ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- I April  - 2023
Anthology The Research
समसामयिक कला का विश्व स्तर पर प्रयोगात्मक विकास
Globally Experimental Development of Contemporary Art
Paper Id :  17582   Submission Date :  17/04/2023   Acceptance Date :  23/04/2023   Publication Date :  25/04/2023
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शीनू चौहान
पीजीटी (ललित कला)
चित्रकारी विभाग
भुवनेश बाल विद्यालय
कोटा,राजस्थान, भारत
सारांश विभिन्नकालखण्डों की कला के इतिहास में समसामयिक कला सबसे अधिक व्यापक, उद्बोधक व मनोरंजक है, और इसका प्रमुख कारण यह है कि अब कलाकार केवल सर्जक न रहकर स्वंय स्वतन्त्र रूप से विचार करके निर्मिति करने वाला दार्शनिक बन गया है। आरम्भ से ही लेखक की रूचि समसामयिक कला में रही है। इसी को दृष्टि में रखकर लेखक ने ‘‘त्रैवार्षिकी - भारत एक विस्तृत अध्ययन” शीर्षक को निर्धारित किया है। यही वह स्थान है जहाँ प्रत्येक तीन वर्ष में विश्व की समसामयिक कला को अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर तकनीकि, वैचारिकी व प्रयोगात्मक स्तर पर निरीक्षण कर सकते है। त्रैवार्षिकी - भारत की अतिप्रतिष्ठित अन्तर्राष्ट्रीय कला घटना है। यह सम्पूर्ण विश्व की समसामयिक कला का प्रयोगात्मक वैचारिक व तकनीकि विकास को एक सतह पर निरीक्षण करने का स्थान है। पिछले पचास वर्षों में कला के क्षेत्र में काफी परिवर्तन हुए हैं। अगर यहाँ हम भारतीय कला की बात करें तो वह भी काफी आगे बढ़ी है। सबसे पहले तो कला सरफेस (सतह) से बाहर निकली है। अब कलाकार विभिन्न माध्यमों में कार्य कर रहे हैं। नवीन तकनीकों का प्रयोग कर इंस्टालेशन (संस्थापन) कर रहे हैं। इसमें आपको शिल्प और चित्रकला, दोनों के प्रयोग एक साथ मिलते हैं।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Contemporary art is the most comprehensive, evocative and entertaining in the history of art of different periods, and the main reason for this is that now the artist is not just a creator but has become a philosopher who thinks independently and creates. From the very beginning author has been interested in contemporary art. Keeping this in view, author has decided the title "Triennial - India a detailed study". This is the place where every three years contemporary art of the world can be inspected at international level on technical, ideological and experimental level.
Triennial - India's most prestigious international art event. It is a place to observe the experimental ideological and technical development of contemporary art from all over the world on one surface. There have been many changes in the field of art in the last fifty years. If we talk about Indian art here, then it has also progressed a lot. First of all, art has emerged from the surface. Now artists are working in different mediums. Installation is being done using latest techniques. In this you will find the experiments of both craft and painting together.
मुख्य शब्द त्रैवार्षिकी भारत, समसामयिक कला, तकनीकि, वैचारिकी, अन्तर्राष्ट्रीय कला, संस्थापन कला प्रयोगात्मक कला, अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Trevarshiki India, contemporary art, technical, ideological, international art, installation art, experimental art, international exhibition.
प्रस्तावना
गत 50 वर्षो में विश्व में बहुत अधिक परिवर्तन देखने को मिलता है, कला भी उसमें शामिल है। अब यह विचार महत्वपूर्ण नहीं रह गया है कि यर्थाथवादी होने से ही कोई कलाकृति अच्छी होगी या कलाकार अच्छा होगा। विगत वर्षों में यह बात महत्व रखती थी कि समाज से जुड़े कुछ विषयों के सन्दर्भ में कला कार्य किया जाए, परन्तु अब वह बात नहीं रही। आज कला में व्यक्ति का भाव अधिक हो गया है। एक तरह की निजता उसमें प्रधान हो गयी है हर कलाकार अपनी तरह से अपनी बात अभिव्यक्त करता है। अब कलाकार पूर्णरूप से सर्जन के लिए स्वतंत्र हो चुका है तकनीकि तौर पर, वैचारिक तौर पर उस पर किसी भी तरह का कोई बंधन नहीं है। एक तरह से कला स्वतंत्र होकर मुक्त विचरण करने लगी है। एक समय था जब कलाकार सदैव भविष्य की चिन्ता में डूबा रहता था कि पता नहीं पेन्टिग बिकेंगी या नहीं। परन्तु कला बाजार के विकास ने युवा कलाकारों को कुछ नया और सृजनात्मक करने का अवसर दिया है। जहाँ एक तरफ युवा कलाकार कुछ नया और सृजनात्मक कार्य कर रहे है वही दूसरी तरफ वह केवल कला बाजार को ध्यान में रखकर कला कार्य कर रहे है। यहाँ पर लेखक का मत यह है कि मात्र बाजार को ध्यान में रख कर किया गया कार्य कला नहीं हो सकती। इसलिए कला में आ रही इस प्रवृत्ति को सकारात्मक तो नहीं कहा जा सकता। इस प्रकार सभी कलाकार अपनी तरह से चीजों को अभिव्यक्त कर रहे है। इससे कला में काफी विविधता आयी है। इसके साथ यह बात भी सामने आयी है कि कला में तकनीकि विकास के साथ - साथ अब विषय बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गये हैं।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत अध्ययन का उद्देश्य समसामयिक कला का विश्व स्तर पर प्रयोगात्मक विकास का अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

प्रथम त्रैवार्षिकी से ग्यारहवीं त्रैवार्षिकी तक हर त्रैवार्षिकी और अन्य कई अन्य अन्तर्राष्ट्रीय कला आयोजनों में भी नवीन प्रयोगों पर गौर करें तो हम पाएगें कि कला की दुनिया में, तकनीक के प्रयोग के मामले में, अवधारणाओं के बारे में, बहुत अधिक परिवर्तन दिखलाई पड़ता है। यह परिवर्तन दोनों तरह से दिखाई देते है अच्छे भी और बुरे भी। किसे हम अच्छा माने किसे बुरा इस पर सभी का नजरियाभिन्न - भिन्न होगा। परिवर्तन हुए है इस बात पर सभी सहमत होगे।

विश्व की कोई भी अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी हो उसे देखने से हमें एक बात तो स्पष्ट होती है कि ये विभिन्न कलाओं के निकट आने के भी दिन हैं। चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत; नाटक, फिल्म और फोटोग्राफी तथा डिजिटल दुनियाँ और अन्य भी कई तत्व; एक कला से दूसरी कला में प्रवेश कर रहे हैं। रचना-सामग्री के रूप में कला की दुनियाँ में विशेष रूप से कुछ वर्जित नहीं रहा है। ‘छवियाँ‘ तरह-तरह से निर्मित की जा रही हैं और वे अपना नया सौन्दर्य शास्त्र  भी बना रही हैं। 

मुख्य पाठ

1. तकनीकी-

बदलते हुए समय के मुताबिक कला तकनीकों में भी नित्य नए प्रयोग हुए है। चाहे रंगो को विभिन्न तरीकों से प्रयोग करने की विधि हो, कैनवास को नवीन तरीके से प्रस्तुत करने की कला हो या फिर विषय वस्तु को प्रस्तुत करने का अंदाज, हर जगह नई - नई तकनीकी का इस्तेमाल हो रहा है। चित्रों के लिए कम्प्यूटर का इस्तेमाल दुनिया भर के कलाकारों ने नई तकनीक के रूप में बड़ी सफाई से करना शुरू कर दिया है। 10 वीं त्रैवार्षिकी प्रदर्शनी में भारत के आनन्दमय बनर्जी, स्वीडेन के पीटर गेश्चविंड, युगोस्वालिया के दुसन पाटिलग, ब्रिटेन की कैथरिन यास्स आदि के चित्रों में कम्प्यूटर का सुंदर प्रयोग देखने को मिला। ब्रिटेन की कैथरिन यास्स ने तो हिन्दी फिल्मों के नायकों को माध्यम बनाकर उनके पीछे कम्प्यूटर से जिस सफाई से बैकग्राउण्ड तैयार किया है वह अपने आप में एक नया प्रयोग है।(1)

यदि यह कहें कि कला की हर नयी प्रयोग विधि एक नया पाठ तैयार करती हैं, दसवीं त्रैवार्षिकी में सम्मिलित संसार के 30 देशों के कलाकारों के साथ 37 भारतीय कलाकारों का कृतियों में से कुछ में इन दशकों में हुए बदलाव को बहुत स्पष्ट देखा जा सकता है। यह बदलाव सिर्फ कला के ‘विचार’ में ही नहीं, उसकी ‘सामग्री’ में भी है। कला के पिछले संदर्भों के सामने अप्रत्याशित सामग्री और सोच। 10वीं त्रैवार्षिकी के पहले संभवतः इतनी अधिक संख्या और प्रभात में संस्थापन कृतियाँ (इंस्टालेशंस) कभी सम्मिलित नहीं हुई होगी। यही नहीं, अन्तर्राष्ट्रीय ज्यूरी ने जिन नौ कृतियों को पुरस्कृत किया, उनमें सभी संस्थापन कृतियाँ ही थी।(2)

संस्थापन कला की एक विशेषता यह है कि दर्शकों को आकर्षित तो करती ही है साथ ही उन्हें अपने भीतर कैद कर लेती हैं। पुराने समय में दर्शक पेपर, कैनवास आदि पर बने पारंपरिक दृश्यों को केवल एक वस्तु मात्र की तरह देख पाता था। वही आज का दर्शक संस्थापन कला कृतियों के भीतर से ही देखते हैं। सन् 1991 में दिल्ली में संस्थापन का काम नया था और जब शमशाद ने अपने संस्थापनों को प्रस्तुत किया था, तब उनका जोर कृतियों से अधिक उनकी प्रस्तुति के पर्यावरण पर होता था।(3)

प्रयाग शुल्क ने ग्यारवीं भारत त्रैवार्षिकी-में एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था ‘‘कलाओं के आपस में निकट आने के दिन‘‘ में लिखा है कि कलाओं के परस्पर सम्बन्धों के मामले में बहुतेरी चीजें बदल गयी हैं-इसीलिए रचना-सामग्री से ही शुरू करता हूँ-सिरेमिक पॉलिएस्टर; ब्लोन ग्लास; क्ले (मिट्टी); लोहा; सीमेंट; कपड़ा; काठ, पत्थर, कांस्य (ब्रांज) से लेकर डिजिटल प्रिंट; वीडियो प्रोजेक्षन, इलैक्ट्रानिक उपकरणों आदि का प्रयोग बहुत बढ़ा है-और मानों इसी नाते ‘संस्थापनों‘ (इंस्टालेशंस) का भी, जो फिर कई प्रकार के हैं, अत्यन्त रचनात्मक, कलात्मक; नाटकीय, प्रदर्शनी-प्रिय, सतही और कुछ बेमतलब भी। पर इसमें भला क्या सन्देह है कि नयी रचना-सामग्री ने कला की दुनिया में कुछ नये फर्क पैदा किये हैं।(4)

ललित कला अकादेमी द्वारा नई दिल्ली में आयोजित 11वीं त्रैवार्षिक (भारत) 2005 की अतिथि निर्देषक सुषमा बहल से इसके आयोजन चयन प्रक्रिया; विदेशी कलाकारों की हिस्सेदारी; कला का समकालीन रूझान, मीडिया की भूमिका और उनकी कला परिदृश्य में उपस्थिति पर युवा चित्रकार राजेश पाटिल की बातचीत के दौरान पूछे गये प्रश्न समकालीन चित्रकला में अन्वेषण, शोध, नए माध्यम; इंसटालेशन, वीडियो इंस्टालेशन आदि को आप कितना महत्वपूर्ण मानती हैं? समकालीन चित्रकला के नए माध्यमों और क्राफ्ट में कोई विशेष अन्तर नहीं दिखाई देता। आप कैसे देखती हैं कि उत्तर में उन्होंने कहाः मेरे विचार में जो क्राफ्ट ट्रेडिशनल माध्यम है वह भी बदलते हैं, उनमें बहुत उन्नति हुई है। आज की स्थिति में कोई भी मनुष्य या कला जिस स्थिति में थी वैसी नहीं रह पा रही है। हम सब बदलते हैं-धीरे-धीरे किन्तु जो नए माध्यमों का बदलाव है-जैसे इंस्टालेशन, वीडियो इंस्टालेशन, वीडियो ग्राफी उस पर अनायास ज्यादा ध्यान जाता है क्योंकि वह नया है।(6)

भारतीयसमकालीन कलाकार जो इन माध्यमों का उपयोग कर रहे हैं उनमें आप ‘‘पुष्पमाला‘‘ का काम देखिए जो वीडियोग्राफी और फोटो को लेकर काम कर रही है या ‘सुरेखा‘ का काम जिसमें वे वीडियो का उपयोग करतीहै, क्राफ्ट-एम्ब्राइड्री, लोककला; पारंपरिक कला इन सबका भी इस्तेमाल होता है। नए माध्यमों का प्रयोग हमारे क्राफ्ट में जिस तरह हुआ है वह हमारी व्यापक दृष्टि का वृहत क्षेत्रफल में देखने का परिणाम है जिसमें लोगों में क्राफ्ट को लेकर आदर बढ़ा है, लोग प्रशंसा से देख रहे हैं। प्रारम्भ में जिन लोगों के पास नया-नया पैसा आया था वे कॉन्सटेबल या टर्नर के रिप्रोडक्षन का उपयोग करते थे।

अब वे लोग या तो चित्रों का उपयोग करते हैं या क्राफ्ट आब्जेक्ट लगाते हैं, डिजाइनर अब क्रफ्टमैन के साथ मिलकर काम कर रहे हैं ताकि नए डिजाइन नए पैटर्न तैयार हो सकें उसे एक नई दिशा मिले। इससे क्राफ्ट में भी काफी बदलाव आए हैं। जो हमारी पारम्परिक क्राफ्ट है वह पारंम्पिरिक नहीं समकालीन है क्योंकि वह भी समय के साथ बदल रहे हैं। जो हमारे कलाकार हैं वे पहले गाँव में किसी समारोह पर सुख में, दुःख में अपने ही बड़े स्केल पर परफार्म करते थे अब तो शहरों में थियेटरों में परफार्म कर रहे हैं। समकालीन जीवित कलाएं अगर वह कड़ जाती है तो वह मर जाएंगी। हमारे यहाँ कला को जीवन का हिस्सा माना गया है क्योंकि हम कला में जीते हैं। हमारे यहाँ शादी और मृत्यु से संगीत गहरे रूप में जुड़ा है, यह सब जीवित-कलाएं हैं, जिन्हें अभी भी हम जी रहे हैं। कला के क्षेत्र में जो तेजी आई है नई तकनीक और माध्यम आए हैं, इंस्टालेशन, वीडियो, डिजीटल आर्ट आदि रूपों में, उसका क्या प्रभाव पड़ रहा है? प्रश्न पर नीरज गोस्वामी से वेद प्रकाश भारद्वाज (कला आलोचक) की बात-चीत के दौरान उन्होंने कहा-‘‘मैं इन्हें सिर्फ एक तकनीक के रूप में देखता हूँ। यदि कला के विभिन्न तत्वों पर आपकी पकड़ मजबूत है, आप की अभिव्यक्ति में सच्चाई है तो आपकी कला अपना महत्व प्राप्त कर ही लेगी।  तकनीक तो आती-जाती रहती है। नए-नए प्रयोग होते ही रहते हैं पर कला के क्षेत्र में मूल चीज हमेंशा रहती है, जैसे अमूर्तन। वह तो सर्तकालिक, सर्वदेशीय है। कला तो वैश्विक रसानुभूति है। यदि एक कलाकार उस रसानुभूति को समझता है तो बाहरी चीजें, चाहे वे तकनीकी स्तर पर कितनी ही समर्थ क्यों न हो, उसकी अभिव्यक्ति को प्रभावित नहीं कर सकती। लेकिन यदि कोई कलाकार रसानुभूति को, उसकी सही अभिव्यक्ति को नहीं जानता है और केवल तकनीक के प्रभाव में आकर काम करता है वह उसकी कला को निगल जाएगी। मै यह समझता हूँ एक कलाकार को पहले कलात्मक अभिव्यक्ति में परिपक्व होना चाहिए। उसके बाद आप किसी क्षेत्र में, किसी भी तकनीक में काम करें, कोई फर्क नहीं पड़ेगा क्योंकि तब आप जड़ से जुड़े होंगे ओर रस की निष्पत्ति कर रहें होंगे।

नीरज स्वामी जी के विचारों से लेखक सहमत है कि कला में प्रयोग होने वाले नए माध्यम सामग्रियाँ चाहे वह वीडियो के रूप में हों या इंस्टालेशन के रूप में, हो जहाँ कुछ वस्तुओं को सजो कर या फिर उन्हें जमीन पर कला करने का मेरा मत है कि ये सब आज कल चल रही सामाजिक स्थितियों की देन है। इस तरह की कला में उत्तेजना तो है, आजकल की कला में भी वही चाहिए जो उत्तेजित कर सके फिर चाहे संगीत हो या लेखन। आजकल रसानुभूति और शांति तो कहीं भी नहीं दिखाई देती है। कला समाज का आइना होती है। तो जैसा आज का समाज है वैसी ही अभिव्यक्ति हो रही है। आज कल हर क्षेत्र में कुछ नया अलग हट कर करने की होड़ है चाहे फिर तो फैशन हो संगीत या कला, बस दिखाने में उत्तेजना पूर्ण होनी चाहिए, भले ही फिर तो अर्थहीन हो। कला से जो रसानुभूति होती है वह इसमें कहीं नहीं दिखलाई पड़ती है। लेकिन अगर इसके दूसरे पहलू पर नजर डाली जाए तो इस तरह के कला बाजार ने युवा कलाकारों कुछ नया सृजनात्मककरने का अवसर दिया है। इससे हम कुछ सकारात्क सृजन की उम्मीद कर सकते हैं।

विख्यात कलाकार श्री परितोश सेन ने कहा है कि कोई चित्र बना देने से ही कला नहीं बनती, उसमें सृजन होना चाहिए, रस होना चाहिए। जहाँ चित्र बनना खत्म होता है, वहीं सृजनात्मक कला शुरू होती है। चित्र कृति में रस एक एैसी चीज है जिसे समझने में काफी वक्त लगता   है।(6)

दूसरे चरण में दिशा का ज्ञान हुआ। यह ज्ञान हुआ सिर्फ तकनीकी से सृजन संभव नहीं है। यह जाना कि जिस तरह सिर्फ शुद्ध व्याकरण में लिखने से ही साहित्यकता नहीं होती, वह तब होती है जब कोई लेखन आत्मा को आनन्दित या उद्वेलित करे। उसी तरह चित्रकार जीवन-जगत को किस दृष्टि से देखता है। उसके चारों ओर जो हो रहा है उसका उसके मष्तिस्क पर क्या प्रभाव पड़ रहा है और वह अपने सृजनात्मक कार्य में किस भाँति अभिव्यक्ति कर रहे है। उक्त कथन समकालीन कला पर कटाक्ष है।(7)

जहाँ हम समसामयिक कला की विश्व स्तर पर प्रयोगात्मक विकास की बात करते हैं तो साथ में कला बाजार की भी चर्चा करनी होगी। आज के युवा कलाकारों की कला पूर्णतया बाजार से ही प्रभावित है। कला बाजार कुछ वर्षा में बहुत बढ़ गया है और कलाकार उसी की मांग और चलन के अनुसार कला कार्य कर रहे हैं। इसमें सृजनात्मकता कहीं नहीं है। इस विषय पर कई कलाकारों एवं कला आलोचकों ने अपने मत दिए हैं जो इस प्रकार हैं। ‘‘केशव मलिक (कला आलोचक) के मुताबिक कुछ वर्षाें में कला बाजार बहुत बढ़ गया है- आज बाजार में अच्छा काम भी बिक रहा है और खराब काम भी, पर उसकी परख करने का कोई जरिया नहीं है। केवल मंहगा और मशहूर कलाकार का काम ही पसंद आता है। इसी से सहमति जताते हुए जय झरोटिया (कलाकार) का मत है। उन्होंने कहा है कि समय के अनुसार सारी चीजें बदलती रहती हैं।जब हम बच्चे थे तब कलाकारों के बारे में सुनते थे। इनकी पेटिंग की चर्चा नहीं होती थी। यह मानकर चला जाता था कि जो व्यक्ति कलाकार है वह जो कुछ भी करेगा वह कला ही होगी। उसके कलाकार की चर्चा होना बंद हो गयी और उसका काम चर्चा केन्द्र विषय बन गया। वह जमाना भी बीत गया अब न तो कलाकार के कलाकार होने की चर्चा होती है और न ही उसके काम की विषेषता की। अब चर्चा इस बात की होती है कि किस कलाकार की कीमत कितनी है यह कोई नहीं देखता कि उसकी पेंटिग की स्थैटिक वैल्यू क्या है? आज कलाकार अपनी कीमत के कारण पहचाना जाता है।(8)

अलबत्ता एक बात यह बहुत अच्छी हुई है कि कलाकार की उदासीनता टूटी हैं। कला बाजार के विकास में युवा कलाकारों को कुछ नया और सृजनात्मक करने का अवसर दिया है। इससे कुछ सकारात्मक और ऊर्जावान चीजें निकलने की उम्मीदें हैं।

इस पर सुषमा बहल (कला प्रबन्धक) का कहना है कि बाजार और कला के सम्बन्ध में मूल चीज तो कला ही है। कलाकार की संवेदना, उसकी अभिव्यक्ति और मौलिकता सबसे पहले है, बाजार बाद में है। हालांकि अब पहले वाली बात नहीं फिर भी कला के महत्व को नकारा नहीं जा सकता।  बदलते जमाने के साथ बाजार का महत्व भी बढ़ गया है। अब तो इंटरनेट से और नीलामियों के माध्यम से कलाकृतियां बेची जाने लगी हैं। इसका सकारात्मक पक्ष देखे तो आज छोटे से छोटा और नया कलाकार भी बाजार के कारण भूखा नहीं मरता। बाजार के विकास के साथ कलाकारों के लिए कई तरह के अवसर भी बढ़ रहे हैं। भूमण्डलीकरण के इस दौर में कलाकारों को विदेशों में जाने का, वहाँ की कला के अध्ययन का मौका मिल रहा है। कलाकार अन्य देशों की कला प्रवत्तियों से परिचित होने लगे हैं। कला के क्षेत्र में दुनिया में कहीं भी हो रहे प्रयोग से अब वे आसानी से परिचित हो पाते हैं। इससे उनकी कला का विकास हो रहा है और पश्चिम में भारतीय कला को स्वीकृति भी मिलने लगी है।

दूसरी तरफ बाजार के इस विकास का नकारात्मक प्रभाव यह हुआ है कि अब कलाकार नए प्रयोग करने से डरने लगे हैं। सृजन के बजाए बाजार पर अधिक ध्यान है।

अब कला बाजार पर अपना मत रखते हुए जगदीश डे (कलाकार) ने कहा है कि कला बाजार के बढ़ने से लोगों की कला में रूचि बढ़ी है, चाहे जिस कारण से बढ़ी हो। इससे कलाकारों को निश्चित रूप से फायदा हुआ है और युवा कलाकारों को भी फायदा हुआ है, परन्तु एक बात है सिर्फ गिने-चुने कलाकारों की कीमत बढ़ी है। इससे कलाकार, गैलरी आदि को फायदा हो रहा है। इसमें नुकसान यह हो रहा है कि युवा कलाकार भी सोचते हैं कि उनको अधिक कीमत मिलनी चाहिए। कुछ युवा कलाकार इसमें सफल भी हो जाते हैं तो कुछ बहुत कम कीमत पर अपना काम बेचने के लिए मजबूर होते हैं। इससे उनमें हीन भावना जन्म ले लेती है जिसके कारण उनका विकास रूक जाता है। कला बाजार की तेजी का यह एक बड़ा नुकसान है। इसके बावजूद मैं मानता हूँ कि कला बाजार का विकास होना चाहिए। इससे कलाकारों का काम जितने अधिक घरों तक पहुँचेगा उन्हें उतना ही अधिक फायदा होगा और वे उतना ही ज्यादा काम कर पाएंगे। हाँ अचानक तेजी से कीमत बढ़ने का कुछ नुकसान हो सकता है, विशेष रूप से युवा कलाकारों के संदर्भ में क्योंकि अचानक कीमत बढ़ने के कारण वे कला में अपना संतुलन खो सकते हैं और कुछ समय के बाद जब उनके काम को कोई महत्व नहीं देगा तो उनमें हीन भावना घर करने का खतरा रहेगा। कला बाजार का अपना स्थान है। वहाँ केवल नाम बिकता है। परन्तु मेरा यह मानना है कि हमें उन कलाकारों की कृतियों को बढ़ावा देना चाहिए जो कीमत में तो कम है परन्तु कला की दृष्टि से अच्छा कार्य कर रहे हैं।

समकालीन कला की चर्चा करते हुए ‘समकालीन कला‘ कला पत्रिका में ज्योतिष जोशी जो कि उस पत्रिका के संपादक हैं ने अपने संवाद (संपादकीय) लेख में लिखा है कि अमेरिकी कला समीक्षक हैरल्ड रोजेन बर्ग इस बात पर क्षुब्ध दिखाई देते रहे कि हाल के वर्षा में कलाकार की निजी अनुभूतियों और संवेदनाओं की उपेक्षा हो रही है तथा उसे एक संवेदनाहीन तकनीशियन के रूप में देखा जाने लगा है। रोजेन बर्ग ने जब यह चिन्ता व्यक्त की थी तब हालात इतने नहीं बिगड़े थे, जितने आज बिगड़ चुके हैं। कला अपने मूल स्वरूप में तीव्र संवेगात्मक आत्मानुभूति की अभिव्यक्ति है। चाहे वह कोई भी कला हो, अगर उसमें कलाकार का ‘आत्म‘ उसकी ‘स्वानुभूति‘ उसकी कृति में अभिव्यक्ति नहीं हो पाती तो वह वरेण्य नहीं मानी जा सकती। पर यह सचमुच आश्चर्य का विषय है कि कलाकार को उसकी ‘सहानुभूति‘ से ही काटने की कोशिष हो रही है और उसे महज एक संवेदनाहीन कारीगर माना जाने लगा है। रोजेन बर्ग की अस्सी के दशक में व्यक्त की गई यह चिन्ता अब पहले से कहीं अधिक व्यापक हो चुकी है, क्योंकि पिछले तीस वर्षों में दुनियां जितनी बदली है, उतनी वह कई शताब्दियों में भी नहीं बदली थी। अब कृतियों की बाजार निर्धारित करने लगा है और कलाकार स्वयं ‘स्वानुभूति‘ की जगह ‘मांग‘ को कला का अभीष्ट मान बैठा है। ऐसेे में कला के मूलस्वरूप की रक्षा ने केवल कला मर्मज्ञों का दायित्व बनता है, बल्कि वह कलाकारों का भी दायित्व कि वे अपनी स्वाभाविक प्रवत्तियों को किसी भी हाल में न छोड़ें। यह ठीक है कि बिना संतुलित विचार के कृति उत्कृष्टता नहीं पाती, यह भी उतना ही सच है कि रंगों के संयोजन और उनके बर्ताव की कुशलता के बिना कलाकृति को जीवंत नहीं बनाया जा सकता। विचार इस संयोजन में ही होता है, कृति के विषय, कलाकार की प्रतिक्रिया या उसकी चिन्ता, रंगों के चयन, उसके प्रयोग तथा उसकी प्रक्रिया में देखे जा सकते हैं। यह बात भी विचार करने की है कि कला, रूपंकर कला महज दृश्य न होकर कलाकार के अंतः और उसके बाह्य जगत की विराट यात्रा है जिसमें वह अपने लक्ष्य को पाने की अभिराम चेष्टा करता है।

यही कारण है कि प्रायः कहा जाता है कि एक कलाकार जीवन भर एक ही कृति पर काम करता है। एक ही कृति पर काम करना बड़ा कठिन हैं क्योंकि जब तक कलाकार अपने एक विषय को अंसीय नहीं मानता, उसमें दार्शनिक या आध्यात्मिक चिन्तन का सूत्र नहीं देखता तब तक संभव नहीं कि वह जीवन भर एक ही कृति पर काम कर सके। ऐसा उन कलाकारों के लिए संभव नहीं है जो ‘प्रचलन‘ को अपना कलाधर्म मानते हैं या जिनके लिए ‘मांग‘ कला का हेतु बन जाती है। कला कलाकार के जीवन की यातना, संघर्ष, लक्ष्य और उसकी चिन्ताओं में जब नहीं ढलती, तब वह किसी ऐसी कृति की रचना नहीं कर सकता जो दर्शक के मन पर गहराई से उतर जाए।(9) 

जो भी हो परन्तु आज कलाएं बहुत तेजी से बदल रही हैं इसलिए कलाकारों को अपने काम को उसके अनुसार ढ़ालने की जरूरत है। आज इंटरनेट, टी0वी0 के जरिये पूरी दुनिया आपके सामने कमरे में गई है। आज के युवा कलकारों के सामने सम्पूर्ण दुनिया खुली है। जहाँ कठिन चुनौतियाँ हैं वहीं उनके पास अवसर भी असीमित हैं।

इसके विपरीत हम हमारे समाज को देखें तो जिस तरह की घटनाएं हमारें आस-पास घटित हो रहीं हैं और इस पर एक कलाकार भावुक और संवेदनशील होता है और घटनाओं से प्रभावित भी होता है, घटनाएं जो कि अमानवीय, विकृत मनोवृत्ति के प्रदर्शन से भरी हुई हैं। इस पर एक कलाकार मूक दर्शक कैसे बन सकता हैइन घटनाओं के चलते हुए सामान्य रूप से आज के कलाकार अविष्कारक होकर रह गये हैं। वह रचना सामग्री (तकनीक) में ज्यादा रूचि ले रहे हैं-वे आज कम्प्यूटर व इंटरनेट के जरिये चित्रकारी कर रहे हैं और अभिव्यक्ति के लिए नई-नई तकनीकों की खोज कर रहें हैं। वे विचारों पर बिल्कुल ध्यान नहीं देते हैं। इसलिए उनकी नई कृतियाँ अत्याधुनिक तकनीकों का अविष्कार सी प्रतीत होती हैं। आजकल विचारों को अभिव्यक्त करने वाली कृतियों को अनदेखा कर दिया गया है।

निष्कर्ष दसवीं त्रैवार्षिकी के कैटलॉग में समकालीन भारतीय कला पर एक लेख में सतीश गुजराल ने लिखा है कि समकालीन भारतीय कला आज जिन समस्याओं का सामना कर रही है उसमें उन्हें बुद्धिवादी बनाने की एक प्रवृत्ति विद्यमान है। एक कलाकार जिस सामग्री का उपयोग करता है, लेखक उनसे दूर ही रहना चाहेगा क्योंकि एक कलाकार के रूप में अपने लम्बे कैरियर में लेखक कभी भी अपने बुद्धिवाद को भावनात्मक बोध पर हावी नहीं होने दिया। लेखक ऐसा इसलिए कहता है क्योंकि लेखक का पक्का विश्वास है कि प्लास्टिक कला के केवल कलाकारों की अनुभूतियों को अभिव्यक्त करती है, कलाकार के विचारों को नहीं। इसके अतिरिक्त अपनी अनुभूतियों को साकार करने के लिए जिन उपकरणों को प्रयोग करता है उनकी भूमिका भी महत्वपूर्ण होती है। लेखक का विचार यह है कि यह उपकरण कलाकार के कार्य-निस्पादन की प्रक्रिया का प्रभावी अंग है। वह भाषा की तरह सौम्य भूमिका नहीं निभाती अपितु अभिव्यक्ति के सम्पूर्ण अव्यव के जीवंत अंग के रूप में भी कार्य करती है। जैसा कि लेखक ने आगे लिखा है, वह प्रयुक्त सामग्रियों द्वारा निभाई जाने वाली भूमिका का एक विस्तार है। अन्य घटक लेखक के विचार में गौण हैं।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. समकालीन कला, अंक 20, अक्टूबर 2001 / पृ. सं. 47 2. समकालीन कला, अंक 20, 2001, पृ. सं. 47 3. समकालीन कला, अंक 20, 2001, पृ. सं. 41 4. समकालीन कला, अंक 20, 2001, पृ. सं. 41 5. समकालीन कला, अंक 27/2005 पृ. सं.11 6. फ (कला सम्पदा एवं वैचारिकी) फरवरी-मार्च 2005/4 7. समकालीन कला अंक, 27, जुलाई 2005-अक्टूबर 2005, पृ. सं. 3 8. समकालीन कला, अंक 21, फरवरी-मई 2002/पृ. संख्या 43, 44 9. समकालीन कला, अंक 27, जुलाई 2005-अक्टूबर 2005/ पृ. संख्या 48, 49, 50 10. कैटलॉग-10वीं त्रैवार्षिक-भारत (पृ.सं. 15) 11. कैटलॉग-10वीं त्रैवार्षिक-भारत (पृ.सं. 15)