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कवि केसरी सिंह बारहठ (सौन्याणा) के काव्य में “अलंकार - योजना” | |||||||
Paper Id :
17562 Submission Date :
2023-04-03 Acceptance Date :
2023-04-17 Publication Date :
2023-04-25
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सारांश |
कविता के सौन्दर्य को बढ़ाने वाले तत्व अलंकार होते है। जिस प्रकार आभूषण से नारी का लावण्य बढ़ जाता है, उसी प्रकार अलंकार से कविता की शोभा बढ़ जाती हैं। शब्द तथा अर्थ की जिस विशेषता से काव्य का श्रृंगार होता है उसे ही अलंकार कहते है। कहा गया है- 'अलंकरोति इति अलंकार' अर्थात जो अलंकृत करता है, वही अलंकार है। भारतीय साहित्य में अनुप्रास, उपमा, अनन्वय, यमक, श्लेष, उत्प्रेक्षा, सन्देह, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि प्रमुख अलंकार है। व्यापक रूप में सौंदर्य मात्र को अलंकार कहते है। और उसी से काव्य ग्रहण किया जाता है। भामह के विचार से बक्रार्थविजा एक शब्दोक्ति नामक अलंकार है।
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सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद | Figure of speech are the elements that enhance the beauty of poetry. Just as the elegance of a woman increases with ornaments, in the same way the beauty of poetry increases with Figure of speech. The specialty of words and meaning which adorns poetry is called Figure of speech. It has been said- 'Alankroti iti alankar' means that which adorns, that is Figure of speech. In Indian literature, alliteration, simile, ananvaya, pun, slesha, utpreksha, doubt, exaggeration, sarcasm, etc. are the main figures of speech. In general, beauty is called Figure of speech. And poetry is accepted from that. According to Bhamah, Bakrarthavija is a figure of speech. | ||||||
मुख्य शब्द | इव्यलंकार, व्यलंकार, अनुप्रास अलंकार, अतिशयोक्ति, वक्रोक्ति आदि। | ||||||
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद | Euphemism, rhetoric, alliteration, exaggeration, quibble etc. | ||||||
प्रस्तावना |
“अलंकार” काव्य के लिए अत्यन्त वांछनीय है। इससे काव्य रुचिप्रद एवम् पठनीय बनता है। भाषा में गुणवत्ता एवम् प्राणवत्ता बढ़ जाती है। सम्प्रेषण शक्ति में वृद्धि हो जाती है। अभिव्यक्ति में स्पष्टता एवम् प्रभावोत्पादकता आ जाती है। “अलंकार” जहाँ एक ओर शब्द को सामर्थ्य प्रदान करते है वहीं दूसरी ओर उसकी अर्थवत्ता को अधिक उर्जावान बनाकर काव्य के प्रभाव में वृद्धि करतें है।मानव समाज सौन्दर्योपासक है, उसकी इसी प्रवृत्ति ने अलंकारो को जन्म दिया है। शरीर की सुन्दरता को बढाने के लिए जिस प्रकार मनुष्य ने भिन्न-भिन्न प्रकार के आभूषण का प्रयोग किया है, उसी प्रकार उसने भाषा को सुन्दर बनाने के लिए अलंकारो का सृजन किया।
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अध्ययन का उद्देश्य | प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य कवि केसरी सिंह बारहठ (सौन्याणा) के काव्य में “अलंकार - योजना” का अध्ययन करना है। |
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साहित्यावलोकन | दंडी के लिए अलंकार काव्य के शोभाकर धर्म है। काव्यशोभाकरान धर्मान् अलंकारान् प्रचक्षते अर्थात सौंदर्य, चारुत्व, काव्यशोभाकर धर्म इन तीन रूपों में, अलंकार शब्द का प्रयोग व्यापक अर्थ में हुआ है और शेष में शब्द तथा अर्थ के संदर्भ में संकुचित है। एक में अलंकार काव्य के प्राणभूत तत्व के रूप में ग्रहीत है और दूसरे में सुसज्जितकर्ता के रूप में है। आचार्यों ने काव्यशरीर उसके नित्मधर्म तथा बहिरंग उपकारक का विचार करते हुए काव्य में अलंकार के स्थान और महत्व का व्याख्यान क्रिया है। इस संबंध में इनका विचार, गुण, रस, ध्वनि तथा स्वयं के प्रसंग में किया जाता है। सार रूप में कहा जा सकता है, कवि या लेखक भाषा को शब्दों या उनके अर्थों से सजाते है। वे शब्द या अर्थ जिससे किसी काव्य को सजाया जाता है अलंकार कहलाता है। शरीर अथवा भाषा को शब्दार्थ से सुसज्जित तथा सुन्दर बनाने वाले चमत्कारपूर्ण मनोरंजक ढंग को अलंकार कहा जाता है।
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मुख्य पाठ |
व्याकरण की दृष्टि से जो अलंकार शब्द “अलम्” उपपद ’कृ’ धातु में प्रत्यय लगकर बना है। अलंकार की दो व्युत्पत्तियाँ
हो सकती है। 1. अलंकरोती व्यलंकार 2. अलंक्रियतेदेन इव्यलंकार अर्थात जो अलकृंत करें उसे अलंकार कहते हैं। या जिसके द्वारा अलंकृत किया जाये
उसे अलंकार कहते है। “अलम्” एक अव्यय शब्द है जिसका अर्थ है
पर्याय या योग्य, अतः अलंकार का अर्थ हुआ “जो किसी को पर्याप्त कर दे”[1] काव्य मे अलंकार की महता सिद्ध करने वालो में आचार्य भामह, उद्भट्,
देडी और रुद्रट के नाम विशेष प्रख्यात है। इन आचार्यो ने काव्य में
रस को प्रधानता न देकर अलंकार की मान्यता दी है अंगीकरोति यः काव्य, शब्दार्थवनलंकृति असौ न मन्यते, कस्मादनुष्ण मनलेकृति ।।[2] अर्थात जो व्यक्ति काव्य को अलंकार से रहित स्वीकार करता है, वह अग्नि
को उष्णताहीन क्यों नही कहता है। “अलंकार” का सामान्य अर्थ है:- काव्य की शोभा अथवा सौन्दर्य को बढ़ाने वाले शब्द
अलंकार कहलाते हैं अनेकानेक आचार्यो ने अलंकार का लक्षण दिया है। यहाँ उनमें से
कतिपय दृष्टव्य हैं:- 1. भामह:- शब्द का अर्थ का
वैशिष्ट्य ही अलंकार है। 2. दण्डी:- काव्य की शोभा
बढाने वाले धर्म ही अलंकार है। 3. रुद्रट:- सुन्दरता को
प्रस्तुत करने वाले ही अलंकार है। अलंकार की परिपाटी बहुत पुरानी है, काव्य-शास्त्र के प्रारंभिक काल में
अलंकारो पर ही विशेष बल दिया गया था। काव्यमयी उक्ति अधिक आकर्षक और हृदयग्राही
होती है। उसकी यह आकर्षण शक्ति अलंकार से प्राप्त होती है। जैसे:- श्रीराम जैसे
मर्यादावादी महापुरुष भी सीताजी की पायलों की ध्वनि सुन व्याकुल हो उठे थे। कंकन किंकनि नूपुर धुनि सुनि । हिन्दी के आचार्यो ने भी काव्य में, अलंकारो पर ही विशेष बल एवम् स्थान दिया है। इसी कड़ी में सुप्रसिद्ध कवि
केसरीसिंह बारहठ राजस्थानी साहित्य के कवि माने गए हैं। जन्म विक्रम संवत् 1927
आषाढ शुक्ल द्वितीय, जन्म स्थान ग्राम- सौन्याणा जिला राजसमन्द में हुआ। साहित्यिक दृष्टि से
इनका अमूल्य योगदान रहा है। कवि बारहठ केसरीसिंह जी ने केवल अलंकार के मोह में
पड़कर, अपनी रचनाओं का निर्वीर्य बनाने के हिमायती कभी नहीं
रहे हैं। उन्होने अलंकार प्रयोग के सम्बन्ध में पूर्ण संयम से कार्य किया है।
अलंकारो को इन्होने अपनी कविता- कामिनी की सौन्दर्य- वृद्धि का साधन मात्र ही माना
है। उन्हें साध्य कभी नहीं बनने दिया! साधन एवम् साध्य का अन्तर उनके सामने सदैव
स्पष्ट था। इसीलिए उनका काव्य अत्यधिक प्राणवान है। जिनमें इनकी प्रमुख कृतियाँ
प्रताप-चरित्र, राजसिंह राठौड, दुर्गादास चरित्र,
रूठी रानी आदि प्रमुख कृतियाँ है। जिनमें बारहठ जी ने अलंकारो का
प्रयोग तो किया है, परन्तु अपने पांडित्य-प्रदर्शन के लिए
अथवा केवल चमत्कार प्रदर्शन के लिए अलंकारो को प्रयोग नहीं किया है। उनके काव्य
में अलंकार सर्वदा- स्वाभाविक रूप से आये है, कहीं पर भी
प्रयत्न - प्रसूत नहीं जान पड़ते। अलंकारो का प्रयोग कवि ने अत्यन्त कुशलता के साथ
किया है। उनमें काव्यों में प्रयुक्त अलंकारो का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार
प्रस्तुत किया जा रहा है। धरयो नृपन गनिका धरम, परे अकब्बर पौर। चंद्रसेन इक मट चतुर, रह्यो मुररि रहौर।। मन अकबर कीनो मतो, करि हैं खुदा करीम। भारत में निज बलभरों, निस्चल तुरकन नीम।।[4] बारहठ जी के काव्य राजस्थान मिश्रित बन ब्रजभाषा के हैं
लेकिन फिर भी उनमें डिंगल का प्रयोग मिलता है। डिंगल कवियों ने “वैण सगाई” अलंकार का प्रयोग अनिवार्यतः किया है,
इसलिए बारहठ जी ने भी अपने काव्य में “वैण
सगाई” अलंकार का प्रयोग बहुलता में किया है। “वैण सगाई” को स्थापित करने वाला वर्ण कभी
अन्तिम शब्द के आदि में आता है, कभी मध्य में और कभी अन्त
में। इस दृष्टि से वैण सगाई अलंकार का प्रयोग के तीन भेद होते है- आदि, मध्य, अन्त। बारहठ जी के काव्यों में अधिकांश रूप में
मिलता है। असमान पर भिन्न वर्णों के द्वारा स्थापित “वैण
सगाई” को मध्य और अन्धम वैण सगाई की संज्ञा दी गई है।[5] अनुप्रास अलंकार:- अनुप्रास शब्दालंकार है। “अनुप्रास” का अर्थ होता है बारम्बार निकट रखना
अर्थात वर्णो का बार- बार प्रयोग करना।
अलंकार रूप में अनुप्रास की परिभाषा इस प्रकार कही है- वर्णों की रसानुकूल बार-बार आवृत्ति करना ही अनुप्रास अलंकार होता है।[6] बारहठ
जी के काव्यों में अनुप्रास अलंकार का प्रयोग सभी पदो में प्राप्त होता है। “खलन खपाए पल खगन
खिलाए खूब “[7] यहाँ
‘ख’ वर्ण की बार-बार आवृती हुई है। अतः अनुप्रास
अलंकार है। उत्प्रेक्षा अलंकारः- ‘‘जहां भेदज्ञान
पूर्वक उपमेय में उपमान में सम्भावना कि जाये वहा उत्प्रेक्षा अलंकार होता है। [8] कवि
केसरी सिंह बारहठ जी ने अपने काव्य में इसका प्रयोग बहुलता से किया हैं। जनु काकोदार पूछ, पांव बिनु लग्गिय ।[9] जनु भीम-भारत-भार
को निज भटन के भुज धर रहे।[10] यहाँ
‘उपमेय‘ योद्धाओं में ‘उपमान‘ भीम की सम्भावना, अतः यहाँ उत्प्रेक्षा अलंकार है। यमक अलंकाऱः- जहाँ सार्थक किन्तु
भिन्नार्थक या निरर्थक वर्ण समुदाय की एक से अधिक बार आवृति की जाती है,वहाँ यमक अलंकार
होता है। कहनो कूरम कॅवर को
रंच न सहनो रान। मान न रहनो मान को,
यह भावी बलवान।।[11]
यहाँ
मान शब्द की आवृत्ति हुई है। किन्तु भिन्नार्थक है। प्रथम ‘मान’ का अर्थ “राजा मान सिंह” से तथा दूसरे ‘मान’ का अर्थ
“इज्जत” है। उपमा अलंकारः- ‘‘जहाँ उपमेय तथा उपमान में भेद रहते हुए भी उपमेय के साथ उपमान के सादृश्य वर्णन वहाँ उपमा अलंकार होता है।[12] जारत रही हिय दाह, जंगल की लकडी ज्यूं ही [13] इसमें
दुर्गादास ह्रदय आग इस भॉति लग रही है,जैसे लकङी जल रही हो। कवि केसरीसिंह जी ने अनेकों उदाहरणों द्वारा अपने काव्य में सिद्ध कर अनेक उपमानों की माला सी पिरो दी है। रूपक अलंकारः- जहाँ उपमेय का उपमान के साथ
अभेद आरोपित किया गया हो वहाँ रूपक अलंकार होता है।[14] कवि
के काव्य में अनेकों सुंदर रूपक उदाहरण आये हैं। उतको बन्यो है अवरंग
दसकंध तो, इसको ही मारवार सीता
बनि बैठी है।[15] अतिशयोक्ति अलंकारः- अतिशयोक्ति का अर्थ है उक्ति की अतिशयता। अर्थात किसी कथन को सामान्य रूप में न कर उसे बढ़ा-चढ़ा कर प्रस्तुत किया जाए वहां अतिशयोक्ति अलंकार होता है। कवि ने इस अलंकार का प्रयोग बहुत कम किया है यथाः- चले हय उद्वत कंध उठाया,लखे जिन को सपतास लजाय। फरकत है जिन पै गज गहित, रहयो रवि देखन को रूकि राहा।[16] दृष्टांत अलंकारः- ‘‘जहाँ दो वाक्यों में आये उपमेय और उपमान के समान धर्मो में बिम्ब प्रति बिम्ब भाव सम्बंध हो, वहाँ दृष्टांत अलंकार होता है। [17] कृष्ण कियो सब कोंरवन,निज प्रभा बल नास। कर्म करन में जो कुसल,ते नहि होत निरासा।[18] बिनोकित अलंकारः- जहाँ कोई वस्तु किसी
अन्य वस्तु की वजह से शोभनीय या अशोभनीय बताई जाए,वहाँ बिनोकित अलंकार होता है अर्थात
इसमें बिना या रहित शब्द आते हैं। इसका
प्रयोग कवि ने कई जगह किया है- वीर दुर्गादास कुछ मेरे ही कहे ते मान, नेक मुगलान में दया की नहि गंध है। बिना दस शीश बीस भुजा के विचार देख्यो, ओंरंग बनायो मानो दासकंध है।[19] |
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निष्कर्ष |
कवि बारहठ जी के काव्यों में आये अथवा प्रयुक्त होने वाले अलंकारों का ऊपर उल्लेख किया गया है, परन्तु इसमें यह तात्पर्य कदापि नहीं है कि इनके अतिरिक्त अन्य अलंकारों का प्रयोग ही नही किय है। अन्य अलंकार भी प्रस्तुत हुए हैं,परन्तु उनकी संख्या अपेक्षाकृत बहुत कम है
अलंकार कवि को सामान्य व्यक्ति से अलग करता है। जो कलाकार होगा वह जाने या अनजाने में अलंकारों का प्रयोग करेगा ही। इसका प्रयोग केवल कविता तक ही सीमित नहीं वरन इनको विस्तार में भी देखा जा सकता है। इस विवेचन से स्पष्ट है कि अलंकार कविता की शोभा एंव सौंदर्य है जो शरीर के साथ भाव को भी रूप की मादकता प्रदान करता है।
उपयुक्त विवेचन से यह स्पष्ट है कि केसरी सिंह जी ने अपने काव्यों में अलंकारो का प्रयोग अत्यंत कुशलतापूर्वक किया है काव्यों में अलंकार सर्वत्र स्वभाविक रूप् में आए हैं। कहीं पर भी प्रयत्न प्रसूत नही जाने पङे। अलंकारों ने भाव को कही पर भी आच्छादित नही किया है । |
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सन्दर्भ ग्रन्थ सूची | 1. पोरस्व्य एवं पाश्चात्य काव्य सिद्वांतः डॉ. रामदंत शर्मा,पृ. 94,95
2. काव्यांग विवेचनः डॉ. हेतु भारद्वाज,डॉ. रमेश मयंक पृ. पृ.53
3. काव्यांग विवेचनः डॉ. हेतु भारद्वाज, पृ. पृ.53
4. प्रताप चरित्रः अकबर की नीति, पृ.19,17
5. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 74
6. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 45
7. प्रताप चरित्रः पृ.104
8. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 56
9. दुर्गादास चरित्रः पृ. 10
10. प्रताप चरित्रः पृ. 74
11. वही पृ. 30
12. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 50
13. दुर्गादास चरित्रः पृ. 91
14. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 52
15. दुर्गादास चरित्रः पृ. 86
16. प्रताप चरित्रः पृ. 222
17. काव्यांग विवेचनः डॉ. लक्ष्मीनारायण नंदवाना,प्रेमवती शर्मा पृ. 63
18. प्रताप चरित्रः पृ. 27
19. दुर्गादास चरित्रः पृ. 85 |