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मनोविज्ञान बनाम श्रीमद्भगवद्गीता | |||||||
Psychology Vs Shrimadbhagwadgita | |||||||
Paper Id :
17570 Submission Date :
2022-12-19 Acceptance Date :
2022-12-22 Publication Date :
2022-12-25
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सारांश |
आज की भाग दौड़ भरी जिंदगी में हमें कुछ समय अपने मानसिक विकास एवं शांति हेतु भी निकालना चाहिए। इसके अभाव में आज की युवा पीढ़ी एवं अध्ययन कई प्रकार के नशे एवं मानसिक क्षति से ग्रसित हो जाते हैं। साथ ही बीपी शुगर आदि बीमारियां भी घेरने लगती हैं।
भगवान श्री कृष्ण ने गीता में अर्जुन को लक्ष्य बनाकर पूरी मानव जाति का मानस से टटोलकर उन्हें मनो रोगों से बचाने का प्रयास किया है। खास तौर पर मनुष्य किसी कार्य के लिए दूसरे को या स्वयं को दोषी ना माने और कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ता रहे।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | In today's run-of-the-mill life, we should also take some time out for our mental development and peace. In its absence, today's young generation and studies suffer from many types of intoxication and mental damage. Companion BP, sugar etc. diseases also start to control human body. In the Gita, Lord Shri Krishna has tried to save Arjuna from mental diseases by probing the psyche of the entire human race by targeting Arjuna. In particular, man should not consider others or himself guilty for any work and keep moving forward on the path of duty. |
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मुख्य शब्द | भगवत गीता, मनोविज्ञान, वर्तमान मनुष्य जीवन, मनोविज्ञान। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Bhagavad Gita, Psychology, Present Human Life, Psychology | ||||||
प्रस्तावना |
विश्व के प्रथम मनोचिकित्सक को अगर हम खोजने का प्रयास करें तो वह हमें श्री कृष्ण ही ज्ञात होते हैं। जीवन में जब भी कोई परेशानी आती है और यदि समाधान नहीं सूझता तो मानो विचलित होकर कभी अपने परिजनों को इसका कारण ठहराता है और कभी बौखला कर स्वयं को ही उसका दोषी मानने लगता है और उपाय ना सूझने पर या तो कोई गलत कदम उठा लेता है अथवा अवसाद का शिकार हो जाता है। अवसाद अत्यधिक हो तो इस कलयुग में आघात भी कर लेते हैं किसी व्यक्ति को अवसाद में चले जाने पर जहां साइकोलॉजिस्ट उन्हें थैरेपी इत्यादि द्वारा स्वस्थ करने का प्रयास करते हैंI
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अध्ययन का उद्देश्य | इस शोधपत्र का उद्देश्य भगवद्गीता के मनोवैज्ञानिक विचारों को वर्तमान मानव जीवन में प्रयोग करने तथा उनसे होने वाले लाभ का वर्णन करना है। |
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साहित्यावलोकन | महाभारत महर्षि वेदव्यास ने महाभारत नामक पौराणिक ग्रंथ की रचना की जिसका लेखन
कार्य हमारे परम पूज्य गणेश जी ने किया इसी ग्रंथ का एक अंश है भगवत गीता श्रीमद्भगवद्गीता: इस ग्रंथ में महाभारत युद्ध के लिए तैयार हुए कौरवों एवं पांडवों के धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में उपस्थित होने से लेकर युद्ध का आरंभ होना एवं श्री कृष्ण के संवाद के बहाने मानव मात्र को ज्ञान योग एवं कर्म योग की शिक्षा दी गई है। संजय को भगवान की कृपा से दिव्य दृष्टि प्राप्त थी। संजय धृतराष्ट्र को युद्ध का आंखों देखा हाल सुनाता है। स्व चिंतन एवं मदान 20 वर्षों से गीता का अध्यापन कार्य करते हुए एवं स्वाध्याय से गीता को हृदयांग करने पर डॉ कृष्णा गौड़ आचार्य संस्कृत ने स्वयं के अनुभव एवं चिंतन को इस शोध पत्र में उल्लेखित किया है। मनोविशेषज्ञ हिमानी शर्मा सहायक आचार्य एमिटी यूनिवर्सिटी ने गीता के 18 अध्याय में बताएं गुणों से व्यक्ति की पर्सनालिटी डेवलपमेंट पर परिचर्चा की है। |
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मुख्य पाठ |
यदि हम गीता पर विहंगम दृष्टि डालें तो श्री कृष्ण ने अर्जुन
को अवसाद में डूबने ही नहीं दिया। जैसे ही अर्जुन बोला- सीदंति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति वेपथुश्च शरीरं मे रोमहर्ञच जायते। श्री कृष्ण तुरंत उन्हें संभाल लिया अर्थात उनकी मन: स्थिति को भाँप कर कहा- क्लेव्यं मां स्म गमः अर्थात कर्म हीनता को अपने ऊपर हावी मत होने दो। समाज का एक छोटा सा उदाहरण हम बालक के कम अंक आने पर डिप्रेशन में आ जाना, नदी
में छलांग लगा जाना, नित्य समाचार पत्रों में देखते हैं। क्या कहेंगे, मुझे क्या
करना चाहिए, इसी उहापोह में कई बालक जान दे बैठते हैं। काश उन्हें शुरू से गीता का पाठ कराया या पढ़ाया गया होता तो वह इस बात से
भली-भांति परिचित होते कि हमारा अधिकार कर्म करने तक है जैसा कि श्री कृष्ण कहते
हैं- कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचनः। इतना ज्ञान धैर्य प्रदान करता है हतोत्साहित होते प्राणी को क्षोभ मुक्त करता
है। भगवद्गीता व्यक्ति मात्र को मानसिक मजबूती प्रदान करने वाला एक श्रेष्ठ ग्रंथ है। इसमें भगवान श्री कृष्ण ने अर्जुन को सम्मुख रखते हुए मानव मात्र को सीख दी है
कि हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्याग कर अपने कर्तव्य पथ पर आगे बढ़ते रहो। इसी प्रसंग में आत्म ज्ञान देते हुए श्री कृष्ण कहते हैं- अंतवंत इमे देहा नित्यस्योक्त: शरीरिण:। भाव यह है कि 1 दिन शरीर को मिटना है किंतु शरीर धारक कोई और है वह नित्य है
वह आत्मा है। आत्मा का स्वरूप बताते हुए श्रीकृष्ण को यह आत्मा अजन्मा, नित्य, शाश्वत और पुरातन है जिसका
कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता अर्थात डिप्रेशन में आने की किसी को जरूरत नहीं है
मनोभावों में बहकर उद्वेलित नहीं होना है। गीता उपदेश के मूल रूप में है व्यक्ति को बुद्धिमान बना देना उसके लिए स्पष्ट
तौर पर कहा गया है कि कल्याण करने वाली निश्चात्मक आत्मक बुद्धि एक ही है। अगर उहापोह का भाव रखते हैं तो उसे सकाम्य पुरुष माना जाता है क्योंकि उसकी
बुद्धि अनंत भेदों वाली होकर अंततोगत्वा नैशब्द मार्गी होती है। निराशा को दूर कर सतत सन्मार्ग पालन करने वाले व्यक्ति का भाव यही होना चाहिए
कि यदि श्रेष्ठ फल मिलता है तो मेरा पौरुष है और कभी परास्त होता हूं तो भी
आगे अवसर है जैसा कि अर्जुन को प्रभु ने कहा- जीतोगे तो पृथ्वी का राज्य एवं
मरोगे तो स्वर्ग क्योंकि तुमने अपने कर्तव्य का पालन किया है तो परिणाम में आसक्ती
मत रखो। इसके साथ ही कामना पूर्ति न
होने पर क्रोध नहीं करना चाहिए क्योंकि क्रोधाद्भवति संमोहः संमोहात् स्मृतिविभ्रम:। स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात् प्रणश्यति ।। अर्थात क्रोध हानिकारक होता है विनाश का कारक बनता है। क्रोध उत्पन्न ना हो
इसके लिए गीता में मनुष्य को संपूर्ण कामनाओं का त्याग करते हुए अहंकार वर्जित एवं
स्पृहा से हटकर शांति प्राप्त करने की राय भगवान श्रीकृष्ण देते हैं। यह निश्चित है कि बिना कर्म के शरीर का निर्वहन भी संभव
नहीं है हर प्राणी अपनी प्रकृति के अनुसार कार्य करते हैं।
इंद्रियों से कर्म तो करो किंतु मन को वश में रखो यह नहीं होना चाहिए कि मन
कामनाओं में लगा रहे और इंद्रियों को जबरदस्ती रोके ऐसे तो मिथ्याचार होगा। किंतु
आसक्ति से रहित होकर कर्तव्य पथ पर चलते रहो। कर्म योग एवं ज्ञान योग के बारे में विषय विवेचन करते हुए
भी श्रीकृष्ण ने ज्ञान एवं योग दोनों को समुच्चय से ही कर्म करने की प्रेरणा दी
है। |
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निष्कर्ष |
वर्तमान युग में मानव अनियमित जीवन बिता रहा है अब आज वह दूषित साहित्य, दूषित मनोरंजन के साधन कलुषित विचारधारा, अनियमित व असमय भोजन तथा उचित आहार ,उचित निद्रा एवं उचित ब्रह्मचर्य के अभाव के साथ-साथ उदर पूर्ति हेतु शरीर की रक्षा से परे हटकर यंत्रवत् अहनिर्श अर्थ प्राप्ति की दौड़ में निरंतर लगा हुआ है किंतु असमय में ही रक्तचाप, हृदय रोग जैसी व्याधियों से ग्रसित हो जाता है। तथा नित्य ईसीजी /बीपी मापन व गोलियां खा खाकर जीवन को आगे धकेलते रहने का मनुष्य प्रयास करता रहता है।
समस्त साहित्य पर दृष्टिपात करने पर हम पाते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता एक ऐसा ग्रंथ है जो हमें डिप्रेशन (अवसाद) से बचाने का सबसे श्रेष्ठ एवं सार्थक माध्यम है। |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. श्रीमद्भगवद्गीता गीता प्रेस गोरखपुर
2. हृदय वल्लभावलेह राष्ट्रीय आयुर्वेद संस्थान शोध पुस्तक
3. संस्कृत साहित्य का इतिहास बलदेव उपाध्याय रचित पुस्तक
4. राजस्थान पत्रिका समाचार पत्र की घटनाएं
5. शिक्षा दृष्टिकोण और दिशा प्रोफेसर के नरहरी अ. भा. रा. शै. महासंघ मौजपुर दिल्ली
6. भारतीय संस्कृति के तत्व श्री कृष्ण ओमर अभिषेक प्रकाशन चौड़ा रास्ता जयपुर
7. महाभारत महर्षि वेदव्यास |