ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- II May  - 2023
Anthology The Research
लोक-कथाओं में नारी अनुभूति
Female Perception in Folk Tales
Paper Id :  17580   Submission Date :  06/05/2023   Acceptance Date :  10/05/2023   Publication Date :  12/05/2023
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अनुपमा सक्सेना
एसोसिएट प्रोफेसर
हिंदी विभाग
गवर्नमेंट आर्ट्स कॉलेज
सीकर,राजस्थान, भारत
सारांश संस्कृति को लोक संस्कृति से और लोक संस्कृति को नारी से पृथक कर के मूल्यांकित कर पाना कदाचित संभव नहीं हो सकता | मानव को सर्वप्रथम संस्कारित माँ के रूप में एक नारी ही करती है तत्पश्चात् यह प्रक्रिया अनवरत चलती है | भारतीय संस्कृति में नारी के योगदान एवं उसके स्थान की यात्रा वैदिक काल से वर्तमान तक बहुत उतार चढ़ाव से परिपूर्ण है, जहाँ उसे अर्श से फर्श तक की अनुभूतियाँ हुई हैं और यह क्रम अभी गतिमान है | अपनी इन्हीं अनुभूतियों को वह समाज, परिवार और संतति को संस्कारित करने, उनके कल्याण एवं प्रगति हेतु तन – मन - धन से आधार बनाकर लोक कथाओं में पिरोती रही है | वस्तुतः नारी संस्कृति की संचालिका कही जा सकती है| लोक कथाओ में नारी के व्यक्तित्व का बहुआयामी चित्रण होता है जहाँ से समाज को आगे बढ़ाने के लिए ऊर्जा प्राप्त होती है |
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद It may not be possible to evaluate culture by separating it from folk culture and folk culture from women. It is only a woman in the form of a cultured mother who first educates a human being, after that this process goes on continuously. The journey of woman's contribution and her place in Indian culture is full of ups and downs from the Vedic period to the present, where she has had experiences from floor to floor and this sequence is still in motion. She has been threading these experiences of hers into folk tales by making basis of her body, mind and wealth to educate the society, family and children, for their welfare and progress. In fact, women can be said to be the drivers of culture. In folk tales, there is a multi-faceted depiction of the personality of a woman, from where energy is obtained to move the society forward.
मुख्य शब्द संस्कृति, उदात्त, मुमुक्षत्व, रहस्यानुभूति, प्रतीकात्मकता, लोक-संस्कृति, तेजस्विता, ओजस्विता, अस्मिता, अनुष्ठान |
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Culture, The Noble, Liberation, Mystery, Symbolism, Folk-Culture, Brilliance, Vigor, Identity, Ritual.
प्रस्तावना
संस्कृति शब्द की निष्पत्ति 'कृ' धातु में ‘सम’ उपसर्ग एवं "वितन प्रत्यय के योग से होती है। संस्कृति, संस्कृत संस्कार में मूल धातु ‘कृ’ है, जिसका अर्थ सम्यक करना, संवारना, शुद्ध करना है। संस्कृति का व्यावहारिक अर्थ ये आदर्श, मानदण्ड एवं रीतिया हैं, जिनके अनुसार मानव अपने विकसित मस्तिष्क, वाणी और पृष्ठभूमि के आधार पर आचरण करता है। दूसरे शब्दों में किसी मानव समूह द्वारा निर्धारित आदर्श, मानदण्ड, रीतियां आदि ही उस मानव-समूह की संस्कृति है। इसी आधार पर वह एक समाज है। अतः प्रत्येक समाज का आधार उसकी संस्कृति है। संस्कृति के प्रभाव से ही व्यक्ति विशेष या समाज ऐसे कार्यों में प्रवृत होता है, जिनमें सामाजिक, साहित्यिक, कलात्मक, राजनीतिक तथा वैज्ञानिक क्षेत्रों में उन्नति होती है।
अध्ययन का उद्देश्य इस शोध पत्र के माध्यम से नारी के विराट व्यक्तित्व के एक छोटे से पक्ष को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है क्योंकि नारी लोक कथाओ की वाहिका है एतदर्थ उसकी अनुभूतियों के इस माध्यम की व्याख्या भी अपरिहार्य प्रतीत होती हैं |
साहित्यावलोकन

कदाचित लोक कथाओं में नारी की अनुभूतियों की पृथक चर्चा कम ही दृष्टिगत होती है किंतु अप्रत्यक्ष रूप से लोक साहित्य में इस का संचरण सूक्ष्म रूप से विद्यमान है| माधुरी शास्त्री की पुस्तक सांस्कृतिक निबंधके अनेक निबंधों में इसे अनुभूत किया जा सकता है| कमलेश कटारिया ने नारी जीवन : वैदिक काल से आज तकमें नारी की विभिन्न अवस्थाओं के साथ उसकी भावुकता को अभिव्यक्त करते समय अनुभूतियों की सापेक्षित चर्चा की है| लोक साहित्य के वातायन से स्त्री का मन कैसे झांकता है यह अनामिका की स्त्री विमर्श का लोकपक्षमें दिखाई देता है| राजेंद्र यादव, एस. के. तूफ़ान, डॉ डी. एन. शर्मा आदि अनेक पुरुष लेखनियों से भी इस विषय पर प्रकाश डाला गया है| इस शोध पत्र का आधार प्रतिभा जैन एवं संगीता शर्मा द्वारा संपादित भारतीय स्त्री : सांस्कृतिक सन्दर्भनामक पुस्तक को माना जा सकता है| लोक कथाओ में नारी अपरिहार्य है ओर नारी में है अनुभूति अपरिहार्य है अतएव इस विषय पर अपने मौलिक विचारों एवं पूर्व लिखित कतिपय साहित्य संदर्भों से प्रेरित होकर लोक कथाओं में नारी अनुभूतिशीर्षक से शोध पत्र लिखा गया है|

मुख्य पाठ

"सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया

सर्वे भद्राणि पश्यन्तु या कश्चिद दुख भाग्भवेत ।"

अर्थात् प्राणीमात्र सुखी हो, निरोगी हो, मंगलदर्शी हो, कोई दुख न हो, सभी सुखी हों। अभिप्राय है कि भारतीय संस्कृति का सर्वोच्च आदर्श मानव मात्र के कल्याण की भावना है। साथ ही उदात्त भावना के घरातल पर खड़ी होकर वह जीवन के सर्वोच्च लक्ष्य की ओर बढ़ने की प्रेरणा भी देती है। भारतीय संस्कृति पहले लौकिक विकास की चरम सीमा को विश्वबन्धुत्व की ओर बढ़ाते हुए प्राणीमात्र को मुमुक्षत्व की ओर जाने का मार्ग प्रशस्त करती है। इस प्रक्रिया में सामाजिक स्तरों का चतुर्वर्ण्य विभाजन प्राचीनकाल से अद्यावधि किसी न किसी रूप में समाज का अनिवार्य अंग है, जिसकी धुरी पर जनविश्वास, रीति-रिवाज, परम्पराएं आदर्श भाषाएं, मत-मतान्तर तथा सामाजिक मूल्य स्थापित हैं।

ऋतु सत्य की भावना, माता-पिता, गुरू, प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, नियम, यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अतिग्रह) तीन ऋण (पितृ ऋषि, देव आश्रम (ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, संन्यास), नैतिक आश्रम, व्यक्तिगत जीवनादर्श, यज्ञ, गुण (सत, रज, तम), संस्कार विधान आदि के मिश्रण से से बनकर खड़ा है भारतीय संस्कृति का भव्य महल। किन्तु पीड़ा के साथ यह कहना भी अपरिहार्य है कि आज केवल सांस्कृतिक एवं आदर्श स्थिति को ही यह परिलक्षित कर पा रहा है और उत्तरोत्तर उसका महत्व घटता जा रहा है। लोक संस्कृति को भारतीय संस्कृति के संदर्भों से ही उठाकर विश्लेषित करना होगा। भारत के विभिन्न प्रांतों की लोक व्याप्त गतिविधियां समग्र रूप से भारतीय संस्कृति का पर्याय एवं प्रारूप बनती है अथवा यही समग्रता विकेन्द्रित होकर लोक-संस्कृति कहलाती है। फिर भी आज का समाज अलम्बरूप से चेष्टा द्वारा तथा समानान्तर पद्धति से आगे भी बढ़ने के लिये स्वतंत्र है। पर किन्हीं अर्थों में स्वतंत्रता नकारात्मक दिशा में भी बढ़ती है।

भारतीय साहित्य एवं कला का उद्गम सभी प्रान्तों में समान ही है यथा- धार्मिक, भावना, नैतिक भावना, रहस्यानुभूति प्रतीकात्मकता इसके आधार कथावस्तु नायक, चरित्र-चित्रण, अलंकार, रस आदि में निहित हैं तथा वैदिक-साहित्य, महाकाव्य, पुराण, बौद्ध साहित्य समग्र भारत में समान रूप से प्रेरणा तथा सामग्री के स्रोत है। हर प्रांत की अपनी विशेष प्रांतीय विशेषता में भी भारतीयता की एक ही परिपाटी और झलक है। जाति, भाषा, उत्सव, व्यवसाय आदि सभी संप्रदायों में अलग होते हुए भी उन्हें अलग कर पाना सरल नहीं है। कठिनाई यह है कि लोक संस्कृति को किसी सांचे विशेष में रखकर देख पाना चीनी में चावल से चुनने जैसा है क्योंकि भारत प्रामाणिक रूप से भौगोलिक, धार्मिक, सांस्कृतिक दृष्टि से एक ही रहा है। विस्तार में महान तथा विभिन्नताओं में मौलिक एकता भारतीय संस्कृति है, जो लोक संस्कृतियों की सौंधी महक से निरंतर महकती रहती है।

नारी : सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य- किसी ने कहा है- 'यदि एक अनंत श्रृंखला में कुछ कड़ियां समझायी जा सकती है, तो उसी पद्धति से सब समझायी जा सकती है। अभिप्राय यह है कि नारी को सांस्कृतिक परिप्रेक्ष्य में विश्लेषित करने के लिये सम्पूर्ण सांस्कृतिक इतिहास को खंगालने की आवश्यकता नहीं है। वैदिककाल से आज तक के कुछ प्रसंग उसकी सांस्कृतिक भूमिका को स्पष्टतः इंगित करने के लिये पर्याप्त है।

वैदिक काल में नारी की दशा और दिशा को अपाला, मैत्रेयी, गार्गी, घोपा आदि विदुषी नारियों, जिन्होंने वेदों में मंत्र भी लिखे, गरूकुल भी चलाए पति को दार्शनिक भी बनाया, निर्धारित करती हैं। महाभारत काल में सत्यवती, कुंती, गांधारी, द्रौपदी की राजनीतिक व सामाजिक सक्रियता स्वयंसिद्ध है। द्रौपदी का प्रतिशोध तो महाभारत के युद्ध का कारण भी बना। वैदिक काल से मुगलकाल तक नारी को शिक्षा का अधिकार होने के कारण समाज में सम्मान मिलता रहा अपना जीवन साथी चुनने तथा प्रेम की स्वतंत्रता का अधिकार भारतीय संस्कृति में आरम्भ से ही नारी को प्राप्त था। नार्यस्तु पूज्यन्ते को अक्षरशः सत्य न भी माना जाये तो यह तो मानना ही होगा कि उसे पद दलित समझने का सिद्धान्त तो भारतीय संस्कृति में नहीं रहा था विदेशी आक्रान्ताओं के व्यभिचार से त्रस्त होकर नारी को पर्दे के पीछे भेजने के मूल में तो उसकी सुरक्षा की ही चिंता रही होगी। गृहलक्ष्मी अथवा गृह स्वामिनी के रूप में वह सम्मान की सदैव अधिकारिणी भी रही है। परिवार या घर, संस्कृति जहाँ से प्रस्फुटित होती है, उसका उत्तरदायित्व नारी ही निभाती आ रही है।

आधुनिक काल में नारी का सांस्कृतिक परिदृश्य कुछ नकारात्मक रंगों से धुंधला सा गया है। यही वह बिन्दु है, जिसकी हम पीछे एक पंक्ति में चर्चा कर आये हैं। वस्तुतः एक लंबा समय घर की चारदीवारी में व्यतीत करने के बाद जब नारी ने बाहर कदम रखा, तो पीढ़ियों का अंतर आ चुका था। हम सोचते हैं कि यह संधिकाल है। जहाँ नारी अपनी भूमिका को पुनः निर्धारित करने की प्रक्रिया में है। जिस प्रकार गुलाब चुनने के लिये कांटों से गुजरना पड़ता है, ठीक उसी प्रकार आज उससे नकारात्मक प्रसंग जुड़े हुए हैं, जो निश्चित रूप से इतने प्रभावी तौर से उसके व्यक्तित्व में सदैव के लिये कदापि समाहित नहीं हो सकते। वस्तुत चक्र पूर्ण होगा क्योंकि नारी फिर वैदिक काल की अपनी भूमिका पर पहुँचने की राह पर है। भारतीय संस्कृति का यह दैदीप्यमान महल इसलिये कुछ मलिन हो गया कि नारी की स्वतंत्रता कुछ संकुचित कर दी गयी थी।

अपेक्षित अनुभूतियों के आधार- समय की शिला पर अपने पदचिन्ह छोड़ने वाले लगभग - हर पुरुष के उदात्त व्यक्तित्व में किसी न किसी नारी का व्यक्तित्व अवश्य ही समाहित रहा है। सत्य तो यह है कि परिस्थिति विशेष में अपने कतिपय अद्वितीय नैसर्गिक गुणों के बल पर स्थितियों को सौम्यता से संभालने और संवारने में नारी बहुत सक्षम है। यह सिद्ध भी होता रहा है। यही कारण है कि प्रायः हर स्थिति और क्षेत्र में उससे की जाने वाली अपेक्षाएं किसी सीमा तक दुश्कर भी रही हैं। नारी के नैसर्गिक गुण यथा दया, ममता, सहिष्णुता, सौम्यता आदि उन अनुभूतियों के आधार बनते हैं, जो लोक संस्कृति में प्रवाहित होती है।

नारी संस्कृति की संचालिका कही जा सकती है। उसके आचार-व्यवहार को, जो उसके व्यक्तित्व का प्रतिबिंब होता है, समाज आदर्श रूप में देखना चाहता है। परिवार का परिष्कार उसी के इर्द-गिर्द बसता है और वहीं से अपनी राह बनाकर समाज के विषद मंच पर पहुँचकर उपस्थिति दर्ज कराता है। इतिहास साक्षी है कि नारी की तेजस्विता, ओजस्विता, अस्मिता और स्वतंत्रता ने संस्कृति को गरिमायुक्त सर्वोच्चता प्रदान की है।

लोक संस्कृति में महिलाओं के प्रति अनुभूतियों के आधार को उनके तीन वर्गों में किये जाने वाले विभाजन से भी समझा जा सकता है। प्रथम वर्ग-राज परिवार की नारी, द्वितीय वर्ग- मध्यम परिवार की नारी एवं तृतीय वर्ग श्रमशीला नारी प्रथम वर्ग ने अपनी उदात्त गरिमा, सौम्यता एवं मर्यादा को जीवंत रखते हुए भी लोक में अपने दायित्वों का निर्वहन करने में कोई कमी नहीं उठा रखी। पुरुष को पिता, भ्राता, पति, बालक, सखा, सेवक आदि लगभग हर रूप में अपने व्यक्तित्व से संभाला और प्रेरित किया है। द्वितीय वर्ग की नारी मुख्यतः गृहिणी अथवा गृहस्वामिनी के रूप में धर्मकर्म में रत रहकर दान-पुण्य करके, सामाजिक उत्सवों में भाग लेकर व्रत-उपवास करके अपना कर्तव्य निभाती है और अपनी क्षमता और श्रद्धा के अनुकूल ही नहीं, अपितु उससे भी अधिक इनके संबंध में आचरण कर, प्रत्यक्षतः अपने परिजन तथा परोक्ष रूप से समाज की मंगल कामना करना, अपना सांस्कृतिक धर्म समझती है। तृतीय वर्ग की श्रमशीला नारी, जिसका नैतिक आचरण और दैनिक जीवन सादगी और संघर्ष से ओत-प्रोत है, अपने पति के कार्यों में सदा से हाथ बंटाती आयी है। यहाँ भी वह अपने मूलभूत गुणों के चलते परिवार के रख-रखाव और परिजनों की सेवा में अतिरिक्त योगदान देती है।

वस्तुतः नारी के प्रयास नींव में रह जाते हैं । इसीलिये यह लोक-संस्कृति में रची-बसी नजर आती है वह सक्षम है, इसीलिये उससे अपेक्षाएं अधिक हैं। हम साधारण मानव की तो बात ही क्या करें स्वयं विधाता ने उसे प्रसव का कष्ट देकर जननी का गौरव प्रदान किया है। कदाचित उसी क्षमता को पहचान कर ही, विधाता की संस्कृति, जिसे विधि का विधान कहते हैं, ने अपनी सर्वोच्च अनुभूति का आधार चुना है। इस विचार के साथ यहाँ मैं यह भी जोड़ना चाहूंगी कि वीणा के तारों का कसाव कहीं अत्यधिक न हो जाये, यह ध्यान देना वर्तमान परिस्थितियों में आवश्यक हो गया है।

लोक कथाओं में नारी का व्यक्तित्व- पहले ही चर्चा की जा चुकी हैं कि कथाओं का स्रोत हमारी धार्मिक, पौराणिक एवं सांस्कृतिक गतिविधियों में निहित है। हमारी संस्कृति की यह अनूठी विशेषता है कि यहाँ नैतिक संदेश कथाओं के माध्यम से दिये जाते हैं। ये कथाएं इतनी स्वाभाविक और सहज होती हैं कि इनके पात्र, घटनाएं आदि श्रोता के व्यक्तित्व में स्वतः समाहित हो जाते हैं। ऐसी कथाओं में नारी का व्यक्तित्व हर प्रकार से प्रेरक और अहम भूमिका निभाता दृष्टिगत होता है। -

माता, बहिन, पत्नी, सखी, प्रेयसी, पुत्री हर रूप में वह अपने व्यक्तित्व के रंगों से लोक कथाओं को सतरंगा बना रही है। भारत की अनेक लोक-कथाओं में जो किसी क्षेत्र- विशेष की नहीं, अपितु पूरे भारत की सभी भाषाओं में प्रचलित है, नारी मानवीय जीवनानुभवों के प्रतीक के रूप में स्थापित है, साथ ही वह लोक-कथाओं की प्रवर्तिका भी है। प्रायः लोक-कथा नारी के मन और कंठ से निकलकर ही लोक-कथा बनती है। जो कथा जनमानस में व्याप्त हो जाती है, वही लोक-कथाएं बन जाती हैं।

रामायण युग की सीता, कैकई, मंथरा, मंदोदरी हो, महाभारत की सत्यवती, कुती, गांधारी, द्रौपदी हो, गोकुल की गोपियां या राधा हो, कालीदास की विद्योत्तमा हो या तुलसीदास की रत्नावली, कण्व ऋषि की पालिता पुत्री शकुन्तला हो या प्रेम पीड़ा की प्रतिमा मीरा, पन्नाधाय हो या जीजा बाई, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई हो या फिर प्रियदर्शनी इंदिरा ही क्यों न हो इनकी कथाएं भारत के किसी भी कोने में लोक कथाओं के रूप में मिल जाएंगी ही अभिव्यक्ति का स्वरूप जरूर पृथक हो सकता है।

इसी प्रसंग को आगे बढ़ाएं तो ढोला की मारू, रामू की चणना, शेरा की रेशमा, फरहाद की शीरी, कैस की लैला, रजिया, अनारकली, मुमताज, जहांआरा, शीलभद्र, सुजान, चिन्मयी, चित्रलेखा, आम्रपाली, भामती, मारूई, रूपण, बीजा, जुलेखा, सारंगा, नीलयिना गोरा आदि लोक-कथाओं की नायिकाओं पर यदि विहंगम दृष्टि डालें तो प्रेम, बलिदान, कष्ट पीड़ा, विरह, वेदना और प्रतारणा के अनेक मार्मिक प्रसंग हृदय को द्रवित कर देने के लिये पर्याप्त हैं। यह सत्य है कि इन सभी को दुश्कर स्थितियों से गुजरना पड़ा, किन्तु इसीलिये वे लोक-कथाओं में अमर होकर आज भी प्रेम की उदात्तता का परचम फहरा रही हैं।

भाई, पति, पुत्र, परिवार को समर्पित करवा चौथ, वट सावित्री, अहोई अष्टमी, संतान-सप्तमी, राखी भाई दौज, नागपंचमी, हरतालिका जैसे त्यौहारों की प्रचलित लोक-कथाओं को व्रत-उपवास पूजन आदि से जोड़ा गया है, जिसका उद्देश्य इन परम्पराओं को पीढियों को हस्तांतरित करना रहा है। दंत कथाएं भी एक मुंह से सुनते-सुनते धीरे-धीरे कानों-कान लोक कथाओं का स्वरूप धारण कर लेती हैं। इन त्योहारों की कथा कहने और सुनने वाली नारी ही होती है। वस्तुतः कथाओं का जन्म नारी मुख से ही हुआ था, उसके पश्चात ही पंचतंत्र, हितोपदेश और कथा सरित्सागर का जन्म हुआ। नारी पुराण और इतिहास के झरोखों से निकलकर लोकमानस में रची-बसी लोककथाओं में किसी निर्मल-निश्छल नदियों की भांति प्रवाहित हो रही है। हर छोटे-बड़े आयोजन, उत्सव और त्यौहार को किसी न किसी अद्भुत एवं दिव्य नारी (देवी) की उपस्थिति और उसका पूजन ही सम्पूर्णता देता है।

लोक-कथाओं में अनुभूतियों का मूल्यांकन- नारी में ही प्रेम, अधिकार, कर्तव्य, धार्मिक अनुष्ठान, सांसारिक गतिविधियां और लगभग समस्त क्रियाकलाप निहित हैं। इसलिये उसे क्षमा, दया, करूणा तथा घृतिरूपेण संस्थिता कहा गया है। ऐसी नारी जिसमें एक नहीं अनेक गुण समाहित होते हैं, वही माता, पत्नी, सखी, सलाहकार बनती है।

निष्कर्ष वस्तुत, नारी के प्रति लोक-कथाओं में जो अनुभूतियां उपलब्ध है, वे इतनी स्वाभाविक, सहज, सम्पन्न और समृद्ध हैं कि उन्हें अपने स्थान से तनिक भी हिलाया गया, तो भारतीय संस्कृति के भव्य महल का एक बहुत सशक्त स्तंभ ढह जाने का डर है। भारत में प्रचलित समस्त लोक-कथाएं, व्रतों और त्यौहारों के माध्यम से कभी मनोरंजन हेतु तो कभी किसी अन्य कारण से जन-जन के कण्ठ में संग्रहित रहती है। वस्तुतः नारी लोक कथाओं की वाहिका बनकर, उन्हें जन्म देकर स्थापित करने वाली है। अतः उनका प्राण वही है। अपनी चर्चा को विराम हिन्दी साहित्य की सुप्रसिद्ध एवं लोकप्रिय नारी महादेवी वर्मा की इन पंक्तियों से देती हैं:- "न जाने इन महलों की नींव में कितनी मीराएं सोई पड़ी हैं। उनमें कोई एक भी अंगारा दहक उठे, तो आप समझिये स्त्री-समाज आमूल रूप से परिवर्तित हो जायेगा। राख के ढेर में यदि एक अंगारा ही बचा हो, तो वह सौ दीयों को जलाने की क्षमता रखता है।"
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. भारत का सांस्कृतिक इतिहास - डॉ. राजेन्द्र पाडेय (पृ. सं. 5, 361) 2. सांस्कृतिक निबन्ध - माधुरी शास्त्री (पृ. सं. 71, 78) 3. आदमी की निगाह में औरत - राजेन्द्र यादव (पृ. सं. 111) 4. नारी जीवन : वैदिक काल से आज तक - कमलेश कटारिया (पृ. सं. 155) 5. नारी : तन मन गिरवी कब तक - के. एस. तूफान (पृ. सं. 186) 6. भारतीय स्त्री सांस्कृतिक : संदर्भ संपादन - प्रतिभा जैन, संगीता शर्मा (पृ. सं. 23, 287) 7. स्त्री विमर्श का लोकपक्ष – अनामिका (पृ. सं. 219) 8. औरत औरत के लिए - नासिरा शर्मा (पृ. सं. 169)