ISSN: 2456–4397 RNI No.  UPBIL/2016/68067 VOL.- VI , ISSUE- VI September  (Part-1) - 2021
Anthology The Research
राजनीति एवं धर्म निरपेक्षता
Paper Id :  17577   Submission Date :  16/09/2021   Acceptance Date :  21/09/2021   Publication Date :  25/09/2021
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नीरजा शर्मा
एसोसिएट प्रोफेसर
समाजशास्त्र विभाग
राजकीय महाविद्यालय
धौलपुर,राजस्थान, भारत
सारांश धर्म किसी के आंतरिक विश्वास का विषय है। धर्म मनुष्य के जीवन के सभी पहलुओं को प्रभावित करता है। धर्म सामाजिक जीवन की नींव है। देश के कानूनों के द्वारा धार्मिक परंपराओं और मान्यताओं को प्रमुखता दी जाती है। अतीत में, धर्म शासन का आधार रहा है। हर देश पर धर्म का गहरा प्रभाव है। आधुनिक युग में भी, धर्म का प्रभाव नागरिक जीवन के विभिन्न क्षेत्रों में देखा जा सकता है। भारत में धर्म का भी गहरा और व्यापक प्रभाव रहा है। भारत एक बहु-धार्मिक देश है। हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, जैन, पारसी और अन्य धर्मो के लोग यहां रहते हैं। हिंदुओं की आबादी 82% से अधिक है। बडी संख्या में हिंदुओं के बावजूद, भारत को एक धर्मनिरपेक्ष राज्य घोषित किया गया है। धार्मिक सहिष्णुता और धर्म भारतीय राज्य व्यवस्था की आधारशिला है।
सारांश का अंग्रेज़ी अनुवाद Religion is a matter of one's inner belief. Religion affects all aspects of human life. Religion is the foundation of social life. Religious traditions and beliefs are given prominence by the laws of the country. In the past, religion has been the basis of governance. Religion has a deep impact on every country. Even in the modern era, the influence of religion can be seen in various spheres of civic life. Religion has also had a deep and wide influence in India.
India is a multi-religious country. People of Hindu, Muslim, Sikh, Christian, Jain, Parsi and other religions live here. Hindus constitute more than 82% of the population. Despite the large number of Hindus, India has been declared a secular state. Religious tolerance and religion are the cornerstone of the Indian polity.
मुख्य शब्द धर्म, वैदिककाल, श्रीमद्भगवतगीता।
मुख्य शब्द का अंग्रेज़ी अनुवाद Religion, Vedic Period, Shrimad Bhagwat Gita.
प्रस्तावना
प्रत्येक देश और समाज की एक मूलभूत विशेषता होती है। यह विशेषता उसे प्रकृति द्वारा अपने उद्भव के साथ ही प्राप्त होती है। इस विशेषता के सूत्र सुदूर अतीत में निहित होते हैं, जो अविराम रूप से पीढ़ी दर पीढ़ी उस देश व समाज के घटक व्यक्तियों को विरासत के रूप प्राप्त होते रहते हैं। इस कसौटी पर यह एक 6 असंदिग्ध एवं निर्विवाद तथ्य है कि भारत एक धर्मप्राण देश है। वैदिककाल से ही हमारे यहां चार पुरूषार्थो के धर्म को जहां एक ओर प्रथम पुरूषार्थ माना गया है, वहीं वह शेष तीन पुरूषार्थो का मानदण्ड भी है। ’’धर्म’’ से अभिप्रेत व्यष्टि और समष्टि जगत में प्रत्येक जड़ चैतन्य पदार्थ को अपनी-अपनी मूलवृत्ति के अनुसार कार्य-प्रवृत्त रहकर परस्पर सहयोग और अनुकूलन करना है। इस दृष्टि से ’’धर्म’’ का स्वरूप अत्यन्त ही व्यापक और उदारत है। भगवान कृष्ण ने श्रीमद्भगवतगीता में ’’धर्म’’ की व्याख्या करते हुये प्रत्येक व्यक्ति को अपने-अपने स्वधर्म अर्थात् अपनी मूल प्रकृति निहित गुण-धर्म के अनुसार आचरण करना कहा है। इस संदर्भ में उन्होंने यहां तक कहा है कि अपने ’’धर्म’’ का पालन करते हुये मृत्यु का आलिंगन भी श्रेयस्कर है और इसी क्रम में परधर्म का आचरण अवांछित है। मनुष्य होने के नाते क्षमा, दया, करूणा, सहानुभूति, सहयोग, त्याग, संयम, अपरिग्रह आदि आदर्श धर्म के अंग के रूप में मनुष्य के लिये ग्रहणीय हैं। इसी की परिणति ’’वसुधैव कुटुम्बकम्’’ में होती है, जिसका फलितार्थ ’’जियो और जीने दो’’ के रूप में प्रतिपादित होता है।
अध्ययन का उद्देश्य प्रस्तुत शोधपत्र का उद्देश्य राजनीति एवं धर्म निरपेक्षता का परस्पर अध्ययन करना है।
साहित्यावलोकन

श्रीमद्भगवतगीता में श्री कृष्ण द्वारा अर्जुन को कर्म धर्म जीवन चर्या एवं राजनीति के बारे में जो उपदेश दिए गए वह भारत सहित संपूर्ण विश्व में पूर्ण रूप से लागू है।    

दीपा दास एसएवएडओ भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता कानून हमारे संविधान में सभी धर्मों को समान स्थान एवं सभी धर्मावलंबियों को अपनी पूजा पद्धति के अनुसार धर्म पालन की छूट दी गई है एवं किसी भी धर्म के साथ कोई भी भेदभाव राजनीतिक आर्थिक या सामाजिक रूप से नहीं किया जा सकता ना ही किसी धर्म के प्रति कोई दुराग्रह रखा जाए इस विषय में भारतीय संदर्भ में धर्मनिरपेक्षता के आधार पर जो कानून बने हैं उसकी विस्तृत मीमांसा की गई है।

सिंह और सिंह अपनी पुस्तक भारत में धर्मनिरपेक्षता चुनौती में विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा विभिन्न धर्मावलंबियों को मतदान के समय अपनी और आकर्षित करने एवं वोट पाने के लिए जो धार्मिक आधार पर विभिन्न प्रयास किए गए हैं एवं समय-समय पर तुष्टीकरण की नीति के बारे में जानकारी प्रदान की है साथ ही धर्म के आधार पर राज्यों की स्थापना की मांग आतंकवाद आदि के बारे में भी बताया है।

गुरप्रीत महाजन एवं सुरेंद्र सुरेंद्र जोध का ने धर्म लोकतंत्र और समकालीन भारत में धर्म की राजनीति में भागीदारी और भी भारत में धर्म की राजनीति में भागीदारी और विभिन्न राजनीतिक दलों के द्वारा विभिन्न धर्मावलंबियों को अपनी और आकर्षित करने का प्रयास और उसका प्रभाव इस विषय पर अध्ययन किया।

मुख्य पाठ

पश्चिमी अर्थो में ’’धर्म’’ की संकुचित धारणा

आधुनिक युग में पश्चिमी सभ्यता के प्रवाह व प्रभाव से ’’धर्म’’ के संबंध में अनेक भ्रान्तियाँ उपस्थित हुई हैं। अंग्रेजी शब्द ’’रिलीजन’’ को धर्म का पर्यावरण मानने से अनेक विसंगतियां व समस्यायें हमारे सामाजिक व राजनीतिक जीवन में उपस्थित हुई हैं। वास्तव में ’’रिलीजन’’ का शाब्दिक अर्थ किसी एक विशिष्ट पूजा-पद्धति/मत/मजहब/पंथ/सम्प्रदाय से हैजबकि ’’धर्म’’ से इसका कोई साम्य नहीं है। वस्तुतः अंग्रेजी भाषा में अथवा पाश्चात्य भाषाओं में ’’धर्म’’ के व्यापक और उदारत अर्थ को प्रगट करने वाला कोई शब्द उपलब्ध ही नहीं है। अतः सम्प्रदाय के संवाहक रिलीजन को ’’धर्म’’ में पर्याय मानना सर्वथा असंगत है।

राजनीति में धर्मनिरपेक्षता

मध्य युग में यूरोप के इतिहास में धर्म और राज्य का संघर्ष लगभग एक हजार वर्षो तक चला। राजनीतिक में चर्च अर्थात् इसाई पंथ के हस्तक्षेप के विरूद्ध प्रथम प्रतिक्रिया के रूप में धर्म निरपेक्ष राजनीति का सिद्धान्त सामने आया। वास्तव में यह ’’दो तलवारों के सिद्धान्त’’ की परिणीति व परिष्कार हैजिसके अनुसार राजनीति को किसी भी पंथ या सम्प्रदाय से निर्देशित व नियंत्रित नहीं होना चाहिये। तदनुसार यह मान्यता स्थापित हुई कि मानव जीवन के दो मुख्य अंग हैं -

1. लौकिक और

2. पारलौकिक

रिलीजन का संबंध मानव के पारलौकिक जीवन से है इसलिये उसे इसी क्षेत्र में परिसीमित रहना चाहिये। राज्य का संबंध मानव के लौकिक जीवन से हैअतः इस क्षेत्र में राज्य अमान्य और सर्वोपरि हैजिसकी परिणति राज्य के संप्रभुता संबंधी सिद्धान्त के रूप में प्रतिपादित हुई।

भारतीय संदर्भ में धर्म-निरपेक्षता और राजनीति

भारतीय संस्कृति में मानव जीवन को खण्डों में विभक्त करके नहीं देखा गयाअपितु यह माना गया कि हमारे लौकिक जीवन की परिणति पारलौकिक जीवन की सिद्धि में निहित है। चार पुरूषार्थो में राज्य ’’अर्थ’’ और ’’काम’’ पुरूषार्थों से संबंधित हैकिन्तु उसका अभीष्ट गंतव्य ’’मोक्ष’’ है और कसौटी धर्म है। इसी परिप्रेक्ष्य में भारतीय राजनीति सदा से ही धर्म-निर्देशित व नियंत्रित रही है। आधुनिक युग में हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने राजनीति को धर्म से निर्देशित और नियंत्रित किये जाने का प्रबल समर्थन किया है। उनकी कल्पना का राम राज्य धर्म राज्य ही है। उन्होंने धर्म विहीन राजनीति की कल्पना अमानवीय व अनैतिक परिप्रेक्ष में की है।

भारतीय संविधान और धर्म-निरपेक्षता

भारतीय संविधान निर्माताओं ने धार्मिक स्वतंत्रता के मूलाधिकार के अन्तर्गत यहां सभी उपासना-पद्धतियों को फलने-फूलने व प्रचारित करने की आश्वस्ती प्रदान की है। इसकी पृष्ठभूमि में गांधी जी के ’’सर्वधर्म सद्भाव’’ को परिकल्पना निहित है। वास्तव में प्रत्येक उपासना पद्धति के मूलभूत सिद्धान्त अविरोधी एवं मान्यतावादी हैं।

आपातकाल में 42वें संशोधन के अन्तर्गत संविधान की प्रस्तावना में ’’धर्म निरपेक्ष व समाजवादी’’- इन शब्दों को जोड़ा गया है। धर्म निरपेक्षता का अंग्रेजी मूलपाठ ’’सेक्यूलर’’ शब्द है। जिसका शब्दकोषीय अर्थ ’’लौकिक’’ होता है।

राजनीति के संदर्भ में हम इसे संप्रदाय निरपेक्ष या पंथ-निरपेक्ष कह सकते हैं। जो सर्वमान्य और विवादातीत है। इतिहास के किसी भी युग में मुस्लिम शासन के अपवाद को छोड़कर यहां तक कि ब्रिटिश शासनकाल में भी भारत में राज्य की नीति और आदर्श सदैव से ही संप्रदाय निरपेक्ष रहे हैं। इस प्रकार अपने वास्तुपरक परिप्रेक्ष्य में धर्म-निरपेक्षता का आदर्श हमारी सांस्कृतिकराष्ट्रीयराजनैतिक एवं ऐतिहासिक विरासत के अनुरूप हैऔर तदनुसार ही भविष्य में भी राष्ट्रीय एकतासद्भावना और विश्वास का वातावरण समृद्ध होगा। भारत में सभी राजनैतिक दल इसे स्वीकार करते हैंयद्यपि उनकी व्याख्या और शैली में अन्तर है।

धर्म-निरपेक्षता-सम सामयिक आयाम और आहवान

प्रस्तुत शोध पत्र के शीर्षक से थोड़ा विषयान्तर होते हुए भी इस तथ्य को रेखांकित करना कदाचित् समीचीन होगा कि धर्म निरपेक्षता का वास्तविक अर्थ किसी भी एक या अधिक पंथसंप्रदायजाति या समूह का तुष्टिकरण नहीं हो सकता। चाहे ऐसा करना तात्कालिक राजनैतिक लाभ या सत्ता की राजनीति की सफलता का माध्यम या उपकरण भले ही होकिन्तु इसके दूरगामी परिणाम अवांछित ही होंगे। इस संबंध में राजनीति को संचालित करने वालों के साथ ही लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में सहभागी बुद्धजीवी और युवा वर्ग को पूर्वाग्रह मुक्त सम्यक् एवं संतुलित दृष्टिकोण अपनाना होगातभी हम अपनी राष्ट्रीयता सांस्कृतिक परंपरा के विरासत के सच्चे उत्तराधिकारी व संवाहक हो सकेंगे।

समग्र परिप्रेक्ष्य में आज धर्म निरपेक्ष तथ्यों पुर्नपरिभाषित संतुलित और सम्यक् आदर्श में ग्रहण करने की आवश्यकता है। तदनुसार राष्ट्रीय राजनीति के व्यापक हित में किसी भी जाती संप्रदाय की तुष्टिकरण की नीति को तिलांजलि देना होगा साथ ही हमारी प्राचीन विरासत के अनुरूप सभी विश्वास और उपासना पद्धतियां सह अस्तित्व व सह जीविता के आधार पर फले-फूले यही धर्म निरपेक्षता की सार्थक परिभाषा और सकारात्मक आयाम होगा। राजनीति को इस संबंध में अपनी नियंत्रण और नियमन की भूमिका निरपेक्ष रूप से निभाना होगी तभी धर्म निरपेक्षता अपने सही परिप्रेक्ष्य व अर्थ में राष्ट्र के राजनीतिक व सामाजिक जीवन में प्रतिष्ठित होगी।

निष्कर्ष उपर्युक्त विवेचना से स्पष्ट है कि धर्म के तात्विक परिवेश को ही देखना चाहिए और उसका अनुसरण करना चाहिए। साम्प्रदायिकता और धर्मान्धता एक विष है, जो स्वयं अपने अनुयायियों का विनाश करती है। जो व्यक्ति धर्म के वास्तविक स्वरूप को अपनाता है, वही व्यक्ति सुखी रहता है, जो मानव नहीं है, वह राजनेता होने योग्य नहीं है, क्योंकि धार्मिक व्यक्ति ही कुशल राजनेता है और मानवता का प्रेमी है।
सन्दर्भ ग्रन्थ सूची
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