस पर दाब खड़ अर्थात् पुआल उसके उपर केले का पत्ता व नया कपड़ा बिछाकर शव को रखा जाता हैं  उसके बाद उसे सियाडी रस्सी व कफन कपड़ा को लंबा फाड कर उस शव को टरन्डी के साथ बांध देते है। इसमें यह ध्यान रखते हैं कि बांधते समय गांठ नही बनना चाहिए ऐसा माना जाता है कि गांठ लगने से मृतात्मा को मुक्ति नही मिलेगी। इसके बाद शव को घर से बाहर निकाल दिया जाता है महिलाएं विलाप करती हैं। उसी समय शव को तेल हल्दी से रिश्तेदार व सगे संबन्धी बायें हाथ से हल्दी को शव के सिर से पैर की ओर घिसते हुए लगाते हैं। परिवार के सभी एक-दो साल तक के सभी बालक शव को ऊपर से क्रास करते हैं। ऐसी मान्यता है कि ऐसा करने से बच्चों को मृत व्यक्ति से संबंधित सपना नही आयेगा और उसकी परछाई उन्हें नहीं लगेगी। तब घर का बड़ा पुत्र नाती लोग उस शव को कन्धा दे कर श्मसान ले जाते हैं और आये हुये सभी लोग भी शवयात्रा में शामिल होते हैं। उनके पीछे घर की सबसे बड़ी बहू व महिलायें बांस से बने टोकना में चांवलपैसा व लाई छिड़कते व विलाप करते श्मसान की और जाती है। श्मशान पहुचने के कुछ पहले शव को नीचे रख दिया जाता है महिलाये कुछ समय तक विलाप करती हैं। उसी स्थान में एक कोने में पुरूष वर्ग मिट्टी खोद देते हैं और मृत व्यक्ति की पत्नी के बायें हाथ से मिट्टी ले कर शव के ऊपर रख देते हैं और महिलायें उस विधवा के हाथों की चूड़ी और माला वहीं तोड देती है और उसे अलग बैठाती है। मृत व्यक्ति द्वारा उपयोग किये गये सामान को वहीं एक कोने में फैक देते है और महिलायें नदी या नाले के घाट में स्नान करने चली जाती हैं। पुरूष वर्ग अर्थी को या श्मसान ले जाते है उस स्थान में जहॉ शव को दफनाना होता है। वहां गड्ढा करने के पूर्व एक या दो रूपये धरती माता के नाम पर डाल देते हैं गड्ढा खोदने के बाद एक तरफ गोबर से लिपाई करते है तब टरन्डी के साथ शव को तीन से पॉच बार गड्ढे के चारों ओर घुमाते है उसके बाद नीचे गड्ढे में केला पत्ता व नया कपड़ा बिछा कर पॉच-सात लोग मिल कर शव को गड्ढे में डालते है और शव के गलेबांहकमर व पैर मे बन्धे धागे और कान की बाली व हाथ का छल्ला आदि शरीर से हटा दिया जाता है और बन्धन मुक्त कर दिया जाता है फिर सगे लोग गुड़ ओर पानी से दोनी में पना पानी बनाते है और शव के सिर की ओर पना पानी को तरपनी दे कर शव को पिलाया जाता है। उसके बाद शव के ऊपर अच्छे से नमक डाला जाता है उसके बाद कफन कपड़ा शव के ऊपर बिछा कर सबसे बड़ा बेटा और घर के लोग बांए हाथ से सर्वप्रथम मिट्टी देने के बाद सभी लोग एक एक करके मिट्टी डालते है उसी समय शव के सिर की तरफ से शव को छुते हुये दाब खड को सीधा गड्ढे से ऊपर निकाला जाता है और मिट्टी आधा डालने के बाद दो से तीन हान्डी पानी डाल कर पैर से अच्छे से दबाया जाता है और रापा की मदद से मिट्टी को गड्ढे में डाल कर शव को दफना दिया जाता है और फिर मिट्टी की लिपाई किया जाता है और फावड़ा से चारों तरफ थोडा-थोडा खोद कर घेरा बनाया जाता है और एक तरफ रास्ता छोड दिया जाता है और उसके ऊपर मड़िया छिडक देते है। ऐसा माना जाता है कि इससे कोई पांगन नासन या जादू टोना के लिये शव का उपयोग न कर सके। फिर खड का एक होला बना कर बड़े पुत्र के द्वारा उस पर आग जला कर मठ के एक स्थान से बांये हाथ से पकड़ कर दांये से बांये जाते हुये पॉच से सात बार घुमता है और जहॉ से शुरू करे थे वहीं छोड़ कर वहॉ जाने के लिये कहते है व पानी से  भरे हान्डी में एक छोटा से छेद कर के कन्धे पर रख कर मठ के ऊपर चक्कर लगाता है और चक्कर पुर्ण होने पर हान्डीं को कन्धे के ऊपर से छोड कर फोड देते है व दिया धुप कर के अमरूद वृक्ष की डाल (डारा) डाल कर प्रणाम करके नदी व नाले के घाट में स्नान करने चले जाते है। सभी लोग स्नान कर भीगे कपड़े से वापस आते हैं तो सगा लोगों के द्वारा कसा पानी को आम के पत्ते से (पानी में आम के पेड के छिलके के टुकटे को काट कर डालकर बनाया जाता है) घर में छिडक कर शुद्धिकरण कर घर के तरफ आते समय रास्ते में प्रवेश द्वार में डाल देते है बडा पुत्र शव से ढंके हुये एक कफन को गिला कर के लाता है और जिस स्थान मेें शव रखा था उस स्थान में छिड़क देता है।

उसके बाद घर की महिलायें अरवनी आधा रास्ता ले जाकर छोड़ आते है तब विसरान छूने का रिवाज है। पत्ते से बनी दोनी में आग में भुंजी हुई सूखी मछली को महुआ की शराब के साथ मिला कर विसरान तैयार किया जाता है और सभी घाट से स्नान करके आये हुये महिला व पुरूष बांये हाथ से छूकर अपने आप को शुद्ध करते है और सभी को हाथ पैर में  तेल लगाने व नीम का पत्ता खाने को दिया जाता है। सभी भांजे पक्ष के लोगों द्वारा मामा  पक्ष को पना पानी पीने के लिये दिया जाता है और सभी मामा पक्ष के लोगों द्वारा भांजे पक्ष के लोगों को आमने-सामने बैठा कर पना पानी पिने को दोनी में दिया जाता है। उसी दिन क्रियाक्रर्म का दिन तय किया जाता है13 दिन या उससे ज्यादा दिन भी हो सकता है लेकिन पूर्व में 1 वर्ष के बाद बनाया जाता थातिथि व दिन तय होने के बाद तीन दिन के बाद तीज नहानी रस्म करते है। इन तीन दिनों तक घर मेें चूल्हा नही जलता। तीन दिन तक छः से सात महिलायें नहानें जाती है और रोज अरवनी निकालते है व मठ में दिया और धूप जलाते हैं। आखरी दिन घर की लिपाई-पोताई करने के बाद कसा पानी छिडकते है और उस दिन से घर में चूल्हा जलना चालू हो जाता है। सामाजिक नियम के अनुसार छोटे पुत्र को माता का दहा संस्कार व बडा पुत्र को पिता के दहा संस्कार का अधिकार होता है।

दिन नहानी या क्रियाक्रर्म
13 दिन या उस से अधिक दिन का निश्चित दिन के एक दिन पूर्व गांव के समाज के लोगों को बुलाकर शाम को सभी बैठे लोगों को मृत्यु घर के लोगों द्वारा प्रार्थना करते हुये कहते है हम सब लकड़ी मुन्ड में है हमें घाट उतार कर हमे हमारे घर का नहानी कार्य को पूर्ण करा देवें, कहते है और समाज के लोग दिन कर्म करने के लिये आपस में कार्य बांट देते है वहॉ बैठे लोगों को चन्ना लाई व मन्द दिया जाता है। उसी दिन पीता चाबनी रस्म बनाते है दाल में नीम का पत्ता डालकर भोजन करते है दूसरे दिन काम करने वाले गांव के लोग पहले नहाते कसा पानी छिड़कते है पुजारी के द्वारा आग जलाने से पूर्व सेवा अर्जित करते है और भोजन बनाना शुरू होता है। सगा समाज के लोग आने के बाद जो व्यक्ति सर मुन्डन कराना होता है वो घर से पितर हान्डी व अन्य सामग्री कावड में बो कर आगे निकलता है उसके पीछे-पीछे सगे समाज के लोग एक निश्चित स्थान पर जा कर वहा पितर हान्डी कावड को उतार कर सभी लोग एक दूसरे का दाढ़ी-मुंछ बनाते है। घर के कुटुम्ब सदस्य दाढ़ी-मुछ ओर सिर मुंडाते है इससे यह पता चलता है कि उस घर में किसी कि मृत्यु हुई हैघर में कितने सदस्य है सभी लोग नहा लेते है सिर्फ पाँच-सात लोग अन्त में बचे रहते हैपिता के वंश के सदस्य अपने सिर को मुंडाता है व बाल को नया कपड़ा में ले कर नदी के पास जाते है बाल को गिला मिट्टी से मिला कर सात सदस्य के साथ एक दुसरे का हाथ पकड़ कर नदी में उतरने के दौरान सगा लोग कहते हैकहा जा रहे हो हम गंगा जा रहे है कह कर एक साथ पानी में डुब कर बाल को पानी के अन्धर दसा देते है। सभी लोग नहाकर हान्डी के पास आते है पुजारी द्वारा हान्डी माटी पितर देव के नाम से चावल का पूँजी लगाकर रखते है वह इन चांवल को देख कर लोग अनुमान लगाते है कि उनकी मृत्यु कैसे हुई उस जगह पर चौका मुर्गे का बली दे कर पितर को अर्पण कर सेवा अर्जित किया जाता हैफिर बिसरान तेल लगाने के बाद मुन्डन वाला व्यक्ति सबसे आगे चलता है बाकी लोग उसके पीछे-पीछे चलकर घर पहुच कर हाथ-पैर धोकर घर में घुसते है। फिर पुजारी बना हुआ भोजन को पुजा के बाद महिला पुरूष मिल कर अरवनी या मृतात्मा को आधे रास्ते पर भोजन छोड़ कर आते है उसके बाद खाने के लिये समाज के सभी लोगो का भोज करवातेे हैं ।
बांधन काटने का रस्म
भोज के बाद दान का कार्यक्रम या बांधन काटने का रस्म किया जाता है। मृत व्यक्ति जितनी भी वस्तु उपयोग करते थे उन सामानों को मण्डप में रखा जाता है। मृत व्यक्ति का भांजा, रिश्ते वाले सगों को आदर सहित पीढ़ा में खड़ाकर पैर धुलाकर चटाई में बैठा दिया जाता है और परिहास संबंधी (हांसी नाता) के महिला को प्रमुख (बामन) बनाते हैं। तब कलश के सामने दिया जलाता हैहवन करता हैसभी लोग हवन सामग्री डालने के बाद हवन समाप्त होने पर उस स्थान को साफ करने के बाद दान लेने वाले को बैठाया जाता है और दान देने वाले द्वारा मॅुह धुलाते है और पना पानी तीन बार पिलाते हैं और मुँह धुलाते हैं उसके बाद दान लेने वाला दान देने वाला को मॅुह धुलाता है और पना पानी तीन बार पिलाता है सब रस्म पुर्ण होने के बाद जो उपयोग मे लाया हुआ सामान को नाम लेकर सभी नया सामान दान में देते है जैसे-खाटबर्तनचप्पलकपडाटोकरी एवं अन्त में धामा या गाय दान में दिया जाता है। फिर मुन्डन हुआ व्यक्ति के साथ कुछ लोग लाई ले कर दुख घर में पगडी रस्म के लिए प्रार्थना करते है।  

बांधन काटने का रस्म
पगडी रस्म
पगडी रस्म कार्यक्रम में एक तरफ गाँव के लोग बैठते है दूसरी तरफ घर के कुटुम्ब के लोग बैठते है। तब पुजारी हाडी माटी का नाम लेकर समाज की तरफ से घर वाले को पगडी बांधता है। इसी तरह सभी लोग समान पगड़ी बांधते है और कान पर फूल लगाते हैं और जोहार अर्थात् अभिवादन करते हैं। उसके बाद पुजारी हाथ पकड कर बैठे लोगों को उठाकर फिर बैठने के लिए कहता है तब गांव के बुजुर्ग लोग समझाते हैं।

पगडी रस्म
हाट कार्यक्रम
महिला पुरूष लाईचनाबोबोपानी, शराब इत्यादि लेकर घर के सामने हाट बैठाते हैं। मुन्डन किया व्यक्ति छाता ओढ़कर हाट में घूमता है। नकली पैसे से सामान क्रय करता है उस सामान को व डुमा का पूजा करके वापस घर आते है और रास्ते में पानी गिराते हैं। हाट से लौट कर घर प्रवेश के दौरान गरम पानी से पैर घुलाते है और नैंग अर्थात् भेंट दिया जाता है। इस हाट रस्म के कार्यक्रम के बाद क्रियाकर्म रस्म समाप्त हो जाता है।

निष्कर्ष मानव विज्ञान विषय में जनजातीय समाज व संस्कृति के अध्ययन की प्रधानता रही है। प्रत्येक जनजाति में जीवन संस्कार से जुड़े विविध रस्म व अनुष्ठान होते हैं। जो रोचक होने के साथ-साथ प्रासंगिक भी होते हैं। जीवन संस्कार के नियम ही जनजाति को विविधता प्रदान करते हैं। सांस्कृतिक मानव विज्ञान में जीवन संस्कार के अध्ययन बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। इस प्रकार के अध्ययन जनजातीय समुदाय के बारे में बाहरी दुनिया को जानकारी उपलब्ध कराते रहे हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. उपाध्याय शंकर विजय डॉ और शर्मा प्रकाश विजय डॉ (1993) भारत की जनजातीय संस्कृति, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी,भोपाल 2. बेहार रामकुमार डॉ (1995) बस्तर एक अध्ययन, मध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल 3. गुप्ता. एल. एम और शर्म. डी. डी डॉ (1999) सामाजिक मानवशास्त्र, साहित्य भवन पब्लिकेशन्स, आगरा 4. जगदलपूरी लाला (2000) बस्तर इतिहास एंव संस्कृतिमध्य प्रदेश हिन्दी ग्रन्थ अकादमी, भोपाल 5. तिवारी कुमार विजय डॉ (2001) छत्तीसगढ की जनजातियॉ, हिमालया पब्लिशिंग हाउस गिरगॉव मुम्बई 6. निरगुणे वसन्त (2004) आदिवर्त छत्तीसगढ की जनजातियॉ, महावीर पब्लिशर्स एण्ड डिस्ट्रीब्यूटर्स, इन्दौर 7. वैष्णव के.टी. डॉ (2004) छत्तीसगढ की अनुसूचित जनजातियॉ, आदि जाति अनुसंधान एंव प्रशिक्षण संस्थान, रायपुर 8. हसनैन नदीम (2005), जनजातीय भारत, जवाहर पब्लिशर्स ऐंड डिस्ट्रीब्यूटर्स नई दिल्ली 9. वेरियर एलविन (2008) मुरिया और उनका घोटुल, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि नई दिल्ली 10. (1993) अमरोहित कुमार गीतेश डॉ (2022)छत्तीसगढ की जनजातियॉ, विशाल कौशिक र्पिटर्स, दिल्ली