ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VIII , ISSUE- II May  - 2023
Anthology The Research
राम स्वराज्य की गांधीय संकल्पना
Gandhian Concept of Ram Swarajya
Paper Id :  17584   Submission Date :  19/05/2023   Acceptance Date :  23/05/2023   Publication Date :  25/05/2023
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सविता शर्मा
असिस्टेंट प्रोफेसर
राजनीति विज्ञान विभाग
बाबा नारायणदास राजकीय कला महाविद्यालय
चिमनपुरा, शाहपुरा,राजस्थान, भारत
सारांश महात्मा गांधी के चिन्तन का क्षेत्र व्यापक है। उनका व्यक्तित्व बहुआयामीय था। उनका समूचा जीवन विश्व के तीन महाद्वीपों में व्यतीत हुआ। एशिया, यूरोप एवं अफ्रीका ये तीनों महाद्वीप उनकी कर्मस्थली रहे। जीवनपर्यन्त महात्मा गांधी भारतीय समाज व्यवस्था में सुधार एवं उसके पुनर्निर्माण के लिए प्रयोगरत रहे। ग्राम प्रजातंत्र की स्थापना के लिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य की संकल्पना प्रतिपादित की। महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना में ग्राम को पूर्णरूपेण आत्मनिर्भर बनाया जाएगा। वह अपनी महत्व की जरूरतों के लिए पड़ोसी पर निर्भर नहीं रहेगा। प्रत्येक गांव सबसे पहले अपनी आवश्यकता के अनुरूप अनाज एवं कपास स्वयं पैदा करेगा। जानवरों के लिए चारागाह, बच्चों के लिए खेल मैदान, नाटकशाला, पाठशाला एवं सभा भवन होंगे। प्रत्येक गांव के लिए शुद्ध पानी का इंतजाम होगा। बुनियादी शिक्षा से लेकर अन्तिम दर्जे की शिक्षा तक की शिक्षा सभी के लिए अनिवार्य होगी। जाति - पाँति एवं अस्पृश्यता का नामों - निशान नहीं रहेगा। इस तरह महात्मा गांधी एक ऐसे आदर्श ग्राम समाज का निर्माण चाहते थे जो पूर्णरूपेण स्वावलम्बी हो तथा सभी प्रकार के दोषों का परिहार करके आधुनिक समतावादी समाज की स्थापना करता हो।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद The field of thinking of Mahatma Gandhi is wide. His personality was multidimensional. His entire life was spent in three continents of the world. Asia, Europe and Africa, these three continents remained his workplace. Throughout his life, Mahatma Gandhi remained active for the reform and reconstruction of the Indian social system. For the establishment of village democracy, he propounded the concept of village self-rule.
The village will be made completely self-sufficient in Mahatma Gandhi's concept of village self-rule. He will not be dependent on the neighbor for his vital needs. Each village will first produce its own food grains and cotton according to its requirement. There will be pastures for animals, playground for children, play school, school and meeting hall. Pure water will be arranged for each village. Education from basic education to the last level of education will be compulsory for all. There will be no trace of caste and untouchability. In this way, Mahatma Gandhi wanted to build such an ideal village society which is completely self-supporting and establishes a modern egalitarian society by avoiding all kinds of defects.
मुख्य शब्द ध्वंस, नवनिर्माण, ग्राम स्वराज्य, कायिक श्रम, सत्य, अहिंसा, सत्याग्रह, संरक्षकता का सिद्धान्त, स्वदेशी, स्वावलम्बन, सर्वधर्म समभाव, अभिनव शिक्षा पद्धति।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Demolition, Navnirman, Village Swaraj, Physical labour, Truth, Non-violence, Satyagraha, Principle of Guardianship, Swadeshi, Self-reliance, Sarvadharma Sambhav, Innovative education system.
प्रस्तावना
अपनी समाधि में न केवल जीवित रहूँगा । वरन् समाधि के भीतर से अपनी बात कहता रहूँगा ।। -महात्मा गांधी किसी भी देश की राजनीतिक क्रांति के सदैव दो रूप होते हैं - ध्वंसात्मक और रचनात्मक एक देश की शासन व्यवस्था जब तक नष्ट नहीं होती तब तक नव - निर्माण शुरू नहीं होता। लगभग सभी देशों की क्रांति की यही कहानी है। किंतु गांधी जी की क्रांति योजना इससे बिल्कुल भिन्न थी। सन् 1921 में जब गांधी जी ने अंग्रेजो के खिलाफ असहयोग आंदोलन शुरू किया तो उन्होंने ध्वंसात्मक के साथ रचनात्मक कामों पर भी जोर दिया।[1] उदाहरण के लिए गांधीजी ने एक तरफ विदेशी वस्त्रों के बहिष्कार की बात की तो दूसरी और चरखा एवं खादी को भारत के स्वराज्य की कुंजी बताया। अदालतों के बहिष्कार के साथ - साथ पंचायती अदालतें स्थापित करने पर जोर दिया। बुनियादी शिक्षा की बात की। गाँवों के उत्थान के लिए ग्राम स्वराज्य का विचार दिया। उन्होंने इस बात का इंतजार नही किया कि पहले भारत को अंग्रेजों से आजाद कराया जाए और उसके बाद देश के रचनात्मक निर्माण एवम् विकास के लिए निर्माण योजनाएँ बनाई जाए। वे इस तथ्य से भली - भाँति परिचित थे कि भारत एक ग्रामीण कृषि प्रधान अर्थव्यवस्था वाला देश है, जिसकी आत्मा गाँवों में बसती है। अतः ग्रामों के उत्थान के लिए गांधी जी ने ग्राम स्वराज्य का विचार - दर्शन दिया।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोध लेख का उद्देश्य भारत में गांधी जी सपनों के अनुरूप ग्राम प्रजातंत्र की स्थापना को मूर्तरूप देने का है। गांधीय संकल्पना को साकार रूप देने से पूर्व इसकी अवधारणा, मौलिक सिद्धान्तों एवं विशेषताओं का अध्ययन - मनन अपरिहार्य था। इसी शोध उद्देश्य की पूर्ति हेतु उक्त शोध लेख सृजित किया गया है।
साहित्यावलोकन

ग्राम स्वराज्य की गांधीय संकल्पना का सांगोपांग अध्ययन करने के लिए महात्मा गांधी द्वारा लिखी गई पुस्तकें ग्राम स्वराज, स्वराज्य का अर्थ, सर्वोदय, हमारे गाँवों का पुनर्निर्माण, हिंद स्वराज, ग्राम सेवा आदि हैं। प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक काका कालेलकर की ‘‘गांधीजी का रचनात्मक क्रांति शास्त्र, रामजी सिंह: गांधी दर्शन मीमांसा, दादा धर्माधिकारी का स्वराजशास्त्र, गोपीनाथ धवन की  दी पॉलिटिकल फिलॉसॉफी ऑफ महात्मा गांधी प्रमुख हैं। उपरोक्त साहित्य में गांधीजी के विचारों का गहन अध्ययन किया गया है तथा भारतीय समाज के लिए उसकी सार्थकता का विश्लेषण किया गया है।

सामग्री और क्रियाविधि
प्रस्तुत शोध लेख में तथ्यों का एकत्रण, वर्गीकरण एवं विश्लेषण किया गया है। इस हेतु मुख्य रूप से द्वितीयक स्रोत काम में लिए गए हैं। गांधीय दर्शन एक ऐसा विषय है। जिस पर समूचे विश्व में बहुत अधिक कार्य हुआ। अतः शोध विषय की माँग के अनुरूप ही स्रोतों का वर्गीकरण, विश्लेषण किया गया है।
विश्लेषण

ग्राम स्वराज्य की अवधारणा

ग्राम स्वराज्य की अवधारणा को स्पष्ट करते हुए महात्मा गांधी ने हरिजन सेवक में लिखा कि ‘‘ग्राम-स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातंत्र होगा, जो अपनी महत्व की जरूरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं रहेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा - वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर गांव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपडे़ के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिए, जिसमें जानवर चर सकें और गांव के बड़ों एवं बच्चों के लिए मन बहलाव के साधनों और खेलकूद के मैदान वगैरह का बन्दोबस्त हो सके। इसके बाद भी जमीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसल बोएगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तम्बाकू, अफीम वगैरह की खेती से बचेगा। हर एक गाँव में गाँव की अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा-भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इंतजाम होगा - वाटरवर्क्स होंगें-जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुँओं और तालाबों पर गांव का पूरा नियंत्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालिम के आखिरी दर्जे तक शि क्षा सभी के लिए लाजिमी हेागी। जहाँ तक हो सकेगा, गांव के सारे काम सहयोग के आधार पर किए जाएंगे। जात-पांत और क्रमागत अस्पृष्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिल्कुल न रहेंगे।

सत्याग्रह और असहयोग के शास्त्र के साथ अहिंसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन बल होगी। गांव की रक्षा के लिए ग्राम सैनिकों का एक ऐसा दल रहेगा, जिसे लाजिमी तौर पर बारी-बारी से गांव के चौकी - पहरे का काम करना होगा। इसके लिए गांव में ऐसे लोगों का रजिस्टर रखा जाएगा। गांव का शासन चलाने के लिए हर साल गांव के पांच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। इसके लिए नियमानुसार एक खास निर्धारित योग्यता वाले गांव के बालिग स्त्री-पुरूषों को अधिकार होगा कि वे अपने पंच चुन ले। इन पंचायतों को सब प्रकार की आवश्यक सत्ता और अधिकार रहेंगे। चूंकि इस ग्राम-स्वराज में आज के प्रचलित अर्थों में दंड या सजा का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में दंड या सजा का कोई रिवाज नहीं रहेगा, इसलिए यह पंचायत अपने एक साल के कार्यकाल में स्वयं ही धारासभा, न्यायसभा और व्यवस्थापिका सभा का सारा काम संयुक्त रूप से करेगी।

जो चित्र यहाँ उपस्थित किया गया है, उसमें असंभव जैसी कोई बात नहीं है। संभव है, ऐसे गांव को तैयार करने में एक आदमी की पूरी जिंदगी खत्म हो जाये। सच्चे प्रजातंत्र का और ग्राम-जीवन का कोई भी प्रेमी एक गाँव को लेकर बैठ सकता है और उसी को अपनी सारी दुनिया मानकर उसके काम में डूब सकता है। निश्चित ही उसे इसका अच्छा फल मिलेगा। वह गांव में बैठते ही एक साथ गांव के भंगी, कतवैये, चौकीदार, वैद्य और शिक्षक का काम शुरू कर देगा। अगर गांव का कोई आदमी उसके पास न फटके, तो भी सन्तोष के साथ सफाई और कताई के काम में जुटा रहेगा।[2]

गांधीजी की ग्राम - स्वराज्य की परिकल्पना से यह स्पष्ट है कि गांधीजी का व्यक्तित्व बहुआयामीय था। वे संकीर्ण सोच से बंधे हुए नहीं थे। बल्कि वे एक दूरदृष्टा थे। सदियों पार आने वाले विचारों एवं विकास की माँग को वे भली-भाँति जानते थे। समय के आर-पार देखना उन्हें आता था। वे यह जानते थे कि लोकतांत्रिक शासन में जनता के पास मत देने की अभूतपूर्व शक्ति होती है। मत देने की ताकत के अतिरिक्त शासन पर नियंत्रण करने की और कोई शक्ति उसके पास नहीं होती है। अतः लोकतंत्र में जनता अपना शासन स्वयं कर सके अर्थात् लोकतंत्र जनता के द्वार (Democracy at the Door of the People) तक पहुँच सके, इसके लिए सत्ता का विकेन्द्रीकरण किया जाना चाहिए और यह विकेन्द्रीकरण ग्राम स्वराज्य व्यवस्था में ही सम्भव है।

महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका से लौटकर भारत का वर्ष - भर दौरा किया और भारत के गांवो की दुर्दशा देखकर उनके मुख से स्वतः निकला ‘‘हमारे गाँव पैमाल (तुच्छ) हो गए हैं, क्योंकि हम सच्चा अर्थशास्त्र एवं समाजशास्त्र नहीं जानते है।‘‘[3] सन् 1918 में मिस्टर कर्टिस जिन्होंने मांटफोर्ड अधिनियम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, ने अपनी भारत यात्रा के दौरान लिखा था - दूसरे देशों के गांवों के साथ हिन्दुस्तान के गाँवों की तुलना करते हुए मुझे ऐसा जान पड़ा, मानों हिन्दुस्तान के गाँव घूर पर बसाए गए हैं।‘‘[4]

ग्राम स्वराज्य के मौलिक सिद्धान्त

महात्मा गांधी भारतीय गाँवों की असली स्थिति से परिचित थे। इसलिए उन्हें बहुत दुख था और वे इसे बदलना चाहते थे। इसलिए उन्होंने ग्राम स्वराज्य के आदर्श की प्राप्ति के लिए कुछ मौलिक सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जो निम्नानुसार हैं-

मानव का सर्वोच्च स्थान

गांधीजी के मत में मानव को समाज व्यवस्था में सर्वोच्च स्थान दिया जाना चाहिए। सम्पूर्ण दुनियां की अर्थ रचना ऐसी होनी चाहिए जिसमें किसी को भी अन्न एवं वस्त्र का अभाव न हो। अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति को इतना काम अवश्य मिल जाना चाहिए कि वह अपने जीवन की महत्वपूर्ण आवश्यकताएँ पूरी कर सके।

कायिक श्रम

ग्राम स्वराज्य का यह दूसरा मौलिक सिद्धान्त है जो कि शारीरिक श्रम की बात करता है। गांधीजी की यह मान्यता है कि शरीर श्रम न (Bread Labour) करने वाले को खाने का क्या अधिकार हो सकता है। अतः प्रत्येक स्वस्थ व्यक्ति को अपनी बुद्धि की ताकत का प्रयोग रोटी के लिए श्रम में करना चाहिए। इस नियम को गांधीजी ने गीता के तीसरे अध्याय से लिया जिसमें लिखा है कि यज्ञ से बचा हुआ अन्न वही है, जो मेहनत करने के बाद मिलता है। आजीविका के लिए पर्याप्त श्रम को गीता ने यज्ञ कहा है।[5] अतः यदि बिना शारीरिक श्रम किए व्यक्ति भोजन करता है तो वह चोर है।[6]

समानता
प्रत्येक व्यक्ति को अपने व्यक्तित्व एवं जीवन के विकास के लिए अवसर मिले तभी वह अपना सच्चा आध्यात्मिक विकास कर सकता है।[7] अतः सच्चे अर्थशास्त्र को अपनाना चाहिए जो समाज में न्यायपूर्ण वितरण के आदर्श की बात करता है।[8] गांधीजी यह चाहते थे कि स्वराज्य जो कि अहिंसा पर आाधारित के लिए आर्थिक समानता की स्थापना की जानी चाहिए।

संरक्षता
जैसा कि पूर्व में स्पष्ट किया जा चुका है कि महात्मा गांधी की ग्राम स्वराज्य की अवधारणा के मूल में आर्थिक समानता की भावना निहित है। यह तभी स्थापित हो सकती है जबकि संरक्षता का सिद्धान्त अपनाया जाए। संरक्षकता का सिद्धान्त यह कहता है कि व्यक्ति अपने धन का मालिक नहीं है बल्कि ट्रस्टी है। अतः अपनी आवश्यकताएँ पूरी करने के बाद शेष धन को समाज की सेवा और कल्याण में लगाना चाहिए।

विकेन्द्रीकरण
भारत को शासन सत्ता का विकेन्द्रीकरण करना चाहिए ताकि ग्राम्य व्यवस्था सशक्त एवं समृद्ध बन सके, क्योंकि यदि भारत शहर प्रधान होगा तो अत्यन्त शक्ति सम्पन्न जल, थल एवं वायु सेना के होते हुए भी सदैव विदेशी आक्रमण का भय रहेगा।[9]

स्वदेशी

स्वदेशी को गांधीजी ने ब्रिटिश सरकार के विरूद्ध अस्त्र के रूप में उपयोग किया। उन्होंने स्वदेशी को सार्वभौम धर्म के रूप में स्वीकार किया। वे यह मानते थे कि हर मनुष्य का पहला कर्तव्य अपने पड़ोसियों के प्रति है। इसमें परदेशी के प्रति द्वेश नहीं है तथा स्वदेशी के प्रति पक्षपात नहीं है।[10]

स्वावलम्बन
ग्राम स्वराज्य व्यवस्था में नागरिकों में स्वावलम्बन की भावना का विकास होना चाहिए। अतः प्रत्येक गाँव को स्वयं अपने पैरों पर खड़े होना होगा, उसे अपने नागरिकों की समस्त आवश्यकताओं की पूर्ति स्वयं करनी होगी ताकि वह अपना व्यवसाय चला सके। इसके साथ ही उसे अपनी रक्षा स्वयं करनी होगी।[11] अतएव एक स्वावलम्बी गाँव के लिए सबसे पहले यह जरूरी है कि वह अपनी आवश्यकता  के अनुरूप सारा अनाज एवं कपास स्वयं उत्पन्न करे। कपास से वस्त्र बुनाई का कार्य स्वयं करे। उपरोक्त क्षेत्र में स्वयं को आत्मनिर्भर बनाने के पष्चात् प्रत्येक गाँव को इतना सक्षम एवं समृद्ध बनना होगा कि विदेषी आक्रमण के विरूद्ध अपनी रक्षा वह स्वयं कर सके।[12]
सहयोग
सत्याग्रह महात्मा गांधी द्वारा सृजित की गई एवं व्यापक पैमाने पर प्रयोग में ली गई अहिंसक आन्दोलन की एक रणनीति है। गांधीजी का यह विचार है कि सत्याग्रह और असहयोग के शास्त्र के साथ अंहिसा की सत्ता ही ग्रामीण समाज का शासन बल होगी।[13]

सर्वधर्म समभाव

गांधीजी सर्वधर्म समभाव में विश्वास करते हैं। वे समस्त धर्मों की तुलना करते हुए कहते हैं कि सारे धर्म के मूल में एक ही है। यद्यपि वे पेड़ के पत्तों की तरह बाहरी रूप में एवं ब्योरे में अलग - अलग हैं। हर पत्ते का अपना अस्तित्व है, लेकिन वे सब एक तने से फूटते हैं और उसी एक तने का सबका सम्बन्ध होता है। इसके अतिरिक्त कोई भी दो पत्ते एक से ही नहीं होते लेकिन फिर भी आपस में नहीं लड़ते। इसके बजाय वे उसी हवा में खुशी से नाचते हैं और एक साथ एकसा मीठा स्वर निकालते हैं।[14] इसी भाँति सभी धर्म सत्य को प्रकट करते हैं। लेकिन चूंकि वे अपूर्ण मानव के द्वारा व्यक्त किए गए हैं। इसलिए उनमें असत्य का न्यूनाधिक रूप में समावेश हो गया है। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि सभी धर्म परस्पर द्वेष करें। बल्कि उन्हें मिल जुलकर समभाव से रहना चाहिए।
पंचायत राज

ग्राम शासन के प्रबंध के लिए पंचायती राज व्यवस्था की स्थापना की जाएगी। इसके लिए प्रत्येक वर्ष गाँव के पाँच आदमियों की एक पंचायत चुनी जाएगी। पंचो के चयन के लिए मात्र वे ही व्यक्ति अधिकारी होंगे जो निर्धारित योग्यता रखते हैं। अपने एक वर्ष के कार्यकाल में स्वयं ही धारासभा, न्यायसभा और व्यवस्थापिका का सम्पूर्ण कार्य संयुक्त रूप से कर सकेंगे।

अभिनव शिक्षा पद्धति

गांधीजी अपनी शिक्षा पद्धति में बच्चे की शिक्षा का आरम्भ उसे कोई दस्तकारी सिखा कर करना चाहते हैं। जिस क्षण बच्चा अपनी शिक्षा आरम्भ करे, उसी क्षण से वह उत्पादन के योग्य बन जाएगा। इस तरह प्रत्येक स्कूल आत्मनिर्भर बन जाएगा।

निष्कर्ष निष्कर्षतः यह कहा जा सकता है कि विश्व के कल्याण की बात साचने वाले और इसी साध्य की पूर्ति के लिए अपने जीवन की आहुति देने वाले महात्मा गाँधी ने अपने आखिरी वसीयतनामे 29 जनवरी,1947 में अपने एक नोट लिखा - भारत ने राजनीतिक स्वतंत्रता प्राप्त की जी है, लेकिन उसे अभी शहरों और कस्बों से भिन्न अपने सात लाख गाँवों के लिए सामाजिक, आर्थिक और नैतिक स्वतंत्रता प्राप्त करना बाकी है। अपने इस नोट में गांधीजी ने ग्राम स्वराज्य की रूपरेखा स्पष्ट की। ग्राम स्वराज्य की परिकल्पना वस्तुतः एक ऐसी आदर्श व्यवस्था है जिसके माध्यम से सम्पूर्ण समाज का कल्याण सम्भव है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
1. डॉ. पाण्डे बी.एन., गांधी महात्मा: समग्र चिन्तन, गांधी स्मृति एवं दर्शन समिति, नई दिल्ली, वर्ष 1994, पृ. 1-2 2. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 02 अगस्त, 1942 3. बंग ठाकुरदास, असली स्वराज्य, सर्व सेवा संघ प्रकाशन, वाराणसी, 1995, पृ. 8 4. गांधी महात्मा, ग्राम सेवा, सस्ता साहित्य मंडल-प्रकाशन, नई दिल्ली, सन् 1969, पृ.11 5. गांधी महात्मा, सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, सन् 1959, पृ. 40-44 6. गांधी महात्मा, यंग इण्डिया, 13 अक्टूबर, 1921, पृ. 325 7. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 10 नवम्बर, 1946, पृ. 387 8. गांधी महात्मा, यंग इण्डिया, 17 मार्च, 1927, पृ. 83 9. गांधी महात्मा, हरिजन, 30 दिसम्बर, 1939, पृ. 391 10. गांधी महात्मा, सत्याग्रह आश्रम का इतिहास, नवजीवन प्रकाशन मन्दिर, अहमदाबाद, सन् 1959, पृ. 391 11. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 28 जुलाई, 1946, पृ. 236 12. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 02 अगस्त, 1942, पृ. 243 13. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 02 अगस्त, 1942, पृ. 243 14. गांधी महात्मा, हरिजन सेवक, 22 फरवरी, 1948, पृ. 43